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कर्मकाण्ड

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त्रिगुणेश्वर शिव स्तोत्र

त्रिगुणेश्वर शिव स्तोत्र

डी०पी०कर्मकाण्ड के स्तोत्र श्रृंखला में आचार्य अमृतवाग्भव द्वारा निर्मित स्तोत्र श्री त्रिगुणेश्वर शिव स्तोत्र का पाठ करने से शीघ्र ही सभी मनोरथ सिद्ध होता है ।

श्री त्रिगुणेश्वर शिवस्तोत्रम

श्री त्रिगुणेश्वर शिवस्तोत्रम्

Shri Triguneshvar Shiv stotra

आदर्श चिक्कणकपोल तलं सुनासं

चञ्चद बृहच्छ्रवयुगं स्वलिनीलकण्ठम् ।

भोगोपम-प्रथित-सुन्दर-दीर्घ बाहुं

पद्मासने समुपविष्टमहं स्वतुष्टम् ॥ १ ॥

विशेष- तीसरे श्लोक में स्थित--

ध्यायामि तं हृदि शिवं त्रिगुणेश्वरं स्वम् ।

इस वाक्य के ही साथ तीनों श्लोकों में दिए गए गए द्वितीया विभक्ति से युक्त सभी पदों का सम्बन्ध है । अर्थ यह है कि "मैं इस प्रकार के त्रिगुणेश्वर शिव का ध्यान अपने हृदय में कर रहा हूं।

मैं उस त्रिगुणेश्वर शिव का ध्यान अपने हृदय में कर रहा हूं जिसके कपोलतल दर्पण के समान चिकने और चमकीले हैं, जिसकी नाक बहुत सुन्दर है, जिसके दोनों बड़े बड़े कान चमकते रहते हैं, जिसका कण्ठ सुन्दर भौंरों के समान नीलवर्णं का है, जिसके लम्बे-लम्बे और सुन्दर बाजू अजगर के शरीर के समान मोटे और विशाल हैं, जो पद्मासन में बैठा हुआ है और अपने में ही सन्तुष्ट है ।

शान्तं त्रिनेत्रमलिकेब्ज-कलां वहन्तं

नागेन्द्र-चर्म-वसनं भुजगोपवीतम् ।

अन्तर्बहिश्च रमणीयतम-स्वरूपं

विद्यामृता भयवराऽऽश्रयदानदक्षम् ॥ २ ॥

मैं अपने हृदय में उस त्रिगुणेश्वर शिव का ध्यान करता हूं जो शान्त है, जिसके तीन नेत्र हैं, जो हाथी की ताजा चमड़ी को ही वस्त्र के रूप में पहनता है, जो माथे पर चन्द्रमा की कला को धारण किए हुए है, सांपों को ही जिसने यज्ञोपवीत के रूप में पहना है, जिसका स्वरूप भीतर से भी और बाहर से भी बहुत अधिक रमणीय है, और जो विद्या को, अभयता को तथा आश्रय को देने में अतीव निपुण है।

विशेष - परमेश्वर शिव का अन्तर्मुख स्वरूप आनन्दमयी शुद्ध चेतना है जिसके समान और कोई भी वस्तु कहीं भी मनोरम नहीं है । उनका बहिर्मुख रूप तो अनन्त ब्रह्माण्डों वाला यह सारा प्रपञ्च है जिसका सौन्दर्य भी अनुपम ही है। संसार से मुक्ति शिव ही देते हैं। मुक्त जीव फिर कभी नहीं मरता है। इस तरह से मुक्ति दशा ही अमृत है जिसे देने में वे चतुर हैं ।

गौरीं गणेशसहितां दधत निजाङ्के

गौर प्रसन्नमुखमम्बुज-लोचनाढ्यम् ।

गङ्गां स्वमूर्धनि जटापटले दधानं

ध्यायामि तं हृदि शिवं त्रिगुणेश्वरं स्वम् ॥३॥

भगवती गौरी को गणेशजी के समेत अपनी गोद में धारण करने वाले, गौरवर्ण वाले, प्रसन्न मुख वाले, कमल के समान सुन्दर नेत्रों से युक्त और अपने सिर पर जटाओं के समूहों के भीतर गंगाजी को धारण करने वाले मेरे अपने स्वात्मस्वरूप तथा त्रिगुणमय प्रपञ्च के ईश्वर उस शिव का ध्यान मैं अपने हृदय में कर रहा हूँ ।

विशेष - शिव ही स्वयं जीवों के रूप में प्रकट होता रहता है । अतः अद्वैत दृष्टि से सम्पन्न साधक उसे स्वात्मस्वरूप ही समझता है । इसीलिए उसे स्वम्' ऐसा कहा गया है।

