श्रीराधा सप्तशती अध्याय ७ भाग २

श्रीराधा सप्तशती अध्याय ७ भाग २    

इससे पूर्व आपने डी०पी०कर्मकाण्ड के श्रीराधा सप्तशती श्रृंखला के अध्याय ७ का भाग १ पढ़ा, अब उससे आगे भाग २ में पढेंगे । पुनः सभी विद्वत पाठकों से निवेदन कि- मेरे पास जो श्रीराधा सप्तशती की प्रति उपलब्ध है, वह अत्यंत ही जर्जर और अस्पष्ट है और कहीं कहीं तो कई श्लोक पढ़ने व समझने लायक नहीं है। फिर भी मैंने अपनी ओर से पूर्ण प्रयाश किया की कोई त्रुटि न रहे। फिर भी कई श्लोक व भावार्थ में त्रुटि और विसंगतियां संभव है। अतः पाठकों से विशेष निवेदन यदि आप मुझे पूर्ण और अच्छी श्रीराधा सप्तशती पीडीऍफ़ में उपलब्ध करा सकें तो आपका आभारी ।

श्रीराधा सप्तशती अध्याय ७ भाग २

श्रीराधा सप्तशती सप्तमोऽध्यायः द्वितीयः 

रोषं करोषि हृदये यदि कौतिकन्ये धन्योऽस्तु सोऽपि मम नात्र विचारणान्या ।

संश्लेषमर्पय मयापितमेव पूर्व मह्यं समर्पय मर्पितचुम्बनं च ॥६१॥

(मानवती श्रीराधाके प्रति श्रीकृष्णकी उक्ति - ) हे श्रीकीर्तिकुमारी ! तुमने अपने हृदय में यदि रोषको स्थान दिया है तो अच्छी बात है। वह रोष भी तुम्हारे हृदय में स्थान पाकर धन्य हो गया । इस विषय में हमको कुछ भी अन्यथा विचार नहीं करना है । ( परंतु इतना तो अवश्य कहना है कि पहले मैने तुम्हें जो दो वस्तुएँ अर्पित की हैं, वे मुझे वापस दे दो । ) मैंने पहले जो तुम्हें अपना स्पर्श प्रदान किया है, वह मुझको वापस दे दो तथा मेरा दिया हुआ प्यार भी मुझे लौटा दो (यह सुनकर श्रीराधा हँस पड़ीं और उनका मान भङ्ग हो गया ) ॥ ६१ ॥

स्नेहमाधुर्यसारेण राधे त्वं रचिता यतः तवाश्लेबेऽपि कामाग्निरेभ्योऽभिवर्धते ॥ ६२ ॥

हे श्रीराधे ! तुम्हें विधाताने स्नेह और माधुर्यके सारसे बनाया है, तभी तो तुम्हारा स्पर्श करनेपर भी श्रीकृष्णकी प्रेमाग्नि और भी धधक उठती है ।। ६२१

अनङ्गसंजीवनमङ्गसङ्ग पुनः पुनर्वाञ्छति ते प्रियोऽयम् ।

प्रिये न तृप्यत्यधरामृतेन प्रशामय व्याधिमनन्यसाध्यम् ॥ ६३॥

तुम्हारा श्रङ्गस्पर्श प्रेमको

( एक सखी श्रीराधासे कहती है -- ) हे प्रिये ! जीवन प्रदान करनेवाला है, इसीलिये तुम्हारे ये प्रियतम श्रीकृष्ण उस स्पर्श की बार-बार इच्छा करते हैं। यह जो उन्हें अतृप्तिकी व्याधि हो गयी है, उसकी एकमात्र औषध है --तुम्हारी रस-नुधा, अत: तुम कृपा करके अपनी इस रससुधाका पान कराकर प्यारेकी इस अनन्य-साध्य (और किसी उपचारसे अच्छी न होनेवाली) व्याधिको दूर करो ||६३ ||

माधुर्य लावण्यत्रपूरितानि सौन्दर्यसाराणि मनोहराणि ।

अन्योन्यमङ्गानि सर्मापतानि श्रीश्यामयोः सन्तु रसप्रदानि ॥ ६४ ॥

( एक सखी अपनी सहचरीसे कहती है--) घरी! देख, ये माधुर्य- लावण्य से भरे-पूरे, सौन्दर्यके साररूप, श्रीश्यामा-श्यामके मनोहर अङ्ग किस प्रकार एक दूसरेको समर्पित हो रहे हैं। मैं चाहती हूँ कि ये अङ्ग इसी प्रकार इन दोनोंको सदा अपरिमित रस प्रदान करते रहें || ६४ ||

यस्याःपदाब्जमकरन्दरसानुभूतेःसभवं किमपि घोषवधूषु दृष्टम् ।

तस्या अपार करुणाजलधेः सदैवदासीगणेऽस्तु गणना मम राधिकायाः ॥ ६५ ॥

जिनके श्रीचरणारविन्दोके मकरन्दके रसका आस्वादन करनेसे व्रजवघुत्रोंको

किसी अनिर्वचनीय भाव- वैभवकी प्राप्ति हुई देखी गयी है, उन्हीं अपार करुणासागर श्रीराधिकाकी दासियों में में भी सदा गिनी जाऊँ यही मेरी अभिलाषा है ॥६५॥

मनसि वचसि नित्यं यस्य कारुण्यरूपा अहह वसति राधा बाधिताशेषबाधा ।

यजनभजन विद्यायोगतीर्थव्रतानिचरणरजति तस्य द्वारदेशे लुठन्ति ॥६६॥

समस्त बाधाम्रोंको दूर करनेवाली करुणामयी श्रीराधा जिसके मन और

वाणीमें सदा निवास करती हैं, अहाहा! उसके द्वारपर यज्ञ, भजन, उपासना, " लोटते हैं ६६ ।

योग तीर्थ और व्रत आदि सभी श्राकर उसकी

रे चित्त चिन्तय चिरं वृषभानुपुत्रीं नो विस्मर क्षणमपीति ममाभिलाषः ।

राधेति नाम जप भो रसने ममाङ्ग राधावने वस तदप्रिरजोऽभिलिप्तम् ॥६७॥

अरे मेरे चित्त ! तू सदा श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीराधाका ही चिन्तन किया

कर उन्हें एक क्षण के लिये भी कभी न भूल यह मेरी अभिलाषा है। हे रसने

तू 'राधा' इस सरस मधुर नामका जप करती रह तथा हे देह ! तू श्रीराधाकी

परम पावन चरणरजसे लिप्त होकर इस श्रीराधावन (श्रीवृन्दावन) में सदा वास किया कर ।। ६७॥

अहो भाग्यं श्या शरणमपयातोऽस्मि भवर्ती भ्रमन् संसारेऽस्मिन्नशरणशरण्ये||

अहो वाञ्छत्यस्याश्चरणरसपीयूषमनिशं स्वयं श्रीगोविन्दो विधिहरसुरेशंरसुगमः ॥ ६८ ॥

हे अदारणको शरण देनेवाली गुणनिधे ! श्यामे ! मैं इस असार संसारमे

भ्रमण करता हुआ अब आपकी शरण में आया हूँ, यह मेरा ग्रहोभाग्य है ! क्योंकि जो ब्रह्मा, शिव, सुरेश आदिके लिये भी सुलभ नहीं है, वे साक्षात् श्रीगोविन्द तुम्हारे श्रीचरण-रस-पीयूषकी निरन्तर इच्छा करते हैं ॥६८॥

