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कर्मकाण्ड

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श्रीराधा सप्तशती अध्याय ७

श्रीराधा सप्तशती अध्याय ७     

इससे पूर्व आपने डी०पी०कर्मकाण्ड के श्रीराधा सप्तशती श्रृंखला के अध्याय ६ में श्रीनिकुञ्जलीलारस-प्रवेश को पढ़ा, अब उससे आगे श्रीनिकुञ्जनिवास नामक अध्याय ७ का भाग १ पढेंगे । पुनः पुनः विद्वत पाठकों से निवेदन कि- मेरे पास जो श्रीराधा सप्तशती की प्रति उपलब्ध है, वह अत्यंत ही जर्जर और अस्पष्ट है और कहीं कहीं तो कई श्लोक पढ़ने व समझने लायक नहीं है। फिर भी मैंने अपनी ओर से पूर्ण प्रयाश किया की कोई त्रुटि न रहे। फिर भी कई श्लोक व भावार्थ में त्रुटि और विसंगतियां संभव है। अतः पाठकों से विशेष निवेदन यदि आप मुझे पूर्ण और अच्छी श्रीराधा सप्तशती पीडीऍफ़ में उपलब्ध करा सकें तो आपका आभारी ।

श्रीराधा सप्तशती अध्याय ७

श्रीराधा सप्तशती सप्तमोऽध्यायः प्रथम:

अथ सप्तमोऽध्यायः

सुकण्ठ उवाच

निकुञ्जलीलारसिका यमादरात् पिबन्ति तं स्वानुभवं सखे रसन् ।

सुगोप्यमप्यर्हसि वक्तुमद्भुतं वसन्तदेवेन यथानुभूतम् ॥१॥

श्रीनुकण्ठजी बोले-- कुञ्जलीलाके रसिकजन जिसका आदरसे पान करते हैं, और जिसका अनुभव किया है, उस अद्भुत प्रेममय मधुररसका बसन्तदेवने जिस पकियाहो,वहपरम गोपनीयहोनेपर भीमुझसे उसका वर्णनकरो।।१।।

मधुकण्ठ उवाच

आस्वाद्यते भावनायां भावनामयविग्रहात्

स्फूति गतो रसस्तं ते प्रवक्ष्याम्यधुना सखे ॥२॥

श्रीमधुकण्ठजी बोले (मित्र! श्रीनिकुञ्जलीला-रसमाधुरीका परिपूर्ण रूपसे प्रास्वादन तो त्रिपाद-विभूतिमें श्रीगोलोकस्थ श्रीवृन्दावनके नित्य निभृत निकुञ्जमें ही होता है, जिसकी रसिकजन सदा अाकांक्षा करते रहते हैं। गोलोक-धामका वेदोंमें स्पष्ट वर्णन है---'ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा प्रयासः। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि' ऋग्वेद १॥ १५४१६। 'स तत्र पर्येति जक्षत् क्रीडन् रममाणः स्त्रीभिर्वा याम ज्ञातिभिर्वा' छा० उ० प्र०८ सं० १२ श्रु०३। परंतु इस लीलाविभूतिमें भी) भावना की अवस्थामें रसकी स्फूर्ति होती है और भावनालय विग्रहसे ही उसका प्रास्वादन किया जाता है। (कभी किसी भाग्यशालीको श्रीराधारानीकी कृपासे उसका साक्षात्कार भी हो जाता है। ) अब मैं उस रसकी बात तुमसे कहता हूँ ।।२।।

रामानुजीयं कवचं दधानं श्रीवल्लभीयं परिपुष्टदेहं

निम्बार्कमाध्वं हृदयं विशालं नन्दात्मजप्राणमहं भजे रसम् ॥३॥

जो श्रीरामानुज-सम्प्रदायको कवचके रूपमें, श्रीवल्लभ-सम्प्रदायको परिपुष्ट देहके रूपमें तथा श्रीनिम्बार्क और मध्व-संप्रदायको विशाल हृदयके रूपमें धारण करता है, और साक्षात् श्रीनन्दनन्दन जिसके प्राण हैं, उस रसका मैं सदा भजन करता हूँ॥३॥

स्मितोज्ज्वले श्रीवृषभानुनन्दिनीकपोलपट्टे प्रतिबिम्बिताननः।

रमाङ्कवक्षःस्थलशालिराधिका मुखेन्दुबिम्बो भगवान् प्रसीदताम् ॥४॥

मन्दहास्यसे समुज्ज्वल श्रीवृषभानुनन्दिनीके दर्पणतुल्य निर्मल कपोल-पटलमे जिनका अनुपम आननचन्द्र प्रतिविम्बित हो रहा है और जिनके श्रीलक्ष्मविभूषित (इन्द्रनीलमणिमय दर्पणके समान) विशाल वक्षःस्थल में श्रीबृपभानुनन्दिनीके चारु मुखचन्द्रका प्रतिबिम्ब विलसित हो रहा है, वे रसिकशेखर भगवान् श्रीकृष्ण हम (रस-पिपासुओं) पर सदा प्रसन्न रहें ॥४॥

कुञ्ज कराङ्ग लीयस्थहरिन्मणिप्रभा विज्ञाय दूर्वामनुधावता मृगीवत्सेन

साफ कृपयाऽऽर्द्रलोचना राधा प्रधावच्चरणा प्रसीदताम् ॥५॥

जिनके श्रीकर-कमलकी अँगूठोके हरे नगकी किरण-कान्ति को दूर्वा जानकर उसका चर्वण करने के लिये पीछे-पीछे मुगीका बच्चा दौड़ता चला पाया है और उसके साथ (कुजके शादल प्रदेशमें) जिनके अरुण चरणारविन्द दौड़ रहे हैं, वे कृपासे पार्द्र लोचनवालो श्रीराधा हमपर सदा प्रसन्न रहें ।।५।।

भृङ्गस्मैरास्याब्जगन्धस्य लुब्धं जम्बूभ्रान्त्या भोक्तुकामेन राधा

खेलन्ती में कोरपुत्रेण वृन्दारण्ये भूयादक्षिलक्ष्या कदा नु॥६॥

मन्द-मधुर मुसकानसे युक्त सुन्दर मुखारविन्दकी दिव्य गन्धके लोभी भ्रमरको भ्रमसे जम्बूफल जानकर उसे पकड़कर खानेकी इच्छा करनेवाले अपने पालतू तोतेके बच्चेते खेलती हुई श्रीराधारानी कब श्रीवृन्दावनमें मेरे नेत्रोंके समक्ष प्रकट होंगी? ॥६॥

स्वर्बालाञ्जलिमुक्तमौक्तिकफलर्जातालवाला सुधासंत्रानिजबन्धुसंस्तुतिशतैः सिक्ताङ घ्रिमूलामहो।

नित्यं श्रीयनुनातटीसुरतरोरके कृतालंकृतिकांचित्काञ्चनकल्पवल्लिभवनौ घोषस्य जातां भजे ॥७॥

स्वर्बालाओंकी अजलियोंसे वरसाये हुए मोतियोंद्वारा जिसके पालवाल (थाले ) की रचना हुई है, अपने बन्धुजनोंके सैकड़ों सुधावी स्तोत्रोंद्वारा जिसके श्रीचरणमूलका नित्य सिञ्चन होता रहता है, श्री यमुनातीरवर्ती सुरतरु (प्यामसुन्दर श्रीकृष्ण) के अङ्कमें जो सदा अलंकृत हो रही है तथा व्रजकी भूमिमें जिसका आविर्भाव हुमा है, ऐसी किसी अनिर्वचनीय महामहिमावाली काञ्चन-कल्पलता (श्रीराधारानी) का मै भजन करता हूँ॥७॥

कृपारूपे श्यामप्रणयिनि प्रिये त्वत्पदनखात् कृपास्रोतः शश्वत्स्रदति नववृन्दावनभुवि ॥