ब्रह्मा हरिहर इति त्रिगुणीमतीत्य

यस्तन्मयो वरकलो जयति त्रिलोक्याम् ।

विश्व-प्रपञ्च रचना-चतुराय मह्यं

तस्मै नमो भगवते त्रिगुणेश्वराय ॥ ४ ॥

जो त्रिगुणात्मक ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र इन तीन कारणों से तो उत्तीर्ण है और जो उन तीनों कारणों के रूप में ठहरता है, जिसकी सृष्टि संहार आदि की कला अतीव उत्तम है, वही त्रिलोकी में सर्वश्रेष्ठ है, अतः उसी की  जयकार हो । विश्वात्मक प्रपञ्च की रचना करने में चतुर उस मेरे स्वात्मस्वरूप भगवान् त्रिगुणेश्वर को हमारा प्रणाम हो ।

विशेष - तीन गुणों में से रजोगुण का स्वभाव होता है प्रवृत्ति । उससे सृष्टि होती है । जिसका सम्पादन ब्रह्माजी करते हैं । तमोगुण का स्वभाव होता है भारीपन और प्रवृत्ति का ढीलापन । उससे सृष्ट जगत् कुछ समय के लिए ठहरा रहता । इस स्थिति के मुख्य देवता हैं भगवान विष्णु । प्रमेय जगत् को प्रमातृतत्त्व में लय करने को संहार कहते हैं। उससे आत्म आनन्द निखर उठता है । ऐसा स्वभाव सत्त्वगुण का होता है क्योंकि वह सुखमय है। इस संहार के मुख्य देवता भगवान् रुद्र हैं। इन तीन कारणों में एक एक गुण की प्रधानता है । इसीलिए इनके शरीर भी तीन रंगों के होते हैं, क्योंकि रजोगुण को लाल, तमोगुण को सांवला और सत्त्वगुण को श्वेत माना जाता है। तीनों ही गुणों के ईश्वर शिव इन तीनों से परे हैं और इन तीनों के रूप में प्रकट होते रहते हैं। सिद्धों की दृष्टि में वस्तु- स्थिति ऐसी ही है ।

फिर वे त्रिगुणेश्वर शिव आचार्य महोदय के स्वात्मस्वरुप ही हैं। इसीलिए उनके लिए "वरकलो" ऐसे शब्द का प्रयोग किया गया है। आचार्य महोदय के वंश का नाम तो वरकल (वड़कले) ऐसा ही है । इसी दृष्टि से "मह्यम्' कहा गया है।

यं वैद्यनाथ इति वैद्यजना वदन्ति

मृत्युञ्जयं यमिह मर्त्यजनाः स्तुवन्ति ।

शंकांक्षिणः स्वमिह शङ्करमामनन्ति

तस्मै नमो भगवते त्रिगुणेश्वराय ॥ ५ ॥

जिस शिवजी को वैद्य लोग वैद्यनाथ कहते हैं, इस संसार में मर्त्यप्राणी 'मृत्युञ्जय' इस नाम से जिसकी स्तुति करते हैं, परम कल्याण रूपी शान्ति को चाहने वाले जिस स्वात्मस्वरूप शिव को शंकर कहते हैं उसी त्रिगुणेश्वर भगवान् शिव को प्रणाम हो ।

विशेष - वैद्यनाथ आचार्य महोदय का अपना नाम था। इस नाम से स्वात्मस्वरूप शिव को प्रणाम किया गया है।

वाचो बृहस्पतिममुं निगदन्ति तिस्रो

वेदत्रयी सततमेनमिह स्तवीति ।

अग्नित्रयी ज्वलति यं श्रितवत्यजस्रं

तस्मै नमो भगवते त्रिगुणेश्वराय ॥ ६ ॥

वैखरी आदि तीनों ही वाणियां उसे बड़े-बड़े भुवनों और भुवनेश्वरों का पति बताती हैं। तीनों वेद सदैव उसकी स्तुति करते हैं । फिर जिसका आसरा ले करके ही तीनों होम अग्नि सदा जलते रहते हैं उस भगवान् त्रिगुणेश्वर को हमारा प्रणाम हो ।

विशेष -तीन वाणियां वैखरी, मध्या और पश्यन्ती यहां अभिप्रेत हैं। चौथी परावाणी में शब्द और अर्थ में परस्पर भेद होता ही नहीं। धर्म के प्रतिपादक तीन वेद-ऋक्, साम और यजुः हैं। चौथा वेद अथर्व तो व्यावहारिक ज्ञान का ही प्रतिपादक हैं। तीन होम- अग्नि हैं गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि ।

धामत्रयी परमधामनि सापि यस्मिन्

विश्रान्तिमेति परनिर्वृतिभावरम्ये ।

स्वेभ्यो ददाति कृपया तदपि प्रसन्नस्

तस्मै नमो भगवते त्रिगुणेश्वराय ॥ ७ ॥

वे गार्हपत्य आदि तीनों होम अग्नि भी, अथवा शास्त्रों में प्रसिद्ध प्रमाणप्रमेय-प्रमाता रूपी तीनों ही तेज जिस परम आनन्दरूपता से अतीव रमणीय बने हुए चित्प्रकाश रूपी परम नितेज में ही विश्रान्ति को प्राप्त करते हैं, उस परम तेज को सभी जो प्रसन्न होने पर कृपा करते हुए अपने भक्तों को दे दिया करते हैं, उस भगवान् त्रिगुणेश्वर को हमारा प्रणाम हो ।