राधे ते चरणौ विहाय शरणं नाहं लभे कुत्रचिद् विश्वासः सुदृढो ममास्ति भवती सेवकयोग्या भुवि ।

अक्रूरं प्रियसङ्गसंविघटकं नादूषयज्जातुचित् दृष्टा देवि दया तवैव विमला दोषा न ते दृक्पथे ॥ ६६ ॥

हे श्रीराधे ! तुम्हारे श्रीचरणोंको छोड़कर मुझे कहीं भी शरण नहीं मिली ।

मेरा तो सुदृढ़ विश्वास है कि इस भूमण्डलमें एकमात्र आप ही सेवा करने योग्य है। अक्रूरने श्रापका प्रियतमसे वियोग करा दिया, तो भी आपने उनकी कभी निन्दा नहीं की । हे देवि ! विशुद्ध दया तो केवल भापमें ही देखनेको मिलती है ; क्योंकि आपके दृष्टि-पथमे किसीके दोष श्राते ही नहीं ॥ ६६ ॥

राधे निरङकुशमतिः कुटिलस्त्वदीयःकृष्णो जनेषु गुणदोषदृशिः सदेव ।

त्वां प्रार्थये स्वशरणागतजीवजातंश्यामे दुगकुशवशो तब नैव जह्यात् ॥७०॥

हे श्रीराधे ! तुम्हारे प्रियतम श्रीकृष्ण बड़े कुटिल हैं, इनकी बुद्धि भी निरङ्कुश

है । जीवोंके गुण और दोषोंपर सदा ही इनकी दृष्टि रहती है । श्यामे ! तुमसे मेरी यह प्रार्थना है कि कृपा करके ऐसी व्यवस्था कर दो कि जो कोई भी जीवे उनकी शरण में आ जाय, उसका ये त्याग न करें । श्रीराधे ! श्रीकृष्ण सदा तुम्हारे नेत्ररूपी अङ्कुशके वशमें रहते हैं । अतः तुम ऐसी व्यवस्था कर सकती हो ॥७०॥

मार्गे व्रजन् व्रजपुरे सखिभिः प्रदोषेनित्यं विवृक्षितमना व्रजमोहनोऽपि ।

यस्यादृगञ्चलचमत्कृतिमोहितोऽभूत् तां राधिकां स्मर मनो मम हम्यसंस्थाम् ॥७१॥

जिनके मनमें श्रीराधाके दर्शनकी अभिलाषा नित्य बनी रहती है, वे व्रजमोहन

श्रीकृष्ण एक दिन सखाओंके साथ सायंकाल के समय ब्रजपुर (बरसाना) के मार्ग जा रहे थे । उसी समय जिनके नेत्रकोणकी चमत्कारपूर्ण चितवनसे वे मूच्छित हो गये, महलकी छत पर बैठी हुई उन श्रीराधाका हे मेरे मन ! तू सदा ध्यान किया कर ॥७१॥

धर्मार्थकाममोक्षेषु हरिभक्तौ च मे मनः ।

नैव तुष्यति सत्यं श्रीराधे दास्यमृते तव ॥ ७२ ॥

हे श्रीराधे ! मैं सत्य सत्य कहती हूँ कि आपकी सेवा छोड़कर धर्म, अर्थ,

काम, मोक्ष और श्रीहरिकी भक्ति -- इन पाँचोंने किसीमें भी मेरा मन संतुष्ट

नहीं होता । ( अतः मुझे तो आप अपनी ही सेवा प्रदान करे ) ||७२ ||

सम्भारैरभिसारकर्मविहितैर्दास्या मयालंकृता जित्वा सौरतसंगरे मधुपत संकेतरङ्गस्थले ।

राधे कुङ्कुमरञ्जितां परिमलप्रस्वेदयुक्तां त्रजंदत्तां ते करतो निधाय हृदये धन्या कदा स्यामहम् ॥७३॥

श्रीरा! ( अभिसारिका नायिका के लिये चाँदनी रातमें श्वेत वस्त्र,

श्वेत ग्राभूषण और अंधेरी रातमें श्याम वस्त्र और श्याम ही आभूषण धारण करने का विधान है। इस प्रकार ) अभिसार-कर्मके लिये विहित प्रसाधनों द्वारा मुझ दासीके हाथसे अलंकृत हो संकेत-स्थानमें जाकर वहाँ प्रणय-संग्राम में मधुपति श्रीकृष्णको जीतकर जब तुम लौटोगी, उस समय तुम्हारे वक्षःस्थलकी कुङ्कुमसे रञ्जित श्रीङ्गकी सुगन्ध से सुवासित तथा पसीने की बूंदोंसे आर्द्र हुई अपनी

प्रसादी माला अपने ही हाथसे निकालकर मुझे दोगी । तव में उसे अपनी छाती से लगाकर धन्य हो जाऊँगी। आहा ! कब मुझे ऐसा सौभाग्य प्राप्त होगा ? ॥७३॥

ललितवदनकंजे कुचयुगल कोकेकेलिकल्लोलपुजे रम्यलोलाक्षिमीने

व्रजयुवतिनदीभिः संयुते दिव्यगङ्गप्रविश सह मया त्वं राधिके श्यामसिन्धौ ॥७४॥

हे दिव्य गङ्गारूपिणी श्रीराधे ! तुम्हारा सुन्दर -- मनोहर श्रीमुख ही गङ्गामें खिलनेवाला कमल है, तुम्हारी सरस क्रीड़ाऍ ही सुरधुनीकी तरङ्गे हैं, कुच-युगल ही सुन्दर चक्रवाक पक्षी है, तुम्हारे सुन्दर चपल लोचन ही चञ्चल मीन है, तथा व्रजयुवतीरूप सहायक नदियोंसे तुम सदा संयुक्त हो । श्रद तुमसे यही प्रार्थना है कि मुझे साथ लेकर श्यामसिन्धु में प्रवेश करो ।।७४।।

अङ्काङ्गितशालिनि प्रियतमे हा प्रेष्ठ हा मोहनेत्याक्रोशन्त्यतिकातरा तिमधुरं श्यामातुरगोत्मदव्यामोहादतिविह्वलं निजजनं कुर्वन्त्यकस्मादहो काचित्कुञ्जविहारिणी विजयते श्यामामणिर्मोहिनी ॥७५॥

प्रियतम जिसे अपने अडुमें लिये बड़ी शोभा पा रहे हैं, तो भी जो श्याम

सुन्दरके प्रति अनुरागके उत्कट मदसे उत्पन्न व्यामोहके कारण अत्यन्त कातर हो सहसा हा प्रियतम ! हा मोहन !' इत्यादि कहकर मधुरवाणीमें उन्हें पुकारने लगती हैं और अपने सखीजनोंको अकस्मात् व्याकुल कर देती है, यह कोई अनिर्वचनीय सौभाग्यशालिनी कुञ्जविहारिणी श्यामा - शिरोमणि मोहिनी श्रीराधा प्रियतमके हृदयपर सदा विजय प्राप्त करती है ।। ७५ ।।

