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कर्मकाण्ड

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अवधूत अभिवादन स्तोत्र

अवधूत अभिवादन स्तोत्र

डी०पी०कर्मकाण्ड के इस स्तोत्र श्रृंखला में विद्वान् अमृत-वाग्भव ने इस अवधूत अभिवादन नामक स्तोत्र में अवधूतवृत्ति को कहा है।  

अवधूत अभिवादन स्तोत्र

अवधूताभिवादनम् स्तोत्र

अवधीरित वेष-भाषितानाम्

अमृतावर्षि महानुभाव भाजाम् ।

अवधूत-पदेषु सङ्गतानां

किमु भद्रं किमु वास्त्यभद्रमत्र ॥ १ ॥

विशेष वेष भाषा आदि के प्रति अवहेलना का भाव रखने वाले, अमृत को बरसाने वाले महान् तेज को धारण करने वाले अवधूतों की पदवियों पर पहुंचे हुए महापुरुषों के लिए कौन सी वस्तु भली है और कौन सी बुरी है ?

विशेष - सर्वत्र समदृष्टि से देखने वाले अवधूत प्रत्येक भले या बुरे भाव में अपने स्वात्म-परमेश्वर को ही देखा करते हैं। अतः उनकी दृष्टि में कुछ भी भला-बुरा नहीं, सब शिव ही है ।

कुशलं किमतः परं समृद्ध

यदि मे विभ्रति सन्ततं पुराणम् ।

सुहृदं करुणाणवं स्वरूप

भगवन्तं हृदि पापपङ्कशोषम् ॥ २ ॥

इससे बढ़कर समृद्धि युक्त और क्या कुशल हो सकता है' कि ये अवधूत अपने हृदय के भीतर करुणा के उस समुद्र भूत, उस स्वात्मस्वरूप, पुरातन परमेश्वर को सतत गति से धारण करते रहते हैं, जो सभी का स्नेही मित्र है और पाप रूपी कीचड़ को सुखा देने वाला है।

विशेष अवधूत महापुरुष अपने आत्म-स्वरूप को परमेश्वर ही समझते हैं । परमेश्वरता के ऐसे अभिमान से बढ़कर और कौन सी समृद्धि या कौन सा कल्याण हो सकता है ? अपनी शिव रूपता के अभिमान के उदय होते ही साधक सर्वथा कृतकृत्य पापरहित और आनन्दित हो जाता है ।

नमतां प्रियतां वहन्ति नो ते

न च कुप्यन्त्यवजानतां कदापि ।

विचरन्ति महीतलेऽवधूताः

समतायां हृदयं निधाय नित्यम् ॥ ३ ॥

उन्हें प्रणाम करने वालों से वे प्यार नहीं करते और अवहेलना करने वालों पर नाराज़ कभी नहीं होते । अवधूत महानुभाव अपने हृदय को सदैव समता की स्थिति में ठहरा कर भूमण्डल में घूमते रहते हैं ।

अहितोऽपि हितोऽपि वा न येषां

हृदयं क्षोभयितुं भवेत् समर्थः ।

विससर्ज विधिः सुपेशलांस्तान्

भवसन्ताप-विहानयेऽवधूतान् ॥ ४ ॥

न ही कोई शत्रु और न ही कोई मित्र ही जिनके हृदय में क्षोभ को उत्पन्न कर सकता है, उन अवधूतों की सृष्टि विशेष उदार स्वभाव वाले ब्रह्माजी ने संसार रूपी सन्ताप को नष्ट करने के लिए ही की है ।

विशेष - अवधूत महापुरुष जीवन्मुक्त होते हुए संसृति से मुक्त होते हैं और साथ ही संसार के प्राणियों को भी संसृति से मुक्त होने के मार्ग पर चलाते हैं। इसी प्रयोजन के लिए वे इस संसार में उत्पन्न हुआ करते हैं ।

