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कर्मकाण्ड

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श्रीराधा सप्तशती अध्याय ६ भाग २

श्रीराधा सप्तशती अध्याय ६ भाग २    

इससे पूर्व आपने डी०पी०कर्मकाण्ड के श्रीराधा सप्तशती श्रृंखला के अध्याय ६ का भाग १ पढ़ा, अब उससे आगे भाग २ में पढेंगे । पुनः सभी विद्वत पाठकों से निवेदन कि- मेरे पास जो श्रीराधा सप्तशती की प्रति उपलब्ध है, वह अत्यंत ही जर्जर और अस्पष्ट है और कहीं कहीं तो कई श्लोक पढ़ने व समझने लायक नहीं है। फिर भी मैंने अपनी ओर से पूर्ण प्रयाश किया की कोई त्रुटि न रहे। फिर भी कई श्लोक व भावार्थ में त्रुटि और विसंगतियां संभव है। अतः पाठकों से विशेष निवेदन यदि आप मुझे पूर्ण और अच्छी श्रीराधा सप्तशती पीडीऍफ़ में उपलब्ध करा सकें तो आपका आभारी ।

श्रीराधा सप्तशती अध्याय ६ भाग २

श्रीराधा सप्तशती षष्ठोऽध्यायः द्वितीयः 

संचारणाभावगतरमोषां

संचारिसंज्ञाः कथिता रसज्ञैः।।

एते त्रयस्त्रिंशदिहाब्धिमध्ये

तद्रूपता यान्ति यथा तरङ्गाः ॥५१॥

भावकी गतिका सचारण करनेसे इन्हें रसज्ञपूप 'संचारी' भाव भी कहते हैं। समुद्रके भीतर उठनेवाली तरङ्गे जैसे समुद्रका ही स्वरूप हो जाती है, वैसे ही ये तैतीस संचारी भाव भी 'स्थाविभाव' का रूप धारण कर लेते है ।।५।।

*प्रलयका उदाहरण

जङ्घ स्थावरतां गते परिहतस्पन्दा द्वयी नेत्रयोः

- कण्ठः कुण्ठितनिस्वनो विघटितश्वासा च नासापुटी।

राधायाः परमप्रमोदसूधया धोतं पुरो माधवें

साक्षात्कारमिते जनोऽपि भनिवन्मन्ये समाधि दधे ॥

(श्रीराथाके श्रीकृष्णदर्शनजनित आनन्दका ललिता विशाखाके साथ प्रास्वादन करती है-)

जब श्रीराधाके समक्ष माधव आ गये और उनका साक्षात्कार होने लगा, . उस समय उसकी पिंडलियाँ पत्थरकी भांति स्थिर हो गयीं, दोनों नेत्र निनिमेष भावमे उन्हें निहारने लगे, कण्ठका स्वर कुण्ठित हो गया और नासिकाफी सांस भी विघटित हो गयी। इतना ही नहीं, परमानन्दमयी सुधाने नहाया हुया श्रीराधाका मन भी मेरी समझसे मुनियोंकी भाँति समाधिमें स्थित हो गया।

दोनोंको वेदवादियोंने भावरूप माना है। इन दोनोंमें शक्तिस्वरूप मुख्य है, वह स्त्रीरूप है और केवल (अप्रकट शक्तिवाला) भाव पुरुषरूप श्रीकृष्ण कहे गये हैं उक्त द्विबिध भावोमें जो स्त्री-अंश है, वह पराशक्ति श्रीराधा हैं तथा जो भाव-अंश है, वह श्रीकृष्ण हैं॥६१-६२।।

तथा हि सर्वभावात्मा कृष्णः सापि च तादृशी।

गायको गानशक्त्यैव स्वमन्यांश्च सदोगतान् ॥६३॥

यथा तोषयते कृष्णः स्वशक्त्या स्वं तथा स्वकान्।

जैसे श्रीकृष्ण सर्वभावात्मा है, वैसे ही श्रीराधा भी हैं। जैसे गायक अपनी गानशक्ति द्वारा ही अपने आपको और अन्य सभासदोंको भी आनन्दित करता है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण भी अपनी (हादिनी) शक्तिसे ही अपनेको ओर अपने सम्बन्धियोंको आनन्दित करते हैं ।।६३३।।

शक्तिस्वरूपा सा राधा ह्लादिनी परमेश्वरी ॥६४॥

स्वतन्त्रा सर्वमूर्धन्या रसदा रसिकेश्वरी।

परास्य शक्तिरेषा तां श्रुतिर्बहुविधां जगौ॥६५॥

वेदकी श्रुति भी परमात्माकी पराशक्तिके अनेकविधरूपका वर्णन करती है,* वह पराशक्ति ये श्रीराधा ही है। रसिकजन इन्हीं शक्तिस्वरूपा श्रीराधाको ह्लादिनी, स्वतन्त्रा, रसदा, रसिकेश्वरी, पराशक्ति, परमेश्वरी और सर्वमूर्धन्या कहते है ॥६४-६५॥

वृन्दावन कृष्णसेव्यां कृष्णप्राणां रसेश्वरीम् ।

वृन्दावने कृष्णसेव्यां कृष्णप्राणां रसेश्वरीम् ।

एतामुपासते सर्वे तृण गुल्मलतादयः ॥ ६६॥

श्रीवृन्दावनमें तो ये श्रीकृष्णकी परम सेव्या हैं, उनकी प्राणस्वरूपा हैं तथा रसेश्वरी हैं। वृन्दावनके तृण, गुल्म और लता आदि सभी इनकी उपासना करते है ॥ ६६ ॥

पलाशार्क करीराधा राधे राधे रटन्ति ताम् ।

क्षुद्राश्चराचरा जीवाः सखे किमुत मानवाः ॥ ६७ ॥

सखे सुकण्ठ ! (श्रीवृन्दावनमें) क्षुद्र चराचर जीव तथा ग्राक, डाक ओर करील आदि भी 'श्रीराधे ! राधे !' कहकर उनकी रट लगाये रहते है, फिर मनुष्योकी तो बात ही क्या ॥ ६७ ॥

* परास्य शक्तिविविषैव श्रूयते ' श्वेताश्वतर० ) ।

यथा स्वल्पधनो लोके लब्ध्वा बहुधनं जनम् ।

तन्मेध्या लभते सथः सुखं नानाविधं नरः ॥६८॥

dea verstore बन्धाल्लभते सुखम् ।

शृङ्गारे मुख्यतो राधासम्बन्धोऽपेक्षितः सदा ॥६६॥

जैसे लोकमें अल्पवनी पुरुष किसी महाधनीको पाकर उसकी मैत्रीले तत्काल ही नाना प्रकारके सुख प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार श्रीराधा-कृष्ण के सम्बन्धसे जीव (तत्क्षण) सुखी हो जाता है। शृङ्गारमें श्रीराधाका सम्बन्ध मुख्य रूपत अपेक्षित है ।।६८-६३॥

स्थायिभावाfear तु स्याद्राधायामेव केवला ।

संचारिणी भवेत्कृष्णे राधासम्बन्धतो रतिः ॥७०॥

स्थायिभाव नामसे कही जानेवाली केवला (अनन्या ) रति श्रीराधामें ही होती है और श्रीकृष्णमें श्रीराधाके सम्बन्धसे संचारिणी रति होती है (यहीशृङ्गार रसकी रीति है ) ॥७०॥

श्रीराधासथ्यसम्बन्धाच्छृङ्गारानुभवो भवेत् ।

परिपूर्ण द्वयोरेवानुभूत्या द्विगुणो रसः ॥७१॥

श्रीराधाके (कैंकर्यगभित) सख्यसम्बन्ध से श्रृङ्गार रसका पूर्ण अनुभव होता है तथा श्रीराधा और कृष्ण दोनोके अनुभवसे द्विगुण रसकी प्राप्ति होती है ॥७१॥

श्रीगोविन्दसखीरूपे कान्ताभावे त्वपूर्णता ।

तत्रैकमात्रगोविन्दानुभूत्याऽऽस्वाद्यतेरसः ॥७२॥

श्रीगोविन्दकी सखीरूप कान्ताभावमें रसकी पूर्णता नहीं है; क्योंकि वहाँ एकमात्र श्रीगोविन्दके ही अनुभवद्वारा रसका आस्वादन किया जाता है ( श्रीराधाविशिष्ट श्रीकृष्णकी रहस्यलीलाओं में प्रवेश करनेके लिये श्रीगोविन्दकी सखियोमे योग्यता ही नहीं है और नित्यसिद्ध पत्नीत्व केवल श्रीराधाको प्राप्त है। अन्य सब साधनसिद्धा, कृपासिद्धा पत्नियाँ है ) ॥७२॥

सशक्तिकं रसं लब्ध्वा जीवोऽप्यानन्दवान्भवेत् ।

रसं ह्येवायमित्यादिश्रुत्याप्यर्थोऽयमीरितः ॥७३॥

शक्तिविशिष्ट रसको पाकर ही जीव आनन्दी होता है। 'रस' ह्येवाय' लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति' इत्यादि श्रुतिके द्वारा भी इसी अभिप्रायका निरूपण किया गया है ।। ७३ ।।

आभासरसरूपोऽपि जीवो विन्दुरिव स्वयम् ।

referrari rai लब्ध्वा रसमयो भवेत् ॥७४॥

स्वयं आभासमात्र रसरूप होनेपर भी यह विन्दुतुल्य जीव जब रससिन्धुमयी श्रीराधाकी उपासना करता है, तब विशुद्ध रसमय हो जाता है ||७४ ॥

जगद्व्यापारवर्ज हि भोगताम्यं श्रुतीरितम् ।

चिन्त्येन रसास्वादो जीवस्यैव सुसिध्यति ॥७५॥

जगद्व्यापारचिन्ता तु परात्मन्येव तिष्ठति ॥७६॥

(सृष्टि, स्थिति, प्रलय आदि जो जगत्के व्यापार हैं, उनका कर्ता केवल ईश्वर है, जीव नहीं ।) जगद्व्यापारको छोड़कर रसभोगको लेकर जीव-ईश्वरमें समता है, ऐसा श्रुति वर्णन किया है। जगद्व्यापारकी चिन्ता केवल परमात्मामें रहती है। निश्चिन्ततापूर्वक रसका आस्वादन केवल जीवको ही उपलब्ध होता है ।।७५-७६ ।।

श्रीप्रिय प्रेयसः स्वात्ममुखोल्लासरसं मिथः ।

frantari Res: frबन्ति च रसं द्वयोः ॥७७॥

जब प्रिया-प्रियतम परस्पर अपने मुखोल्लास रसका पान करते हैं, उस समय सखियाँ उन दोनोंके मुखोल्लासका द्विगुण रस पान करती हैं ||७७ ||

तासां तु शतकोटीनां मुखोल्लासरसं पुनः ।

श्रीप्रेयसीत्रियों पीत्वा प्रमोदेते. परस्परम् ॥७८॥

फिर उन शतकोटि सखीजनोंके मुखोल्लासरसका पान करके प्रिया-प्रियतम परस्पर प्रमुदित होते हैं ॥७८॥

रत्यादिप्रेमभेदानामास्वादोऽयं रसः स्मृतः ॥७६॥

रति आदि जो प्रेम के भेद हैं, उनका यह आस्वादन ही रस माना गया है ॥७६॥

सुकण्ठ उवाच

सखे रत्यादिभेदानामपि वर्णय लक्षणम् ।

येन तेऽतिरहस्येयं वाणी मे सुगमा भवेत् ॥८०॥

श्रीसुकण्ठजी बोले-

हे मित्र ! प्रेमके रति आदि भेदोंके भी लक्षणका वर्णन करो, जिससे तुम्हारं यह अत्यन्त रहस्यमयी वाणी सुगमतासे समझ में आ जाय ||८०||

मधुकण्ठ उवाच

अथ रतिः

हेतवो ये रतौ प्रोक्तास्ते चोद्दीपनका रकाः ।

रतिः स्वभावजय स्यात्प्रायो गोकुलसुभ्रुवाम् ॥ ८॥

श्रीमयुकण्ठजी बोले---

रविकी उत्पत्ति में आचार्यांने जो प्रियतमके प्रति भावव्यक्ति उनके रूप,रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द, प्रियतमकी निज वस्तु, उनके पदचिह्न, गोष्ठभूमि, प्रियजन और उपमा आदि हेतु कहे हैं, वे सब रतिका उद्दीपन करनेवाले हैं। ( व्रजदेवियोकी रतिमें बाहरी हेतु अपेक्षित नहीं है )। उन गोकुल सुन्दरियोंकी रति प्रायः स्वाभाविक* ही होती है।। ८१।।

साधारण सा गदिता समञ्जसा

विज्ञः समर्था प्रथिता क्रमेण या ।

कुब्जादिषु श्रीमहिषीषु गोकुले

धन्यासु गोपालसुतासु तासु सा ॥८२॥

विज्ञ पुरुषोंने रतिके तीन भेद प्रसिद्ध किये हैं--साधारणी, समञ्जता और समर्था । क्रमशः कुब्जा आदिमे साधारणी, द्वारकाकी महारानियोंमें समञ्जसा और उन धन्यातिधन्य गोपकुमारियोंमें समर्थ रति है ॥८२॥

* स्वाभाविक रतिके उदाहरण

असुन्दरः सुन्दरशेखरो वा गुणैविहीनो गुणिनां वरो वा ।

द्वेवो मयि स्यात्करुणाम्बुधिर्वा श्यामः स एवाद्य गतिर्ममायम् ॥

असुन्दर हों या सुन्दरशिरोमणि, गुणहीन हों या गुणियोंके सिरमौर, मेरे प्रति द्वेष रखनेवाले हों या करुणाके महासागर, ये श्यामसुन्दर हो अब मेरी गति हैं ।

सहचरि हरिरेष ब्रह्मवेषं प्रपत्रः

किमयमितरथा में विद्रवत्यन्तरात्मा ।

शशधरमणिवेदी स्वेदधारां प्रसूते

न किल कुमुदबन्धोः कौमुदीमन्तरेण ॥

(सूर्यपूजाके प्रसङ्ग में ब्राह्मण पूजकका छद्मवेष धारण करके आये हुए श्रीकृष्ण के दर्शन से रतिका उद्बोध होता देख श्रीराधाको अनुमान होता है कि ये श्रीकृष्ण ही हैं; अतः वे ललिता से कहती हैं-) सखी ! जान पड़ता है कि ये श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ही ब्राह्मण वेश धारण करके प्राय है। इन्ह देखकर द्रवित कसे होती मेरी बनी हुई बदी