विशेष- सैद्ध दर्शन की परम्परा में प्रमाण को सूर्य, प्रमेय को चन्द्रमा और प्रमाता को अग्नि नाम दिये गये हैं। तीनों का ही आधार परमेश्वर चित् प्रकाश है जो स्वभाव से ही आनन्द घन है । भगवान् शिव अपने भक्तों को उसी चिदानन्दघन प्रकाशरूपता की स्थिति पर पहुँचा देते हैं ।

शक्तित्रयी घनतयाsssश्रयते यतोऽमुं

तुर्योऽपि पञ्च तनुते सततं कृतीः स्वाः ।

पञ्चाननः सुरनराऽसुरसङ्घ-पूज्यस्-

तस्मै नमो भगवते त्रिगुणेश्वराय ॥ ८ ॥

क्योंकि इच्छा आदि तीन शक्तियाँ एक घन रूप में ठहर कर उसी का आश्रय लेती हैं इसीलिए वह चौथा अर्थात् अद्वैत चित् प्रकाश रूपी तुरीय तत्व होता हुआ भी सतत गति से अपने सृष्टि आदि पाँच पारमेश्वरी कृत्यों को विकास में लाया करता है । पञ्च शक्ति रूपी पाँच मुखों वाला जो परमेश्वर देवताओं, असुरों और मनुष्यों के समूहों के द्वारा पूजित होता रहता है उस भगवान् त्रिगुणेश्वर शिव को हमारा प्रणाम हो ।

विशेषइच्छा, ज्ञान और क्रिया तीन शक्तियां हैं। परमेश्वरता से सम्पन्न चित् प्रकाश की स्थिति में ठहरना तुरीया दशा कहलाती है । परमेश्वर के पांच परमेश्वरी कृत्य हैं- (१) सृष्टि, (२) स्थिति, (३) संहार, (४) विधान (स्वरूप गोपन) और (५) अनुग्रह (स्वरूप- प्रकाशन) । शिवजी के पांच मुख होते हैं (१) ईशान, (२) तत्पुरुष, (३) सद्योजात, (४) वामदेव और (५) अघोर। इनमें क्रम से चित्, आनन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रिया, इनमें से एक एक शक्ति की अभिव्यक्ति प्रधानतया होती है। देवता सत्त्व गुण प्रधान, मानव रजोगण प्रधान और असुर तमोगुण प्रधान होते हैं।

वभूत्यवांस्त्रिदिव- सेवित-पादपोऽद्य

नाकार्थिनां विजयते सुखदः परोऽर्थः ।

वह्नीन्दु-सूर्य-नयनः परमार्थसार-

कल्पः श्रियेऽस्तु स सतां त्रिगुणेशलीलः ॥९ ॥

आज उस त्रिगुणेश्वर भगवान् शिव की जय जयकार की जा रही है जो समस्त ऐश्वर्य से युक्त हैं, देवताओं के द्वारा पूजित हुए अपने पैरों से ही जो भक्तों की रक्षा करते हैं, स्वर्ग को चाहने वालों को जो अभीष्ट सुख देने वाले हैं, जो ही वास्तविक परमार्थ तत्त्व हैं, सूर्य चन्द्रमा और अग्नि जिनके नेत्र हैं तथा जो समस्त विश्व के पारमार्थिक सार के तुल्य हैं। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र के रूप में तीन गुणों के स्वामी बनते हुए जो अपनी लीला का अभिनय करते रहते हैं वे ही भगवान् त्रिगुणेश्वर शिव सज्जनों की लक्ष्मी का वर्धन करें।

त्रिगुणेश्वर शिव स्तोत्र लेखक परिचय

स्वनिर्मितेन स्तोत्रेण प्रीणयंस्त्रिगुणेश्वरम् ।

शमिच्छति समस्तानामाचार्यामृतवाग्भवः ॥ १० ॥

स्वयं निर्मित स्तोत्र के द्वारा त्रिगुणेश्वर शिव को प्रसन्न करते हुए आचार्य अमृतवाग्भव सभी का कल्याण चाहते हैं।

विशेष इस स्तोत्र का निर्माण दिल्ली में वि. सं० २०२२ में त्रिगुणेश्वर शिव मन्दिर की प्रतिष्ठा के अवसर पर किया गया।

इति श्री त्रिगुणेश्वर शिवस्तोत्रम् आचार्यामृतवाग्भव विनिर्मितम् ।

यह आचार्यामृतवाग्भव के द्वारा निर्मित त्रिगुणेश्वर शिवस्तोत्र है ।

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