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कर्मकाण्ड

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श्रीकृष्णस्तोत्र ब्रह्माकृत

श्रीकृष्णस्तोत्र ब्रह्माकृत 

यहाँ श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड से अध्याय-२० और अध्याय- ६९ में ब्रह्मकृत श्रीकृष्ण स्तोत्र दिया गया है,दोनों ही स्तोत्र यहाँ दिया जा रहा है।

अध्याय-२० में जो ब्रह्मा जी के द्वारा किये गये इस श्रीकृष्णस्तोत्र का प्रतिदिन भक्तिभाव से पाठ करता है, वह इहलोक में सुख भोगकर अन्त में श्रीहरि के धाम में जाता है। वहाँ उसे अनुपम दास्यसुख तथा उन परमेश्वर के निकट स्थान प्राप्त होता है। श्रीकृष्ण का सांनिध्य पाकर वह पार्षदशिरोमणि बन जाता है।

श्रीकृष्णस्तोत्र ब्रह्माकृत

श्रीकृष्णस्तोत्रम् ब्रह्माकृतम् १   

ब्रह्मोवाच ।।           

सर्वस्वरूपं सर्वेशं सर्वकारणकारणम् ।

सर्वानिर्वचनीयं तं नमामि शिवरूपिणम् ।। १ ।।

ब्रह्मा जी बोलेजो सर्वस्वरूप, सर्वेश्वर, समस्त कारणों के भी कारण तथा सबके लिये अनिवर्चनीय हैं; उन कल्याणस्वरूप श्रीकृष्ण को मैं नमस्कार करता हूँ।

नवीनजलदाकारं श्यामसुन्दरविग्रहम् ।

स्थितं जन्तुषु सर्वेषु निर्लिप्तं साक्षिरूपिणम् ।। २ ।।

जिनका श्रीविग्रह नवीन मेघमाला के समान श्याम एवं सुन्दर है, जो सम्पूर्ण जीवों में स्थित रहकर भी उनसे लिप्त नहीं होते, जो साक्षीस्वरूप हैं।

स्वात्मारामं पूर्णकामं जगद्व्यापिजगत्परम् ।

सर्वस्वरूपं सर्वेषां बीजरूपं सनातनम् ।। ३ ।।

स्वात्माराम, पूर्णकाम, विश्वव्यापी, विश्व से परे, सर्वस्वरूप, सबके बीजरूप और सनातन हैं।

सर्वाधारं सर्ववरं सर्वशक्तिसमन्वितम् ।

सर्वाराध्यं सर्वगुरुं सर्वमङ्गलकारणम् ।। ४ ।।

जो सर्वाधार, सबमें विचरने वाले, सर्वशक्तिसम्पन्न, सर्वाराध्य, सर्वगुरु तथा सर्वमंगलकारण हैं।

सर्वमंत्रस्वरूपं च सर्वसंपत्करं वरम् ।

शक्तियुक्तमयुक्तं च स्तौमि स्वेच्छामयं विभुम् ।। ५ ।।

सम्पूर्ण मन्त्र जिनके स्वरूप हैं, जो समस्त सम्पदाओं की प्राप्ति कराने वाले और श्रेष्ठ हैं; जिनमें शक्ति का संयोग और वियोग भी है; उन स्वेच्छामय प्रभु की मैं स्तुति करता हूँ।

शक्तीशं शक्तिबीजं च शक्तिरूपधरं वरम् ।

संसारसागरे घोरे शक्तिनौकासमन्वितम् ।। ६ ।।

जो शक्ति के स्वामी, शक्ति के बीज, शक्तिरूपधारी तथा घोर संसार सागर में शक्तिमयी नौका से युक्त हैं।

कृपालुं कर्णधारं च नमामि भक्तवत्सलम् ।

आत्मस्वरूपमेकांतं लिप्तं निर्लिप्तमेव च ।।७ ।।

उन भक्तवत्सल कृपालु कर्णधार को मैं नमस्कार करता हूँ। जो आत्मस्वरूप, एकान्तमय, लिप्त, निर्लिप्त हैं।

सगुणं निर्गुणं ब्रह्म स्तौमि स्वेच्छास्वरूपिणम् ।

सर्वेन्द्रियादिदेवं तमिन्द्रियालयमेव च ।।८ ।।

जो सगुण और निर्गुण ब्रह्म हैं; उन स्वेच्छामय परमात्मा की मैं स्तुति करता हूँ। जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के अधिदेवता, आवासस्थान हैं।