मणिवनातिसुलभा चिन्तामणिरिवापरा।

सुदुर्लभानन्यलभ्या कौस्तुभेन समान्तिमा ॥३॥

साधारणी रति मणिके समान अति सुलभ नहीं है, समञ्जसा चिन्तामणिके समान अत्यन्त दुर्लभ है तथा समर्था रति कीस्तुभमणिके समान अनन्यलभ्या हे। (जैसे कौस्तुभमणि श्रीहरिके सिवा दूसरेको उपलब्ध नहीं है, उसी प्रकार समर्था रति व्रजदेवियोंके सिवा अन्यत्र नहीं देखी जाती) ॥३॥

साधारणी सम्भोगेच्छाहेतुकेयं नातिसान्द्रा हरेस्तथा।

साक्षाद्दर्शनजन्येयं रतिः साधारणी मता ॥४॥

साधारणी सम्भोगकी इच्छा ही जिसमें मूल कारण है, जो अत्यन्त गाढ़ नहीं होती, तथा श्रीहरिके साक्षात् दर्शनसे ही (प्राय) जिसका उदय होता है, वह रति साधारणी मानी गयी है ।।४।।

अस्या रतेरसान्द्रत्वात् सम्भोगेच्छा विभिद्यते ।

भोगेच्छाह्रासतो ह्रासः तद्धेतुत्वाद्रतेरपि ॥८॥

(कब्जाने जब श्रीकृष्णके सौन्दर्यको देखा, नव उसके मनमें श्रीकृष्णके सङ्गद्वारा स्वयं सुख पानेकी इच्छा जाग्रत् हुई। पश्चात् श्रीकृष्णकी रूपमाधरीका नेत्रोंद्वारा उपभोग करके निरतिशय सुख पाकर उसके हृदयमे श्रीकृष्णको भी अपने अङ्गसङ्गद्वारा मुख प्रदान करनेकी जो भावना हुई, वही उसकी साधारणी रति है।)

इस रतिके घनीभूत न होनेके कारण सम्भोगकी इच्छा इससे पृथक्-स्वतन्त्र रूपमें रहती है। उस इच्छाकी कमीसे रतिमे भी कमी हो जाती है। क्योंकि वही इस रतिमें हेतु है ॥८॥

समञ्जसा

पत्नीभावकृताभिमानसबला सान्द्रा गुणादेरियं

जाता या श्रवणादिभिः क्वचिदितः सम्भोगतृष्णा पृथक् ।

स्यात्तोव हरेर्भवेन्नहि वशीकारस्तदुत्थरपि

भावः सैव समजसा निगदिता सम्भोगगर्भा रतिः॥८६॥

समञ्जसा जो गाढ़ या घनीभूत होती है, श्रीहरिके गुण आदिके श्रवण आदिसे जिसकी उत्पत्ति होती है. जो पत्नीभावके अभिमानसे सबल होती है. जिससे कभी-कभी सम्भोगकी इच्छा पृथक् प्रतीत होती है, और इसीलिये जिससे उत्पन्न हुए भावोद्वारा श्रीकृष्णका वशीकरण नहीं हो पाता, वह भीतर सम्भोगकी इच्छा लेकर उबुद्ध हई रति समजसा कही गयी है। (इसमें साधारणी और समर्था इन दोनों प्रकारकी रतियोंका सम्मिश्रण है।)॥८६।।

समर्था कंचिहिशेषं भजते समर्था

सम्भोगवाञ्छा पृथपत्र नास्ति ।

रत्या तु तादात्म्यमिता प्रियस्तु

वश्यो यया तिष्ठति सा समर्था ॥७॥

समर्था समर्या रति पूर्वोक्त दो प्रकारकी रतियोंसे अपने में कुछ विशिष्टता रखती है। इसमें सम्भोगेच्छा अलग नहीं रहती, उसका रतिके साथ तादाम्त्य (एकीभाव)

* समञ्जसा रतिका उदाहरण

का त्या मुकुन्द महती कुलशीलरूप

विद्यावयोवविणधामभिरात्मतुल्यम् ।

धीरा पति कुलवती न वृगीत कन्या

काले नृसिंह नरलोकमनोऽभिरामम् ।।

रुक्मिणी भगवान्को संदेश भेजती हुई कहती हैं-'प्रेमस्वरूप श्यामसुन्दर ! चाहे जिस दृष्टिसे देखें-कुल, शील-स्वभाव,सौन्दर्य, विद्या, युवावस्था, धन-धामसभीमें आप अद्वितीय हैं, अपने ही समान हैं। मनुष्यलोकमें जितने भी प्राणी है, सवका मन आपको देखकर शान्तिका अनुभव करता है, आनन्दित होता है। अव पुरुष-भूषण! आप ही बताइये--ऐसी कौन-सी कुलवती, महागणवती और धैर्यवती कन्या होगी, जो विवाहके योग्य समय पानेपर आपको ही पतिके रूपमें वरण न करेगी?

इस रतिसे भोगेच्छाके पृथक् होनेपर उससे उठे हुए भावोंद्वारा श्रीकृष्णके वशीभूत न होने का प्रमाण

स्मायावलोकलवदर्शितभावहारि

भ्रमण्डलप्रहितसौरतमन्त्रशौण्ड:।

पत्न्यस्तु षोडशसहस्रमनङ्गवाण

यस्येन्द्रियं विमथितुं करणैर्न शेकुः॥

सोलह सहस्र पलियाँ भी मन्द मुसकानयुक्त चितवनमें प्रदर्शित भावद्वारा मनको हर लेनेवाले भूमण्डलरूपी धनुषसे चलाये गये, सुरत-सम्बन्धी मन्त्रसे प्रगल्भताको प्राप्त हुए, कामवाण-सरीखी कामकलाकी विविध रीतियोंसे श्रीकृष्णके मनको क्षुब्ध करनेमें समर्थ न हो सकीं।

हो जाता है। थोड़ेमें यह समझना चाहिये कि जिससे प्रियतम श्रीकृष्ण सदा वशीभूत रहें, वह समर्था रति है (श्रीकृष्णको वशमें करनेकी शक्ति रखनेके कारण हो उस रतिको समर्था कहते हैं)॥८॥

हेतुं विना या च भवेदकस्मात्

स्वस्य स्वभावादपि जायते या ।

सर्वार्थविस्मारकगन्धयुक्ता

ह्येषा रतिः सान्द्रतमा समर्था ॥८॥

जो बिना किसी विशेष कारणके अकस्मात् प्रकट हो जाती है अथवा जो अपने स्वभावसे ही उत्पन्न होती है, जिसको गन्धमात्रमें लोकलज्जा, कुल, धर्म और वैर्य आदि सबका विस्मरण करा देनेकी शक्ति है तथा जो अत्यन्त सान्द्र (घनीभूत) है (अतएव जिसमें दूसरे भावोंका प्रवेश असम्भव है), यह (सामर्थ्यशालिनी) रति 'समर्था' कहलाती है ।।८।।

सर्वाद्भुतानन्तविलासवीची

चमत्कृतीनां श्रियमादधाना ।।

सम्भोगवाञ्छारहिता समर्था

यस्यां सदा कृष्णसुखाभिलाषः॥८६॥

यह समर्था रति सबसे अद्भुत अनन्त विलासतरङ्गोके चमत्कारोंकी शोभा धारण करनेवाली तथा सम्भोगकी वाञ्छासे रहित है, जिसमें सदा केथल श्रीकृष्णको ही सुख पहुँचानेकी अभिलाषा रहती है ।।६।। श्रीकृष्णसौख्यार्थमिहोद्यमः सदा

स्वात्मार्थमप्यन्यरतौ कदापि बा।

इयं महाभावदशामपि वजे

न्मृग्या विमुक्तैरपि भक्तसत्तमैः ॥१०॥

(सम्भोग दो प्रकारका होता है--एक तो प्रियजनद्वारा अपनी द्रन्द्रियोंकी तृप्ति और दूसरा अपनेद्वारा प्रियतमकी इन्द्रियोंको तृप्त करके उन्हें सुख पहुँचाना। इनमें प्रथम प्रकार के सम्भोगकी इच्छा 'काम' कहलाती है, क्योंकि वह अपने सुखकी ओर उन्मुख रहती है और दूसरे प्रकारके सम्भोगकी बाच्छा 'रति' कहलाती है, क्योंकि वह प्रियतमके सुखकी ओर उन्मुख होती है।) इस समर्था रतिमें केवल श्रीकृष्णको ही सुख देनेके लिये सदा उद्यम किया जाता है। दूसरी जो समञ्जसा रति है, उसमें कभी अपने सुखके लिये भी यत्नको सम्भावना रहती है। यही समर्था रति (प्रौड़ होकर-प्रेम, स्नेह आदिमें परिणत हो, महाभाबकी दशाको भी पहुंच जाती है। बड़े-बड़े भक्तशिरोमणि और नुक्तजन इस रतिको ढूंढते फिरते हैं (किंतु प्राप्त नहीं कर पाते, क्योंकि इसके मार्गको परिपाटियोंको समझना कठिन काम है)

यथा

भगवत्युत्तमश्लोके भवतीभिरनुत्तमा।

भक्तिःप्रवर्तिता विष्टयानुनीनामपि दुर्लभा ॥१॥

इसके विषयमें स्वयं उद्धवजीने गोपियोंने कहा है

यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुमलोगोंने पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके प्रति वही सर्वोत्तम प्रेमभक्ति प्राप्त की है और उसका आदर्श स्थापित किया है, जो बड़े-बड़े ऋपि-मुनियों के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है ।।६१॥

अथ रतेविवेचना

एषा दाढर्यमुपागता रतिरथ प्रेमा स च प्रोन्नतः।

स्नेहो मान इतीरितोऽथ प्रणयो रागोऽनुरागस्तथा ॥

नानाश्चर्यभरोऽष्टमोऽपि च महाभावाख्यया प्रोच्यते ।

रूढो यो ह्यधिरूढ इत्यभिहितं तत्रापि भेदद्वयम् ॥१२॥

रतिका विवेचन यही रति अत्यन्त दृढ़ताको प्राप्त होनेपर 'प्रेम' या 'प्रेमा' कहलाती है। प्रेम जब अधिक उन्नत अवस्थामें पहुँच जाता है (सूर्यके समान उदित होकर चित्तको नवनीतके समान द्रवित कर देता है, तब 'स्नेह' कहलाता है। फिर क्रमशः विकासको प्राप्त होता हुआ वह मान, प्रणय, राग, अनुराग, भाव तथा विविध आश्चर्यसे परिपूर्ण 'महाभाव' नाम धारण करता है। यह महाभाव पाठवीं अवस्था है (यह रतिकी चरम परिणति अथवा पराकाष्ठा है)। इसके भी दो भेद बताये गये हैं--रूढ़ और अधिरुड़ ॥२॥

बीजं चक्षुरसश्चैव गुडः खण्डः स एव हि।

शर्करा च सिता सा च यथा स्याच्च सितोपला ॥३॥

जैसे बीज ही अवस्थाभेदसे इक्ष, रस, गुड़, खाँड, शर्करा, मिश्री और प्रोला बन जाता है (उसी प्रकार प्रेम ही अवस्थाभेदसे स्नेह आदिके रूपमे परिणत होता है)।६३

एते प्रेमविशेषा हि भावाः स्नेहादयस्तु षट् ।

प्रोच्यन्ते प्रायशः सर्वे प्रेमशब्देन सूरिभिः ॥१४॥

(अतः) ये स्नेह आदि छः भाव प्रेमके ही विशेष स्वरूप हैं। पण्डितलोग प्रायः 'प्रेम' शब्दसे ही इनका कथन करते हैं ।।१४।।

यस्या यादृशजातीयः कृष्ण प्रेमाभ्युदञ्चति ।

तस्यां तादृशजातीयः स कृष्णस्याप्युदोयते ॥६॥

जिस प्रेयसीका श्रीकृष्णमें जिस जाति या श्रेणीका प्रेम होता है, उस प्रेयसीमे श्रीकृष्णका भी उसी जाति या श्रेणीका प्रेम प्रकट होता है ।।५।।

दास्ये च वत्सले चापि कृष्णतद्भक्तयोः पुनः ।

द्वयोरन्योन्यभावस्य भिन्नजातीयता भवेत् ॥६६॥

दास्य और वात्सल्यभावमें श्रीकृष्ण और उनके भक्तका जो एक दूसरेके प्रति प्रेम है, वह परस्पर भिन्न जातिका होता है ।।१६।।

सख्ये च मधुरे भावे समजातीयता पता।

अप्रतीतौ हरिरतर्दास्यस्य स्यादपुष्टता ॥१७॥

सख्य और मधुरभावमें दोनोंका प्रेम समान जातिका माना गया है। दास्यभावमें श्रीकृष्णका मुझपर प्रेम है' इसकी प्रतीति न होनेपर दास्यभावकी पुष्टि नहीं होती (वह बढ़ता नहीं) ॥१७॥

सख्यशृङ्गारयोः सद्यस्तिरोभावो विमानकृत् ।

परं वत्सलभावस्य भवत्यल्पापि न क्षतिः॥८॥

सख्य और शृङ्गारमें प्रीतिकी प्रतीति न होनेपर भाव तत्काल तिरोहित हो छिप जाता है, वाहर देखनेमें नहीं आता ; उस समय विलक्षण मानका उदय होता है। परंतु वात्सल्यभावमें प्रीतिकी प्रतीति न होनेपर उस भावकी थोडीसी भी क्षति नहीं होती ॥१८॥

राधामाधवयोरेव क्वापि भावः कदाप्यसौ।

सजातीयविजातीय व विच्छिद्यते रतिः ॥६॥

श्रीराधामाधवकी ही रति ऐसी है, जो कभी कहीं भी सजातीय अथवा विजातीय भावोंसे विच्छिन्न (व्यवहित) नहीं होती ॥१६॥

रसगन्धकयोरक्यात्कज्जलो जायते यथा।

भक्त्यन्त करणक्येन रतिरुत्पद्यते नृणाम ॥१०॥

जैसे पारे और गन्धकके मिलजानेसे कज्जली नामकी दवा बनती है, उसी प्रकार भक्ति और अन्तकरणके मिल जानेपर मनुष्योंमें रति उत्पन्न होती है ॥१०॥

रत्युत्पत्तौ भवेदन्तर्वृत्तीनां रतिरूपता।

रतिरप्रकृतवयं ह्लादिनीवृत्तिरूपिणी ॥१०॥

रतिके उत्पन्न होनेपर अन्तःकरणकी वृत्तियों रतिरूप हो जाती हैं। यह रति आह्लादिनी शक्तिकी अप्राकृत वृत्ति है ।।१०१!!