जितेन्दुर्यद्विन्दुः सृजति सुखसिन्धूनगणितान् यदूमौ निर्मज्जन्त्यहह सकला मुक्तिमहिलाः॥८॥

हे कृपामयि! श्यामप्रणयिनि ! प्रिये श्रीराधे! तुम्हारे श्रीचरण-नखोसे इस नित्य-नूतन वृन्दावन-भूमिमें तुम्हारी कृपाका स्रोत सदा प्रवाहित होता रहता है। उस कृपा-स्रोतका- एक विन्दु भी इन्दुकी गोमाको जीतनेवाला है तथा अगणित सुखसिन्धुनों की सृष्टि करता है। उनमें से एक सिन्धुकी एक ही तरङ्गमे सारूप्य-सामीप्य आदि समस्त मुक्तिरूपिणी महिलाएँ निमग्न हो जाती है। (अहा ! हा! कैसा है वह मुखसिन्धुस्रप्टा कृपाविन्दु ! ) ॥८॥

चकोरश्चन्द्रांशु चुलुकलि राधे निशि' यथा तथा कृष्णोऽपि त्वच्चरणनलचंद्रांशुनिश्यम् ।

निषेव्य श्रीवृन्दाविपिन्नवचन्द्रत्वमगमत् सदैव त्वद्धचानान्वितरसिक्सेव्यत्वपक्ष्वीम् ॥६॥

हे श्रीराधे! जिस प्रकार चकोर रात्रिमें चन्द्र-किरणका पान करता है. उसी प्रकार श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण भी नेत्रपुटों द्वारा तुम्हारे नखचन्द्रोंकी सुधामयी किरणराशिका पान करते है। उसका सेवन करके ही वे श्रीवन्दावनके नवचन्द्र हो गये और सदा तुम्हारे ध्यानमे निरत रहनेवाले रसिकोंके सेव्य-पदको प्राप्त हुए (क्योकि मधुररसके उपासक नुम्हारे सम्बन्धसे ही श्रीकृष्णकी सेवा करते है) l

इयं लाक्षा साक्षात्कृतसुकृतकल्पद्रुमफलं स्वहृत्पट्टे पिष्टा विरहदहनालोडितजले।

सुपक्वा सद्रक्तिः श्रुतिचयविमृग्यं तव पदं सुभाग्यं सौभाग्यश्वरि भवतु में रञ्जयति चेत् ॥१०॥

(श्रीवसन्तदेवी सखी मणिमय पात्रमें लाक्षारस (महावर) लेकर श्रीराधाके निकट जाकर सेवाके लिये प्रार्थना करती है--) हे सौभाग्यवतीश्वरि ! यह लाक्षा सुकृतरूपी कल्पवृक्षका प्रत्यक्ष फल है, मेरे द्वारा अपनी हृदयशिलापर पीसी गयी है, तुम्हारे विरहके कारण मेरे हृदयमे जो आग जल रही है, उससे खौलते हुए जलमे यह अच्छी तरह पकायी गयी है। इससे इसका रंग बहुत सुन्दर हो गया है। यह लाक्षा--जिन्हें थुतियाँ खोजती-फिरती है, उन तुम्हारे श्रीचरणके रञ्जनकी सेवामें यदि या जाय तो मेरा उत्तमोत्तम सौभाग्य बढ़ जाय। (सखीकी इस प्रार्थनाको स्वीकार करके श्रीराधाने अपने अरुणवर्ण श्रीचरण उसकी गोदमें रख दिये। उसने भी उनका चुम्बन करके लाक्षारसकी सेवाका मनोरथ पूर्ण किया) ॥१०॥

सखीपक्षमप्रक्षालितभवदलक्ताङ घ्रिसलिलं क्यामूर्त क्लिन्नां विरचयति यां कामपि महोम् ॥

अहं तस्याः पांसुः कथमहह भूयासमथवा कुतो न स्यां राधे तव दिरहवत्रेण दलिता ॥११॥

(सखीहारा धीचरण-प्रक्षालनका प्रसङ्ग प्राप्त होनेपर वसन्तदेवी प्रार्थना करती है--) हे दयामूर्ति श्रीराधे! सस्त्रीजनोंकी बरौनियोंद्वारा धीरे-धीरे संभालकर धोये हुए आपके लाक्षारजित श्रीचरणों के प्रक्षालनका जल जिस किसी भी भूमिको आई करे, अहह ! मैं उसी भूमिको धूलि किम प्रकार हो जाऊँ ?यह साथ बनी रहती है। अथवा तुम्हारे विरहवनसे दलित होकर मै धूलि कैसे नहीं होऊँगो ; धूलि तो होना ही है (परतु प्रार्थना यह है कि उस बूलिपर आपका श्रीचरणजल सदा पड़ता रहे) ॥११॥

निलिन्दी भूयासं यदिह सखि वृन्दावनवने त्वदीयाज घ्रिच्छायापितसरसमाल्यस्य रजसा

परिष्वक्तः शश्वद्गतिरहह यां यां दिशमिया दहं तस्यां तस्यां दिशि तदनुगा स्यामनुयुगम् ॥१२॥

हे सखी! हे श्रीराधे ! यदि मैं इस वृन्दावनमें भ्रमरी हो जाऊँ तो मेरे हृदयकी यही साथ है कि तुम्हारे श्रीचरणोंको छाया में समर्पित सरस सुमनोंकी रज लेकर पवन जिस-जिस दिशामें जाय, उसी-उसी दिशा में भी उसके पीछे-पीछे युगयुगान्तरोंतक उड़ती फिरूँ ॥१२॥

पटोरः स्यां वृन्दावनभुवि यदि श्यामदरिते तदा केचिद्धन्याः शुभपरसुभिः खण्डश इमम् ।

सृजेयुः सद्धर्माकृतिर्वाद घर्षेचुरपरे विलिम्पेयू राधे तव पदयुगे केऽपि कृतिनः ॥१३॥

है श्रीश्यानसून्दरको प्राणवल्लभे श्रीराधे ! यदि मै थीवृन्दावनकी भूमिमे चन्दन हो जाऊँ तो कोई धन्य प्रेमीजन कल्याणकारिणी कुल्हाड़ियोंसे इस कन्दनको खण्ड-खण्ड करें, कोई सद्धर्ममयी शिलापर इसे घिसे और कोई पुण्यात्मा जीव उस चन्दनको तुम्हारे श्रीचरणयुगलोम लगायें (तो मैं कृतार्थ हो जाऊँगी) ॥१३॥

महःसिन्धू पडुरहकुमुदबन्धू त्रिभुवनप्रदोपौ यट्टीप्तौ भवत इव खद्योतपथकों

प्रदोपौ यद्दीप्तौ भवत इव खद्योतपयकों सदा वृन्दारण्ये सहजरसष्टि विदधती

कदा द्रक्ष्ये राधा पदरुहतति मङ्गलमयीम् ॥१४॥

श्रीवृन्दावनमें सदा सहज रसकी वर्षा करनेवाली महामङ्गलमयी श्रीराधाके श्रीचरणोंकी उंगलियोंकी पंक्तिका कब मुझे दर्शन मिलेगा, जिसके प्रकाशके सामने त्रिभुवन-प्रकाशक, तेजके सागर कमन्दबन्धु सूर्य और कुमुदवन्धु चन्द्रमा दोनो बालखद्योतके समान प्रतीत होते हैं ॥१४॥

भ्रमन्त्यास्ते चिन्तामणिमयगृहप्राङ्गणभुवि प्रिये राधे प्रातः स जयति जगन्नूपुररवः ।

मुरारेः श्रुत्वा यं जठरपटमभ्यति मुरली विपञ्ची वाग्देव्या अपि च निजचोलं प्रविशति ॥१५॥