सर्वेन्द्रियस्वरूपं च विराड्रूपं नमाम्यहम् ।

वेदं च वेदजनकं सर्ववेदाङ्गरूपिणम् ।।९ ।।

जो सर्वेन्द्रियस्वरूप हैं; उन विराट् परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। जो वेद, वेदों के जनक तथा सर्ववेदांगस्वरूप हैं।

सर्वमन्तस्वरूपं च नमामि परमेश्वरम् ।

सारात्सारतरं द्रव्यमपूर्वमनिरूपिणम् ।। १० ।।

उन सर्वमन्त्रमय परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। जो सार से सारतर द्रव्य, अपूर्व, अनिर्वचनीय हैं ।

स्वतन्त्रमस्वतन्त्रं च यशोदानन्दनं भजे ।

सन्तं सर्वशरीरेषु तमदृष्टमनूहकम् ।।११ ।।

जो स्वतन्त्र और अस्वतन्त्र हैं; उन यशोदानन्दन का मैं भजन करता हूँ। जो सम्पूर्ण शरीरों में शान्तरूप से विद्यमान हैं, किसी के दृष्टिपथ में नहीं आते, तर्क के अविषय हैं।

ध्यानासाध्यं विद्यमानं योगीन्द्राणां गुरुं भजे ।

रासमण्डलमध्यस्थं रासोल्लाससमुत्सुकम् ।।१२ ।।

जो ध्यान से वश में होने वाले नहीं हैं तथा नित्य विद्यान हैं; उन योगीन्द्रों के भी गुरु गोविन्द का मैं भजन करता हूँ, जो रासमण्डल के मध्यभाग में विराजमान होते हैं, रासोल्लास के लिये सदा उत्सुक रहते हैं।

गोपीभिः सेव्यमानं च तं धरेशं नमाम्यहम् ।

सतां सदैव सन्तं तमसन्तमसतामपि ।।१३ ।।

गोपांगनाएँ सदा जिनकी सेवा करती हैं; उन राधावल्ल्भ को मैं नमस्कार करता हूँ। जो साधु पुरुषों की दृष्टि में सदैव सत और असाधु पुरुषों के मत में सदा ही असत हैं।

योगीशं योगसाध्यं च नमामि शिवसेवितम् ।

मन्त्रबीजं मन्त्रराजं मन्त्रदं फलदं फलम् ।।१४ ।।

जो भगवान शिव जिनकी सेवा करते हैं; उन योगसाध्य योगीश्वर श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ। जो मन्त्रबीज, मन्त्रराज, मन्त्रदाता, फलदाता, फलरूप हैं।

मन्त्रसिद्धिस्वरूपं तं नमामि च परात्परम् ।

सुखं दुःखं च सुखदं दुःखदं पुण्यमेव च ।।१५।।

जो मन्त्रसिद्धिस्वरूप तथा परात्पर हैं; उन श्रीकृष्ण को मैं नमस्कार करता हूँ। जो सुख-दुःख, सुखद-दुःखद, पुण्य हैं।

पुण्यप्रदं च शुभदं शुभबीजं नमाम्यहम् ।

इत्येवं स्तवनं कृत्वा दत्त्वा गाश्च स बालकान् ।। १६ ।।

जो पुण्यदायक, शुभद और शुभ बीज हैं;उन परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ। इस प्रकार स्तुति करके ब्रह्मा जी ने गौओं और बालकों को लौटा दिया ।

निपत्य दण्डवद्भूमौ रुरोद प्रणनाम च ।

ददर्श चक्षुरुन्मील्य विधाता जगतां मुने ।। १७ ।।

तथा पृथ्वी पर दण्ड की भाँति पकड़कर रोते हुए प्रणाम किया। मुने! तदनन्तर जगत्स्रष्टा ने आँखें खोलकर श्रीहरि के दर्शन किये।

ब्रह्मणा च कृतं स्तोत्रं नित्यं भक्त्या च यः पठेत् ।

इह लोके सुखं भुक्त्वा यात्यन्ते श्रीहरेः पदम् ।। १८ ।।

जो ब्रह्मा जी के द्वारा किये गये इस स्तोत्र का प्रतिदिन भक्तिभाव से पाठ करता है, वह इहलोक में सुख भोगकर अन्त में श्रीहरि के धाम में जाता है।

लभते दास्यमतुलं स्थानमीश्वरसन्निधौ ।

लब्ध्वा च कृष्णसान्निध्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ।। १९ ।।

वहाँ उसे अनुपम दास्यसुख तथा उन परमेश्वर के निकट स्थान प्राप्त होता है। श्रीकृष्ण का सांनिध्य पाकर वह पार्षदशिरोमणि बन जाता है।

