योनितन्त्र पटल ४

योनितन्त्र पटल ४   

डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला में आगमतन्त्र से योनितन्त्र पटल ३ को आपने पढ़ा अब पटल ४ में योनिपीठ के पूजन का महात्म्य का वर्णन है।

योनितन्त्र पटल ४

योनितन्त्रम् चतुर्थः पटलः

योनितन्त्र पटल ४   

Yoni tantra patal 4  

योनि तन्त्र चौथा पटल 

शिव उवाच-

महाचीन क्रमोक्तेन सर्वं कार्यं जपादिकम् ।

इति ते कथितं देवि योनिपूजा-विधिर्म्मया ।। १।।

सुगोप्यं यदि देवेशि तव स्नेहात् प्रकाशितम् ।

कोचाख्याने च देशे च योनिगर्तसमीपतः ।। २।।

गङ्गायाः पश्चिमे भागे माधवी नाम विश्रुता ।

गत्वा तत्र महेशानि योनिदर्शनमानसः ।। ३ ।।

तत्र चाहर्निशं देवि योनिपूजन- तत्परः ।

भिक्षाचार-प्रसङ्गेन गच्छामि च दिवानिशम् ।। ४।।

महादेव ने कहा- महाचीनाचार या महाचीन तन्त्रोक्त विधानानुसार पूर्वोक्त समस्त पूजा एवं जप समस्त कार्य सम्पन्न करना चाहिए। चीनाचार कथित मत ही यत्कथित योनिपूजा पद्धति मानना चाहिए। यह साधन पद्धति अत्यन्त गोपनीय होते हुए भी केवल मात्र तुम्हारे प्रति अत्यधिक स्नेह के कारण ही मैंने उसे प्रकाशित किया है। कोच नामक देश में गङ्गा के पश्चिम भाग में योनिगर्त के समीप माधवी नामक विख्यात योनिपीठ वर्तमान है। (वर्तमान कामरूप जिला के अन्तर्गत कामाख्यादेवी के मन्दिर को ही माधवी नाम से अभिहित किया जाता अथवा नहीं इसे निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।) योनिदर्शन की आकांक्षा एवं योनिपूजा की अभिलाषा से मैं उस स्थान पर अहर्निश गमन करता हूँ ।।१ - ४।।

माधवी सदृशी योनिर्नास्ति योनि र्महीतले ।

तत्कुचौ कठिनौ दुर्गे योनिस्तस्याः सुपीनता ।। ५।।

भिक्षाचार के प्रसङ्ग में मैं सर्वदा उस स्थान पर जाता हूँ। माधवी सदृश योनिपीठ पृथ्वी पर और दूसरा नहीं है। उस स्थान पर देवी के कुचद्वय कठिन एवं योनि अत्यन्त स्थूल है ।। ५।।

तस्या पूजनमात्रेण शिवोहहं श्रृणु पार्व्वति ।

राधायोनिं पूजयित्वा कृष्णः कृष्णत्वभागतः ।। ६ ।।

श्रीरामोजानकीनाथः सीतायोनि-प्रपूजकः ।

रावणं सकुलं हत्वा पुनरागत्य सुन्दरि ।। ७।।

अयोध्यां नगरीं रम्यां वसतिं कृतवान् स्वयम् ।

समुद्रस्य महाविष्णु र्वेलायां वटमूलतः ।।८।।

हे पार्वति ! इस योनिपीठ पर देवी की पूजा करने से मैंने शिवत्व लाभ किया है। राधा की योनिपूजा करके श्रीकृष्ण ने कृष्णत्त्व प्राप्त किया। सीता की योनि-पूजा के प्रभाव से श्रीराम ने रावण का समूल विनाश पुनः रमणीक अयोध्या नगरी में लौटकर वास किया। समुद्रयोनि का आश्रय लेकर महाविष्णु (जगन्नाथ) ने बेलाभूमि से वटमूल का सहारा लेकर अवस्थान किया था।। ६-८।।

भागिनीयोनिमाश्रित्य बलदेवस्तु भौरवः ।

लक्ष्मया सुदर्शनेनापि तिष्ठत्येकोऽ कुतोभयः ।।९।।

भगिनीयोनि (शक्ति) का आश्रय लेकर बलदेव ने भैरवत्व लाभ किया था तथा लक्ष्मी ने अकूत के भय से सुदर्शन के मध्य अवस्थान किया था ।। ९।।

