सप्तपदी हृदयम्

सप्तपदी हृदयम्

श्रीसप्तपदी हृदयम् - इस शिवशक्तिस्वरूप सम्पूर्ण विश्वमण्डल में किसी न किसी विशेष सम्बन्ध से परस्पर आनन्द के लिए नाना प्रकार से व्यवहार करनेवाला यह जगत् सम्बद्ध ही दिखाई देता है। उसमें भी अपने अपने समाजों से स्थापित किये हुए उन उन नियमों के अनुसार स्त्री-पुरुष, परस्पर पति-पत्नी भाव से जिस सभ्य बननेवाले कर्म को स्वीकार करते हैं, उस संस्कारक कर्म को सच्छास्त्रों के रहस्य को जाननेवाले विद्वान् विवाह कहते हैं।

यह विवाह बहुत प्रकार का होता है। विवाह शब्द योगरूढ़ है । स्त्री और पुरुष नियमविशेष से पति-पत्नी भावसम्बन्ध को परस्पर प्राप्त करते हैं, उस कर्म को विवाह कहते हैं। मन्वादि महर्षियों ने आठ प्रकार का विवाह बतलाया है, वे सब बातें उन्हीं ग्रन्थों में देखनी चाहिए।

यज्ञ से यज्ञपुरुष परमात्मा को सन्तुष्ट करनेवाले आर्य लोग सुव्यवस्था की स्थापना से सम्पूर्ण जगत्को आनन्द देने के लिए संस्कार करते हैं अर्थात् श्रेष्ठ बनाते हुए दिखाई देते हैं। इसीलिए भगवान् ने कहा है कि-

"प्रजापति ने बहुत प्राचीन समय में प्रजा की सृष्टि की तथा उनकी सहायता के लिए यज्ञ का उपदेश कर उनसे कहा कि इससे सम्पूर्ण प्रकार की कामनाओं को पूर्ण कर लो, यह आपकी इच्छापूर्ति के लिए कामधेनु होगा।"

आर्यत्व प्राप्त करानेवाले विधान से परस्पर सहायता पहुँचानेवाले सम्पूर्ण कर्मो का समावेश यज्ञपद में हो जाता है। उसमें जो कर्म अन्तर्मुखता के लिए हितकर हो वह श्रेष्ठ यज्ञ है। जो बहिर्मुखता के लिए हितकर हो वह कनिष्ठ यज्ञ है। अच्छे कर्मों से अच्छे फलों की तथा कनिष्ठ कर्मों से कनिष्ठ फलों की प्राप्ति होती है। इसीलिए धर्म, पुत्र, रति फल के उद्देश से किये गये विवाहों में पूर्वं पूर्वं विवाह को सनातन महर्षियों ने श्रेष्ठ कहा है, अस्तु ।

भारतवर्ष में भूत तथा भविष्यत् जाननेवाले जगत् के कल्याणकारक सम्पूर्ण साधनों को प्रत्यक्ष देखनेवाले सनातन महर्षियों द्वारा संस्थापित – विवाह विधायक कर्मों में सर्वोत्तम तथा अन्तिम सप्तपदी नामक कर्म है। इस कर्म के सम्पूर्ण होने पर ही विवाह अटूट माना जाता है। अतः विद्वानों की सम्मति में विवाह क्रिया में सप्तपदीकर्म सर्वश्रेष्ठ है। इस कर्म में वर वधू को अपने साथ सात पद चलाता है। सात पदों को चलाने का यह कर्म सात श्रेष्ठलोकों का विजयसूचक है। श्रेष्ठलोक सात ही माने गये हैं। सातलोक पर्यन्त एक सम्मति से साथ जानेवालों में पूर्ण मित्रभाव की स्थापना होना स्वयंसिद्ध ही है। इसीलिये महर्षि लोग सख्य (मित्रभाव) का साप्तपदीन नाम देते हैं। सातों लोकों के विजय की अभिलाषा रखने- वाला पुरुष अपनी सहायता के लिये तथा अपने बहिर्मुख आनन्द की परिपूर्ति के लिए स्त्री के सम्मुख सात प्रकार की प्रतिज्ञा से उसके सात लोकों की विजय के लिए अपने आपको पूर्णरूप से प्रतिभूत्व (उत्तरदायित्व) की प्रतिज्ञा करता हुआ उस स्त्री के साथ पूर्ण मित्रभाव स्थापित करता है। भारतीय आर्य विवाह संस्कार कर्म में अत्युत्तम तथा अन्तिम यह क्रिया कितनी सुन्दर एवं आदर्शपूर्ण है। इस सप्तपदी में वर के द्वारा की जानेवाली ये सात प्रतिज्ञाएं गृह्यसूत्रों में एकमिषेइत्यादि वाक्यों से बहुत ही संक्षिप्तरूप में कही गयी हैं। उन्हीं का हृदय (रहस्य) मनोहर श्लोकों में खोलकर अतिसुन्दर नामवाले इस "श्री सप्तपदी हृदय" नामक ग्रन्थ में स्पष्ट किया गया है। डी०पी० कर्मकांड द्वारा अनुवादक-पं० हरदेव शर्मा त्रिवेदी ज्यो० को आभार व्यक्त करते हुआ प्रचार-प्रसार उद्देश्य से प्रकाशित ।