नरकादपि बीभत्सं नित्यं विषयचिन्तनम् ।

वृथा वेदकथा राधे तव दास्यरतात्मनाम् ॥७६॥

हे श्रीराधे ! तुम्हारे दास्य रसमें जिनका मन रम गया है, उनको विषय

चिन्तन नरकसे भी बीभत्स ( घिनौना ) प्रतीत होता है और उनके लिये वेदकथा

भी व्यर्थ हो जाती है ॥७६॥

राधाया अधरामृतेन सरसं तद्भुक्तमुक्तं सदाभोज्यं मेऽस्तु परप्रमोदजनकं तत्पीतशेषं पयः ।

पेयं स्याद्वसनं तदङ्गसुरभिप्रस्वेदसंवासितंभोज्यं मंऽस्तु परप्रमदिजनक तत्प तिशेष पयः ।

पेयं स्याद्वसनं तदङ्गसुरभिप्रस्वेदसंवासितंध्याने मे परिधेयमस्तु कृपया दत्तं स्वयं राधया ॥७७॥

( मेरी तो यही इच्छा है कि ) मुझे श्रीराधाके अधरामृतके स्पर्शसे सरस, इनका ही भुक्तावशिष्ट प्रसाद सदा भोजनके लिये मिले; उनके पीनेसे बचा हुआ परमानन्दजनक जल ही पीनेके लिये सदा प्राप्त होता रहे तथा स्वयं श्रीराधाके द्वारा कृपा करके दिया हुआ उनके ग्रङ्गोंके सुगन्ध युक्त प्रस्वेद ( पसीने) से सुवासित वस्त्र पहनने के लिये मिला करे । (यदि साक्षात् न मिले तो ) ध्यानमे तो श्रवश्य ही इन वस्तुनोंकी प्राप्ति होती रहे ||७७ ||

राधाया दशनैः सुकुन्दकलिकाभासैर्मुदा चवि ताम्बूलं मम भोग्यमस्तु रसदं लेप्यं तथा चन्दनम् । राधायास्तनुगन्धमेव लुलिता मालापि तस्याः कचैःप्रेष्ठसमर्पिता भवतु मे भोग्या त यैवापिता ७८ ॥

(हे श्रीराधे ! आपका प्रसाद ही मेरे जीवन निर्वाहका साधन बने, उसीसे मेरा जीवन-धारण हो, यही भावना लेकर वसन्तदेवी मन-ही-मन प्रार्थना करती है — ) श्रीराधाकी सुन्दर कुन्दकली-सी शुभ दन्तावलीद्वारा प्रसन्नतापूर्वक चबाये हुए पानका सरस महाप्रसाद मुझे प्राप्त हो । श्रीराधाका उच्छिष्ट चन्दन, जो उनके श्रीअङ्गोंकी गन्धसे सुवासित है, मुझे अपने अङ्गपर लेप करनेको मिले । प्रियतमके द्वारा प्रेमपूर्वक कण्ठमें धारण करायी हुई तथा इत्रभरी स्निग्ध अलका*वलीके साथ क्रीड़ाके समय मृदित हुई श्रीराधाकी उच्छिष्ट माला, जो उन्हीके द्वारा मुझे दी गयी हो, सदा मेरे उपभोगमे श्राये ( क्या कभी मेरा ऐसा भाग्योदय होगा ? ) ||७८ ||

धृत्वा शाटीमथ कुचतटे कञ्चुकीं चारुमालां श्रीस्वामिन्यास्तव निजकरादेव लब्धं प्रसादम् ।

पार्श्वस्यां ते सततमुचिताशेषसेवैकदक्षां स्वात्मानं किं प्रणयिनि कदा भावयेऽहं किशोरीम् ॥७६॥

श्रीश्यामसुन्दरके प्रति प्रणयभावसे परिपूर्ण श्रीराधे ! जो श्राप स्वामिनीके निज कर-कमलसे प्रसादरूपमें प्राप्त हुई साड़ीको अपने ग्रङ्गोंपर कञ्चुकी (चोली) को वक्षःस्थलपर और मनोहर मालाको कण्ठमें धारण करके सदा आपके ही पास रहती हो और सभी समुचित सेवाओंके सम्पादनने श्रद्वितीय दक्ष हो, ऐसी किशोरावस्थासे युक्त यापकी दासीके रूपमें क्या मैं कभी अपने आपको प्रत्यक्ष या व्यानमे देख सकूंगी ? ॥७६॥

जपन्ती तव नामानि भ्रमन्ती श्रीवने तव ।

स्मरन्ती राधिके लीलां कालं नेष्ये कदा मुदा ॥८०॥

हे श्रीराधिके ! मैं कब आपके नाम जपती, श्रीवृन्दावनमें घूमती तथा आपकी लीलाका चिन्तन करती हुई आनन्दपूर्वक समय बिताऊँगी ? ॥८०॥

ज्ञात्वा प्रियाया यदि प्रीतिभाजनंमां चुम्बनालिङ्गनसौरतैः प्रियः ।

स्नेहद्धिमाष्योन्मदयेत्तथापि मेराधे, ननस्तेऽस्ति रसे पदाब्जयोः ॥८१॥

(श्रीराधा-चरण-कमलोंमे अपने मनकी अनन्य निष्ठाका अनुभव करके सखी परीक्षाके समय अपने व्रतकी दृढ़ताको श्रीराधाके समक्ष व्यक्त कर रही है—)

हे श्रीराधे ! यदि प्यारे श्रीश्यामसुन्दर मुझे अपनी प्रियतमा (आप) की प्रेमपात्री समझकर प्रेम-प्रदान आदिके द्वारा बढ़े हुए स्नेहकी मदिराले उन्मत्त करनेकी चेष्टा करे, तो भी मेरा मन तुम्हारे श्रीचरण-कमलोंके रसमें ही निमग्न रहेगा (प्रियतमके रसमें आसक्त न होगा ) || ||

गुरवः सुहृदो दासादूरे तिष्ठन्तु प्रेयसः ।

रत्युन्मदायास्ते दासी श्रोष्येऽहं मेखलाध्वनिम् ॥ ८२ ॥

हे श्रीराधे ! ( आपकी रहस्यमयी अन्तरङ्ग लीलाओं में केवल सखीभावगर्भा दासीजनों का ही प्रवेश होता है, अतएव ) आपके प्रियतमके गुरुजन, सुहृज्जन और दास-दासी वर्ग भले ही आपसे दूर रहें; परंतु मैं आपकी दासी तो (आपके कुञ्जद्वारपर खडी होकर) प्रेमोन्माद की अवस्था में ग्रापके कटिदेशमें बजती हुई काञ्चीकी ध्वनिको अवश्य सुनूंगी ॥ ८२ ॥

त्वत्पादाङ्कितवक्षसं हरिमहो निश्चित्य तत्वं परं राधे तत्वविचारकष्टरहितास्तिष्ठन्ति वेदान्तिनः ।

किमिति नो जल्पन्ति मोहागिरं लब्ध्वा दास्यरसोत्सवं रसनिधेः सेवैकनिष्ठास्तव ॥८३॥

श्रीराधे ! वेदान्तीलोग जब श्रीहरिके वक्षःस्थलको आपके चरणारविन्दो देखते है, तब निश्चित रूपले श्रीहरिको परम तत्त्व मान लेते हैं। इस

से प्रकार वे तत्त्व-विचारके कष्टसे रहित हो जाते हैं। इधर रसकी निविस्वरुपा तुम्हारे दास्य रसोत्सवको पाकर एकमात्र सेवा निष्ठावाले रसिकजन 'साधन क्या है ? साध्य क्या है ?' इस प्रकार मोहभरी बातें करना छोड़ देते है । अर्थात् आपके दास्यरसको पाकर साध्य साधनके विचारके कष्टसे मुक्त हो जाते है || ८३ ||