हे प्रियतमे श्रीराधे ! प्रातःकालमें चिन्तामणिके बने हुए निकुञ्जभवनकी (रसरङ्गमयी) प्राङ्गणभूमिमें विचरते समय तुम्हारे सरस नूपुरकी जो मधुर ध्वनि होती है, वह जगत्पर विजय प्राप्त कर रही है। उस ध्वनिको सुनकर सरस्वतीकी वीणा लज्जित होकर अपने कोशमें प्रवेश कर जाती है तथा श्रीकृष्णकी वशी उनके उदरपटमें स्थान ग्रहण कर लेती है (इनमें बजनेका साहस नहीं होता। नया वह ध्वनि कभी मेरे कानोंमे भी पड़ेगी ।।१५।।

परानन्द मन्दस्मितदमितराकेन्दुशतकां प्रियोत्सङ्गासक्तां जितकनककान्त्यम्बरधराम् ।

स्फुरन्नासामुक्तां मनसिजविहारेण मधुरां तडित्काञ्चीं कांचित्स्मर मम मनश्चारुचरणाम् ॥१६॥

हे मेरे मन ! जो परमानन्दमयी है, जिसकी मन्द मुसकान सैकड़ों चन्द्रमाप्रोका दमन (तिरस्कार) करनेवाली है, जो सदा प्रियतमकी गोदमें आसक्त रहती है, जिसने कनककान्तिसे भी अधिक कान्तिमय प्यारेका पीतपट पहन रखा है, जिसकी नासिकाकी बुलाकमें चमकता हुआ मनोहर मोती झूल रहा है, प्रेममय विहारके कारण जिसका स्वरूप अत्यन्त मधुर जान पड़ता है, जिसकी कमरमे बिजलीके समान चमकीली काञ्ची शोभायमान है (मेंहदी, महावर और मणिमय नूपुर धारण करनेवाले) जिसके श्रीचरण परम मनोहर हैं, उस अनिर्वचनीय रूप-माधुरीवाली श्रीराधाका सदा स्मरण किया कर ।।१६।।

सुधावीचीनीचीकरणनिपुणापाङ्गकरुणा सिञ्च कृपणम।

सुतप्तं श्यामेन्दु तव विरहराहोविदलनात् कदा याचे मानं त्यज सपदि मानव्यसनिनि ॥१७॥

प्यारी! तुम्हें तो मान करनेका व्यसन-सा हो गया है, इधर तुम्हारे विरहरूपी राहुद्वारा विदलित होनेसे प्यारे श्यामचन्द्र अत्यन्त संतप्त हो उठे हैं और दीन होकर इन श्रीचरणोंने आये हैं। शरणागतवत्सले! तू सुधासागरकी तरङ्गोंका तिरस्कार करनेवाली अपनी दृष्टिको उत्तङ्ग कृपा-तरङ्गोंसे इनका सिञ्चन करो

और इस मानको शीघ्र त्याग दो। हे राधे! तुमसे इस प्रकार प्रार्थना करनेका सोभाग्य मुझे कब प्राप्त होगा ॥१७॥

श्याम श्यामाम्बुजदलकृताशेषशृङ्गारभूषां ताटङ्क ते चिकुरनिकरः कुण्डले धोत्रयुग्मे ।

संवृत्याङ्गं मृगमदरसैः कज्जल रञ्जिताक्षी नेष्ये किं त्वामसितवसनां श्यामसंकेतकुजे ॥१८॥

(एक सखी थीप्रियाजीसे प्रार्थना करती है-) 'श्याम ! श्रीश्यामके समीप सकेतकुञ्जमें अभिसार करानेकी सेवाका सौभाग्य क्या कभी मुझे भी मिलेगा?' (श्रीराधाने कहा-'परी! तू अभिसारकी रीति-नीति क्या जाने ? बता तो सही, कैसे मुझसे अभिसार करायेगी?' सखी बोली- 'हे श्रीराधे! (फाली अंधेरी रातमें) श्यामकमलके दलोंसे तुम्हारे सम्पूर्ण अङ्गोंका शृङ्गार और भूषणोकी रचना करूंगी और दोनों कानोंके झुमकों तथा कुण्डलोंको तुम्हारे लंबेलबे काले बालों से छिपा दूंगी। फिर तुम्हारे सर्वाङ्गपर कस्तूरीका लेप करूंगी, नेत्रोंमें गाढ़ा गहरा काजल लगाऊँगी तथा काले ही वस्त्र धारण कराऊँगी। तब तुझे संकेत-कुजमें ले जाऊँगी।' (श्रीराधाने इस सखीकी सेवा-प्रार्थना स्वीकार की और उसके इच्छानुसार उसका मनोरथ पूर्ण किया। श्रीप्रियतम भी प्रियाजीके नील कमल और नीलमणियोंके दिव्य शृङ्गारको देखकर उन्हें पहचान न सके। जब प्रियाजीने स्वयं हँसते हुए अपना परिचय दिया, तब बड़े प्रसन्न हुए और दोनोने उस शृङ्गार करनेवाली सखीका हार, माला, चन्दन, पान आदिसे विशेष सम्मान किया) ॥१८॥

मन्ये कुरङ्गनयने नयनाञ्चलानि ते सन्ति साधितसुमोहनमन्त्रकानि ।

नो चेत् कथं मदनमोहनमोहनाङ्गो राधे त्वदा घ्रिकमलं शिरसा विर्भात ॥१६॥

मृगीके नेत्रोंसे भी सुन्दर और बड़े-बड़े नेत्रोंवाली श्रीराधे! ज्ञात होता है कि तुम्हारे इन नेत्राञ्चलों (पलकों) ने कोई मोहनमन्त्र सिद्ध कर लिया है। नही तो मदनको भी मोहित करनेवाले मोहनाङ्ग भुवनमोहन श्रीमोहन तुम्हारे श्रीचरणकमलोंको अपने सिरपर क्यों धारण करते? ॥१६।।

न दत्त्वा सुदानं न चासाद्य ज्ञानमनाराध्य गोविन्दपादारविन्दम् ।

विहीनर सदा साधनैः पापपीना कयं राधिकायाः पदाराधिका स्याम् ॥२०॥

(एक विरहविह्वल अधिकारीजन गोपीभावमें विलाप करता है-) हाय! मैंने अपने इस जीवनमें निप्कामभावने कभी कोई न सुन्दर दान दिया, न ज्ञान प्राप्त किया और न श्रीगोविन्दके पादारविन्दोंकी उपासना ही की। फिर सर्वसाधनहीन, पापपीन, महामलिन में भाग्यहीना थीराधिकाके चरणारविन्दोंकी पाराधिका कैसे हो सकेंगी?--मुज्ञ अनविकारिणीको श्रीचरणसेवाका वह सौभाग्य कैसे प्राप्त होगा? ॥२०॥

सार्थ नेत्रयुगं निरीक्ष्य सुषमासारं त्वदीयं मुखं सार्थ पाणियुगं सुसेव्य भवती सेवानु यत्लोलुपम् ।

सार्थ देबि वपुस्त्वदीयकरुणापाङ्गस्य खेलास्पदं सर्व सार्थमभूत्त्वयाह मधुना दास्य वराक्यादृता ॥२१॥

(एक परमोत्कण्ठिता महादैन्यवती सखी श्रीजीकी साक्षात्-सेवाका अधिकार पाकर उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करती है---) 'हे देवि ! तुम्हारे सौन्दर्यसार श्रीमुखको देखकर मेरे नेत्र-युगल सार्थक हो गये। सेवाके लोभी मेरे करयुगल तुम्हारी मेवा करके सफल हो गये और तुम्हारी करुणाभरी चितवनका क्रीड़ास्थल वनकर मेरा शरीर भी सफल हो गया। आज तुमने मुझ दीनको अपना सेवाधिकार देकर जो मेरा आदर किया है, उससे मेरा सब कुछ हो गया' ।।२।।