अहं विष्णुश्च ब्रह्मा च मुनयश्च महाशयाः ।

आब्रह्म-स्तम्बपर्यन्तं योनौ सर्व प्रजायाते ।। १० ।।

योनितत्त्वस्य माहात्म्यं को वेद भुवनत्रये ।

मद्यं मांसं तथा मत्स्यं मुद्रा मैथुनमेव च ।। ११।।

पञ्च तत्वं बिना देवि सर्वञ्च निष्फलं भवेत् ।

सर्वेभ्यश्चोत्तमा वेदा वेदेभ्यो वैश्रणवं परम् ।। १२ ।।

मैं (रुद्र), विष्णु, ब्रह्मा, महामना मुनिगण एवं ब्रह्म योनि के तत्त्व एवं माहात्म्य को इस संसार में कौन जानने में सक्षम है ? हे देवि । मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा, मैथुन - इस पाँच तत्त्वों के बिना समस्त साधना निष्फल है। सभी शास्त्रों में वेद श्रेष्ठ है, वेद से वैष्णव उत्तम हैं। ऐसा व्यक्ति लक्ष्मी के द्वारा भी विचलीत नहीं किया जा सकता एवं सुदर्शन चक्र का भय भी उसे डरा नहीं सकता। वह सर्वथा निर्भय रहता है। (अकुतोभय) जिसे कहीं से भी भय न हो।। १०-१२।।

सव्वेभ्योश्चोत्तमा वेदो वेदेभ्यो वैष्णवः परः ।

वैष्णवादुत्तमं शैवं शैवाद्दक्षिणमुत्तमम् I

दक्षिणादुत्तमं वामं वामात् सिद्धान्तमुत्तमम् ।। १३ ।।

सिद्धान्तादुत्तमं कौलं तत्रापि योनिलम्पटः ।

सूर्यखद्योतयोर्यद्वत् मेरुसर्षपयोरिव ।। १४ ।।

वैष्णव से शैव, शैव से दक्षिणाचारी, दक्षिणाचारी से वामाचारी, वामाचारी से सिद्धान्ताचारी एवं सिद्धान्ताचार से कौलगण श्रेष्ठतर हैं। कौल की अपेक्षा योनिसाधक श्रेष्ठतर है। जिस प्रकार तारों की तुलना में सूर्य एवं सर्षप की तुलना में मेरू पर्वत, उसी प्रकार कौलगण के बीच योनिपीठ के उपासकगण अतुलनीय हैं।।१३-१४।।

कुलीनः सर्वविद्याना मधिकारीति गीयते ।

यदि भाग्यवशेनापि कुलीनदर्शनं लभेत् ।। १५ ।।

भक्ष्यै भोज्यैश्चर संतोष्य प्रार्थयेद् बहुयत्नतः ।

आगच्छ साधक श्रेष्ठ योनिपूजन-तत्पर ।। १६ ।।

तव दर्शनमात्रेण कृतार्थोऽस्मि न संशयः ।

पशुना सह संलापः पशुसंसर्ग एव च ।। १७ ।।

यदि दैवान्महादेवि योनिदर्शन- तत्परः ।

तिलकं योनितत्त्वेन तदा शुद्धो भविष्यति ।। १८ ।।

कुलीनसाधक सभी विधाओं का अधिकारी है। यदि भाग्यवश किसी कुलीन अर्थात् कौल साधक का दर्शन हो जाय तो सर्वप्रथम भक्ष्य एवं भोज्य द्वारा उन्हें सन्तुष्ट कर प्रार्थना करना चाहिए- हे साधक श्रेष्ठ, आप योनिपूजन के लिए तत्पर है। आप मेरे घर आइए। आपके दर्शनमात्र से मैं कृतार्थ हुआ। इसमें रञ्चमात्र भी सन्देह नहीं योनिदर्शन के उपरांत (पाठान्तर के रूप में वचतानुयायी - कुलाचारी) यदि पशु साधक के साथ वार्तालाप करे अथवा पशु साधक के संस्पर्श में आए तो योनितत्त्व के द्वारा तिलक प्रदान करके अपनी शुद्धि सम्पादन करना चाहिए।। १५-१८।।

कुमारी पूजनं दुर्गे कुलीनभोजनं तथा ।

प्रधान द्वयमेवास्मिन् ग्रन्थेहपि च सुनिश्चितम् ।। १९ ।।

अंतःशाक्ता वहिः शैवाः सभायां वैष्णवा मताः ।

नानावेशधराः कौलाः विचरिन्त महीतले ।। २० ।।

कुमारी पूजन (पाठान्तरघृत वाच्यार्थ - कुमारी भोजन) एवं कुलीन भोजन, यही दो योनिपीठ साधनपद्धति लिखित ग्रन्थसमूहों में प्रधान और सुनिश्चत ग्रन्थ हैं। कुलीनसाधक के मन में शाक्तभावसम्पन्न, वह्यिक आचरण में शैव एवं सभास्थल में वैष्णवमतावलम्बीरूप में स्वयं को प्रकाशित करना चाहिए। कुलीन साधक नाना प्रकार के वेश धारण करके पृथ्वी पर विचरण करते हैं ।। १९-२०।।