दृष्टया पृच्छति मोहनेऽतिकृपणे संकेतरङ्गस्थलों प्रत्याख्यानमिषेण सूचितरहोदेशा सुतिर्यग्भ्रुवा त्वद्भीत्या न हि धूर्तराज निशि सा गच्छेत्कदम्बाटवीमेका मामितिवक्तुमादिशति किं श्रीराधिका स्वामिनी ॥८४॥

श्रीमोहनके अत्यन्त दीन होकर नेत्रोंके इशारेसे ही संकेत - रङ्गस्थलीका पता

पूछने पर जो भौहें टेढ़ी करके प्रत्याख्यान या निषेधके बहाने एकान्त स्थलकी सूचना दे देती है, वे स्वामिनी श्रीराधा क्या उस समय मुझे प्यारेसे यह कहनेका आदेश

देंगी कि 'हे धूर्तराज ! तेरे डरसे वह आज रातमें अकेली कदम्बवनमें नहीं जायगी' 115811

यस्या ब्रह्मशिवादयोऽपि शिरसा स्प्रष्टुं न चैकं कणं रेणोः श्रीपदकंजयोरधिकृति नापू रसाम्भोनिधेः ।

सा प्रेमामृतमू तिरद्भुततमा गोप्येकभावाश्रया दास्यति में कदा नु कृपया राधा निकुञ्जेश्वरी ॥ ६५ ॥

ब्रह्मा और शिव आदि भी जिस रस-सिन्धुरूपा श्रीराधाके चरणारविन्दोकी

रेणुके एक कणका भी अपने मस्तकसे स्पर्श करनेका अधिकार न पा सके, वह महाअद्भुत प्रेमामृत - मूर्ति निकुज्जेश्वरी श्रीराधा, जो एकमात्र गोपीभावसे

ही प्राप्त होती है, मुझे कब कृपा करके अपना दास्य प्रदान करेगी ? ॥६५॥

शृङ्गारलोलावे चित्रीपरमावधिरीशता ।

ईश्वरस्य परा शक्ति: राधा सेव्यास्तु सैव मे ॥ ८६॥

( एक सखी श्रीराधाको उपासना परत्व ( महान् उत्कर्ष ) का प्रतिपादन करती है - ) जो ईश्वरकी पराशक्ति अथवा ईश्वरता है, तथा जो श्रृङ्गारलीलावैचित्र्यकी परम सीमा है, वही श्रीराधा सदा मेरी लेव्या ( श्राराधनीया ) हो ॥८६॥

कालिन्दीकूलकल्पद्रुमतलनिलये यत्पदाम्भोजभर्गो ध्यायप्रेमाश्रुपूर्णो जपति हरिरहो यां सदा भावमग्नः । स्वान्तःस्थप्रौढप्रेमाद्भुतरसरतिजानन्दसम्मोहिता यासा राधा कहिचिन्मे स्फुरतु हृदि परा द्वचक्षरा कापि विद्या ॥ ८७ ॥

श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण कालिन्दी - कूलके कल्पवृक्षकी छाया में बनी कुञ्जकुटीमे बैठकर जिसके श्रीपदकमलकी ज्योतिका ध्यान करते हुए भावमग्न हो प्रेमाश्रुपूर्ण मुखसे सदा जिसके नामका जप करते हैं तथा जो अपने भन्त करण में स्थित प्रौ

प्रेमके अद्भुत रस- विलासके श्रानन्दसे सम्मोहित रहती है, वह दो प्रक्षरकी अनिर्वचनीय पराविद्यारूपा श्रीराधा कभी मेरे किसमें भी स्फुरित हो । ( यहाँ नाम श्रीर नामीका जो श्रभेद कहा गया है, उसका यही अभिप्राय है कि प्रेमावस्था में नाम लेते ही नामीका अनुभव होता है। उस समय नाम ही नामी हो गया-ऐसी प्रतीति होती है) ॥६७॥

नागो न सम्भ्रमो यत्र न तुतिविरतिर्न वा ।

राधामाधवयोः पातु कोऽपि प्रेमरसोत्सवः ॥ ८॥

जिस प्रेम (प्रतिकूल चेष्टा भी अनुकूल प्रतीत होती है, इसलिये ) कभी

कोई अपराध नहीं बनता, संकोच न होनेसे सम्भ्रम भी नहीं होता, स्तुति करनेकी आवश्यकता नहीं पड़ती तथा जहाँ कभी विराम नहीं होता, वह श्रीराधा और

माधव प्रेमका अनिर्वचनीय रसोत्सव हमारी रक्षा करे ॥ ८८ ॥

सौन्दर्यस्यैकसमा सरसनववयोरूपलावण्यतीमा प्रेमप्रोल्लाससीमा किमपि रतिकलाकेलिचातुर्यसीमा । लीलामाधुर्यसीमा निजजनपरमानुग्रहैकान्तसीमा श्रीराधा सौख्यसीमा जयति मघुपतेर्भाग्य सर्वस्वसीमा ॥८६॥

जो सौन्दर्यकी एकमात्र सीमा है (जिससे अधिक सौन्दर्य कहीं है ही नहीं), जो सरस नवकिशोरवय, रूप और लावण्यकी सीमा है, जो प्रेमके उल्लासकी पराकाष्ठा है, अनिर्वचनीय प्रेमकलायुक्त केलियोंकी चतुरताकी भी चरम सीमा है, लीलामाधुरीकी भी परम अवधि है, निजजनोंके प्रति परम अनुग्रहकी भी एकान्त सीमा है (जिससे अधिक अनुग्रह करनेवाला और कोई है ही नहीं), जो सौख्यकी भी अन्तिम सीमा है (जिसके परमोदार गुणागार दरबारमें ही जीवको परिपूर्ण सुख मिलता है) तथा जो मधुपति श्यामसुन्दरके भाग्य और सर्वस्वकी चरम सीमा है (अर्थात् जिसके सङ्गसे ही श्यामसुन्दर के स्वरूपको परिपूर्णता होती है), ऐसी श्रीराधा (श्रीवृन्दावनके निकुञ्जोंमें) सदा बड़े उत्कर्षके साथ विराजमान है ||

यस्याःस्फुरत्पदनखेन्दुततिच्छाया माधुर्यसाररसकोटिमहाब्धिसृष्टिः ।

सा चेत् कदापि कमपि स्वदृशापि पश्येत् धन्यः स तस्य विरसे खलु भुक्तिमुक्ती ॥१०॥

जिसके चमकते हुए श्रीचरणनख चन्द्रोंकी छविकी खटासे (क्षणभरमे )

माधुर्य-सार- रसके करोडों महासमुद्रोकी सृष्टि हो जाती है, वह श्रीराधा यदि कभी

किसी जीवपर अपनी कृपा दृष्टि डाल दे तो वह धन्य हो जाय । (इसकी पहचान यह है कि ) उस जीवके लिये भुक्ति और मुक्ति दोनों नीरस हो जाती है ( वह उन्हें चाहता ही नहीं ) . ||१०||