विहर मम हृदब्जे मा बहिर्याहि राधे हृतमुपवनकेलौ केलिमुग्धे ममालि।

मृगशिशुपिकनीलग्रीवपाटच्चरस्ते• * २२

(एक सखी अपनी भावनाकी प्रौड़ताके लिये श्रीप्रियाजीसे प्रार्थना करती है-) केलिके लिये कौतुकवती श्रीकोतिकिशोरी! तुम खेलमें ऐसी देखकर हो जाती हो कि लुटेरे तुम्हारा धन लूट ले जाते हैं और तुम्हें कुछ पता ही नहीं चलता! (राधा बोली--परी सखी! वता तो सही, मेरा किसने क्या लट लिया ?' तब सखी वोली--) वनमें क्रीड़ाके समय मृगशावक, कोकिल और मयुर-इन तीनों बनके लुटेरोंने तुम्हारे सरस नेत्रोंका सौन्दर्य, मघर वाणी और केगोंको शोभाको चुरा लिया है। अतः अब तुम वाहर यनमें खेलने मत जाया करो। (यदि कहो, तव फिर कहाँ खेलू? तो) तुम्हारे श्रीचरणोंने प्रार्थना है कि मेरे हृदयकमलमें तुम सदा विहार किया करो---जो चाहो, वही खेल खेला करो॥२२॥

प्रस्वेदाश्रुकविमाजितलसनेत्राञ्जनस्त्वां हरिमध्ये बन्धुषु खञ्जरीटनयनामालोक्य लोलालकाम् ।

कि मां वक्ष्यति भावगोपनपरो बहुं विधायोच्चकैराः किं तीव्रकरः कृशानुशकलानुत्स्रष्टुनुत्कण्ठते ॥२३॥

हे श्रीराधे! (यमुना-स्नान करके) बन्धुजनोके मध्यमें चञ्चल अलकावलीसे सुशोभित और खेलते हुए खजरीटसदृश चञ्चल नेत्रोंसे विलसित तुम्ही रूपमाधुरीको देखकर भावजनित प्रस्वेद और अधुकणोंसे नेताम्जनके धूल जानेपर अपने भावको छिपानेके लिये क्या कभी श्रीकृष्ण भुजा उठाकर ऊँचे स्वरमे मुझसे यह कहेंगे कि अरी सखी! देख, यह प्रचण्ड किरणोंबाला मूर्य मेरे ऊपर अग्निके अङ्गार बरसाना चाहता है ॥२३॥

दूरादपास्य शशिनं वदनं त्वदीयं वामाक्षि चञ्चलगञ्चल्चङ क्रमेण ।

वृन्दावनेन्दु मपरं सहसा दिजित्य पादारविन्दमकरन्दलिहं करोति ॥२४॥

वामलोचने श्रीराधे! तुम्हारे थीमुखने चन्द्रमाको दूर हटाकर आकाशचारी बना दिया और दूसरे श्रीवृन्दावन-विहारी चन्द्रको अपने चञ्चल दृष्टिकोगसचारसे सहसा जीतकर तुम्हारे चरणारविन्द-मकरन्दका आस्वादन करनेवाला मधुप बना लिया। (तुम्हारे ऐसे अलौकिक-शक्तिशाली श्रीमुखकी बलिहारी ! बलिहारी! ) ॥२४॥

मनोहरिणवागुरां नयनमीनजालावृतां....नवीनलीलास्थलीम।

विटेन्द्र निशि साहसं न कुरु गन्तुमद्येति तं कदाभिसृतिभाषया तव नयामि राधे प्रियम् ॥२५॥

(बसन्तदेवी-) हे श्रीराधे! मैं कब तुम्हारे प्रियतम श्यामसुन्दरको अभिसारको भाषामें संकेत-कुञ्जमें चलनेके लिये प्रेरित करके उन्हें तुम्हारे पास पहुँचा देनेका सौभाग्य प्राप्त करूँगी! (श्रीराधा-परी! तु अभिसारकी भाषामें प्रियतमसे क्या कहेगी? दसन्तदेवी बोली--) 'प्यारी! मैं प्रियतमसे यह कहूँगी कि 'विटेन्द्र ! आज रातमें तुम उस यमुनातटवर्ती नवीन लीलास्थलीमें जानेका साहस न करना; क्योकि वहाँ तुम्हारे मनरूपी मृगको फंसानेके लिये वागुरा लगी हुई है अोर नयनरूपी मोनको पकड़ने के लिये जाल बिछा हुपा है ।।२५।।

अणोरञ्जनमुज्ज्वलाङ्गवसनं नासापुटे मौक्तिक कस्तूरीमकरी कपोलपटले चेन्दीवरं कर्णयोः ।

काञ्ची श्रोणितले नजं कुचतटे सन्नूपुरं गुल्फयो राधे मामनुकम्पया कुरु भजे जल्पन्तमित्थं हरिम् ॥२६॥

हे श्रीराधे ! तुम मुझे कृपा करके अपने नेत्रोंका काजल बना लो, अपने इन गोरे-गोरे प्रकाशमान श्रीमङ्गोपर मुझे नीलाम्बर बनाकर मोड़ लो, अपनी नासिका मे मोतीका बुलाक बनाकर पहन लो, (दर्पण-जैसे निर्मल) कपोलोंपर कस्तूरीकी मकरी बना लो, कानों में नील कमलकी भाँति धारण कर लो, वक्षस्थलपर सुन्दर पुष्पमाला बना लो, कटिप्रान्तमें करधनी और श्रीचरणोंमें नूपुर बनाकर मुझे अपना लो।' इस प्रकार (महा-अनुरागके आवेशमे) बोलते हुए मनोनयनहारी श्रीवृन्दावनविहारीका में सदा भजन करती रहूँ--यही मेरे मनमें कामना है ॥२६॥

पाणिद्वन्द्वमृणालमास्थकमलं कन्दर्पलीलाजलं श्रोणीघट्टशिलं सुनेत्रशकर केशौध शैवालकम् । वक्षोजामलचक्रवाकयुगलं राधासरः शीतलं नित्यं स्नाहि हरे स्मराग्निशमनं भाग्येन लब्धं त्वया ॥२७॥

(एक सखी श्रीराधासे श्रीकृष्णका संयोग करानेके लिये उनसे अत्यन्त सरस भाषामें कहती है-) हे प्रियतम ! तुमने बड़े भाग्यसे शीतल, मुखद श्रीराधासरोवर प्राप्त किया है, जो तुम्हारी विरहाग्निकी ज्वालाको शान्त करनेमें समर्थ है। तुम इसमें प्रतिदिन स्नान किया करो। देखो, श्रीराधाकी (गोल-गोल गोरी गोरी) भूबाएँ इसमें मृणाल है उनका श्रीमुक्ष कमल है प्रेमलीलारूपी जल भरा है, श्रोणीमण्डल पक्का घाट है, नेत्र मीनयुग्म हैं, केश-सनूह सेवार है और दोनो उरोज इसमे सुन्दर चक्रवाकका जोड़ा है ॥२७॥

लुतं ते तिलकं स्तने मलयजो धोतं च नेत्राञ्जनं रागोऽपि स्खलितः कथं त्वदधरे ताम्बूलसम्पादितः। कस्तूरीमकरीविचित्ररचना नष्टा कथं गण्डयोःस्नात्वा श्यामसरोवरे सखि समायातास्मि कि कुप्यसि ॥२८॥

(प्रातःकाल निकुञ्जभवनसे लौटती हुई श्रीराधाको देखकर शृङ्गार-सेवा करनेवाली सखी पूछती है---) 'अरी! तुम्हारे मस्तकका (कंदर्प-मोहन) तिलक कहाँ गया ? वक्षस्थलका चन्दन भी कहाँ लुप्त हो गया? नेत्रोंका अञ्जन भी कैसे धुल गया? ताम्बूल-चर्वगसे सम्पन्न हुई तुम्हारे अधरोंकी लाली भी से कम हो गयी? तथा दोनों कपोलोंपर जो मैंने कस्तुरीसे मकरीकी विचित्र रचना की थी, वह कैसे नष्ट हो गयी?' श्रीराधा बोली-'परी सखी! तू मुझपर क्रोध क्यों करती है ? मैं इस समय श्रीश्याम-सरोवरमें स्नान करके श्रा रही हूँ॥२८॥