तदुत्पन्नाश्च ये भावाः सर्वे हाप्राकृता मताः।

तैरेव भावैर्वश्योऽयमवश्योऽपि हरिः स्वयम् ॥१०२॥

अतएव इससे उत्पन्न होनेवाले सभी भाव अप्राकृत माने गये हैं। इन्हीं अप्राकृत भावोंके द्वारा स्वयं किसीके वशमें न आनेवाले श्रीहरि भी प्रेमी भक्तके वशीभूत हो जाते हैं ॥१०॥

वस्तुतः स्वयमास्वादस्वरूपैव रतिस्त्वियम् ।

कृष्णादिकर्मकास्वादहेतुत्वं च प्रपद्यते ॥१०३॥

वास्तवमें यह रति स्वयं आस्वादरूपा है और श्रीकृष्ण आदिके माधुर्यके आस्वादनमें कारण भी बनती है (इसीके बिना दैत्योंको श्रीभगवान्के रूप आदिका आस्वादन नहीं प्राप्त होता) ॥१०३।।

अथ रतेराभासाः

कदापि भोगादिषु सक्तचेतसा

यदीक्ष्यतेऽन्तहदि कोमलत्वम् ।।

तथाऽऽर्द्रभावो रतिलक्षणं न सा।

रतिवेदज्ञजनैस्तु कल्पिता ॥१०४॥

रतिका आभास (भीतरकी आर्द्रताका बाहर व्यक्त हो जाना रतिका लक्षण है।) यदि भोग प्रादिमें आसक्त चित्तवाले पुरुषों (अथवा मुमुक्षु आदि) के हृदयमें भी कभी कहीं आर्द्रता या कोमलता देखनेमें आये तो वह वास्तव में रतिका लक्षण नहीं है। अज्ञानी लोग ही उसमें रतिकी कल्पना कर लेते हैं ॥१०४॥

रतिविरक्तश्च तथा विमुक्त

विमृग्यते या सहसा न लभ्यते ॥

गोप्याऽशु कृष्णेन न दीयते सा

सदा भजभ्योऽपि रतिर्दुरापा ॥१०॥

समस्त भोगोसे विरक्त तथा मुक्त पुरुप जिस रतिको सदा खोजते फिरते है, परंतु सहसा नहीं उपलब्ध कर पाते ; जिसे श्रीकृष्ण अत्यन्त गुप्त रखते है, सदा भजन करनेवालोंको भी शीघ्र नहीं देते, वह रति (किसीके लिये भी) परम दुर्लभ है ।।१०५॥

ये भुक्तिकामा अथ मुक्तिकामाः

शुद्धा न भक्तिः क्रियते जनयः।

तेषां कथं भागवती रतिः स्यात्

कृष्णस्य सद्यो वशकारिणी या॥१०६॥

फिर जिनके हृदयमें भुक्ति और मुक्तिकी कामना है,अतएव जो शुद्ध भक्ति नही कर पाते, उन मनुष्योंके हृदयमें वह भागवती रति कैसे उदित हो सकती है, जो (किसीके भी वशमें न होनेवाले) श्रीकृष्णको तत्काल वशमें कर लेती है ।।१०।।

कित्वेष साधारणमानवानां

कुर्वन् चमत्कारतति हृदब्जे ।'

आभास एवास्ति रतेः सुबोधो

विज्ञस्य तच्चिह्ननिरीक्षणेन ॥१०७॥

किंतु साधारण मनुष्योंके हृदय-कमलमें जो यह नाना प्रकारके चमत्कार प्रकट करती है, वह रति नहीं, उसका आभास मात्र है। उसका चिह्न या लक्षण देखनेसे विज्ञ पुरुषको इसका स्पष्ट बोध हो जाता है ।।१०७।।

कदाचिद् भक्तसङ्गेन तद्भक्तिपरिशीलनात् ।

सत्त्वोद्दीपनसामग्रोदेशकालादिसंगमात् ॥१०॥

भोगमोक्षादिसक्तानां कीर्तनाद्यनुसङ्गिनाम् ।

प्रायः कोमलचित्तानां रतिलक्षणलक्षितः॥१०॥

रत्याभासो भवेद्दवादज्ञानामपि चेतसि ।

स भक्तहन्नभःस्थस्य भावेन्दोः प्रतिबिम्बकः॥११०॥

कभी किसी भक्तके सङ्गसे, उसकी भक्तिका परिशीलन करनेसे और सत्वका उद्दीपन करनेवाली सामग्री--देश, काल आदिके सयोगसे,जिनकी भोग और मोक्षमे आसक्ति है, जो स्वयं भी कीर्तन आदि करते-सुनते है तथा जिनके चित्त प्रायः कोमल हैं, ऐसे अज्ञजनोंके हृदयमें भी अकस्मात् दैवयोगसे 'रति' के लक्षणसे लक्षित 'रत्याभास' प्रकट हो जाता है, जो श्रीकृष्ण-भक्तके हृदयाकाशमें स्थित भावचन्द्रका प्रतिबिम्बमात्र है॥१०८-११०।।

रत्याभासेऽपि कल्याणमधिकं चोत्तरोत्तरम् ।

किंतु भाग्यं विना नासौ रत्याभासोऽपि जायते ॥१११॥

रत्याभासमें भी जीवनका उत्तरोत्तर अधिक कल्याण निहित है; परंतु भाग्यके विना यह रत्याभास भी नहीं प्राप्त होता ।।११।।

अयं भावाभासो हरिप्रियजनानुग्रहवशा

दकस्माद्धावत्वं भजति खलु राकाविधुरिव ।

तथा तस्मिन्नेवागसि सति तिरोभावमयते

यथामावस्यायां विधुरिति न गुप्तं रसविदाम् ॥११२॥

यह भावाभास श्रीभगवान्के किसी प्रियजनकी कृपासे अकस्मात् भावकी अवस्थाको प्राप्त हो जाता है-ठीक वैसे ही, जैसे पूर्णिमाको रातमें चन्द्रमा पूर्ण हो जाता है। तथा उसी भक्तजनका अपराध हो जानेपर यह भावका आभास उसी तरह तिरोहित हो जाता है, जैसे अमावास्याकी रातमें चन्द्रमा । यह बात रसिकजनोंसे छिपी नहीं है ।।११२।।

भावोऽप्यभावं भजते नितान्तं

भक्तापराधेन हरेरनुत्तमः॥

आभासतां वा शनकर्भजेदसौ

तन्न्यूनजातित्वमथापि वा भजेत् ॥११३॥

श्रीकृष्णभक्तके अपराधसे यह सर्वोत्तम भाव भी सर्वथा नष्ट हो सकता है अथवा पाभासत्वको प्राप्त हो जाता है या उससे भी निम्नश्रेणीका हो जाता है।।११३॥

विना साधनं यत्र भावस्य सत्ता

ह्यकस्माद्भवेद् दृश्यमाना यदा हि।

तदा प्राग्भवीयं जनैः साधनं हि

सुचिन्त्यं सदा विघ्नबाधाभिभूतम् ॥११४॥

जहाँ विना साधनके भी अकस्मात् किसी व्यक्तिमें जब भावकी स्फूति दिलायी दे, तव वहाँ सदा पूर्वजन्मके साधनका अनुभव करना चाहिये, जो किसी विघ्न-बाधाके कारण पूर्वजन्ममें सफल न होकर इस जन्ममें फलोपधायक होता है ।।११४॥

अथ प्रेमा

अतिस्निग्धस्वान्तो भवति ममता यत्र महती

स भावः सान्द्रात्मा कथित इह प्रेमेति रसिकैः।

न वाध्वंसाशङ्कात्र च सति निदाने बलवति

मिथो युनोर्भावप्रसितिरिह प्रेमा निगदितः॥११॥

प्रेमका लक्षण जिसके उदय होनेपर मनुष्यका अन्तःकरण भलीभाँति आर्द्र-चिकना तथा कोमल हो जाता है, जिसमें ममताकी अधिकता होती है, ऐसे घनीभूत भाव (रति) को रसिकजन 'प्रेम' कहते हैं। ध्वंसके बलवान् कारण उपस्थित होनेपर भी इसमें ध्वंसकी आशङ्का नहीं रह जाती। ऐसा जो युवक-युवतीका परस्पर ममतामय प्रीतिबन्धन है, उसे यहाँ-इस रसशास्त्रमें प्रेम कहा गया है ॥११५।।

'लोकद्वयात् स्वजनतः परतः स्वतो वा

प्राणप्रियादपि सुमेरुसमा यदि स्युः ।

क्लेशास्तदप्यतिबली सहसा विजित्य

प्रमैव तान् हरिरिभानिव पुष्टिमेति ॥११६॥

'लोक-परलोकसे, स्वजनों अथवा दूसरोंसे, अपने पापसे अथवा अपने प्राणप्रियसे भी यदि सुमेरुके समान क्लेश प्राप्त हों, तो भी यह उत्पन्न बलवान् प्रेमरूपी सिंह उन क्लेशरूपी कुञ्जरोंको सहसा जीतकर-अपना भोज्य बनाकर पुष्ट होता है ।।११६॥

'आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा

मदर्शनान्ममहतां करोतु वा।

यथा तथा वा विदधातु लम्पटो

मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः' ॥११७॥

'मुझ चरण-किंकरीको आलिङ्गनद्वारा पीस डाले, चाहे दर्शन न देकर मर्माहत कर दे-वह लम्पट जो चाहे सो करे; परंतु मेरा प्राणनाथ तो वही है, दूसरा नहीं ॥११॥

इत्यादिलक्षणः शाखाचन्द्रन्यायेन सूरिभिः।

प्रेम्णः स्वरूपं कथितं वाच्यार्थपरिलोचनात् ॥११॥

--इत्यादि लक्षणों (और उदाहरणों) के द्वारा पूर्वाचाोंने 'प्रेम' पाब्दके वाच्यार्थका पर्यालोचन करके शाखाचन्द्रन्यायसे प्रेमके स्वरूपका कथन किया है* ||११८॥

अथ स्नेहः

आरुह्य काष्ठां परमां हि प्रेमा

प्रेमास्पदप्राप्तिप्रदीपकः सन् ।

विद्रावयत्येष यदा हृदब्ज

तं स्नेहमाहू रसिकाः कवीन्द्राः ॥११॥

स्नेहका लक्षण यह प्रेम जब पराकाष्ठा (परम उच्च दशा) को प्राप्त हो प्रेमास्पदकी प्राप्तिके पथको प्रदीप्त करने लगे और हृदय-कमलको अत्यन्त द्रवित कर दे, उस समय उसे रसिक कवीन्द्रजन 'स्नेह' कहते हैं ॥११॥

स्नेहोदये जातु न तृप्तिरस्ति

पुनः पुनः स्वप्रियदर्शनादौ।

स्नेहो घृतं वै मधु चेति प्रोक्तः

द्वेधा स्वरूपेण बुध रसज्ञैः॥१२०॥

स्नेहका उदय होनेपर अपने प्रियतमके बार-बार दर्शन आदि करनेपर भी कभी तृप्ति नहीं होती। रसज्ञ पण्डितजन स्नेहके दो भेद बताते हैं-घृतस्नेह और मधुस्नेह ॥१२०॥

* प्रेममार्गके साधकोंको पूर्वाचार्योंने कुछ आदेश दिये हैं, जिनका उन्हें विशेष ध्यान रखना चाहिये।

'बहिर्मुख जनोके सङ्गसे, उनके रचित ग्रन्थोंके श्रवणसे, अनेक शास्त्रोंके अधिक अभ्याससे तथा सजातीय जनोंका भी अधिक सङ्ग करनेसे श्रेष्ठ गुरुके शिष्योंके भी प्रेममार्गमें बाधा आ जाती है।'

बहिर्मुखानां सङ्गेन तच्छास्त्रश्रवणेन च ।

शास्त्राभ्यासेन बहुना सजातीयातिसङ्गतः।

अपि सत्तीर्थशिष्याणां व्यते प्रेमपद्धतिः।

इष्ट मिलै ौ मन मिल, मिले भजन रस रीति ।

मिलिये तहाँ निसंक है, कीजै तिन सौं प्रीति ॥

बहुत भाँति के मत जहाँ, ताहि न जाने संग।

नव किसोरता माधुरी बिना न अपनी रंग।

घृतस्नेहः

अत्यादरश्चात्र तदीयता च

स्नेहे घृते स्यान्मिथ आदरेण ।

शीतस्वभावेन घनत्वमत्र

ज्ञेयं रस धृतवद् घृतं सः॥१२१॥

घृतस्नेह घृतस्नेहमे अत्यन्त आदर और तदीयताका ('मैं प्रियतमका हूँ' ऐसा) भाव रहता है; स्वभावतः परम शीतल (सुखद) प्रतीत होनेवाले परस्परके पादरसे यह घनीभावको प्राप्त हो जाता है, अत: घृतके समान होनेसे उसे 'घृतस्नेह' कहते हैं ॥१२॥

गौरवादादरो लोके हादरादथ गौरवम् ।

अन्योन्याश्रितमेवास्ति द्वयमेतत् सुनिश्चितम् ॥१२२॥

लोकमें गौरवबुद्धिसे आदर होता है और आदरसे भी गौरववुद्धि होती है । ये दोनों निश्चितरूपते एक दूसरेके आथित हैं ।।१२२।।