राधानामास्ति जिह्वाग्रे किं सुसाधनकोटिभिः ।

राधारससुधारवादो यदि किं साध्यकोटिभिः ॥ ६१ ॥

जिसकी जीभपर श्रीराधा नाम आ गया, उसे कोटि-कोटि सुन्दर साधनोकी

क्या आवश्यकता है ( उसके लिये अन्य सब साधन निरर्थक हैं) । और यदि

किसीको श्रीराधा-रस-सुधाका श्रास्वादन मिल गया तो उसके लिये दूसरे कोटिकोटि साध्योंकी भी क्या आवश्यकता है । ( उसके लिये वे सब साध्य निरर्थक हो जाते है | ) |||

कल्पद्रुमकामधेनुनिकरं श्चिन्तामणीनांगणैःकिं वा ब्रह्मशिवादिभिः किमु हरेः प्राप्तिप्रयत्नेन च ।

किं लोकागमवंशसाधुचरितैः राधारसोन्मादिनांतत्कर्य रतात्मनां गतवतामाश्चर्य रूपांगतिम् ॥६२॥

जो श्रीराधा-रसका पान करके उन्मत्त हैं, जिनकी अन्तरात्मा श्रीराधाचरणोंके कैंकर्यमें सदा निमग्न रहती है और इसीलिये जिन्हें आश्चर्यमयी गति प्राप्त हो गयी है, उन महानुभावोंको कल्पवृक्ष, कामधेनु और चिन्तामणियोके समूहोंकी क्या आवश्यकता है? उन्हें ब्रह्मा और शिव आदिसे भी क्या लेना है ? उनके लिये श्रीहरिको प्राप्तिके प्रयत्नसे भी क्या प्रयोजन है ? ( उनके पीछे-पीछे तो श्यामसुन्दर श्रीहरि स्वयं ही घूमते हैं ।) उन्हें लोक, वेद, शुद्ध वंश-परम्परा तथा साधु चरित्रोंके अनुशीलनकी भी क्या आवश्यकता है ॥६२॥

विस्मृत्या खिलपापराशिमपि ते राधेऽनुरागी हरिः fक देयं गुणतो महाभृतरसं राधेति नामाक्षरम् ।

मुह्यत्येव न चोपलभ्य विमृशंस्तत्तादृशं स्वात्मनि त्वद्दास्यापितचेतसां स्पृशति कः सीमां महिम्नः सताम् ॥६३॥

हे श्रीराधे ! तुम्हारे महान् अमृत रसमय श्रीराधा- नामके अक्षरोंको जो जपता है, उसकी समस्त पापराशिको भी भूलकर तुम्हारे अनुरागी श्रीहरि अपने मतमें यह विचार करने लगते हैं कि इसे क्या देना चाहिये। जब अपने पास उसे देने योग्य वैसी कोई वस्तु वे नहीं सोच पाते, तब मूच्छित हो जाते हैं । हे श्रीराधे । जिन्होंने तुम्हारे श्रीचरणोंके दास्यभावमें अपने चित्तको समर्पित कर दिया है, उन महाप्रेमी संतोंकी महिमा की सीमाका स्पर्श भी कौन कर सकता है ?

रासस्थलों गिरिद्रोणीं कुञ्जान् वीक्षे त्वया विना ।

तदा राधे हृदयं शतधा मम ॥ ६४ ॥

हे श्रीराधे ! तुम्हारे साक्षात् दर्शनके बिना जब मैं तुम्हारी लीलास्थली, श्रीरामस्थली एवं पर्वतकी कन्दराओं और कुञ्जोंको देखूं, तब मेरा हृदय सौ-सौ टुकड़ों में विदीर्ण होने लगे अर्थात् मुझे बड़ी भारी व्यथाका अनुभव हो । ( भाव यह है कि धाममें रहते हुए भी धामीके अनुभव के बिना विह्वल, व्याकुल हो जाना ही भक्तका लक्षण है; क्योंकि धामको महिमा धामीकी अपेक्षा रखती है। एक कविने प्रेमीके नौ लक्षण बताये हैं-

बेक़रारी इंतज़ारी बेसवर ।

आहे सर्दी रंगे ज़र्दों चश्म तर कमखुर्दनो, कमगुफ्नो वावे हराम

आशिकारों नौ निशाँ बाशद

इस प्रकार हैं। ठंडी आहें, पीला रंग, मुझसे भीगी आँखें नींदका हराम होना, बेचैनी, प्रतीक्षा, अधीरता, कम खाना, कम बोलना। [पिसर ] ॥६४॥

माधुर्य नास्ति वैकुण्ठधानि तच्चान्यत्र स्यात्कथं तस्य धाराः ।

कृष्णत्यः समन्तान्नित्यं वृन्दारण्यमेवाश्रयन्ति ॥ ६५ ॥

जो माधुर्य श्रीवैकुण्डवाममें भी नहीं है, वह अन्यत्र कैसे हो सकता है ? उसकी सरस धाराएँ तो श्रीराधा धीर श्रीकृष्णको सब ओरसे प्राप्लावित करती हुई सदा श्रीवृन्दावनका ही आश्रय लेती है वहीं चारों ओर नित्य प्रवाहित होती हैं।

श्रुति ने भी यही कहा है- श्रमाह तदुरुगायस्य वृणः परमं पदमवभाति भूरि (ऋग्वेद) 'तस्मादानन्दमयोऽयं लोक' (सा० २० ); त: रसिकजनोंको श्रीवृन्दावनका ही आश्रय लेना चाहिये ||१५||

कि धूर्त यासि निकटं मम प्राणसख्याः स्पर्शाय तत्कुचयुगस्य सुकोमलेयम् ।

स्पृष्ठेक्षुयष्टिरिव ते करिणः करेण स्यान्नीरसेत्युपहसामि युवां किमित्थम् ॥१६॥

'हे धूर्त ! क्या तू मेरी प्राणसखी श्रीराधाके निकट जा रहा है ? खबरदार !

जो तूने उसे छू लिया ! यह अत्यन्त कोमलाङ्गी है। तुझ सदृश पुरुषके द्वारा

स्पर्श की हुई मेरी सखी इक्षुयष्टिके समान नीरस हो जायगी।' हे श्रीराधे ! क्या

कभी इस प्रकार तुम दोनोंकी हँसी करनेका सौभाग्य मुझे प्राप्त होगा ? ॥६६॥

यस्यां नामसहस्रमुल्लिखति सल्लाक्षाङ्कनव्याजतः कृष्णो यां कुसुमं समर्प्य रमणीवृन्दाग्रतो वन्दते ।

या गुप्ता श्रुतिमानसेऽपि नितरां लास्येकलीलामयीसा राधाचरणद्वयी मम गतिर्वृन्दाबनोज्जीदिनी १७॥

श्रीकृष्ण महावर लगाने के बहाने जिनमें अपने सहस्रनाम लिख देते है, रमणीगणोके सामने कुसुम-समर्पणपूर्वक जिनको प्रणाम करते हैं, जो श्रीवृन्दावनवासियोके जीवनाधार हैं, सदा नृत्यलीलाविलासी हैं तथा श्रुतियों के मनमें भी नित्य गुप्त ही रहते हैं, ये श्रीराधाके युगलचरण ही मेरे आश्रय हैं ||१७||