ललने वङ्कविशाललोचने क्षिप दृष्टि सरसां पुनः प्रिये। जगतोयं प्रथिता जनश्रुति विषमवास्ति विषस्य चौषधम् ॥२६॥

(श्रीराधाको व्यामोहक दृष्टिसे अचेत हुए श्रीश्यामसुन्दरको सचेत करनेके लिये सखी श्रीकिशोरीसे प्रार्थना करती है-) विशाल एवं बॉके नयनोंवाली लाड़िली श्रीराधे! तुम एकवार फिर (प्रियतमकी ओर मुख मोड़कर) इनपर अपनी सरस दृष्टि डाल दो। संसारमें यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि 'विषकी ओपधि विष ही है।' (अतः तुम्हारी यह दृष्टि ही प्यारेके लिये अमृत-संजीवनीका काम करेगी) ॥२६॥

अपूर्वोऽयं राधे तव कुचयुगे कोऽपिहुतभुक् सुदूरादेवासो दहति हरिगात्राणि बहुशः।

हृदि स्पृष्टस्यायं भवति सुखदः शीतलतमःप्रणत्यातो याचे सततपरिरम्भं दिश हरेः॥३०॥

हे श्रीराधे ! तुम्हारे वक्षःस्थलमें कोई अद्भुत एवं अपूर्व अनल निवास करता है जो बहुत दूरसे ही श्रीहरिके गात्रोंको बहुत अधिक संतप्त कर देता है, परंतु जब तुम प्रियतमको हृदयसे लगा लेती हो, तब यह उनके लिये अत्यन्त सुखद और शीतलतम हो जाता है। इस कारण मैं तुमसे प्रणामपूर्वक प्रार्थना करती हूँ कि तुम श्रीहरिको सदा अपने श्रीप्रङ्गका स्पर्श प्रदान करती रहो।।

(भावार्थ-श्रीप्रियाजीके हृदयमे जब श्रीप्रियतमको सुख देनेकी प्रबल प्रेमोत्कण्ठा रूप अग्नि उदित होती है, उस समय किसी सुदूरवर्तिनी लीलास्थली या सकेतकुञ्जमें बैठे हुए थीप्रियतमके समस्त अङ्ग संतप्त हो उठते हैं। वे सोचते है-'हाय ! मेरे बिना प्यारीकी क्या दशा होती होगी?' ऐसा स्मरण करके वे अचेत हो जाते हैं। परंतु जब दे प्यारीजीके निकट पाकर उनका स्पर्श प्राप्त करते है, उस समय वह अग्नि परम सुखद और सुशीतल प्रतीत होती हे। भूख भोजनके अभावमें दुःख देती है और भोजन मिल जानेपर वह परम सुखमयी प्रतीत होती है, अतएव भूख और भोजनका एक साथ संयोग होनेपर ही अन्नका मधुर आस्वाद प्राप्त होता है। इसीको रसास्वादको अवस्था कहते है। इसी अभिप्रायसे मूलमें 'हुतभुक्' शब्दका प्रयोग किया गया है) ॥३०॥

सम्पीताघरमाधुरी तलयुगं चालिङ्गितं प्रेयसा नीयो च स्खलिता सुवर्णकदलीस्तम्भोरु राधे तव ।

नायं वामपिलोचने त्वदुचितः स्वल्पोऽपि तल्ये हठःकुञ्जच्छिद्रविलोचनेत्यनुनयं श्यामे कदाभावये ॥३१॥

'सुन्दर अगोंवाली श्रीराधे! प्यारे श्यामसुन्दर तुम्हारे जीवन-सर्वस्व एवं प्राणाधार है, तुम्हारे अङ्ग-प्रत्यङ्गपर उनका अवाथ अधिकार है; तुम उन्हे अपना शरीर, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार--सब कुछ अपितकर चुकी हो । वे तुम्हारे पात्माके भी आत्मा है, निकटतम है, ऐसी दशामें उनसे किसी प्रकारका संकोच करना तुम्हें उचित नहीं। क्योंकि वे तुम्हारे शरीरमें ही नहीं, अन्तरात्मामें भी प्रवेशकर चुके है; उनसे तुम्हारा कुछ भी छिपा नहीं है। अत उनके साथ निस्संकोच व्यवहार करो।' हे राधे ! तुम्हें उनसे लज्जा करते देख मैं तुमसे उपर्युवत अनुनय करनेकी भावनाका सौभाग्य कब प्राप्त करूँगी? ।।३१।।

व्रीडाकुञ्चितलोचना सखि महर्मुञ्चेति सम्भाषिणों संस्कृत्योचितशिक्षया स्मरगुरोःक्षिष्यमाणामपि ।

धृत्या त्वा करपञ्जरे नववधूं लावण्यलीलाशुकीं श्याम श्यामकरे समय॑ शयने धन्या कदा स्यामहम् ॥३२॥

लज्जाके कारण सिकुडे हुए नेत्रोंसे मना करने पर भी उचित शिक्षासे तुम्हारा संस्कार करके नववधूरूप

तुमको अपने कर पकड

दए प्रियतम श्यामसुन्दरके समीप ले जाकर तथा उनके हाथों में सौपकर मैं क्ब पन्य धन्य होऊँगी।।३२।।

च्युतां बकुलनालिकां विगलितां च मुक्तावली विलोक्य नववीटिका रस सुरक्तण्डस्थलीन् ।।

नखक्षतमुरःस्थले धरदले च दन्तवर्ण समीक्ष्यः रतिजं सुखं तव दिनोहिता स्यां कदा ।।३३॥

श्रीराधे! प्रियतम श्यामसुन्दरके मिलन-सुखसे धन्यातिधन्य हुए. तुम्हारे श्रीमङ्गों तथा आभूषणोंको देखकर कव मुझे प्रानन्दमय व्यामोह प्राप्त होगा? ॥३३॥

কুল নাকি देहे वहन्ती श्रमवारिधाराः॥

त्वां दीजयिष्ये प्रमुश कदापिपृळे विलग्ना मलिनीदलेन ॥३४॥

हे श्रीराधे ! क्या कभी मुझे ऐसा सौभाग्य प्राप्त होगा कि तुम भ्रमरावलियोंके गुजारवसे गूंजते हुए निकुञ्जको जा रही होगी, तुम्हारे श्रीअगोसे परिथमके कारण पसीनेकी दूंदें अनवरल बहती होगी और उस समय तुम्हारे पीचे चलती हुई मैं कमलिनीके पत्रद्वारा तुम्हें सानन्द हवाकर रही होऊँगी ॥३४॥

मध्ये ते ऋशिमा स्तने च गरिमा बिम्बाधरे रक्तिमा श्रोणी सुप्रथिमा स्मिते मधुरिमा नेत्रे तथा बङ्किमा ।।

लास्ये ते द्रढ़िमा च वाचि पटिमा देहे च या कान्तता श्री राधे हृदि ते सदा सरसता ध्याने ममानोडतु ॥३५॥

हे श्रीराधे! तुम्हारे श्रीचरणोंमें प्रार्थना है कि तुम्हारे कटिभागकी कृशता, स्तनोंकी पीनता, बिम्बाधरकी लाली, श्रोणिभागका विस्तार, मन्द मुसकानकी माधुरी, नेत्रोंका बांकापन, नृत्यविषयक दृढ़ता, वाणीकी पटुता, श्रीनङ्गोकी कान्ति तथा हृदयकी सरसता-ये सब गुण मेरे ध्यानमें सदा क्रीड़ा करे ॥३५॥

कुचकचग्रहणेऽधरगण्डयोः सरसचुम्बनकर्मणि राधिके प्रियतमं प्रति ते मधुरा गिरोनहि नहीति कदा शृणुयामहस् ॥३६॥