जन्मान्तरसहस्रेषु यस्य वंशे प्रजायते ।

कुलीनस्तं कुलं ज्ञेयं पवित्रं नगनन्दिनि ।। २१।।

पादप्रक्षालनं यत्र कुलीनः क्रियते यदि ।

तस्य देहश्च गेहञ्च पवित्रञ्च न संशयः ।। २२ ।।

योनिलम्पटः कुलीनश्च यस्मिन् देशे विराजते।

स देशः पूज्यते देवैः ब्रह्म-विष्णु-शिवादिभिः ।। २३ ।।

सहस्रजन्मों में भी जिसके वंश में कोई कौलसाधक जन्म ले, उसके कुल को ही कुलीन एवं पवित्र मानना चाहिए। हे पार्वति ! यदि कौलसाधक किसी के भी घर पैर धोए तो उस व्यक्ति का घर एवं देह पवित्र हो जाता है। जिस देश में योनिपीठ- साधक कौल विद्यमान हो, उस देश की पूजा ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव प्रभृति देवगण भी करते है।।२१-२३।।

कुलीनं प्रति दानञ्च अनन्तायोपपद्यते ।

पशुहस्ते प्रदानञ्च सर्व्वत्र निष्फलं भवेत् ।। २४।।

कुलीनस्य च माहात्मयं मया वक्तुं न शक्यते ।

कुलीनञ्चापि संतोष्य मुक्तः कोटिकुलैः सह ।। २५ ।।

कौलसाधक का जो कुछ मान किया जाय, वही अनन्तफलप्रसविनी होता है। पशुसाधक को जो कुछ दान किया जाता है वह निष्फल हो जाता है। कुलीन को अर्थात् कौलसाधक को दान देने के फल को मैं शब्दों में नहीं वर्णन कर सकता। कुलीन को संतुष्ट करने से व्यक्ति अपने कोटिकुल के साथ मुक्ति लाभ करता है।। २४-२५।।

केवलं कुलयोगेन प्रसीदामि न संशयः ।

चतुर्था श्रमिणां मध्ये अवधूताश्रमो महान् ।। २६ ।।

केवलमात्र कुलसाधक के पास ही अनुग्रह प्रदर्शन करता हूँ। इसमें रञ्चमात्र भी सन्देह नहीं । चतुर्याश्रमी आश्रम में जो अवधूत आश्रय ग्रहण करता है, वह महान् है। चतुर्याश्रमी सन्यासी, सन्यासियों में सर्वश्रेष्ठ वही होता है, जो अवधूत हो (अवधूत आश्रम में हो ) ।।२६।।

तत्राहं कुलयोगेन महादेवत्वमागतः ।

तत्रापि च महादेवि योनिपूजन- तत्परः ।। २७ ।।

तव योनिप्रसादेन त्रिपुरं हतवान पुरा ।

द्रौपदीयोनिमाश्रित्य पाण्डवा जयिनो रणे ।। २८ ।।

इसी कारण मैं कुल योग अवलम्बन में शिवत्वलाभ करता हूँ। तथापि मैं सर्वदा योनिपूजन- तत्पर (सदा सचेष्ट एवं यत्नवान) रहता हूँ। हे महादेवि! तुम्हारी योनि अर्थात् शक्ति प्रसाद के द्वारा मैंने पुराकाल में त्रिपुरासुर का वध किया था।। २७-२८।।

अभावे कन्यकायोनिं वधूयोनिं तथैव च ।

भागिनीयोनिमाश्रित्य शिष्याणांयोनिमाश्रयेत् ।। २९ ।।

प्रत्यहं पूजयेद् योनिमन्यथा मन्त्रमर्च्चयेत् ।

वृथा पूजा न कर्त्तव्या योनिपूजां बिना प्रिये ।। ३० ।।

अन्यथा जपमात्रेण विहरेत् क्षितिमण्डले ।। ३१।।

अन्य योनिपीठ के अभाव में कन्या, वधू, भगिनी अथवा शिष्या की योनि का अवलम्बन करना चाहिए। (शिष्याणी शब्द देखा नहीं सम्भततः शिष्याणां" पाठ हो तदनुसार शिष्यओं (चेली) की योनि अर्थ सम्भव है ) प्रत्यहं योनिपीठ की अर्चना करनी चाहिए, अन्यथा यन्त्र (देवताओं का अधिष्ठान चक्र) की अर्चना करनी चाहिए योनि पूजा से भिन्न अन्य पूजा वृथा नहीं करनी चाहिए। अथवा केवलमात्र जप करते करते क्षितिमण्डल में विचरण करना चाहिए ।।२९-३१।।

इति योनितन्त्रे चतुर्थः पटलः ।। ४।।

योनितन्त्र के चतुर्थ पटल का अनुवाद समाप्त ।

आगे जारी............ योनितन्त्र पटल 5 

Post a Comment

0 Comments