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मूल शांति पूजन विधि
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
भूतडामरतन्त्र पटल १
डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला
में साधकों व पाठकों के लाभार्थ आगमतन्त्र से भूतडामर महातन्त्र अथवा भूतडामरतन्त्र क्रमशः दिया जा रहा है। इस तंत्र
के पटल १ में भैरव-भैरवी संवाद तथा सिद्धिप्राप्ति प्रकार का वर्णन हुआ है।
'भूत'
शब्द प्राणिमात्र, दिव्य, लौकिक भूत, प्रेत, पिशाच,
दानव, पंचमहाभूत, यम,
ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव का वाचक है। 'डामर' का अर्थ है – डरावना । 'तन्त्र' शब्द इन अर्थो का वाचक है-दैवतन्त्र,
स्वतन्त्र तथा परतन्त्र तन्त्रसंहिता के विषय हैं- देवपूजा, अतिमानवीय शक्ति प्राप्त करना, जादू-टोना, मन्त्र-तन्त्र, गण्डा, ताबीज
आदि। इन अर्थों का वाचक है - 'भूतडामरतन्त्र' ।
भूतडामरतन्त्रम् प्रथमं पटलम्
भूतडामर तन्त्र पटल १
भूतडामरतन्त्र पहला पटल
॥ श्रीः ॥
भूतडामरतन्त्रम्
प्रथमं पटलम्
ॐ नमः क्रोधभैरवाय
व्योमवक्त्रं महाकायं प्रलयाग्निसमप्रभम्
।
अभेद्यभेदकं स्तौमि भूतडामरनामकम् ॥
१॥
आकाश रूपी शरीर वाले,
महाकाय, प्रलयकालीन अग्नि के समान देदीप्यमान,
अभेद्य का भी भेदन करने वाले भूतडामर नामक उन्मत्तभैरव की
मैं वन्दना करता हूँ ॥ १ ॥
त्रैलोक्याधिपति रौद्रं
सुरसिद्धनमस्कृतम् ।
उन्मत्तभैरवं नत्वा पृच्छत्युन्मत्त
भैरवी ॥ २ ॥
त्रैलोक्य के अधिपति,
देवता तथा सिद्धों द्वारा सेवित एवं नमस्कृत रुद्ररूपी उन्मत्त भैरव
को प्रणाम करके देवी उन्मत्तभैरवी उनसे जिज्ञासा करती हैं ।। २ ।।
भैरव्युवाच
कथं यक्षा नरा नागाः किन्नराः
प्रमथादयः ।
जम्बूद्वीपे कलो सिद्धि
यच्छन्त्येता वराङ्गनाः ॥ ३ ॥
भैरवी कहती हैं
- हे भैरव ! इस कलिकाल में जम्बूद्वीप में किस प्रकार से यक्ष,
मनुष्य, नाग, किन्नर,
प्रमथ तथा वरांगनाएँ ( अप्सराएँ ) सिद्धि प्राप्त करते हैं ।। ३ ।
येऽन्ये पापरता मिथ्यावादिनः
शीलवर्जिताः ।
सालस्याः पुरुषास्तेषां साहाय्यं
कुरु त्वं स्वयम् ॥ ४॥
इनके अतिरिक्त जो पुरुष पापकर्मों
में लगे हैं, झूठ बोलते हैं, चरित्रहीन हैं तथा आलसी हैं, उनकी सहायता आप स्वयं
कीजिए ॥ ४ ॥
केनोपायेन नश्यन्ति कलौ
दुष्टाधराशयः ।
लभ्यन्ते सिद्धयः सर्वा
मोक्षपद्धतयः शुभाः ।
सिद्धयोऽप्यणिमाद्याच
महापातकनाशिकाः ॥ ५ ॥
कलियुग में किस उपाय द्वारा अत्यन्त
दुर्जय पापसमूह का नाश किया जाता है एवं किस उपाय द्वारा समस्त मंगल देने
वाली अभिलषित सिद्धि, मोक्ष तथा पापराशि नाशक
अणिमादि आठों सिद्धियों की प्राप्ति होती है ? ।। ५ ।।
अन्यान्नाशनतः
पापमन्यस्त्रीगमनादिजम् ।
कथं नश्यन्ति देवेश ! हेलया नरकं
तमः ॥ ६ ॥
हे देवेश ! किस प्रकार से अन्य जाति
के यहाँ अन्न भोजन करने का पाप तथा परस्त्रीगमन जनित पाप सरलता से नष्ट होता है और
नरक तथा अन्धकार से परित्राण मिलता है ? ।।
६ ।।
चन्द्रसूर्यप्रभो भूत्वा
तिष्ठेद्रुद्रपुरे चिरम् ।
सुरसिद्धसर्पभूतयक्षगुह्यकनायिकाः ॥
७ ॥
किस प्रकार देव,
सिद्ध, सर्प, भूत,
यक्ष, गुह्यक तथा नायिका प्रभृति चन्द्र-सूर्य
के समान तेजयुक्त होकर रुद्र के धाम में चिरकाल हेतु अवस्थान करने का
अधिकार प्राप्त करते हैं ? ।। ७ ।
दूरादागत्य कामार्त्ता
बलादालिङ्गयन्ति कम् ।
ब्रह्मेश जिष्णुप्रमुखा मारिता वा
कथं प्रभो ! ।
पुनः केन प्रकारेण मृता जीवन्ति
निर्जराः ॥ ८ ॥
किस उपाय का अवलम्बन करने से
कामातुरा स्त्री सुदूरवर्ती स्थान से आकर साधक का बलपूर्वक आलिंगन करती है ?