हे श्रीराधे! प्यारे श्यामसुन्दरके द्वारा तुम्हारे श्रीमङ्गोंका लालन किये जाते समय लज्जावश तुम्हारे द्वारा उच्चारित माधुर्यमय निषेध-वचनोंको मैं कब सुन सकूँगी? ॥३६॥ 

यस्याः कंकर्यभाजा भवति रसचमत्कारिणी कापि भक्तियस्याः पादारविन्दाश्रितमधुरमहाप्रेमपीयूषसारम् ।

लब्धं सेवाप्रसादं विलुठति चरणे किंकरीणां च यस्याः कृष्णोऽप्यानन्दसारामृतरसमधुरस्तां भजे कीतिकन्याम् ॥३७॥

जिसका कैकयं (दासीभाव) प्राप्त किये हुए भक्तजनोंको रस-चमत्कारसे पूर्ण कोई अनिर्वचनीय भक्ति प्राप्त होती है, जिसके श्रीचरणारविन्दोंके आथित मधुर महाप्रेमरूपी अमृतके सारभूत सेवा-प्रसादको प्राप्त करनेके लिये प्रानन्दसारामृत-रसमय मधुर विग्रहसे विलसित श्रीकृष्ण भी जिसकी दासियोंके भी चरणोंमें लोटते हैं, उस कौतिकन्या श्रीराधाका मैं सदा भजन करता हूँ॥३७।।

राधे सन्ति सहस्रशो मृगदृशो लावण्यलीलाकलावैदग्धीसरसास्तथापि रमते त्वय्येव वंशीधरः ।

नूनं शारदकोटिचन्द्रवदने राकाशशाङ्कुच्छटां हित्वा किं बत तारकासु रमते कश्चिच्चकोरो भुवि ॥३॥

शरत्कालके करोड़ों चन्द्रमाओंसे भी अधिक कान्तिमान् मुखवाली राधे । लावण्य, लीला, कला और चातुरीसे भरी-पूरी सहस्रो सरसहृदया मृगनयनीरमणियां इस व्रजमें शोभा पा रही है; तथापि मुरलीधर श्यामसुन्दर केवल तुम्हारे

प्रति ही विशेष अनुरक्त रहते हैं। क्या इस भूतलपर कोई भी चकोर पूर्णिमाके चन्द्रमाकी ज्योत्स्नामयी छटाको छोड़कर कभी तारायोंसे रमण करता है ? कभी नहीं । (भाव यह है, श्रीकृष्ण नित्य राधारमण हैं तथा श्रीराधा प्रेमकी घनीभूत

मूर्ति हैं। बिना प्रेमके श्रीकृष्णका रमण बनता ही नहीं ) ||३८||

पयोधरभराक्रान्ते सुकोमलपदाम्बुजे ।

मनोरथरथारूढ़ा ममाभिसर राधिके ॥ ३६ ॥

(अभिसारके लिये ले जाये जाते समय ननु नच करनेवाली श्रीराधासे राखी कहती है--) हे श्रीराधिके ! मैं जानती हूँ कि तेरे पदकमल अत्यन्त कोमल हैं और उरोजोंके भारसे तू आक्रान्त है, श्रतएव संकेतकुञ्जतक जाने में असमर्थ है; इसलिये हे प्यारी ! तू मेरे मनोरथके रथमे बैठकर अभिसार कर ( अर्थात् अपनी इच्छा न होनेपर भी मेरी इच्छा से चल ) ।। ३६।।

तदित्यायाता स्थिरसहचरी चापि रजनी पयोदो, दैवज्ञो वदति शुभवेलामभिनदन् ।

मुदा कालिन्दीकलकलर मंङ्गलपरा सुयोगेऽस्मिन् राधे त्वदभिसरणं स्यान्मम मुदे ॥ ४० ॥

हे श्रीराधे ! लो, तुझे बुलानेके लिये यह विद्युल्लता दूती बनकर श्री गनी, और स्थिर रूपसे तेरे साथ रहनेवाली सहचरी यह रंगोली रजनी भी सेवामें उपस्थित है । मेषरूपी ज्योतिषी भी अपनी गर्जनासे शुभमुहूर्त बता रहा है तथा ये श्रीकालिन्दी देवी बड़े हर्पसे कलकल ध्वनिके द्वारा तेरे लिये मङ्गल-गीत गा रही है। ऐसे सुयोगमे प्रियतमके प्रति तेरा अभिसरण हो, इससे मुझे वडा हर्ष होगा ||४०||

श्रीकृष्णचन्द्रो तोऽधुनार्य भुवनैकदीपो चरमामवस्थाम् ।

स्नेहोऽत्र राधे विनिपातनीयोयथा भवेान्तमा त्रिलोकी ॥४१॥

हे श्रीराधे ! श्रीकृष्णचन्द्र भुवनके एक मात्र दीपक हैं ( तेरे मानके कारण )

वे मत्यन्त शोचनीय विरहकी अन्तिम अवस्थाको प्राप्त हो रहे हैं. इसलिये तुझे इस त्रिभुवन दीपक में शीघ्र अपना स्नेह डालना चाहिये, जिससे त्रिलोकीमें घोर अन्धकार न हो जाय ||४१ ||

धम्मिल्ले नवमल्लिकां सुतिलकं विन्यस्य भालस्थले केयूरे विनिधाय बाहुयुगले मुक्तावलीं चोरसि ॥

विश्वासं जनयन् व्रजेन्द्रतनयः काञ्चीनिवेशच्छलाaratबन्धमा करिष्यति कदा राधे शठस्ते शनैः ॥४२॥

हे श्रीराधे ! श्रीजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण शठनायककी लीला करते हुए पहले तो तुम्हारे केशपाशमें चमेलीकी नवीन माला धारण करायें, फिर श्रीभालस्थलपर ( कद- मोहन यन्त्र नामक) सुन्दर तिलककी रचना करें, इसके बाद दोनों भुजाश्रो

मे बाजूबंद और वक्ष:स्थलपर मुक्तामाला अर्पित करें और तदनन्तर कटिमे काञ्ची धारण करायें। यह शठनायककी रहस्यमयी लीला देखनेका सौभाग्य मुझे कब प्राप्त होगा ? ॥४२॥

निशि घने तिमिरेऽतिभयंकरे तरुलतापुटिते रविजातटे ।

भवतु वर्धति गर्जति वारिदे पतिस्तव चि सहायकः ॥४३॥

(वर्षा ऋतुके उत्सव में श्रीनान्दीमुखी श्रीराधाको आशीर्वाद देती हैं -)

हे कृपाङ्गि श्रीराधे ! वादलोके गरजते और वरमते समय रात्रिकालिक श्रति

भयंकर घनीभूत अन्धकारमे वृक्षों और लताओं से घिरे हुए श्रीयमुनातटपर श्रीमधुपति श्रीकृष्ण तेरे सहायक हों ||४३||

स्फुरतडित्कान्तिमवेक्ष्य घो यथा मुदा गर्जति कोसिकन्ये ।

जयत्यो स्वाभक्ष्य चाद्रेःशृङ्गे मुरारेः शिखिकण्ठनादः ॥ ४४ ॥

कीर्तिकिशोरी श्रीराधे ! चमकती हुई बिजलीके प्रकाशको देखकर जैसे मेघ

बड़े हर्षसे गर्जना करता है, उसी प्रकार श्रीश्यामसुन्दर भी तुझे देख पर्वतके शिखर

पर चढ़कर अपने कण्ठसे मोरकी-सी बोली बोलने लगते हैं। उनके उस कण्ठनादकी सदा विजय हो ।।४४ ॥

त्यक्त्वा कुण्डलकङ्कणानि मुकुटं वंशीं च गुञ्जावल केयूरे हृदयं जहार चतुरा चौरी सुगौरी सखे ।

स्वप्ने कापि सरोजसुन्दरमुखी लावण्यलोलानिधिःवाचं चेत्थमुदीरयन् मम मुदे भूयात्स दामोदरः ॥४५॥