तथापि प्रेमसाम्राज्ये व्रजे ह्यादरतः सदा।

गौरवं क्रियते सर्वैः कृष्णस्याल्पवयस्यपि ॥१२३॥

(थीकृष्ण परम पुरुष हैं और श्रीराधा सर्वेश्वरी हैं, इस ऐश्वर्यज्ञानसे इनकी परस्पर गौरवबुद्धि नहीं है, अपितु एक दूसरेके प्रति सहज पादरके कारण हैं।) इस प्रेमके साम्राज्य व्रजमें सदा आदरसे ही गौरवबुद्धि की जाती है। इसीलिये यहाँ सब लोग अल्पावस्थामें भी श्रीकृष्णका गौरव मानते हैं ।।१२३॥

गोवर्द्धनमखः शक्रपूजनाकरणं द्वयम् ।

सप्तहायनकृष्णोक्तमादृतं व्रजवासिभिः॥१२४॥

'श्रीगोवर्धन-पूजा करो', 'इन्द्रंपूजा मत करों-ये दोनों बातें सात वर्षकी आयुवाले श्रीकृष्णने कही थीं, जिनका (सभी) ब्रजवासियोंने पूर्णरूपसे आदर किया ॥१२४॥

आदरो गौरवं चापि रत्यादावपि वर्तते ।

तथापि सुव्यक्ततया स्नेह एवात्र कथ्यते ॥१२५॥

यद्यपि रति और प्रेमकी अवस्थामें भी आदर तथा गौरवबुद्धि रहती है, तथापि इस स्नेहकी अवस्थामें ही उसका अधिक प्रकाश बताया जाता है।

(क्योंकि प्रियतमका अत्यन्त परिचय होनेपर भी आदर बना रहे, तभी दह मान्य होता है। प्रति परिचय स्नेहकी अवस्था में ही होता है। लोकमें अत्यन्त परिचयसे अवज्ञा होती है-ऐसा देखने और सुनने में आता है; अतः लोकमें स्नेह है ही नहीं, ऐसा मानना पड़ेगा) ।।१२।।

मधुस्नेहः

स्नेहः प्रियेऽत्यन्तमदीयतायुक्

स्वयं सदा व्यक्तसुमाधुरीकः।

नानारसास्वादमदोष्णतायुक्

स्नेहो मधूक्तो मधुसाम्यतोऽयम् ॥१२६।।

मधु-स्नेह जिसमें 'वे मेरे हैं'---ऐसा मदीयताका भाव अधिक हो, वह प्रियतमविषयक स्नेह 'मधु-स्नेह कहलाता है।* इस मधु-स्नेहमे माधुर्य सदा स्वयं ही भलीभांति प्रकट रहता है। मधुमें नाना प्रकारके पुष्पोंके रसके समान इसमें कौटिल्य, नर्म आदिके भेदसे नाना प्रकारके रसोंका समावेश है। स्नेहजनित प्रानन्दके उद्रेकसे जो दूसरी वस्तुओंका भान नहीं रहता, वही यहाँ मधुकी मादकतासे होनेवाली मत्तता है पीर प्रियतमका स्नेह पाकर जो गर्वका अनुभव होता है, वही यहाँ मधुपानजनित उष्णता है। मधुके समान मादक और उष्ण होनेसे ही इसे 'मधुस्नेह' कहते हैं ।।१२६॥

मधुयोगाद्धृते स्वादः तथा स्नेहेऽपि जायते।

मदीयताया योगेन स्वयं मधुनि रस्यता ॥१२७॥

घृतमें थोड़ा-सा मधुका योग होनेसे ही स्वाद आता है, उसी प्रकार 'मैं प्रियतमकी हूँ' इस तदीयतामय धृत-स्नेहमें 'प्रियतम मेरे हैं' इस मदीयतारूप मधु-स्नेहका योग होनेसे माधुर्यका आस्वादन होता है; परंतु यह बात मधुस्नेहमें नहीं है, वह तो स्वयमेव सुस्वादु (परम मधुर) है ।।१२७।।

* 'उसकी मैं प्रेयसी हैं, वह मेरा प्रियतम है'-इन दोनों भावनामोंमें पहलीको 'घृत-स्नेह' और दूसरीको 'मधु-स्नेह' कहते हैं। साधारणतया दोनों ही भावनाएं मिली-जुली रहती हैं; परंतु जिस भावनाकी अधिकता रहती है, उसीके अनुसार वर्णन किया जाता है।

अथ मानः

स्नेहस्तूत्कृष्टतां प्राप्य नवीनमनुभावयन् ।

माधुर्य धारयन्वाभ्यं स मान इति कथ्यते ॥१२॥

मानका स्वरूप वामताको धारण किये हुए नवीन प्रकारके माधुर्यका अनुभव करानेवाला उत्कृष्ट स्नेह 'मान' कहलाता है ॥१२८।।

माने त्वन्तर्गतः स्नेहो वाम्येनाच्छादितो बहिः ।

विचित्रा माधुरी माने मानिनीनां प्रसादने ॥१२॥

मानावस्थामें स्नेह भीतर ही रहता है, वह वामतासे आच्छन्न हो बाहर प्रकट नहीं होने पाता। मानकी अवस्थामें मानिनी नायिकाको मनाते समय विचित्र रस-माधुरीका अनुभव होता है* ॥१२६।।

केचिदज्ञानिनो मानमभिमानं तु प्राकृतम् ।

मन्यन्ते तामसं भावं तेन दग्धो रसो भवेत् ॥१३०॥

कोई अज्ञानी जन इस मानको प्राकृत अभिमान तथा तामस भाव मानते है। परतु प्राकृत अथवा तामस भावसे तो रस सर्वथा दग्ध हो जाता है ।।१३०।।

श्रीहरे रासलीलायां विचित्रा रसमाधुरी।

ज्ञातुं ज्ञापयितुं शक्या कथं तैरज्ञजन्तुभिः ॥१३१॥

वे ज्ञानहीन जन्तु श्रीभगवान्की रासलीलामें जो अपूर्व एवं विचित्र रसमाधुरी है, उसे कैसे समझ सकते हैं और दूसरोंको भी कैसे समझा सकते है ॥१३॥

* एक साधारण मानका उदाहरण

स्रवदनभरे कृते दृशौ तव गोधूलिभिरेव गोपबीर ।

अधुना वदनानिलैः किमेभिविरमेति भृकुटि वधार सुभ्रूः॥

(श्रीकृष्णके साथ विहार करनेवाली श्रीराधाके नेत्रोंमें स्नेहवश चित्तके अतिशय द्रवित होनेके कारण आँसु भर आये; परंतु श्रीकृष्णके पूछनेपर उन्होने स्नेहको छिपाकर दूर चरनेवाली गीयोंकी चरणधूलिको आँसू बहानेमें कारण बताया और श्रीकृष्णको उपालम्भ देते हुए कहा- 'हे गोपवीर! तुम्हारी गौत्रोंकी चरण-रजने ही मेरे नेत्रोंमें आँसू भर दिये,अव मुखकी फंकोंसे क्या होगा? बस रहने दो।' यों कहकर धीराधाने भौंहें तिरछी कर ली।

जहुर्गुणमयं देहमिति वैयासगिरा।

नैर्गुण्यं रासलीलाया हरेरिति सुनिश्चितन् ॥१३२॥

'कुछ गोपियोंने रासस्थलमें जाते समय अपने गुणमय देहका परित्याग कर दिया था' इस व्यासनन्दनकी वाणीके द्वारा श्रीहरिकी रासलीलाके निर्गुण (अप्राकृत) भावका सुनिश्चितरूपसे निरूपण हो जाता है ।।१३२॥

दम्भवाभिमानाद्या सम्पदेषा मताऽऽसुरी।

श्रीकृष्णरासलीलायां संनिविष्टा कथं भवेत् ।।१३३॥

दम्भ, दर्प, अभिमान आदिको तो आसुरी सम्पत्ति माना गया है। श्रीकृष्णकी रासलीलाम इस आसुरी सम्पत्तिका संनिवेश कैसे हो सकता है ॥१३३।।

अथ प्रणयः

विनम्भवानयं मानः प्रणयः प्रोच्यते बुधैः ।

प्रणयस्य स्वरूपं तु विस्रम्भः कथितो बुधः॥१३४॥

प्रणयका लक्षण जिस मानमें यह विश्वास हो कि हम दोनों परस्पर अभिन्न है, हममेंसे कोई किसीका त्याग नहीं करेगा, उसे 'प्रणय' कहते हैं। बुधजनोंने प्रणयका स्वरूप विस्रम्भ (अपनेपनका विश्वास अथवा निस्संकोचता) ही बतलाया है ॥१३४।।

स्वाङ्गे प्रियतमस्याङ्गे वस्त्रभूषादिवस्तुषु ।

सर्वत्रकत्वभावेन सम्नमो नात्र जायते ॥१३५॥

प्रणयावस्थामें अपने और प्रियतमके अङ्गों तथा वस्त्र-भषण आदि वस्तयोंमें सर्वथा एकत्व या अपनेपनकी अनुभूति होनेके कारण कभी सम्भ्रम-संकोच नहीं होता* ॥१३॥

*प्रणयका उदाहरण इस प्रकार है—

क्षिप्ते वर्णकभाजने तरणिजापूरे परीहासतः

कृष्णेन ध्रुवमारचय्य कुटिलामालोकयन्ती तिरः।

राधा वक्षसिचित्रमर्धलिखितं श्रीवत्सविभ्राजिते

काश्मीरेण घनश्रिया निजकुचाकृष्टेन पूर्ण व्यधात् ।।

श्रीकृष्णने परिहाससे जब चित्र-रचनाके लिये विविध रंगोंसे सुसज्जित रङ्गपात्रको श्रीयमुनाजीके प्रवाहमें फेंक दिया, तब श्रीराधाने भौहें टेढ़ी करके तिरछी चितवनसे उनकी ओर देखा और अपने वक्षःस्थलपर लगे हुए धनीभूत शोभासे सम्पन्न केसररागको ही तूलिकाद्वारा लेकर उससे श्रीकृष्णके श्रीवत्सविभूषित वक्ष स्थलपर अर्धलिखित चित्रको पूरा किया।

अथ रागः

दुःखस्य सुखरूरेण व्यक्तिश्चित्ते यतो भवेत् ।

प्रकृष्टप्रणयादेष राग इत्यभिधीयते ॥१३६॥

रागका लक्षण जब परम उत्कर्षको प्राप्त हुए प्रणयले चित्तमें दुःखको भी सुखरूपसे ही अभिव्यक्ति होने लगे, तब यह उत्कृष्ट प्रणय 'राग' कहलाता है ।।१३६।।

सम्भावनायां कृष्णस्य दर्शनार्यजितम् ।

दुःखं सुखं प्रतीयत तत्तु रागस्य लक्षणम् ॥१३७॥

श्रीकृष्णके दर्शन आदिकी सम्भावना होनेपर बड़े-से-बड़े दुःखकी सुखरूपसे प्रतीति होने लगे, यही तो रागका लक्षण है* ॥१३७॥

(रसिकोंने इस रागके दो भेद माने हैं-नीलिमा और रक्तिमा। नीलिमाके भी दो भेद है---नीलीराग और श्यामाराग। इसी तरह रक्तिमा के भी दो भेद हैं-कुसुम्भराग और मञ्जिष्ठराग।)

* रागके उदाहरण

तीवार्कसंतप्तकरालकोणभास्वन्मणीनामुपरि स्थितापि।

प्रमोबमाना प्रियमोक्य राधा स्यावक्षिलक्ष्याद्रितटे कदापि।।

गोवर्धन पर्वतके तटप्रदेशमें जेठमासके प्रचण्ड सुर्यकी प्रखर किरणोंसे संतप्त हो आग उगलती हुई विकराल कोगदाली सूर्यकान्तमणिमयी गिलाओंके ऊपर खड़ी होकर भी श्रीराधारानी प्राणप्यारे श्यामसुन्दरका दर्शन पाकर परमानन्दमें निमग्न हो रही हैं। क्या इस अवस्थामें कभी उनका दर्शन प्राप्त होगा?

श्रीचन्द्रावलीजी मिथ्या कलङ्कद्वारा भी 'श्रीकृष्णकी प्रेयसी' कहलानेके अभिमानकी सिद्धि चाहती है--

ताराभिसारक चतुर्थनिशाशशाङ्क कामाम्बुराशिपरिवर्धन देव तुभ्यम् ।

अर्थो नमो भवतु मे सह तेन यूना मिथ्यापवादवचसाप्यभिमानसिद्धिः।।

'तारानांके साथ अभिसार करनेवाले,भादोंकी इस उजियाली चौथकी रातमें उगे हुए शशाङ्क ! हम-जैसी कामिनियोंके काम-समुद्रको बढ़ानेवाले देवता! तुम्हें यह अयं समर्पित है, मैं तुम्हें नमस्कार करती हूँ; तुम ऐसी कृपा करो, जिससे उस नवतरुण प्यारे श्यामसुन्दरके साथ मिथ्या कलङ्क-वचनके द्वारा भी (मैं श्रीकृष्णकी प्रियतमा हूँ) मेरे (इस) अभिमानकी सिद्धि हो जाय।

अथानुरागः

सदानुभूतं कुरुते नवं नवं

प्रियं स्वयं चापि भवेनवो नवः।

रागः स एषो झनुराग उच्यते

प्रकाशते यत्र गुणावली हरेः ॥१३८॥

अनुरागका लक्षण जो सदा अनुभवमें आये हुए प्रियतमका वारंवार नवीन रूपमें अनुभव कराये और स्वयं भी नित्यन्तन होता रहे, उस रागको 'अनुराग' कहते है। अनुरागकी अवस्थामें प्रियतम श्रीहरिके गुणोंका पूर्णरूपसे प्रकाश होता है।

(अनुरागमें संनिपातकी अवस्थामें प्यासके समान उत्तरोत्तर तृष्णाकी वृद्धि होती है। अतः प्रियतमका अनुभव हो जानेपर भी क्षण-क्षणमें यह प्रतीति होती है कि अभी प्रियतमसे परिचय नहीं हुआ। इस दशामे प्रत्येक अनुभवके समय प्रथम दर्शनकी भांति रसाकार वृत्ति हो जाती है तथा अनुभूत रूपका स्मरण नहीं रहता। द्वितीय क्षणमें जब वृत्ति उपरत होती है, तब फिर जो अनुभव

* अनुरागका उदाहरण

कोऽयं कृष्ण इति व्युदस्पति ति यस्तन्वि कर्ण विशन्

रागान्धे किमिदं सदैव भवती तस्योरसि क्रीडति ।

हास्यं मा कुरु मोहिते त्वमधुना न्यस्तास्य हस्ते मया

सत्यं सत्यमतौ दृगङ्गनमगादचव विद्युनिभः॥

(किसी समय श्यामसुन्दरकी चर्चा आरम्भ होते ही अत्यन्त उत्कष्ठित हुई श्रीराधिका अनुरागके वशीभूत हो ललितासे कहती हैं-)

राधा-हे कृशाङ्गी ललिते! जिनका नाम कृष्ण है, वे कौन हैं ? ललिता--कोई हों, तुम क्यों उनके विषय में पूछती हो?