मदनं हरनेत्र-वह्नि-दग्धं

कृपयाऽम्बाऽङ्कुरित सती चकार ।

अवधूत विमानना-भवेऽग्नौ

पतितं जीवयितुं क एव शक्तः ॥ ५ ॥

भगवान् शिव के नेत्र की अग्नि से जले हुए भस्मीभूत कामदेव को भगवती जगन्माता पार्वती ने कृपा करके पुनः जीवित कर दिया। परन्तु अवधूत महापुरुष का अनादर करने से उत्पन्न हुई अग्नि में पड़े हुए व्यक्ति को भला कौन पुनः जीवित कर सके ?

विशेष-सम्मान से या अनादर से अवधूतों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, न ही उनमें कोई प्रतिक्रिया होती है । परन्तु नियति के नियम के अनुसार उनका अनादर करने वाले पातकी लोगों का वैसा विनाश होता है जिससे उन्हें कोई बचा नहीं सकता ।

मदनोऽपि यदङ्घ्रि-सेवयासा-

वभिमानं निजमुज्झति क्षणेन ।

अवधूय मदं समं समानान्

अवधूतानभिवादयामहे तान् ॥ ६ ॥

हम उन समदृष्टि वाले अवधूतों को प्रणाम करते हैं जिनके चरणों की सेवा करने से कामदेव भी एक साथ ही अपने मद को झाड़ कर अपने अभिमान को भी क्षण भर में ही छोड़ देता है ।

विशेष - कामदेव ने बड़े बड़े ऋषि मुनियों पर, यहां तक कि कैलासवासी शिव पर भी अपना प्रभाव जमा दिया। परन्तु अवधूतों पर उसकी भी कुछ चल नहीं सकती। उनके सम्पर्क में आने पर उसका मद भी चूर हो जाता है और अभिमान भी ।

अवधूत अभिवादन स्तोत्र लेखक परिचय

अधितिष्ठासुरक्षरां ताममृतेनावृतां पुरीं

निगमान्तागमान्त वेत्तुरवधूतस्य सेवकः ।

निरमान्नाकनीर-वर्षे द्विजवर्यो मधौ सिते

परिपूर्णो हि पूर्णिमायामवधूताभिवादनम् ॥ ७ ॥

अमृत से आप्लावित उस अविनश्वर पुरी में रहते हुए निगमों और आगमों के समस्त सिद्धान्तों की गहराई को जानने वाले (महा) अवधूत महामुनि दुर्वासा के उस सेवक रूप श्रेष्ठ ब्राह्मण ने सं० २०१० में चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन अवधूताभिवादन नामक स्तुति का निर्माण किया जो स्वयं परिपूर्ण है ।

विशेष - तात्पर्य यह है कि आचार्य महोदय अपने स्वरूप की परिपूर्णता का अनुभव कर चुके हैं, तभी इस स्तोत्र का निर्माण ऐसी दृष्टि से कर पाए। फिर स्तुतिकर्ता ने तुर्यादशा-रूपिणी अमृतमयी स्थिति में ठहरते हुए इस स्तुति का निर्माण किया। हो सकता है कि इस स्तुति का निर्माण उन्होंने अमृतसर नगरी में किया हो। परन्तु इस विषय में निश्चयपूर्वक कुछ कहा नहीं जा सकता ।

अवधूत पदे तिष्ठन्नवधूताभिवादनम् ।

स्वप्रीत्यं व्यतनोद्रम्यं विद्वानमृतवाग्भवः ॥ ८ ॥

स्वयं अवधूत स्थिति में ठहरे हुए विद्वान् अमृत-वाग्भव ने अपने आनन्द के लिए इस अवधूताभिवादन नामक स्तोत्र का निर्माण किया ।

'कृतिरियमाचार्य श्रीमदमृतवाग्भवस्य ।

यह आचार्य श्रीमद् अमृतवाग्भव की कृति है ।

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