सप्तपदी हृदयम्

श्रीसप्तपदीहृदयम्

महामहिम आचार्य श्रीमदमृतवाग्भवप्रणीतम् ।

॥ श्रीः ॥

शिवशक्तिमयं विश्वं परस्परसुखाप्तये ॥

विवाहितं विजयते सप्तपद्या प्रतिश्रुतम् ॥ १ ॥

शिवशक्तिमय सम्पूर्ण जगत् एक दूसरे से परस्पर सुख उठाने के लिए सप्तपदी से प्रतिज्ञाबद्ध होकर विवाहित होता है, इसी लिए सर्वत्र उसी का विजय हो रहा है ।। १ ॥

प्रथमपदे वर आह - (१)

मदतिथिगुरुपुत्रभ्रातृवर्गं समस्तं

विविधविधिविधानैः साधितैरन्नपानैः ॥

इह हि परिचरन्ती माननीया स्वराष्ट्रे

भवसि जयसि लोकं मद्गृहस्था सुधाशे ! ॥ २ ॥

प्रथमपद में वर कहता है- (१)

हे अमृत भोजन करनेवाली ! मेरे अतिथि, माता पिता आदि गुरुजन, पुत्र शिष्यादि दया के पात्र और भाई बहन मित्रादि समानता के अधिकारी वर्ग, इन सबको नाना प्रकार से बनाये हुए सुरुचिकारक तथा हितकारक खाने पीने के पदार्थों से सन्तुष्ट करती हुई तुम अपने राष्ट्र में माननीय होगी तथा मेरे घर में रहकर ही इस भूलोक को जीत भी लोगी। कारण कि तुम अमृत भोजन करनेवाली समस्त परिवार को खिला पिलाकर पीछे स्वयं भोजन करनेवाली ) हो इस बात को मैं भली भाँति जानता हूँ ॥२॥

इषे नयाम्यहं विष्णुस्त्वां सुन्दरि ! सुधाराने ॥

पदमेकमिति प्रोक्ते पत्या प्राह वधूरिदम् ॥ ३ ॥

हे अमृत भोजन करनेवाली सुन्दरि ! विष्णुरूप मैं (वर को विष्णुरूप समझकर कन्यादान किया जाता है ) अन्न के लिए तुम्हें एक पद अपने साथ ले चल रहा हूँ ॥३॥

प्रथमपदे वधूराह

तवाजितैरन्नवरैः सुरक्षैः

सुपाचितैस्त्वां परितोषयामि ॥

तव स्ववर्गं च समस्तमेव

त्वदाज्ञया साधु समाजयामि ॥ ४ ॥

आपके घर में लाये हुए खाने पीने के श्रेष्ठ पदार्थों को सावधानी से देख भालकर बनाती हुई आपको तथा आपके सम्पूर्ण परिवार को सन्तुष्ट करूंगी और आपकी आज्ञानुसार सबसे प्रेम रखती हुई सबकी सेवा करूंगी तथा पतिव्रताओं के समाज को भी जीत लूंगी ॥४॥