राधा--परी, वे इस नामके द्वारा कानमे प्रवेश करते ही मेरा सारा धैर्य हर लेते हैं ; अतः वताओ, वे कौन हैं?

ललिता-सखी! तुम तो रागसे अंधी हो गयी हो; यह कैसा अटपटा प्रश्न है? सदा ही उनके वक्षःस्थलपर क्रीडा करती हो (और उन्हें जानतीतक नहीं?)

राधा-ललिते ! यह असम्भव वात कहकर परिहाम न करो।

ललिता-पगली कहीं को, अभी-अभी तो मैने ही तुम्हे श्यामसुन्दरके हाथमें सांपा था।

राधा-ठीक-ठीक, अब याद आयी! जीवन में आज ही वे मेरे नेत्रोंके आँगनमें एक बार उतरे और बिजलीकी भांति  अदृश्य हो गये।

होता है, वह उस रूपको नूतन-सा प्रतीत कराता है। यही परिचय-अपरिचयकी परम्परा प्रियतमके रूप, गुण आदिको नूतन-सा बना देती है।) ॥१३८॥

प्रेमवैचित्त्यकं चात्र वशीकारः परस्परम् ।

प्राणहीनेऽपि जन्माप्त्यै प्रबला लालसा हृदि ॥१३॥

विस्फूतिविप्रलम्भेऽपि सन्ति भावा अनेकशः।

रसाकारत्वसम्पत्ती तरङ्गोद्भतिरद्भुता ॥१४०॥

अनुरागकी दशामें परस्पर वशीभाव, प्रेम-वैचित्ती, विना प्राणवाली जातिमे भी जन्म लेनेकी उत्कट लालसा, विरहमें भी प्रियतमकी स्फूति इत्यादि अनेक भाव उदित होते है। अनुरागमें रसाकार वृत्तिकी सिद्धि हो जानेपर अन्तःकरणमे रसकी अद्भुत तरङ् उठने लगती हैं ॥१३९-४०॥

* प्रेम आदिकी अवस्थामें नायकका ही वशीभाव स्पष्टरूपसे दृष्टिगोचर होता है, नायिकाका तो लज्जा और अवहित्था (आकार-गोपन) आदिके कारण प्रतीत नहीं होता; परंतु अनुरागमें तृष्णाकी अधिकता होनेसे अविहत्था, गर्व और असूया मादिके लिये स्थान न होनेसे नायिकाका भी वशीभाव स्पष्टरूपसे प्रतीत होता है। शृङ्गारमें अनुरागकी दशा ही परस्पर वशीभाव प्रकट होता है।

दोऊ पर पैयाँ, दोऊ लेत है बलयाँ,

उन्हें भूलि गई गैयाँ, इन्हें गागर उठाइबो।

दास्य आदि भावोंमे तो अवहित्था आदि संचारी भावोंके अभावके कारण प्रेमके आरम्भसे ही परस्पर वशीभाव लक्षित होता है

साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् ।

मदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥

'साधुजन मेरे हृदय हैं, मैं साधुनोंका हृदय हूँ। वे मुझे छोड़ और कुछ भी नहीं जानते, मैं उन्हें छोड़ और कुछ भी नहीं जानता।' इस प्रकार भक्त और भगवान्का परस्पर वशीभाव सब शास्त्रोंमें प्रसिद्ध है।

प्रेमवैचित्ती

प्रियस्य संनिकर्षेऽपि प्रेमोत्कर्षस्वभावतः।

या विश्लेषधियाऽऽतिस्तत्प्रेमवंचित्त्यमुच्यते ॥

प्रियतमके संनिकट होनेपर भी प्रेमोत्कर्षके स्वभावसे विरहकी अनुभूतिद्वारा जो वेदना या व्याकुलता होती है, उसे 'प्रेमवैचित्य' कहते हैं।

प्रेम-वैचित्ती भावमें तुष्णाकी पराकाष्ठा होनेसे वद्धिवृत्ति अत्यन्त सूक्ष्म हो जाती है। तब वह श्रीकृष्ण और उनके गण-माधुर्यको एक साथ अनुभव नहीं कर पाती एक क्षणमें श्रीकृष्णके अपार गुणोंके रसमापुर्यमें प्रविष्ट हुई बुद्धि दूसरे क्षणमें 'जिसके ऐसे गुण है, वह कहाँ है?' इस जिज्ञासासे उन गुणोंको भी त्यागकर उस गुणीके अन्वेषणमे प्रवृत्त हो जाती है और गुणीके विरहका ही अनुभव कराने लगती है, सामने खड़े हुए प्रियतमका भी बोध कराने में असमर्थ हो जाती है। अथवा जैसे विद्युत् आदि आलोक घट-पटादि वस्तुओका प्रकाशक होता है, किंतु यदि वही किसी एक केन्द्रमें परिपूर्णरूपसे पुजीभूत हो जाय तो दृष्टिशक्तिको मूच्छित कर देता है-उस समय समीपकी वस्तु भी दृष्टिगोचर नही हो पाती, उसी प्रकार जब कभी पूर्ण अनुराग-रसके आस्वादनमें बुद्धिवृत्ति डूब जाती है, तब रसनीय श्रीकृष्णके समीपस्थ होनेपर भी उनकी उपस्थितिका भान नहीं होता। यह प्रेमवैचिती भाव कभी नायकको, कभी नायिकाको और कभी दोनोंको एक साथ भी हो जाता है। __आचार्योंने विरहको सन्भोग-रसका पोषक माना है। अजलीलाके स्थूल प्रेममें मयुरागमन प्रादिके द्वारा स्थूल बिरह होता है। परतु निकुन्जजगत्में प्रेमको परम सूक्ष्म अवस्था होती है और वहाँ विरहको भी वैसी ही सूक्ष्म अवस्था अनुभवों में आती है। . स्थूल विरहकी अपेक्षा सूक्ष्म विरहमें रसकी पुष्टि अधिक होती है। सूक्ष्मप्रेमको अवस्थामें श्रीश्यामसुन्दर श्रीप्रियाजीसे प्रार्थना करते हैं कि 'हे श्रीराधे ! मेरे ऊपर आप ऐसी कृपा करें कि मैं आपके नेत्रोंका कज्जल, श्रीअङ्गोंकी साड़ी, नाकको बुलाकका मोती, कपोलोंपर कस्तूरीद्वारा निर्मित मकरी, कानोंमें नील कमल, कमरमें काञ्ची, हृदयका हार और श्रीचरणोंका नूपुर बन जाऊँ

नेत्रे कज्जलमुज्ज्वलाङ्गवसनं नासापुटे मौक्तिकं

कस्तूरीमकरी कयोलपटले चेन्दीवरं कर्णयोः।

काञ्चों श्रोणितले सज कुचतटे सन्नपुरं गुल्फयो ।

राधे मामनुकम्पया कुरु भजे जल्पन्तमित्यं हरिम् ।।

वैचित्तीका उदाहरण श्रीवजेन्दनन्दनके अपने सम्मुख होते हुए भी तीनानुरागजनित विरहज्वरकी समृद्धिसे संतप्त एवं विवश हुई श्रीराधाको चक्कर आने लगता है और वे दाँतोंमे तण लेकर अति दीनभावसे बारंबार प्रार्थना करती है-'सखी! मुझे मेरे प्राणवल्लभका दर्शन करा दे।' उनकी इस दशाको देखकर श्रीकृष्ण भी विस्मित हो जाते हैं

आभीरेन्द्रसुते स्फुरत्यपि पुरस्तीवानुरागोत्थया

विश्लेषज्वरसम्पदा विवशधीरत्यन्तमणिता।

कान्तं मे सखि दर्शयेति दशनरुद्गणशस्यांकुरा

राधा हन्त तथा व्यचेष्टत यतः कृष्णोऽप्यभूद्विस्मितः॥

रमणीशिरोमणि श्रीराधा अकस्मात् श्रीकृष्ण-विषयक अनुरागके मदसे विह्वल हो जाती हैं। यद्यपि प्रियतम उन्हें अपने अङ्कमें लगाये हुए परम शोभा पा रहे है, तो भी वे विरहिणीकी भाँति 'हा प्रेष्ठ ! हा मोहन! 'इस प्रकार पुकारने लगती हैं। उनकी यह दशा देखकर सारी सखियाँ व्याकुल हो उठती है

अङ्कालिङ्गनशालिनि प्रियतमे हा प्रेष्ठ हा मोहने

- श्यामान रागोन्मदा।

अथ महाभावः

स्वनवसंवेद्यदशामवाप्य

यः स्वाश्रयानावृणुते प्रभावात् ।

दिव्यप्रकाशो ह्यनुराग एव

प्रोक्तो महाभावतया रसज्ञैः॥१४०॥

चामोहादतिविह्वलं निजजनं कुर्वन्त्यकस्मादही

काचित्कुञ्जविहारिणी विजयते श्यामामणिर्मोहिनी ।।

तिर्यग्योनिमें जन्मकी लालसा श्रीकृष्णकी प्राप्तिके बिना अपने जीवनको व्यर्थ मानती हुई श्रीराधा ललितासे कहती है

तपस्यामः क्षामोदरि वरयितुं वेणुषु जन

वरेण्यं मन्येथाः सखि तदखिलानां सुजनुषाम् ।

तपःस्तोमेनोच्चैर्वदियमुररीकृत्य मुरली

मुरारातबिम्बाधरमथुरिमाणं रसयति ।

कृशोदरि (उदरकी कृशतासे अत्यन्त सून्दर दिखायी देनेवाली ललिते ! यदि हमें श्रीकृष्ण न मिले तो इस सौन्दर्यशाली मानव-जन्मसे क्या प्रयोजन है? अब हमलोग वंगुकुलमें जन्म पानेका वर प्राप्त करने के लिये तपस्या करें। सखी' जितने भी उत्तम जन्म हैं, उन सबमें इस वेणुजन्मको तुम सबसे अच्छा मानो, क्योकि यह मुरली तपस्याकी राशिद्वारा उच्च वेणुकुलमे जन्म ग्रहण करके मुरारि श्यामसुन्दरके बिम्बफलसदृश अरुण अधरोकी रसमाधुरीका निरन्तर आस्वादन करती रहती है।

विरहमें प्रियतमकी स्फूर्ति

यास्त्वं मयुराध्वनीन मयरानाथं तमित्यच्चकैः

संदेश वजसुन्दरी कमपि ते काचिन्मया प्राहिणोत् ।

तत्र क्षमापतिपत्तने यदि गतः त्वच्छन्द गच्छाधुना

किं क्लिष्टामपि विस्फुरन् दिशि-दिशि क्लिइनासि हा मे सखीम् ॥

हे मथुरा जानेवाले राही! तुम उन सुप्रसिद्ध मथुरानाथके पास जाकर उच्च स्वरसे यह कहना कि किसी ब्रजसुन्दरीने मेरेद्वारा आपके लिये कोई एक संदेश भेजा है (जो इस प्रकार है--) 'हे स्वतन्त्र ! तुम वहाँ राजधानीमें चले गये तो चले जामो (तुम्हें कौन रोक सकता है?) परंतु हाय ! इस समय विरहकी मारी परम सुकुमारी मेरी प्यारी सखीको चारो दिशाओंमे अपने रूपकी स्फूर्ति कराकर क्यों अत्यन्त क्लेशमें डाले रहते हो? (अर्थात् जब तुम्हारी स्फूर्ति होती है, तब यह तुम्हें साक्षात् उपस्थित समझकर पालिजनके लिये दौड़ पड़ती है। परतु क्षण मात्रमे स्फूतिके भङ्ग होनेपर यह दु.खके अगाध सागरमे डूब जाती है। उस बिजलीकी चमकसे, जो परिणाममें महान् अन्धकार कर देती है, केवल अन्धकार ही अच्छा है। तुम्हारी स्फूर्तिवाले इस विरहसे तो बिना स्फूर्तिका ही विरह अच्छा है, जो अधिक दुःस तो नहीं देता।)

महाभावका लक्षण जो स्वयंवेद्य दशा (उत्कर्षकी चरम सीमा) को पहुँचकर अपने प्रभावसे समस्त आथित भक्तोंको प्रावृत कर लेता-उन्हें परमानन्दसिन्धुमें निमग्न कर देता है,दिव्य सात्त्विक भावोंसे प्रकाशित होनेवाला वह अनुराग ही रसज्ञ भावुकोंद्वारा (भाव या) महाभाव कहा गया है।

(भात्र यह है कि जिस अवस्थामें दुःख भी सुखरूपसे प्रतीत हो, उसे 'राग' कहते हैं। परम मर्यादावाली कुलाङ्गनायोंके लिये स्वजन पीर पार्यपथका परित्याग करना दुःखको अन्तिम सीमा है। अग्नि, विच आदिसे मरनेमे उन्हें उतना दुःख नहीं होता। श्रीनजदेवियोंने सर्वस्व-त्याग करके श्रीकृष्णको प्राप्त किया और सुख माना। इससे उनके रागमें सर्वोत्कृष्टता है। इसी सर्वोस्कृष्टताके आधारपर प्रवृत हुआ अनुराग महाभावकी अवस्थाको प्राप्त कर लेता है। यह यावद् भक्तोंमें हो तो 'भाव' और ब्रजदेवियोके ही अनुभवमें आनेवाला हो तो 'महाभाव' कहा गया है। निकुञ्जके नित्य बिहारमें तो स्वजन और आर्यपथकी कल्पना ही नहीं, वहाँ तो सदा महाभावका ही साम्राज्य है। ) ।।१४०॥