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे श्रीकृष्णस्तोत्र ब्रह्माकृत विंशोऽध्यायः ।। २० ।।

श्रीकृष्णस्तोत्र ब्रह्माकृत २  

लोकपितामह ब्रह्मा जी शिव, शेष आदि देवताओं तथा मुनीन्द्रों ने उन परिपूर्णतम परमेश्वर श्रीकृष्ण का धरती पर माथा टेक प्रणाम किया और हाथ जोड़ वे का सामवेदोक्त स्तोत्र से स्तवन करने लगे।

श्रीकृष्ण स्तोत्रम् ब्रह्माकृतं

ब्रह्मोवाच

जय जय जगदीश वन्दितचरण निर्गुण निराकार

स्वेच्छामय भक्तानुग्रह नित्यविग्रह ।। १ ।।

ब्रह्मा जी बोले- जगदीश्वर! आपकी जय हो, जय हो। आपके चरणों की सभी वन्दना करते हैं। आप निर्गुण, निराकार और स्वेच्छामय हैं। सदा भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए ही दिव्य विग्रह धारण करते हैं और वह श्रीविग्रह नित्य है।

गोपवेष मायया मायेश सुवेष सुशील शान्त सर्वकान्त

दान्त नितान्तज्ञानानन्द परात्परतर प्रकृतेः

पर सर्वान्तरात्मरूप निर्लिप्त साक्षिस्वरूप

व्यक्ताव्यक्त निरञ्जन भारावतारण करुणार्णव

शोकसेतापग्रसन जरामृत्युभयादिहरण शरणपञ्जर

भक्तानुग्रहकारक भक्तवत्सल भक्तसंचितधन ओं नमोऽस्तु ते ।। २ ।।

माया से गोपवेष धारण करने वाले मायापते! आपकी वेश-भूषा तथा शील-स्वभाव सभी सुंदर एवं मनोहर हैं। आप शान्त तथा सबके प्राणवल्लभ हैं। स्वभावतः इंद्रिय-संयम और मनोनिग्रह से संपन्न हैं। नितांत ज्ञानानन्दस्वरूप, परात्परतर, प्रकृति से परे, सबके अंतरात्मा, निर्लिप्त, साक्षिस्वरूप, व्यक्ताव्यक्तरूप, निरञ्जन, भूतल का बार उतारने वाले, करुणासागर, शोक-संतापनाशन, जरा-मृत्यु और भय आदि को हर लेने वाले, शरणागतरक्षक, भक्तों पर दया करने के लिए व्याकुल रहने वाले भक्तवत्सल, भक्तों के सचित धन तथा सच्चिदानन्दनस्वरूप हैं; आपको नमस्कार है।

सर्पाधिष्ठातृदेवायेत्युक्त्वा वै प्रीणनाय च ।

पुनःपुनःरुवाचेदं मूर्च्छितश्च बभूव ह ।। ३ ।।

सबके अधिष्ठाता देवता तथा प्रीति प्रदान करने वाले प्रभु को सादर नमस्कार है। इस तरह बारंबार कहते हुए ब्रह्मा जी प्रेमावेश से मूर्च्छित हो गये।

इति ब्रह्मकृतं स्तोत्रं यः शृणोति समाहितः ।

तत्सर्पाभीष्टसिद्धिश्च भवत्येव न संशयः ।। ४ ।।

जो ब्रह्मा जी द्वारा किए गये इस स्तोत्र को एकाग्रचित्त होकर सुनता है, उसके संपूर्ण अभीष्ट पदार्थों की सिद्धि होती है; इसमें संशय नहीं है।

अपुत्रो लभते पुत्रं प्रियाहीनो लभेत्प्रियाम् ।

निर्धनो लभते सत्यं परिपूर्णतमं धनम् ।। ५ ।।

इस स्तोत्र से पुत्रहीनों को पुत्र पत्नी या प्रियाहीनों को पत्नी या प्रिया की प्राप्ति होता है । धनाहिनों को भरपूर मात्रा में निश्चित ही धन की प्राप्ति होती है ।

इह लोके सुखं भुक्त्वा चान्ते दास्यं लभेद्धरेः ।

अचलां भक्तिमाप्नोति मुक्तेरपि सुदुर्लभाम् ।। ६ ।।

इस लोक में सुखों को भोगकर उन्हें प्रभु की अचल भक्ति व दास्यभाव को प्राप्त कर अंत में दुर्लभ मोक्ष को प्राप्त होता है ।

इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणम्/खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः) श्रीकृष्ण स्तोत्रम् ब्रह्माकृतं अध्यायः ६९ ।।

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