गोवर्धनाद्रिमधिरुह्य कटाक्षवाणान् कर्णोल्लसन्मणिशिलोपरि तेजयन्ती ।

भ्रूचापकम्पनसुसूचितलुञ्चना त्वंव्यग्रीकरिष्यसि कदा व्रजराजसूनुम् ॥६८॥

हे श्रीराधे ! श्रीगोवर्धन पर्वतपर आरूढ़ हो अपने कटाक्षरूपी वाणोको कानोंनें शोभायमान कुण्डलोंकी मणिशिलापर पैनाती हुई तथा भ्रुकुटिरूपी धनुषके कम्पनसे अपने लूटपाटके व्यापारको भलीभांति सूचित करती हुई तुम कब श्रीव्रजराजकुमारको अपने उस कटाक्षवाणसे घायल करके व्याकुल करोगी? ( अर्थात् तुम्हारी इस प्रकारकी झांकी देखनेका सौभाग्य मुझे कब प्राप्त होगा ? ) ||

त्वद्विम्बाधरमेव कुञ्चितदृशा दूरात् स्पृशन्तं प्रियं वल्ल्या : कोमलपल्लवं रविसुतारण्ये द शन्तं हरिम् ।

दृष्ट्वे स्फुटदन्तरां नववधूं व्यामोहितां त्वां प्रिये प्रेमोल्लासभरेण तेन दयितेनायोजयिष्ये कदा ॥ ६६ ॥

है प्यारी ! श्रीयमुना तटवर्ती वनमें दूरसे तुम्हारे विम्बफलसदृश अरुण अधरका ही अपनी कुचित दृष्टिसे स्पर्श करते हुए और दाँतसे किसी लताके कोमल पल्लव को काटते हुए परमोत्कण्ठित श्रीकृष्णको देखते ही जिसका हृदय विदीर्ण-सा होने लगा है और जो व्यामोहित हो गयी है, ऐसी तुझ नववधूको में उस 'प्रेमोल्लाससे परिपूर्ण प्रियतमके साथ कब मिलाऊँगी ? (ऐसी सेवाका सौभाग्य मुझे कब प्राप्त होगा ? )

चित्रं मुरादिश शान्तिदं करे त्वं गर्ववत्या मम मानशिक्षिके ।

इत्याकुलां त्वां दयितेन राधिके संयोज्य लप्स्ये मुदमुत्तमां कदा ॥१००॥

'मुझे गर्ववतीको मानकी शिक्षा देनेवाली सखी! तू प्यारे श्यामसुन्दरका शान्तिदायक चित्र तो मेरे हाथमें दे दे ( जिसे देखकर मुझे कुछ शान्ति मिले ) ।'

हे श्रीराधे ! इस प्रकार कहकर व्याकुल हुई तुमको प्रियतमसे मिलाकर मैं कम परम आनन्दका अनुभव करूँगी ? ||१०० ॥

साप्रवाहे न लोचने ते गोपाल गोधूलिभिरेव जाते ।

सम्प्रत्यलं स्मेरमुखानित्वामुक्त्वेति तिर्यग्भ्रुकुट किमि ॥१०१

( श्रीकृष्ण के दर्दानजनित आनन्दसे श्रीराधाके नेत्रों में धांसू छलक आये है, इस भावको छिपानेके लिये वे कहती हैं -) 'गोपाल ! तुम्हारी गौओके चरणोंसे उड़ी हुई धूल पड़नेसे ही मेरी आंखोंने पानी आ गया है।' यह सुनकर श्रीकृष्ण मुसकराते हुए उसके नेत्रों में फूंक मारने लगे तब वह झल्लाकर कहती

है - 'बस, बस रहने दो; हँसते जाते हो और फूँक मारते हो ! इस मुखकी वायुसे क्या होगा ? मुझे तो कष्ट हो रहा है और आप हँस रहे हैं ?" इस प्रकार कहते हुए किंचित् मानके आवेशमें उनकी भौहें टेढ़ी हो जाती हैं। सली कहती है- 'हे श्रीराधे ! क्या कभी इस अवस्थामें में तुम्हारा दर्शन कर सकूँगी ? ॥ १०१ ॥

तीव्रार्कसंतप्तकरालकोणभास्वन्मणीनामुपरि स्थितापि प्रमोदमाना प्रियमेक्ष्य राधा स्यादक्षिलक्ष्याद्रतटे कदापि ॥ १०२ ॥

श्रीगोवर्धनगिरिके प्रान्तभागमें प्रचण्ड सूर्यकी किरणोंसे संतप्त और कराल

कोणवाली सूर्यकान्त मणियोंके ऊपर खड़ी होकर भी श्रीरावा प्रियतमका दर्शन करके प्रसन्न हो रही है ( क्योंकि रागकी अवस्थामें दुःख भी सुख रूप हो जाता है ) । वे महारागवती श्रीराधा क्या कभी उस अवस्थामें मेरे नेत्रोंके समक्ष प्रकट होंगी ? ||१०२ ॥

शुभे सेवाकुजे कुसुमशरसेवा समुचित रजन्यां रासान्ते खगमृगसमाजे गतखे ।

पयः फेनाभे त्वां सरसशयने श्रान्तचरणांसदा मां याचित्वा परिचरतु राधे मधुपतिः ॥ १०३॥

हे श्रीराधे ! प्रेम देवताकी आराधना के लिये उपयुक्त कल्याणकारी सेवा

कुञ्जमें रात्रिके समय रासलीलाके अन्तमें, जब कि खगों और मृगोंके समुदाय नीरव होकर सो गये हों, दुग्धफेनके सदृश धवल, कोमल एवं सरस शय्यापर तुम शयन कर रही हो, तुम्हारे श्रीचरण रासके श्रमसे थक गये हों; उस श्रवसरपर (चरण संवाहनके लिये पधारे हुए) मधुपति श्रीकृष्ण सदा मुझसे याचना करके

ही तुम्हारी परिचर्या करें--- यह अधिकार तुम मुझे दे दो ।। १०३ ॥

न यत्र विमला, कि तैः सुशास्त्रैरपि किं वा तत्प्रतिपादितः शुभपर्थः सद्भिर्गृहीतंरपि ।

कि वैकुण्ठविभूतिभूरिनिवहैः राधागृहीतात्मनां सर्वस्वात्मनिवेदनां गतवतामाश्चर्यरूपां गतिम् ॥ १०४ ॥

जिनका मन श्रीरावाने अपने अधिकारमे कर लिया है, जो उन्हें अपना सर्वस्व निवेदन करके आश्चर्यरूपा गतिको प्राप्त हो गये है, उन प्रेमी भक्तोको वैसे शास्त्रोकी क्या आवश्यकता है, जिनमें निर्मल श्रीराधा प्रेमसुधाका वर्णन नहीं है । और

उन शास्त्रोंके द्वारा प्रतिपादित शुभ मार्गोकी भी उन्हें क्या आवश्यकता है, भले ही उनको सत्पुरुषोंने भी स्वीकार कर लिया हो ? तथा उन भक्तोंको वैकुण्ठघामकी बड़ी-बड़ी विभूतियोंसे भी क्या प्रयोजन है ? ॥१०४॥