श्रीद्वारकादौ महिषीगणाना

मप्यस्ति लब्धं सुशको न चैषः।

यः केवलं श्रीवजसुन्दरीणां

संवेद्यरूपः कथितो हि भावः॥१४१॥

(भावको अन्तिम सीमाको महाभाव कहते हैं।) द्वारका आदिमे श्रीद्वारकानाथकी महारानियोंके लिये भी इसकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। (यद्यपि ब्रजवर्ती प्रेम-स्नेह आदि भी उन्हें दुर्लभ ही हैं, तो भी जाति और प्रमाणकी दृष्टिसे कुछ न्यूनरूपमें समञ्जसा रतिके अनुसार प्रेम-स्नेह आदि उनके लिये मुलभ है, फिर भी महाभाव तो सर्वथा दुर्लभ ही है। महारानियाँ तो समञ्जसा रतिवाली है, उनमें सम्भोगेच्छा भी रहती है। अतएव विशद्ध प्रेम न होनेसे प्रारम्भसे ही उनका प्रेम वजदेवियोंकी अपेक्षा निम्न जातिका है। इसीसे उनमें प्रेमानन्दके सर्वांशकी परिपूर्ति नहीं होती और उनके प्रेम-स्नेहका परिणामरूप अनुराग उत्कृष्ट दशाको नहीं पहुंच पाता; अतएव महारानियोंके लिये महाभाव असम्भव है।) यह तो केवल श्रीब्रजदेवियोंके ही अधिकारको वस्तु है, इसका स्वरूप उन्हींके लिये संवेद्य कहा गया है ।।१४।।

स्वयं परानन्दमहामृतश्री

रात्मस्वरूपं नयते मनो यः।

अप्राकृता वृत्तिरिहेन्द्रियाणां

ज्ञेया रसज्ञैस्तु रहस्यविज्ञः॥१४२॥

परमानन्दमय महान् अमृतके समान जिसके स्वरूपका प्रभाव है, वह महाभाव मनको भी स्वस्वरूप बना लेता है। (ठीक वैसे ही जैसे नमककी झीलमें जो वस्तु पड़ जाय, वही नमक बन जाती है। इन्द्रियाँ मनकी वृत्तिरूप ही होती हैं, अतएव व्रजदेवियोंके मन आदि सर्वेन्द्रियोंके महाभावरूप होने के कारण उनके सभी व्यापारोंसे श्रीकृष्णका अत्यन्त वशीभूत रहना युक्तिसिद्ध ही है। द्वारकाकी महारानियों में तो सम्भोगकी इच्छा भी पृथक्प से बनी रहती है। अत: उनका मन भलीभांति प्रेमात्मक भी नहीं हो पाता, फिर महाभावात्मक क्या होगा। प्रतएव उनके हाव-भाव-कटाक्षोंसे श्रीकृष्णकी एक भी इन्द्रिय का वशीकरण नहीं होता। इस विषयमें श्रीशुक मुनिका यह वचन प्रमाण है--पल्यस्तु षोडशसहस्रमनङ्गवाणयस्येन्द्रिय विमयितुं कुहकैर्न शेकुः।) रस-रहस्यके शाता बुधजन महाभावकी अवस्थामें इन्द्रियोंको वृत्तिको अप्राकृत मानते हैं ॥१४२।।

तस्माद् व्रजे गोकुलबल्लवीनां

सर्वेन्द्रियाणामपि वृत्तिभिर्यः।

कृष्णोऽतिवश्योऽप्यथ पुत्तलीव

नृत्यत्यहो ब्रह्मशिवाधगम्यः ॥१४३॥

यही कारण है कि जो ब्रह्मा-शिव आदिके लिये भी अगम्य है, वे (वृन्दावनबिहारी) श्रीकृष्ण ब्रजमें गोकुलवासिनी गोपललनाओंकी सभी इन्द्रियोंकी वृत्तियोद्वारा अत्यन्त वशीभूत होकर उनके आगे कठपुतलीकी भांति नाचते रहते हैं ।।१४३।.

रूढोऽधिरूढो द्विविधो बुधैर्यः

प्रोक्तो महाभाव इति स्थविष्ठः॥

तस्यैव भेदा बहवो रस -

रुक्ताः पृथग्लक्षणलक्षिता ये॥१४४॥

रसशास्त्रके विद्वानोंने इस महाभावके स्थूल रूपसे दो भेद बताये है--एक रूढ़ और दूसरा अधिरूढ़। इस द्विविध महाभावके ही रसिकजनोंने और भी बहुत-से भेद कहे हैं, जो भिन्न-भिन्न लक्षणोंद्वारा लक्षित होते हैं ।।१४४।।

अथ रूढः

यत्र सात्विकभावाः स्युरुद्दीप्ता हि विशेषतः।

स रूदास्यो महाभाव कविभिः सम्प्रकीर्तितः ॥१४५॥

रूढ़ महाभाव का लक्षण जिसमें सभी सात्त्विक भाव विशेष रूपसे उद्दीप्त हो जायें, उसे कविजनोंने 'रूड महाभाद' कहा है ।।१४।।

निमेषमात्रविरहासहनं पावर्तिनाम् ।

हृदयक्षोभकारित्वं कल्पस्य क्षणता सुखे ॥१४६॥

खिन्नता प्रियसौख्यऽपि मिथ्यातत्कष्टशङ्कया।

मोहादीनामभावेऽपि सर्वविस्मारिता सदा ॥१४७।।

क्षणस्य कल्पतेत्याद्या यत्र योगवियोगयोः।

कृष्णाविर्भावकारित्वं महाभावस्य कीर्तितम् ॥१४॥

(रूढ़ महाभावका उदय होनेपर संयोग और वियोगमें यथा-सम्भव निम्नलिखित अनुभाव होते हैं-)

निमेष मात्रके लिये विरहको न सह सकना,* समीपवर्तीजनों या परिजनोंके हृदयमें क्षोभ उत्पन्न कर देना, संयोगजनित सुखकी दशा में एक कल्पके बराबर

निमेषको भी न सहना * कुरुक्षेत्रमें श्रीकृष्णके दर्शनसे व्रजदेवियोंको जो सुख मिला, उसका श्रीशुकदेवजी वर्णन करते हैं

गोप्यश्च कृष्ण पलभ्य चिरादभीष्टं यत्प्रेक्षणे दशिषु पक्ष्मकृतं शपन्ति ।

दृम्भिह दीकृतमल परिरभ्य सस्तिद्भावनापुरपि नित्ययुजां दुरापम् ।।

जो श्रीकृष्णके दर्शनके समय पलक भरके विरहको भी नहीं सह सकनेके कारण ब्रह्माको भी यों कहकर कोसती या शाप देती थीं कि 'अरे ब्रह्मा! तू मर जा ताकि कोई दूसरा ब्रह्मा बने, जो हमारी आँखोंपर कभी पलक न बनाये', उन्ही गोपियोंने अपने परम प्रियतम श्रीकृष्णको चिरकालके दाद पाकर उन्हें अपने नेत्रों द्वारा हृदयमें ले जाकर उनका गाड़ आलिङ्गन किया, आलिङ्गन करतेकरते वे उनके प्रति महाभावको प्राप्त हो गयीं---महाभाबजनित आनन्दमें निमग्न हो गयीं, जो नित्य-संयोगिनी पटरानियोंको भी दुर्लभ है, अथवा श्रीकृष्णमें एकत्व (लय) को प्राप्त हो गयीं, जो नित्य युक्त ज्ञानियों एवं योगियोके लिये भी दुर्लभ है। (यद्यपि ज्ञानीजन भी ब्रह्म में लीन होते है, तथापि प्रेम-विभोर अवस्थामे प्रेमीका प्रेमास्पदमें होनेवाला लय अत्यन्त उत्कृष्ट है। उसमे पानन्दकी जाति और मात्रा अत्यन्त विशिष्ट होती है, जिसका "सैपाऽऽनन्दल्य सीमा भवति' इस श्रुतिने वर्णन किया है। समीपवर्ती जनसमुदायके हृदयमें क्षोभ (या प्रणयविह्वलता) का प्राकट्य

कुरुक्षेत्र में जब गोपियोंके हृदयमें महाभावका उदय हा, उस समय वहाँकी सभी जनताको, जिन्होंने उस भावको देखा या सुना था, प्रेमानन्दमयी अवस्था प्राप्त हो गयी थी

कल्पका क्षण और क्षणका कल्प होना श्रीकृष्ण उद्धवजीसे कहते हैं--

तास्ताः क्षपाः प्रेष्ठसमेन नीता मयैव बन्दावनगोचरण।

क्षगार्ववत्ताः पुनरङ्ग तासांहीना मया कल्पसमा बभूवुः।।

तुम जानते हो कि मैं ही उनका एकमात्र प्रियतम है। जब मैं वृन्दावनमे था, तब उन्होंने बहुत-सी रात्रियां मेरे साथ आधे क्षणके समान बिता दी थी, परंतु प्यारे उद्धव! मेरे बिना वे ही रात्रियाँ उनके लिये एक-एक कल्पके समान हो गयीं।

प्रियतमके सुखमें भी दु:खको आशङ्कासे खिन्न होना

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रिय दधीमहि फर्कशेषु ।

तेनाटवीमटसि तद्वषयते न फिस्वित् कादिभिर्भमति धीभवदायुषां नः ।।

प्राचीन पुरुष यह कह गये हैं कि 'बन्धुजनोंके हृदय स्वजनोंके लिये अनिष्टकी शङ्का किया करते है।' उनके इस कथनका तात्पर्य यही है कि प्रियजनके लेशमात्र दुःखमें भी वे बन्धुजन मरणतककी कल्पना कर डालते हैं। परंतु यहाँ तो श्रीकृष्णके सुखमें भी-केवल महासुखका ज्ञान होते हुए भी, लेशमात्र दुःखकी सम्भावना न होनेपर भी, दुःखकी शङ्कासे न जाने प्यारेके श्रीचरणोंमे पीडा होती होगी, इस प्रकारकी शङ्कासे वृथा ही पीड़ाका आरोप करके जो गोपियोको खेद होता है, यह सबसे विलक्षण महाभावका लक्षण है।

रासमें श्रीकृष्णके अन्तर्धान हो जानेपर ब्रजदेवियाँ विलाप करती हुई कहती हैं-प्यारे! तुम्हारे सुकोमल श्रीचरण-कमलोंको हम अपने वक्षःस्थलपर डरती हुई बहुत धीरे-धीरे रखती है।

श्रीकृष्ण-अजी! इसमें डरनेका क्या कारण है ? गोपिया-प्यारे! हमारे वक्षकी कठोरता ही कारण है। श्रीकृष्ण-तब क्यों रखती हो उनपर मेरे पैर?

गोपियाँ-"प्यारे! तुम उसपर ही अपने श्रीचरणकमलोंको रखनेपर प्रसन्न होते हो। तुम्हारे उस सुखको देखकर ही हम ऐसा करती हैं। फिर भी 'तुम्हारे श्रीचरणोंमें व्यथा हो रही होगी' इस शङ्कासे हमको दुःख होता ही है; अतएव हम बहुत धीरेसे रखती है।

"इससे जान पड़ता है कि तुम्हारा संयोग प्राप्त होनेपर भी विधाताने हमारे ललाटमें दुःख ही लिखा है !" ___ 'प्रस्तु, संयोग और वियोगमें भी हमारे भाग्यमें यदि कष्ट ही लिखा है तो हो; परंतु प्यारे! तुम स्वतन्त्र होकर भी क्यों कष्ट सहते हो? उन सुकोमल श्रीचरणकमलोंसे क्यों वनमें घूमते हो? हाय ! हाय ! यह महासाहस क्यो करते हो? क्या ये सुकोमल श्रीचरण-कमल वनमें घूमने योग्य है? यदि कहो कि 'मेरे मनमें जब जो आयेगा, वही करूंगा; तुम सबको इससे क्या प्रयोजन ।' तो हम तुमसे पूछती है-क्या तुम्हारे श्रीचरणोंमें व्यथा नहीं होती? वनमे तो बहुत-से काँटे, कंकड़, गोखरू आदि हैं, क्या उनसे भी इन चरणकमलोंको व्यथा नहीं होती? व्यथा तो होती ही होगी; किंतु तुम हमारे ऊपर जिस प्रकार निर्दय बने रहते हो वैसे ही अपने इन भनोंपर भी दया नहीं करते। मथवा 'ये मेरे दु खसे भी दुखी होती है, इसलिये इनको और भी दुखी करने के लिये प्रवृत्त हर मुझे अपनेको भी दुःख देना और सहना चाहिये।' यही सोचकर तुम उस पीडाको भी सहन करते हो! अथवा हमारा दुःख देखने में ही तुम्हें महान् सुख मिलता है, अतएव उस पीड़ाको तुम सुख ही मानते हो।

"अथवा दोप और गुण संसर्गसे होते हैं-इस न्यायसे पहले जो तुम्हारा हृदय कुसुमके समान सुकुमार था, वही हमारे कठोर बक्षके संसगसे अब कठोर हो गया है। इसी प्रकार तुम्हारे धीररण भी वक्षके संसर्गसे ही कठोर बन गये हैं। इसीलिये वे कण्टक आदिसे व्यथित नहीं होते।

"अथवा तुम्हारे चरणकमलके स्पर्शकी महिमासे वे कण्टक आदि भी कोमल हो जाते हैं अथवा पृथ्वी ही अत्यन्त करुणावश या श्रीचरणकमलोंके माधुर्यका आस्वादन करनेके लोभसे तुम्हारे चरणोंके रखनेके स्थानमें अपनी जीभ ऊपरको उठा देती है।

"अथवा तुम हम सबसे भी अधिक प्रेम करनेके कारण प्रेमसिन्धु हो, देववश हमारे विरहसे संतप्त हो भ्रमण करते हुए उन्मादकी दशाको प्राप्त हो गये हो; इसीलिये तुम्हे अपने श्रीचरणोंकी पीड़ाका भान नहीं होता।

"इस प्रकार अनेक कारणोका विचार करती हुई हमारी बुद्धि भ्रममें पड गयी है, कहींपर भी निश्चय नहीं कर पाती।"

श्रीकृष्ण--"गोपियो! तुम यह कितना अपना दुःख व्यक्त कर रही हो? मै तो उसे दुःख ही नहीं मानता, जिसमें प्राण शरीरसे न निकलें।"