( श्रीकृष्ण मधुमङ्गलसे अपने स्वप्नका वृत्तान्त कहते है -- ) 'मित्र ! आज रात्रिमे किसी चोरी करनेवाली चतुर नारीने मेरे कङ्कण, कुण्डल, मुकुट, बंशी और गुञ्जामाला -- इन सबको छोड़कर केवल मेरे हृदयको चुरा लिया है। ( क्या तू उसको पहचान सकता है ? उसकी हुलिया इस प्रकार है - ) वह अत्यन्त गोरे रंगकी है । उसका मुख सरोजसे भी अधिक सुन्दर है और लावण्यलीलाकी तो वह निधि ही है।' इस प्रकारकी बातें करते हुए श्रीदामोदर मुझे सदा श्रानन्द प्रदान करें ।।४५ ||

गृह्णीत मामुत नर्खविलिखे दुरोजंम् छित्त्वा रवैरधरमाशु हरेच्च नोवीम् ।

इत्थं सखोसुलिखितं प्रियमक्ष्य चित्रेराधा विशङ्कय निकटं न ययौ प्रमुग्धा ॥ ४६ ॥

मुग्धा श्रीराधा चित्रा सखीके द्वारा सुरचित सुन्दर चित्रमे प्रियतमकी झांकी

करके शङ्कितचित्त हो उनके निकट नहीं गयीं और सखियोंसे कहने लगी- 'श्ररी ! मैं इनके पास जाऊँगी तो ये मुझे स्नेहपाशमे जकड़ लेंगे और अपनी चपल चेष्टात्रोंसे तंग करेंगे' ॥४६॥ |

धैर्य धारय चित्त नाधिकमतो हे काम मां पीड़य भ्रातर्मुञ्च दृशौ निमेष विरमाप्यप्रवाह क्षणम् ।

महारससुधामाधुर्य धारावहासेयं लोचनगोचरीभवति में भाग्येन भाग्येश्वरी ॥४७॥

(संकेत-कुञ्जमें श्रीराधाके विरहसे विह्वल हुए श्रीश्यामसुन्दर किसी सखीद्वारा अपने पास श्रीप्रियाजीके आनेका सरस समाचार सुनकर अपने आपको सावधान करते हुए कहते हैं -) चित्त ! अब तू चञ्चलताको छोड़कर धैर्य धारणकर । हे प्रेम देवता ! अब तू मुझे इससे अधिक कष्ट मत दे। भाई

निमेष ! तुम भी मेरे नेत्रोंको छोड़कर अब हट जाओ । हे अश्रुप्रवाह ! तू भी क्षणभरके लिये विराम कर; क्योंकि इस समय वह महारसमयी सुधा के माधुर्यकी धारा बहानेवाली मेरी भाग्येश्वरी आश्चर्यरूपा श्रीराधा सौभाग्यवश मेरे इन नेत्रोके समक्ष आ रही है ॥४७॥

सालस्यैर्मुकुलीकृते रसभरैर्लोलः सलज्जैर्मुहुः मनिमेषरहितंय मोहकैर्वेधकैः ।

भावाकूतमहो वर्माद्भरिव तैरन्तर्गतं लोवनंःपश्यन्ती नवनागरं सुकृतिनं राधे कदा लक्ष्यसे ||४८ ||

हे श्रीराधे ! तुम अपने अलसाये, मुकुलित, सरस, चञ्चल, सलज्ज, कुछ

कुछ बाँके, निमेषरहित, मोहक, वैधक तथा हृदयके भावको बाहर प्रकट कर देने

बाले नयनोंसे पुण्यात्मा नटवर नागर श्यामसुन्दरको बारंबार निहारती हुई कब

मुझे दर्शन देनेकी कृपा करोगी ? ॥४८॥

सचकितं हस्ताब्जमाधुन्वतोसम्पताधरमाधुरीमा मा मुञ्च प्रियेति रोषवचनंरानतित भूलता ॥

किंचित्कुञ्चितलोचना सुमधुरं शीत्कारमातन्वतीश्रीश्यामेन सुचुम्बिता भवतु मे राधाक्षिलक्ष्यानिशम् ॥४६॥

जो चकित हुई अपने कर-कमलको हिला-हिलाकर मना करती हैं और रोष - पूर्ण वचन कहकर अपनी भौंहें टेढ़ी कर लेती हैं, तो भी नटवर श्यामसुन्दरके द्वारा हठात् झकझोरी जाती हुई श्रीराधा सदा ही मेरे नेत्रोंको दर्शन देती रहें ॥४६॥

त्वत्पादान्ते लुठति दयितो मन्युमोक्षाय राधे त्यक्ताहाराः सततरदितोच्छूननेत्राश्च सस्यः ।

सर्व मुक्तं हसितपठितं ते शुकैः सारिकाभिमिथ्यामानं विसृज कठिने त्वानेष्ये कदा नु ॥५०॥

'मानिनी' श्रीराधे ! तुम्हारे क्रोधको शान्त करनेके लिये --तुम्हें मनाने के

लिये प्रियतम तुम्हारे श्रीचरणोंके निकट लोट रहे हैं, निरन्तर रोती हुई तुम्हारी इन सखियोंके नेत्र सूज गये हैं, इन सबने खाना-पीना भी छोड़ दिया है; तुम्हारे शुकों और सारिकाने भी हँसना-खेलना, पढ़ना-बोलना सब छोड़ दिया है, कठोर स्वभावका श्राश्रय लेनेवाली सखी! अब तो प्रसन्न हो जाओ। यह व्यर्थ का मान छोड़ दो।' हे श्रीराधे ! क्या कभी तुमसे इस प्रकार अनुनय-विनय करनेका सौभाग्य मुझे भी प्राप्त होगा ? ॥ ५० ॥

माला लोचनपङ्कर्जावरचिता पुष्पाञ्जलिः सुस्मितैः नैवेद्यं त्रामृतं कुचघरघऽपि प्रस्वेदजः ।

सर्वाङ्गः परिरम्भणं सुवसनं गन्धो निजाङ्गोद्भवः स्वाङ्गरेव प्रियैः प्रियो रसमयंराराध्यते राधया ॥ ५१ ॥

(एक सखी अपनी सहचरीको लता छिद्रोंसे दिखा रही है - सखी! देखो, ) श्रीराधा अपने प्रिय एवं रसमय श्रीङ्गोंसे ही प्रियतमकी बार-बार प्राराधना करती हैं। इन्होंने प्रियतमकी पूजाके लिये अपने नेत्र कमलोकी ही सुन्दर माला बना रखी है, सुन्दर भन्द हास्यकी पुष्पाञ्जलि अर्पित की है। प्रस्वेदजलका अर्घ्यं निवेदन किया है, प्रेममय मिलनरूप सुन्दर वस्त्र चढ़ाया है तथा

अपने श्रीङ्गोंकी दिव्य गन्ध ही गन्धरूपसे अर्पित की है ॥ ५१ ॥

प्रेष्ठे सागसि शायिते सखि सखीवेषं विरच्यागते तं चाश्लिष्य मया रहस्यमुदितं तत्संगमाकाङ्क्षया ।

मुग्धे दुर्लभ नित्युदीर्य हसितं गाढं समालिङ्गिता तेनेत्थं छलिता निशि मां राधावचो रक्षतु ॥५२॥

'सखी! कल प्यारेसे कुछ अपराध बन गया, तब रूठकर मैंने उन्हें अपने

पास आने से मना कर दिया। उस समय तो वे चले गये, किंतु रात्रिमें ससीका वेश बनाकर फिर मेरे पास आये। मैंने उन्हें अपनी प्यारी सखी समझा। उनकी

चेष्टाएँ देखकर मैं उन्हें पहचान न सकी । श्ररी सखी! प्यारे बड़े धूर्त है,

शठ हैं।

इस तरह उन्होंने मुझे ठग लिया।' इस प्रकार सखियोकी गोष्ठीमकहा गया श्रीराधाका वचन सदा मेरी रक्षा करे ।।५।।