प्रभो! कैसे ब्रह्मा, शिव, इन्द्र प्रभृति प्रमुख देवगणों को भी नष्ट किया
जा सकता है ? मृत व्यक्ति कैसे पुनर्जीवन प्राप्त करके
अजर-अमर हो सकता है ? कृपापूर्वक मुझे इसका उपदेश करें ॥ ८ ॥
श्रुत्वैतद्वल्लभावाक्यमुन्मत्तभैरवोऽसकृत्
।
सन्तुष्टो भैरवीं प्राह सर्वं
विनयपूर्वकम् ।। ९ ।।
भगवान् उन्मत्तभैरव अपनी वल्लभा के
इन वाक्यों को बार-बार सुनकर भैरवी देवी से सन्तुष्ट होकर विनम्रतापूर्वक
उत्तर देते हैं ।। ९ ।।
उन्मत्तभैरव उवाच
क्रोधाधिपं व्योमवक्त्रं वज्रपाणि
सुरान्तकम् ।
वक्ष्ये नत्वा ततस्तत्र भूपति
भूतडामरम् ॥
सर्वपापक्षयकरं दुःखदारिद्र्घघातकम्
।
सर्वरोगक्षयकरं सर्वविघ्नविनाशनम् ॥
महाप्रभावजनमं दमनं दुष्टचेतसाम् ।
महाचमत्कारकर
स्थित्युत्पत्तिलयात्मकम् ।
ज्ञानमात्रेण देवेशि
भुक्तिमुक्तिफलप्रदम् ।। १० ।।
उन्मत्त भैरव कहते हैं-भैरवी
! मैं क्रोधपति, गगनमुख, वज्रहस्त,
देवगणविनाशक, भूपति भूतडामर को नमस्कार करके
इस रहस्य का उद्घाटन करता हूँ। इससे समस्त पापों का क्षय होता है, दुःख एवं दरिद्रता समाप्त होती है। रोगों का नाश होता है, विघ्न नष्ट हो जाते हैं। महाप्रभाव की वृद्धि होती है और दुष्टचित्त-समूह
का दमन होता है। यह भूतडामर तन्त्र अत्यन्त चमत्कारी है। इसके द्वारा प्राप्त
शक्ति से सृष्टि, स्थिति तथा संहार सम्भव है। इसके जानने
मात्र से इस लोक में विविध भोग-वस्तुओं के साथ-साथ अन्त में मुक्ति प्राप्त होती
है ॥ १० ॥
तव स्नेहान्महादेव ! कथ्यतेऽकथ्यमद्भुतम्
।
यत् सुरैर्दुर्लभं स्वर्गे मर्त्ये
मर्त्यैर्मुमुक्षुभिः ॥
नागलोके तथा नागैस्तच्छृणुष्व मम
प्रिये ! ।
यस्य ज्ञानं विना क्वापि नारीणां
निग्रहो भवेत् ।
यक्षिण्यो नैव गच्छन्ति
सिद्धिमिष्टां शृणुष्व तत् ॥ ११ ॥
महादेवी ! मैं तुम्हारे स्नेह के वशीभूत होकर इस अति गोपनीय तथा अद्भुत विषय का उपदेश करता हूँ। यह स्वर्ग में देवगण के लिए, मृत्युलोक में मुमुक्षु मनुष्यों के लिए तथा नागलोक में नागों के लिए भी दुर्लभ है। हे प्रिये ! सुनो। इसे न जानने से यक्षिणी भी अभीष्ट सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकती और नारीगण का भी निग्रह नहीं होता ॥ ११ ॥
इति भूतडामरे महातन्त्रे प्रथमं
पटलम् ।
भूतडामर महातन्त्र का प्रथम पटल
समाप्त हुआ ।
आगे पढ़ें.................. भूतडामरतन्त्र पटल २
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