गोपियाँ--"प्यारे! इस विषयमें हमारा यही कहना है कि हमारी प्राय हमारे पास नहीं, वह तो आपके पास है। आप कल्याणस्वरूप है, अतएव आपके पास रहनेसे ही इतने कष्टोंसे भी हमारी आयुका नाश नहीं हुआ। भाव यह है कि आपके समान ही हमें कष्ट देनेके लिये प्रवृत्त हुए विधाताने यह विचार किया कि यदि इनकी आयु इन्हींके पास रखंगा तो मेरे दिये हुए अत्यन्त संतापासे अपनी आयुको दग्ध करके ये शीघ्र मर जायेंगी। तब मैं फिर किनको कष्ट दूंगा? इससे इनकी आयुको अपने सधर्मी-अपने बन्धु श्रीकृष्णके पास धरोहरके रूपमे रखकर इनको अपनी इच्छाके अनुसार अपार दुःखका भोग कराऊँ।' प्रतएव हम मरती नहीं। ___ "अथवा हमारी बुद्धि ही भ्रममे पड़ी हुई है। प्राण तो हमारी देहसे निश्चय ही निकले जा रहे हैं, यह अभी तुम देखो।

यदि कहो कि 'पायुके रहते हुए प्राणोंका नाश कैसे हो सकता है?' तो हम अपनी आयु इस समय आपको समर्पित कर चुकी है। हमारी वह आयु लेकर चिरंजीवी हो तुम सदा इस व्रजमें खेलना ।"

बिना मोह (मूर्छा) के सर्व-विस्मरण

ता नाविवन्मय्यनुषणबद्धधियः स्वमात्मानमवस्तथेदम् ।

यथा समाधी मुनयोधितोये नद्यः प्रविष्टा इव नामरूपे॥

उद्धवके प्रति साधुसङ्गकी महिमाका बखान करते हुए श्रीकृष्णने कहा है कि 'जिसकी केवल मुझमें ही प्रीति है, वही साधु है।" भगवद्विषयक अनन्य प्रेम ही साधुताका लक्षण है। यह लक्षण पूर्णरूपसेधीगोपीजनोंमें ही घटित होता है। गोपियोने अपनी बुद्धियोंको निरन्तर प्रासक्तिसे मुझमें बांध दिया था। मापनेका भाव

कालका भी एक क्षणके बराबर प्रतीत होना, प्रियतमके सुखमें भी मिय्या कष्टकी आशङ्कासे खिन्न हो जाना, मूर्छा आदि के प्रभावमें भी सदा सुध-बुध खोकर सब कुछ भूल जाना, वियोगमें क्षणमात्र कालका कल्पके समान (लंबा) हो जाना इत्यादि बातें यथासम्भव संयोग-वियोगकी अवस्थामें प्रकट होती है। महाभावमें श्रीकृष्णको प्रकट करनेकी महाशक्ति बतायी गयी है ।।१४६-१४८।।

अथाधिरूढः रूढ़े प्रोक्ता येऽनुभावा रस -

स्तेभ्यः किंचित्प्राप्य वैशिष्टयमेव ।

दृश्यन्ते चेद्यत्र सर्वेऽनुभावाः

संप्रोक्तोऽयं सोऽधिरूढः कवीन्द्रः ॥१४॥

अधिरूढ़ महाभावरसज्ञ विद्वानोंने रूढ़ महाभावमें जो अनुभव बताये हैं, वे सब अनुभाव जहाँ पहलेकी अपेक्षा कुछ विशिष्टता लेकर दृष्टिगोचर हों, उसे कवीन्द्रोंने अधिरूढ महाभाव कहा है ॥१४६।।

द्विधा मोदनो मादनश्चाधिरूढ

स्तयोर्लक्षणं प्रोच्यते यत्कवीन्द्रः ।

भवेन्मोदनो मोहनो विप्रयोग

बजे ह्लादिनीसारसर्वस्वमेतत् ॥१५०॥

मोदन और मादन भेदते अधिरूढ़ महाभाव दो प्रकारका होता है ; क्योकि कवीन्द्रोंने इन दोनोंके लक्षणोंका वर्णन किया है। वियोगकी दशा में यह मोदन ही 'मोहन' कहलाता है। यह ह्लादिनी शक्तिका सार-सर्वस्व केवल व्रजमे ही देखनेको मिलता है, अन्यत्र नहीं ।।१५०।। यहाँ श्रीकृष्ण स्तम्भ है। आसक्ति रस्सी है। गोपीजनोंकी बुद्धियाँ श्रीकृष्णकी कामपूरक कामधेनएं हैं। वे रास और अभिसार आदिकी लीलाओंके समय अपनी देहको भूल जाती थी। शरीर कहाँ है, क्या कर रहा है, कहाँ जा रहा है वे नहीं जानती थी। परलोक और इस लोकको भी भूल गयी थी , अतएव धर्मका और लज्जा, भय आदिका भी उन्होंने परित्याग कर दिया था। जैसे समाधिमें ब्रह्मका अनुभव होनेपर मुनिजन सब भूल जाते हैं, वैसे ही मेरे अनुभवमें सब कुछ भूल गयीं। जैसे नदियाँ समुद्रके जलमें मिलकर अपने नामरूप नहीं जानतीं, उसी प्रकार वे मेरे रससिन्धमें मग्न होकर अपने नाम-रूप, देहगेह आदिकी सुध खो बैठीं। (यहाँ भूलनेमें समाविका दृष्टान्त और रसके चर्वणमें नदी-समुद्र-संगमका दृष्टान्त है ')

(यदि कहें कि 'वियोगको अवस्थामें तो दुःख होता होगा, ऐसी अवस्थामें इस मोदन या मोहन महाभावकी प्राप्तिके लिये कोई भी चतुर उपासक साधनमे प्रवृत्त नहीं होगा। किसीको प्रवृत्ति न होनेसे इसको पुरुषार्थ-कोटिसे बहिष्कृत मानना पड़ेगा' तो इसके उत्तरमें निवेदन यह है कि वियोगकी अवस्थामें बाहर ही वियोग होता है, भीतर तो प्रियतमका सयोग बना रहता है।

स्वप्न और स्फूर्तिद्वारा बारंबार प्रियतमका आविर्भाव होनेने विच्छेदरहित मानसिक, स्वाप्न और साक्षात् सम्भोगकी प्राप्ति होती है। अतः विरह भी परम सुखमय होता है।

विरहजनित संताप और संयोगमें शीतलता रहती है। लोकमें उष्ण होनेपर शीत सुखमय होता है और शीत होनेपर उष्ण मुखमय होता है। एकएकके अभावमें दोनों ही दुःखरूप हैं। यह लोगोका प्रत्यक्ष अनुभव है-जैसे क्षुधा और भोज्य वस्तु-इन दोनों के एक साथ प्राप्त होनेपर ही सुखकी अनुभूति होती है। भोज्य वस्तुके प्रभावमें क्षुवा दुःखरूप है और क्षुधाके प्रभावमें भोज्य वस्तु भी सुखद नहीं है। रति, प्रेम आदिमें संयोग होनेपर भी उत्कण्ठारूप विरह बना ही रहता है। अब कुछ नहीं चाहिये, ऐसी बुद्धि कभी नहीं होती। अतएव वह संयोग सदा सुखमय होता है। अतः उपर्युक्त शङ्काके लिये अवकाश नहीं है।

अथ मोदनः

द्वयोर्यदा सात्विकभावदीप्ति

भवेन्महोत्कृष्टतया सहव ।।

स मोदनाख्यो ह्यधिरूढ़भावो

बजे महाक्षोभकरो निरुक्तः ॥१५॥

मोदन महाभाव नायक और नायिका दोनोंके हृदयमें जब एक साथ अत्यन्त उत्कृष्ट और उद्दीप्त रूपमें सात्विक भावका उदय हो, तब उसे मोदन नामक अधिल्ड महाभाव कहा गया है। यह महान् क्षोभकारी भाव केवल व्रज में ही लक्षित होता है ॥१५१॥

यतः कुरुक्षेत्रगतः सकान्तो

हरिय॑मुह्यत्प्ररुदन्नजनम् ।

व्रजस्त्रियः प्रेममहामहिम्ना

गता महत्त्वं विदितं महद्भि। १५२॥

कुरुक्षेत्रमें श्रीराधाके हृदयमें जब मोदन महाभावका उदय हुया, तब सभीके हृदयमें महान क्षोभ उत्पन्न हो गया। रुक्मिणी आदि कान्तामोसे युक्त श्रीकृष्ण भी निरन्तर रोते-रोते मूच्छित हो गये। इसी प्रेमकी महामहिमाले व्रजदेवियोंको अनुपम महत्त्व प्राप्त हुआ है, महारसिकजन इस वातको भलीभांति जानते हैं ।।१५२।।

अयं राधिकायूथ एवास्ति भावो

न सर्वत्र लक्ष्यो भवेन्मोदनाख्यः।

असौ ह्लादिनीशक्तिसारो विलासो

महाप्रेमसम्यक्चमत्कारयुक्तः॥१५३॥

यह मोदन महाभाव केवल श्रीराधाके यूथमें दृष्टिगोचर होता है, सर्वत्र नहीं। (चन्द्रावली आदि नायिकाओंके यूथमें यह नहीं देखा जाता।) यह मोदन महाभाव ह्लादिनी शक्तिका सारभूत सुन्दर विलास है। इसमें महाप्रेमसम्पत्तिके अनेक उत्तमोत्तन चमत्कार भरे रहते हैं ।।१५३॥

अथ मोहनः

अयं मोदनो विप्रलम्भे महद्भिः

प्रियाप्रेष्ठयोः कथ्यते मोहनाख्यः।

महाविप्रलम्भीयवैवश्यहेतो

स्तदा सात्विकाः सुप्रदीप्ता भवन्ति ॥१५४॥

मोहन महाभाव महात्मा पुरुष इस मोदनको ही प्रिया-प्रियतमके विरहकी अवस्थामें 'मोहन' कहते हैं। इस मोहन महाभावमें विरहजनित विवशताके कारण सात्त्विक भाव अत्यन्त उद्दीप्त हो जाते हैं ॥१५४।।

अत्रानुभावाः कथिता रस -

मूर्छा हि कान्तापरिरम्भणेऽपि।

स्वीकृत्य दुःखान्यतुलानि तस्य

सौख्यऽभिलाषः प्रबलः सदैव ॥१५॥

रसिकोंने मोहन महाभावमें निम्नलिखित अनुभाव कहे हैं-श्रीरुक्मिणी आदि कान्ताओंसे आलिङ्गित होनेपर भी श्रीकृष्णको मूर्छा हो जाना तथा असह्य तथा अपरिमित दुःखोंको स्वीकार करके भी श्रीराधाका अपने प्रियतमके सुखकी ही सदा प्रबल कामना करना १५५

ब्रह्माण्डक्षोभकारी खगमृगजलजा यत्र सर्वे रुदन्ति

मृत्यु स्वीकृत्य तृष्णाप्यतिप्रबलतरा स्वागभूतश्च नित्यम् ।

तत्सङ्गे भूजलायरिति रसिकजनैः कथ्यते मोहनेऽस्मिन्

दिव्योन्मादाक्योऽन्ये बहद इह बुधैः कीर्तिताश्चानुभावाः ॥१५६।।

इस मोहन नामक महाभावमें ब्रह्माण्डको क्षुब्ध कर देनेवाली अवस्था प्राप्त होती है। पशु, पक्षी, जलचर आदि सभी करुणक्रन्दन करने लगते हैं; मृत्यु प्राप्त करके भी अपने शरीरके पृथ्वी,जल आदि पञ्च महाभूतोंसे प्रियतमके सङ्गकी अत्यन्त प्रबल अभिलापा जाग्रत् होती है-ऐसा रसिकोंका कथन है। इनके सिवा दिव्य उन्माद आदि और भी बहुत-से अनुभाव विद्वानों ने यहां बताये हैं* ॥१५६।।

* कान्तालिङ्गित श्रीकृष्णकी मूच्र्छा द्वारकासे पायी हुई कोई संन्यासिनी श्रीललिता आदि व्रजदेवियोंकी सभामे आकर आशीर्वादके रूपमें यह श्लोक कहती है--

रत्नच्छायाच्छुरितजलबो मन्दिर द्वारकाया

रक्मिग्यापि प्रबलपुलकोऽदमालिङ्गितस्य ।

विश्वं पायान्मसृणयमुनातीरवानीरकुजे

राषाकेलीपरिमलभरध्यानमूना मुरारेः॥

जिसके बलभीस्तम्भ और शिखर आदिमें जड़े हए रत्नोंकी कान्तिसे वहाँके समुद्रकी विचित्र शोभा हो रही है, द्वारकाके उस (गगनचुम्बी) महलमें प्रबल रोमाञ्चयुक्त श्रीरुक्मिणी देवीकेद्वारा प्रगाढ़ पालिङ्गन प्राप्त होनेपर भी श्रीकृष्णको श्रीयमनातीरके सुस्निग्ध वेतसकुञ्जमें श्रीराधाके साथ की गयी क्रीड़ाओंमें सुलभ हुई मनोहर सुगन्धराशिके ध्यानमात्रसे मूर्छा हो गयी ; उनकी यह मूर्छा समस्त विश्वकी (निकुञ्ज-जगत्की) रक्षा करें।

असह्य दुःख स्वीकार करके भी श्रीकृष्णके सुखकी कामना वजसे मथुरा जाते हुए श्रीउद्धवजीको श्रीराधाने श्रीकृष्णके लिये इस प्रकार सदेश दियास्थानः सौख्यं यदपि बलवद् गोष्ठमाप्ते मुकुन्दे

यद्यल्पापि क्षतिरुदयते तस्य मागात्कदापि।

अप्राप्तेऽस्मिन्यदपि नगराबालिग्रा भवेन्नः

सौख्यं तस्य स्फुरति हृदि चेत्तत्र वासं करोतु ॥

प्राणप्यारे श्यामसुन्दरके मथुरासे व्रजमें आ जानेपर यद्यपि हम सबको महान् सुख प्राप्त होगा, तथापि यदि उनकी यहाँ आनेसे थोड़ी-सी भी हानि होती हो तो वे कभी यहाँ न पायें। यद्यपि उनके मथुरासे न आनेपर हमको भयंकर वेदनाका सामना करना पड़ेगा, तो भी यदि उनके हृदयमें वहाँ रहनेसे सुखकी अनुभूति होती हो तो वे सदा वहीं निवास करें।