शस्त्रवद्घातकं शास्त्र -- कीनाशमिव मानुषम् ।

गुणाढयमपि जानीहि येन राधा न कीर्तिता ॥ १०५॥

जिसने श्रीराधाका यशोगान नहीं किया, वह शास्त्र शस्त्र के समान घातक है

तथा जिसने श्रीराधाके नाम और गुण नहीं गाये, वह मनुष्य गुण सम्पन्न होनेपर

भी कसाईके समान क्रूर है || १०५ ||

रसाब्धिरूपा श्रीराधा नाभिरावर्तरूपिणी ।

मोहनस्य मनोमोनो यत्रोन्मज्जति मज्जति ॥ १०६॥

श्रीराधा रससिन्धुस्वरूपा हैं और उनकी नाभि आवर्त (भँवर) रूपा है, जिसमें मोहनका मनरूपी मीन सदा डूबता-उतराता रहता है ॥१०६।।

धन्यासि धन्यासि किशोरी राधे त्वं त्वक्षिसंचालनवश्यप्रेष्ठा ।

पृष्ठे तवैवाधरपानकामी चमत्यसौवक्ति प्रिये प्रिये त्वाम् ॥१०७॥

हे किशोरी श्रीराधे! तुम धन्य हो! धन्य हो! तुमने अपने प्रेष्ठको केवल नेत्रों के संचालन मात्र से वश में कर लिया है। क्योंकि वे तुम्हारी अधरसुधाका पान करनेकी कामनासे तुम्हारे पीछे-पीछे घूमते हैं और 'प्यारी! प्यारी ।' कहकर तुम्हारा आदर करते हैं ॥१०७॥

यो ब्रह्मरुद्राद्यनुगीतकोतिः कीतिं मुदा गायति ते मुरल्याम् ।

राधे श्रियासेव्यपदारविन्दः पादारविन्दं तव सेक्तेऽसौ ॥१०॥

जिनकी कीर्तिका ब्रह्मा-शिव आदि निरन्तर गान करते हैं. वे ही श्यामसुदर तुम्हारी कीर्तिको बहे हषसे अपनी मुरलीमें गाया करते हैं जिनके की साक्षात् लक्ष्मीजी सेवा करती हैं, वे ही तुम्हारे चरणारविन्दोंकी सेवा करते हैं (अतः आप परम धन्य हो) ॥१८॥

माला बालागलस्थां स्पृशति गणयितुं तत्र भुक्ताफलानि नव्यं भव्यं तवेदं वसनमुपहृतं केन ते कंजनेत्रे ।

घ्रात्वा कर्णस्थपुष्पं सखि परिचिनुयामित्थमेवातिशाठ्यं कुर्वन् राधे परं ते लुठति चरणयोः कुञ्जवीभ्यां मुरारिः॥१०॥

हे श्रीराधे ! जो मुरारि अत्यन्त शठताका परिचय देते हुए कुजगलीमे आने-जानेवाली बालाओंके गलेकी मालाका स्पर्श करते हैं और कहते हैं कि 'इसमे कितने मोती है ? मैं इनकी गणना कर लूं, तब जाना।' फिर किसीसे कहते है-'कमलनयने ! यह तेरा नवीन वस्त्र तो बहुत बढ़िया है । यह तुझे किसने भेट किया है ?' फिर दूसरी किसीसे कहते हैं-'सखी! यह तेरे कानमें लगा हुआ फूल किस लताका है, मैं इसे सूंघकर पहचान लूंगा।' परंतु ऐसा बर्ताव करनेवाले वे ही मुरारि जब कुजगलीमें तुम्हारे सामने आते हैं, तब तुम्हारे चरणोंमें लोटने लगते हैं (ग्रहो इनके ऊपर तुम्हारा कितना प्रभुत्व है ! ) ॥१०॥

कस्याश्चिन्मणिकञ्चुकीं मधुपतिर्धम्मिल्लमल्लीस्रजं स्पृष्ट्वा कर्षति वेणुनान्यरमणीकण्ठे कर न्यस्य वै।

धृत्वा तच्चिबुकं ब्रवीति मधुरं हे सुन्दरीत्यादिकं राधे दण्डय प्रोद्धतं कुचयुगाघातैग हीत्वा भुजैः ॥११०॥

हे श्रीराधे ! मधुपति श्रीश्यामसुन्दर किसी सखीको मणिजटित चोली छू देते हैं, किसीके केशपाशको फूलमालाको वंशीसे खींच लेते हैं तथा किसी रमणीके कण्ठमें हाथ डालकर उसके चिबुकको हाथसे पकड़कर 'हे सुन्दरी! हे साँवरी सलोनी!' इत्यादि मधुर वचन बोलते हैं। इस तरह ये महाउद्धत हो गये है, अतः प्यारी ! तुम प्यारेको अपनी भुजाओंसे कसकर पकड़ लो और इनका शासन करो, तब ये ठीक होंगे ॥११०॥

त्यक्ता सर्गादि वार्ता स्मरति न च गुरूनापि भृत्यादिवर्गान् राधामकामनन्यो मधुररससुधासारसर्वस्वसीमाम् । आराध्यां प्राणकोट्या स्मितसरसमुखी चारकंजायताक्षी , द्रष्टुं कुञ्जप्रतोल्यां भ्रमति हरिरहो राधिकाभावमग्नः ॥१११॥

(एक संखी अपनी सखोसे कहती है-) हे सखी! श्रीकृष्णने जगत् सृष्टि और पालन प्रादिकी बात करना भी छोड दिया वे श्रीनन्द-यशोदा

आदि गुरुजनों तथा भृत्यवर्ग एवं मित्रवर्ग आदिका भी स्मरण नहीं करते; किंतु मधुर-रस-सुधासारके सर्वस्वकी जो सीमा है, जिनका श्रीमुख मन्द-मन्द मुसकानके कारण अत्यन्त सरस है, जिनके नेत्र कमलके समान विशाल एवं मनोहर है तथा जो कोटि-कोटि प्राणोंसे पाराधना करने योग्य हैं, उन एकमात्र श्रीराधाके दर्शनोके लिये केवल उन्हींके प्रेममें मग्न होकर वे प्रियतम श्रीकृष्ण निरन्तर कुंजगलीमे चक्कर लगाते रहते हैं ! ॥१११॥

तयश्चरन्त्या अपि बिल्वकानने श्रियोऽपि नाद्यावधि योऽक्षिगोचरः।

स राधिकामाधवयो रसोत्सवोममास्तु तद्दास्यरतानुगायाः ॥११२॥

बिल्ववनमें तपस्या करनेपर भी आजतक श्रीलक्ष्मीजीको भी श्रीराधामाधवके जिस रसोत्सवका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं हुआ, वह मुझे तो अवश्य प्राप्त हो; क्योंकि मैं उनकी दासियोंकी अनुगामिनी हूँ। (स्वयं श्रीराधा ही तो महालक्ष्मी हैं, जो यहाँ आचार्यरूपसे विल्ववनमें साधकोंको शिक्षा दे रही है कि मेरी दासियोके अनुगत हुए बिना मधुर रसका आस्वादन नहीं प्राप्त होता, जेने मुझे नहीं प्राप्त हो रहा है) ॥११२॥

वैमुख्य मानवत्याः प्रियतमशयने चुम्बनाश्लेषहेतोः पृष्ठं श्रीराधिकाया मृदुलकरतलेनामृशन्तं मुकुन्दम् ।

ऊचे पृष्ठं न मे त्वं स्पृश कितव करात्सेव्यते देविनोचेद् दत्तं मे पृष्ठभागं त्वमपनय वचो हासयत्पातु राधाम् ॥११३॥