राधे त्वामरविन्दसुन्दरमुखोमालक्ष्य चेतोहरा श्रुत्वा ते मधुरां सुधारसमयों वाचं यशोदासुतः।

वाञ्छत्यक्षिमयं तथा श्रुतिमयं नित्यं वपुः स्वात्मनःमुग्धे सैव दशा सदा भवति में राधावचः पातु माम् ॥५३॥ (एक मुग्धा सखी श्रीराधासे कहती है-) हे श्रीराधे ! कमलके समान सुन्दर मुखवाली तुम-जैसी मनोहारिणी प्रियतमाको देखकर यशोदानन्दन श्रीकृष्ण यही चाहते हैं कि मेरे शरीरमें नेत्र-ही-नेत्र हो जायें, जिससे मैं प्यारीकी शोभामाधुरीका यत्किचित् बास्वादन कर सकू तथा तुम्हारी सुधारसमयी मधुर वाणीको सुनकर वे यह इच्छा करने लगते हैं कि मेरा सर्वाङ्ग श्रोत्रमय हो जाय ।' श्रीराधा बोली-'मेरी भोलीभाली सखी ! उनके मनोहर रूपको देखकर और उनके मधुर गीतोंको सुनकर मेरी भी ऐसी ही इच्छा होती है।' यह श्रीराधाका वचन सदा मेरी रक्षा करे ।।५।।

ललन मोहन सुन्दरशेखर त्वमपि कि कटुमानरुजादितः।

तव शिरोषप्रसूनसुकोमलाकथमहो प्रिय ! जीवतु राधिका ॥५४॥

(सखियाँ श्रीकृष्णको मनाती है-) ललन ! मोहन ! सुन्दर-शेखर ! क्या आज तुम भी इस कटु मानके रोगसे पीड़ित हो रहे हो? प्यारे ! श्रीराधिका तुम्हारे इस मानको देखकर कैसे जीवित रहेगी? क्योंकि वह तो शिरीषकुसुमसे भी अधिक कोमल है ।।५४॥

बाले मुञ्च मृगाक्षि भोः सरलतामस्मिन् प्रिये वञ्चके धैर्य धारय मानिनो भव चिरं कृत्वा सुतिर्यग्भ्रुवौ ।

इत्याकर्ण्य सखीवचोऽतिचकितं तामाह राधा शनैः प्रोच्चर्मा वद मानसे वसति में प्राणेश्वरः श्रोष्यति ॥५५॥

(श्रीराधाका मुग्धाभाव--) 'बाले ! मृगलोचने ! तुम्हारे ये प्रियतम श्यामसुन्दर बड़े वञ्चक है, तुम इनके साथ सरलताका व्यवहार करना छोड़ दो। मनमें धैर्य रखा करो, तिरछी भौंहे करके चिरकालतक मानश्ती बनी रहो।' सखीकी यह बात सुनकर श्रीराधा अत्यन्त चकित हो धीरेसे बोलीं-'पाली ! जोर-जोरसे न बोल ; प्राणेश्वर मेरे हृदय-मन्दिरमें ही वास करते है, तेरी सय बाते सुन लेंगे ॥५॥

लावण्यमव बहु त मधुरऽधरऽपि । पीतः प्रिये मुहुरहो तनुतेऽतितृष्णाम् ।

वैवम्यास्ति मदनज्वरपीडितस्यराधावचो विजयते परिहासगोष्ठ्याम् ॥५६॥

(श्रीकृष्ण और राधाका परस्पर परिहास---) श्रीकृष्ण बोले-'प्रिये । तुम्हारे मधुर अधरमें भी लावण्य (नमक)ही अधिक है ; क्योंकि इससे यह अधर अधिकाधिक तृष्णाका ही विस्तार करता है। यह कैसा आश्चर्य है !' श्रीराधा बोलीं---'प्यारे ! तुम प्रेम-ज्वरसे पीड़ित हो, इसीसे तुम्हें विषम प्रतीति हो रही है (क्योंकि ज्वरमें स्वाद बदल जाता है)।' (श्रीजीका यह उत्तर सुनकर सभी सखियाँ हँस पड़ी!) परिहास-गोष्ठीमें श्रीराधाके इस वचनकी सदा ही विजय हो ॥५६॥

साध्यानशेषानुत साधनानि विस्मृत्य राधे कृपया तवैकम् ।

गोविन्दसंसेव्यसुधारसं तेपादारविन्दं सततं स्मराणि ॥७॥

हे श्रीराधे! जिसके सुधा-रसका श्रीगोविन्द भी सेवन करते हैं,उस एक मात्र तुम्हारे श्रीचरणारविन्दका मैं तुम्हारी कृपासे सभी साध्यों और साधनोको भुलाकर, नित्य-निरन्तर स्मरण करता रहूँ। (यही मेरी वाञ्छा है) ॥७॥

लाक्षासंसक्तभालं विलसितकटकाधकमालं सुकण्ठे अक्ष्णोस्ताम्बूलारक्तनेत्रं ललितनखपदंकज्जलाक्तन्दुवक्त्रम् ॥ सालस्यं धूणिताक्षं लुलितकचचयं दष्टबिम्बाधरश्रीराषायाः प्राणनायं स्मरत हृदि सदा भो रसज्ञाः प्रभाते ॥५॥

(रसिकोंके ध्येय श्रीकृष्ण-~) हे रसिको! जिनके भालपर अलक्तक लगा है, कण्ठमें कंगन, बाजूबंद आदिके चिह्नोंकी सुन्दर माला अङ्कित है, नेत्रोमें ताम्बूलकी पीक लगी है, वक्षः स्थलपर चिह्न उभरे हुए हैं, श्रीमुखचन्द्र, कपोल आदिपर काजल लगा है, और काले-काले धुंघराले बाल खुले हुए हैं, ऐसे पालस्य युक्त, पूणित नेत्रवाले श्रीराधाके प्राणनाथका प्रातःकाल अपने हृदयमें सदा घ्यार किया करो ॥५॥

भ्रूभङ्ग कुशला चिरं नयनयोर्जानामि सम्मोलनंहास्यं रोद्धमपि क्षमा सखि मयाभ्यस्तं च मौनव्रतम् ।

कृत्वा चित्तनियन्त्रणं कथमपि सज्जीकृतात्मा स्वयं धौरा मानपरिग्रहेऽस्मि ललिते सिद्धिस्तु देवे स्थिता ॥५६॥

(श्रीराधाकी मान शिक्षा-श्रीराधा ललितासे कहती हैं-) हे सखी ललिते! मैं भौहें टेढ़ी करनेमें कुशल हो गयी हूँ, वड़ी देरतक नेत्रोको बंद रखना भी जान गयी हूँ, हँसी रोकनेमे भी अपनेको समर्थ अनुभव करती हूँ, मौन व्रतका भी मैने अभ्यास कर लिया है तथा चित्तको भी किसी प्रकार वशमें करके मैंने अपने आपको मानकी भूमिकाके लिये तैयार कर लिया है। सखी (इस प्रकार) मानको धारण करनेमें यद्यपि मैं बड़े धैर्यसे काम लूंगी, तो भी इसमें सफलता पाना तो दैवके अधीन है (श्रीकृष्णका जादू ही ऐसा है) ॥५६॥

दृगञ्चलेन पश्यन्त्या वदन्त्या गच्छ प्रेष्ठकम् ।

अहो स्पृशन्त्या राधायाः प्रेक्षे कि मानदुःस्थितिम् ॥६०॥

(मानकी परीक्षामें राधा अनुत्तीर्ण----) मानिनी श्रीराधाको मनानेके लिये जब श्रीकृष्ण उनके सामने आये, तब वे नेत्रोंके कोनेसे उन्हें वारंवार देखने लगी, कहने लगी, 'अब यहाँसे चले जायो।' श्रीराधाके मनकी यह दुर्दशा क्या कभी मै भी देख सकूँगी? ॥६०॥

शेष आगे जारी .................. श्रीराधा सप्तशती अध्याय 7 भाग 2

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