ग्जातिका भी रोदन द्वारका जाकर श्रीपौर्णमासीजीके सम्मुख रोकर वर्णन करती

हैयुरिपो तवस्त्रसंव्यानया कुजवजुललतामालम्ब्य सोत्कण्ठया।

गवगलत्तारस्वरं राधया परिभिजलचरैरप्युत्कमुत्कूजितम् ।।

से द्वारकाको चले गये, तब इस समाचारको सुनकर वस्त्रके रूपमें धारण करनेवाली श्रीराधाने कालिन्दीको पकड़कर उत्कण्ठासे व्याक्त हो महान् अश्रुवेगके

स्वरसे कुछ ऐसा करुण गान किया, जिससे जलके : आदि जलचर जीव भी रो पड़े। हो गयी, तव हंस, कारण्डव, तीतर, कबूतर, मैना, किी तो बात ही क्या कही जाय।)' अपने शरीरके पञ्चभूतोंसे श्रीकृष्णके ही सङ्गको तृष्णा कहती है—

तनिवहाः स्वांशे विशन्तु स्फुटं

गपत्य हन्त शिरसा तत्रापि याचे वरम् ।

पमुकुरे ज्योतिस्तदीयाङ्गन

म तदीयवमंनि धरा तत्तालवन्तेऽनिलः ॥

चय हो गया कि अब श्रीकृष्ण नहीं आयेंगे, तब तो वे मुझे पा सकेंगे। ऐसी दशामें तू अत्यन्त कष्ट है? मैं तो अब इस शरीरको छोड़ना ही चाहती का व्यर्थ यत्न मत कर। पी मेरा एक मनोरथ है, जिसके लिये में विधाताको । वर मांगी; क्योंकि विधाताके लिये कुछ भी

पी मेरा एक मनोरथ है, जिसके लिये मैं विधाताको । वर मांगी; क्योंकि विधाताके लिये कुछ भीरकी मृत्यु हो जानेपर उसके आरम्भक पृथ्वी, जल, गमें मिल जायेंगे ; सो भले ही ऐसा हो। परंतुवहाँ भीमें

हूँ कि मेरे शरीरका जल प्यारेके स्नान और विहार पादि में ही जा मिले। शरीरका तेज प्रियतमके मेरी ज्योतिमें ही वे अपना मुख देखें)। आकाश में ही मिल जाय (जिससे प्यारेके चलते, बैठते, उनके सर्वाङ्गका मैं आकाशरूप से आलिङ्गन कर

की भूनिमें ही जा मिले (जिरासे प्यारे सदा मेरे ३) और मेरे शरीरकी वायु उनके व्यजनमें जा मिले, दा सुगन्धयुक्त होती रहे। (अरी ललिते ! मुझे तो इस होनकी है फिर तू व्यथ क्यो रो रही है)

एष प्रायो राधिकायामुदेति

भावः सम्यग्मोहनो विप्रलम्भे ॥

संचारी यो मोह उक्तः कवीन्द्र -

स्तस्मादेतल्लक्षणं भिन्नमेव ॥१५७॥

यह मोहन महाभाव प्रायः श्रीराधामें ही विरहावस्थामें सम्यक् रूपसे उदित होता है। कवीश्वरोंने जो 'मोह' नामक संचारीभाव कहा है, उससे इसका लक्षण सर्वथा भिन्न ही है ।।१५७॥

अथ दिव्योन्माद:

यदा मोहनो याति कांचिद्विचित्र

गति स्यात्तदा या भ्रमामा विचित्रा।

दशा सूरिभिदिव्य उन्माद उक्तो

वदन्त्यस्य भेदानसंख्यान् रसज्ञाः॥१५॥

दिव्योन्मादका लक्षण यह मोहन महाभाव जब किसी विचित्र-विलक्षण, अनिर्वचनीय अवस्थाके प्राप्त होता है, तब श्रीराधाकी भ्रमकी-सी झलकवाली जो अद्भुत दगा हो जाती है, उसीको पण्डितजन 'दिव्योन्माद' कहते हैं। इसके विद्वानोंने असंख्य भेद बताये हैं ॥१५८।।

उघूर्णा चित्रजल्पाद्या दृष्टा भागवतेऽप्यमी।

कॅचिद् भमरगीतादौ ततो ज्ञेया मनीषिभिः॥१५॥

उधूर्णा, चित्र और जल्प आदि दिव्योन्मादके बहुत भेद है। इनमेंसे कुछ भेद (श्रीमद्भागवतमे) भी भ्रमरगीत आदिके प्रसङ्गमें देखे जाते हैं । मनीषी पुरुषोंको वहींसे इनका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये ।।१५।।

विलक्षणेयमुधूर्णा नानाविवशतामयी।

चेष्टास्या मोहनी ज्ञातुमशक्या रसिकैरपि ॥१६०॥

अनेक प्रकारकी विवशतापूर्ण विलक्षण मोहिनी चेष्टाओं का होना उघूर्णा'* कहलाता है। इसका यथार्य ज्ञान रसिक जनों के लिये भी अशक्य है ।।१६०।।

* उघूर्णाका उदाहरण ब्रजगोपियों एवं श्रीराधाका वृत्तान्त पूछनेपर उद्धवजीने श्रीकृष्णसे कहा--

शयां कुञ्जगृह क्वचिद्वितनुते सा वाससज्जायिता

नीलानं धुतखण्डिताज्यवहृतिश्चण्डी क्वचितर्जति ।

अथ मादनः

यस्मिन् सर्वेऽपि भावा उदयमुनगताः प्रोल्लसन्तो भवेयुः

सर्वश्रेष्ठं परेभ्यः परतरमुदितं ह्लादिनीसाररूपम् ।

भावं श्रीभावनाख्यं कविरसिकजनध्येयवन्धस्वरूपं

राधायामेव नित्यं कृतनिलयमहं स्तौमि तं भावराजम् ॥१६॥

मादनका लक्षण जिसमें रति, प्रेम आदि सभी भार उदित होकर विशेषरूपसे उल्लसित होते हैं, जो ह्वादिलो शक्तिका साररूप सर्वश्रेष्ठ , उत्कृष्टते-भी उत्कृष्टतम भाव है, रतिक और विजन जिस के स्वरूपका सदा ध्यान और वन्दन करते है तथा श्रीराधा ही जिसकी एकमात्र आश्रप्रभूता है, ऐसे इस "श्रीमादन" नामक भावराजका मैं स्तवन करता हूँ* ॥१६१॥

प्रात्यभिसारसम्भ्रमवती ध्वान्ते क्वचिद्दारुणे

राधा ते विरहोद्भमनमविता धत्ते न कांदा दशाम् ॥

'कभी तो वे वासकसज्जानायिकाके आवेशमें कुंजभवनमें शय्याकी रचना करती हैं, कभी खण्डिता नायिकाको तरह चेष्टा करतो हुई कुपित होकर नीलवर्ण पानको डांटतो-फटकारती है तथा कमी महान् अन्धकारमें अभिलारके सम्भ्रमसे यक्त हो चारों पोर धूमने लगती हैं। श्यामसुन्दर! तुम्हारे विरहसे उत्पन्न उद्धान्तिसे व्यथित हुई दिव्योन्मादवती श्रीराधा ऐसी कौन-सी दशा है, जिसका अनुभव न करती हो?

** यों तो सभी भावोंमें प्रिया-प्रियतम दोनों ही परस्पर विषयालम्बन और प्राथपालम्बन माने गये है, परंतु मादन महाभावमें श्रीराधा ही पाश्रयालम्बन है तथा श्याम मुधर विजयालम्बन हैं। क्योंकि श्रीराधा मादन महाभाबकी धनीभूत मूति हैं और श्यामसुन्दर रसवन मूर्ति है--यह रसशास्त्रके विद्वानोंका मत है। * प्रोतिको रोति-नीति के ज्ञानमें श्रीराधा ही अग्रसर है, अतएव श्रीसुधानिधिमें प्रियतमने इनसे सुदृढ़ अनुरागको भिक्षा मागी है

स्वयि श्याने नित्यं प्रगयिनि विदग्धे रसनिधी

प्रिय भूगोभूषः सुदृढमतिरागो भवतु मे।

श्रीराससङ्गमे भी श्यामसुन्दरने अपनेको प्रेमका ऋणी स्वीकार किया है

नपार मेहं निजद्यसंपुजां स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः ।

मेरे विचारसे तो मादन महाभावोंमें भी दोनोको ही पाश्रय और विषय मानना चाहिये । क्योंकि इस सिद्धान्तमें सब श्रुतियोंकी संगति बैठ जाती है और 'नायक' तथा 'नायिका' इन दोनों पदोंकी समानार्थकता भी चरितार्थ हो जाती है। जैसे श्रीराधाको आह्लादिनी मानते हैं, वैसे ही 'एप ह्येव आनन्दयति' इस श्रुतिने श्रीसहित धीभगवान्को भी पानन्ददाता और ग्राह्लादक माना है। इस प्रकार श्रीभगवानकी पूर्णतामें भी कोई आपत्ति नहीं आती और प्राचार्योके मतोंका समन्वय भी हो जाता है।

अत्रेाया अयोग्यऽप्यथ प्रबलतया जायते काचिदीर्ध्या

नित्यं भोगेऽपि भोगानुकृतिलवकणाधारमात्रस्तवादिः ।

योगे ह्येवातिचित्रो विलसति विषये स्वाश्रयः मादनाख्यो

यस्यानेके विलासाः कविजनकथिता नित्यलीलानिकुञ्ज ॥१२॥

इस मादन महाभाव के उदय होनेपर-जो ईप्या के योग्य नहीं है, उसके प्रति भी कभी प्रवल ईर्ष्या होने लगती है। नित्य सम्भोग प्राप्त होनेपर भी जिसमें भोगके अनुकरणका लबा-कगमात्र भी दृष्टिगोचर हो,उसकी स्तुति-वन्दना आदिकी क्रिया होती है। यहाँ ये ही अनुभाव कहे गये है। यह अत्यन्त विचित्रअनिर्वचनीय और अति उत्तम मादन महाभाव संयोगकी अवस्थामें ही अपने विषय और आश्रयमें विलसित होता है। कविजनोंने इसीके अनेक विलासोका निकुञ्जको नित्य लीलाओंके रूपमें वर्णन किया है ।।१६२॥

दुर्जेयातिरहस्यास्ति मादनस्य गतिस्तु या।

निर्वक्तुं नैव शक्यत रसतत्वविदाप्यलम् ॥१६३॥

मादन महाभावको गति अत्यन्त रहस्यमयी और दुर्जेय है। रसतत्त्वके वेत्ता भी इसका यथार्थ रूपसे निर्वचन करने में असमर्थ हैं ॥१६३॥.

राजन्ते व्रजदेवीषु परा भावभिदास्तु याः।

ता अतय॑स्वरूरत्वान्न सम्यगिह वणिताः॥१६४॥

* ईर्ष्याका उदाहरण

विशुद्धाभिः सार्ध वजहरिणनेत्राभिरनिशं

त्वमहा विद्वेषं फिमिति बनमाले रचयसि ।

तुगीकुर्वन्त्यस्मान् वपुरधरिपोराशिखमिदं

परिष्वज्यापादं महति हृदये या विहरसि ॥

अरी वनमाले! हम निर्दोप ब्रजबालाओंके साथ तु साक्षात् निरन्तर द्वेप क्यो करती है? (यदि कहे कि मैं क्या करती हूँ? तो मुन-हम सबको तृणवत् मानकर पापहारी विहारीके नखसे शिखतक सम्पूर्ण अङ्गोंका जो तू आलिङ्गन करती है और उनके विशाल हृदयपर विहार करती है (क्या यह हमारे साथ तेरा द्वेष नहीं है? )

* भोगके अनुकरणकी स्तुति

कृष्णोपमतमालाडू स्वाश्लिष्टां वीक्ष्य मालतीम् ।

इलाधमानाक्षिलक्ष्या ले कि स्थाद्राधावलोचना ।।

श्रीकृष्णके समान वर्णवाले कृष्णतमालकी गोदमें भलीभांति लिपटी हुई मालतीलताको देखकर उसकी प्रशंसा करती हुई अधुलोचना श्रीराधा क्या कभी मेरे नेत्रोंके समक्ष प्रकट होगी?

श्रीब्रजदेवियों में और भी जो भावोंके अनेक श्रेष्ठ-अलौकिक भे तर्कके विषय नहीं हैं; अत: उन सबका यहाँ भलीभाँति वर्णन नह गया ।।१६४॥

मधुकण्ठ उवाच

उक्ता रत्यादिभेदा ये पूर्वाचार्यगिरा सखे।

तदुदाहृतिमत्र त्वं स्वबुद्धया परिकल्पय ॥१६५।।

श्रीमवृकण्ठजी बोलेहे मित्र ! मैंने पूर्वाचार्योंकी वाणीके अनुसार जो रति आदिके । बताये है, उनके उदाहरणोंकी कल्पना तुम अपनी बुद्धिसे कर लेना ।।

बसन्तदेवो विप्रोऽपि श्रीराधारसप्रक्रियाम् ।

सर्वा तत्कृपया मित्र सहसाधिजगाम ह॥१६६॥

सखे! वसन्तदेव ब्राह्मणने भी इस सम्पूर्ण दुर्जेय श्रीराधारम-प्रो उन्हींको कृपासे सहसा जान लिया ।।१६६।।

ततो निकुञ्जलीलानामपूर्वा रसमाधुरीम् ।।

अन्वभूतत्स्वस्वरूपं च प्राप्तवान् भावनामयीम् ॥१६७॥

उन्होंने श्रीनिकुञ्जलीलानोंकी अपूर्व रस-माधुरीका आस्वादन किर भावनाको अवस्थामें उन्हें अपने गोपीस्वरूपकी भी प्राप्ति हो गयी ॥१६७।

इति श्रीनिकुञ्जलीलारसप्रवेशो नाम षष्ठोऽध्यायः।

श्रीनिकुञ्जलीलारस-प्रवेश नामक छठा अध्याय समाप्त हुआ।

आगे पढ़ें.................. श्रीराधा सप्तशती अध्याय 7

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