प्रेम-लीलामें कुछ व्यतिक्रम होनेके कारण श्रीराधा मानवती होकर मुंह फेरकर उनकी मोर पीठ करके स्थिर हो गयौं, तब प्यारे श्यामसुन्दर अपने कोमल करतल से उनकी पीठ सहलाने लगे। यह देख श्रीराधा झल्लाकर बोली, 'ओ छलिया, तुम अपने हायसे मेरी पीठ न छूो।' (वे वोले-) 'किशोरीजी! मै तो आपकी सेवा कर रहा हूँ।' (श्रीराधाने कहा-) 'मुझे सेवा नहीं करानी है।' (श्रीकृष्ण बोले-) 'यदि सेवा नहीं करानी है तो तुमने जो अपना पृष्ठभाग मुझे दे रखा है, इसे हटा लो, अपनी ओर फेर लो।' यह सुनकर श्रीराधा हँस पड़ी। श्रीराधाको हँसानेवाला यह मानापहारी वचन हम सबकी रक्षा करे ।।११३।।

श्रुतिभिम ग्यमेवेदं राधालीलारसामतम।

हृदि स्फुरति में सदा ११४

(श्रीवसन्तदेवी कहती है-) यह श्रीराधा-लीला-रसामृत, जिसे श्रुतियाँ खोजती फिरती है (किंतु पाती नही), मेरे हृदयमें श्रीवृन्दावनकी महिमासे सदा स्फुरित होता रहता है ।।११४॥

धन्यास्ता शबराङ्गना मधुपतेः पादाब्जरागश्रिया लिप्त्वा कुङकुमकर्दमेन हृदयं कान्तास्तनपशिना ।

तेनाहो तुणरूषितेन विजहुस्तापं शरण्ये क्वचिद् राधे मादनभावरूपिणि कदा श्रोष्ये तवेत्थं वचः॥११५॥

मादन-भाववती श्रीराधा भीलोंकी स्त्रियोंको धन्यवाद देती हुई एक सखीसे कहती हैं----'परी सखी! वे भीलोंकी स्त्रियाँ धन्य है, जो श्रीगोविन्दके चरणारविन्दोंकी रागश्रीसे युक्त, उनकी प्रेयसीके स्तनोंका स्पर्श प्राप्त किये हुए कुछ म-कर्दमको, जो वृन्दावनको घासमें लगा होता है, लेकर उसका अपने हृदयमे लेप करके विरह-तापको मिटा रही है।' वसन्ती देवी कहती है-'हे मादनभावरूपिणी धीराधे! तुम्हारे मुखसे ऐसा वचन मैं कब सुनूंगी ? ॥११॥

कृष्णोपमतमालाडू स्वाश्लिष्टां वीक्ष्य मालतीम्।

श्लाघमानाक्षिलक्ष्या में किं स्याद्राधाधुलोचना ॥११६॥

श्रीकृष्णके समान श्याम वर्णवाले तमालके अहमें भलीभांति लिपटी हुई मालती लताको देखकर उसके भाग्यको प्रशंसा करती हुई मादन-महाभाववती अथुलोचना श्रीराधा क्या कभी मेरे नेत्रोंको दर्शन देगी? ||११६॥

प्रेमोल्लासमदोच्छलद्रसभरे रासे । सखीमण्डले नृत्यन्ती नवनृत्यचित्रकलया कान्तेन प्रोल्लासतः। काञ्चीनपुरकिङ्किणीकलरवां भाजत्कटाक्षच्छवि ताम्बूलव्यजनादिभिः परिचरामि त्वां कदा राधिके ॥११७॥

हे श्रीरावे! प्रेमोल्लासके मदसे उछलते हुए रमसे परिपूर्ण श्रीरासमण्डल में सखीमण्डलके बीच परम उल्लाससे प्रियतमके साथ नवीन एवं विचित्र नृत्यकलासे तुम नाच रही हो। तुम्हारे काञ्ची, नूपुर, किङ्किणी आदि भूषण मति मधुर झनकारपूर्वक बज रहे हो और तुम्हारी कटाक्षोंकी छवि चारों ओर चमक रही होऐसी अवस्था में ताम्बूल, व्यजन आदिसे तुम्हारी सेवा करनेका सौभाग्य मुझे कब मिलेगा? ||११७।।

मधुकण्ठ उवाच एवं बहुविधानान्तलीलामतरसं पिबन । सिद्धार्थो विप्रो

श्रीमयुकण्ठजी बोलेइस प्रकार कुञ्जसीमाके भीतर विविध प्रकारको अनन्त लीलाओंके अमृतरसको पीते हुए श्रीवसन्तदेव ब्राह्मणका मनोरथ पूर्ण हो गया ।।११।।

श्रीमद्वन्दावने नित्यं भावनावेशतो निजम् ।

निकुकिंकरीरूपं भावयन्प्रकृतेः परम् ॥११॥

भावनाके आवेशसे अपने अप्राकृत निकुञ्ज-किंकरी रूपकी भावना करतेकरते उन्हे सिद्ध अवस्था प्राप्त हो गयी ।।११।।

श्रीप्रियाप्रेयसोः स्वात्मप्राणकोट्यधिप्रेष्ठयोः ।

साक्षाल्लीलानिकुञ्ज तद् वृन्दावनमवाप ह ॥१२०॥

कहते हैं, उस समय श्रीवसन्तदेवको अपने कोटि-कोटि प्राणोंसे भी अधिक प्यारे श्रीप्रिया-प्रियतमके साक्षात् लीला-निकुञ्ज श्रीवृन्दावनधामकी प्राप्ति हो गयी ।।१२०॥

स्वानुभूमिदं सर्व पूर्वाचार्यसुसम्मतम् ।

सोपपत्तिकमत्रोक्तं सुकण्ठ तव प्रीतये ॥१२॥

सुकण्ठ ! तुम्हारी प्रसन्नता के लिये यहाँ जो कुछ भी कहा गया है, वह प्रमाण एवं युक्तिसे सिद्ध है तथा पूर्वाचार्योंका भलीभाँति अभिमत है। साथ ही यह सब मेरे अनुभवका विषय है ।।१२१॥

इयं वृन्दावनेश्वर्याः करुणापाङ्गपंक्तिभिः।

वागीशाचार्यहृदये बृहत्सानौ प्रकाशिता ॥१२२॥

यह श्रीराधा-सप्तशती श्रीवृन्दावनेश्वरीके कृपा-कटाक्षोंसे बरसानेमें श्री वागीशाचार्य के हृदयमें प्रकाशित हुई ॥१२२।।

राधासप्तशती. वृन्दावनवासफलप्रदा।

भवत्या स्वाराधिता भूयाद्रसिकानन्दवर्धनी ॥१२३॥

इस श्रीराधा-सप्तशतीका यदि भक्ति-श्रद्धापूर्वक सेवन किया जाय, तो यह श्रीवृन्दावनवास (नित्य निकुञ्जधामका निवास) रूप फल देनेवाली होगी। यह सदा रसिक भक्तजनोंका आनन्द बढ़ानेवाली हो ।।१२३।।

इति श्रीवागीशाचार्यविरचितायां श्रीराधासप्तशत्यां श्रोनिकुञ्जनाम

इति: श्रीराधा सप्तशती सम्पूर्णः॥

इस प्रकार श्रीवागीश शास्त्रीजी द्वारा रचित श्रीराधा सप्तशती समाप्त हुआ ॥

जय जय श्रीराधे ॥

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