द्वितीयपदे वर आह  — (२)

शौचाऽऽचारविचारसाधितपरीणाहेन सम्पोपितः

स्वो वर्गोऽहमपि प्रसन्नहृदयः साराङ्गयष्टिः सदा ॥

ऊर्जस्वि प्रभवामि कर्तुमखिलं राष्ट्रं स्वकीयं महत्

तस्माच्चारुदृदाङ्गशोभिनि ! भुवर्लोकं मया यास्यसि ॥ ५ ॥

दूसरे पद में वर कहता है-

हे सुन्दर तथा दृढ़ शरीरावयववाली ! पवित्रता आचार विचारादि द्वारा ठीक की हुई घर की सम्पूर्ण वस्तुओं से परिपुष्ट मेरा परिवार और मैं प्रसन्न हृदय होकर सर्वदा सुदृढ़ शरीर होऊंगा, जिससे कि मैं अपने सम्पूर्ण महान् राष्ट्र को शरीरशक्ति तथा प्राणशक्ति से सुदृढ़ बना सकूं, उससे तुम मेरे साथ भुवर्लोक को चल सकोगी ॥ ५ ॥

उर्जे नयाम्यहं विष्णुस्त्वां चारुदृदविग्रहे ! ॥

पदद्वयमिति प्रोक्ते पत्या प्राह वधूरिदम् ॥६॥

हे सुन्दर तथा दृढ़ शरीरवाली ! विष्णुरूप मैं शरीरशक्ति तथा प्राणशक्ति की उन्नति के लिए दो पद तुमको अपने साथ ले चल रहा हूँ, ऐसा पति के कहने पर वधू यह कहती है ॥६॥

द्वितीयपदे वधूराह-

यथाबलं त्वद्गृहपारिणाह्यं

परीक्ष्य शौचादिविधानतोऽहम् ॥

उर्जप्रदं रोगहरं त्वदर्थे

कुटुम्बपुष्ट्यै परिसाधयामि ॥७॥

दूसरे पद में वधू कहती है-

आपकी तथा आपके परिवार की पुष्टि के लिए मैं अपने शरीर तथा प्राणशक्ति के अनुसार घर की प्रत्येक वस्तु को पवित्रता आचार विचारादि के बर्ताव से देख भालकर शरीर तथा प्राणशक्ति से भरपूर एवं रोगनाशक बनाऊँगी ॥ ७ ॥

तृतीयपदे वर आह  - (३)

द्रव्य क्षेमविचारभारमखिलं दत्त्वा त्वदीये करे

नानोपायविधानतः स्वयमहं द्रव्याणि सम्प्रार्जयन् ।।

स्वं राष्ट्रं धनपूरितं विरचयन्नर्थज्ञधुर्ये ! शुभे ।

स्वर्लोकं प्रभवामि जेतुमिह हि प्राज्ये स्वराष्ट्रे त्वया ॥८॥

तीसरे पद में वर कहता है-

हे कल्याणी ! धन की रक्षा के सम्पूर्ण विचार का भार तुम्हारे हाथों में सौंप दूंगा, क्योंकि तुम अर्थशास्त्र की जाननेवाली हो । मैं अनेक तरह के उचित उपायों से द्रव्यों का स्वयं उपार्जन करूंगा तथा अपने राष्ट्र को धन से भरपूर करता हुआ इसी लोक में तुम्हारे साथ अपने समृद्ध राष्ट्र में रहता हुआ स्वर्गलोक को जीव सकूंगा ॥ ८॥

रायस्पोषाय विष्णुस्त्वामर्थविज्ञे! नयाम्यहम् ॥

पदत्रयमिति प्रोक्ते पत्या प्राह वधूरिदम् ॥९॥

हे अर्थशास्त्र की जाननेवाली ! विष्णुरूप मैं धन की समृद्धि के लिए तुमको तीन पद अपने साथ ले चल रहा हूँ, ऐसा पति के कहने पर वधू यह कहती है ॥ ९ ॥

तृतीयपदे वधूराह-

गार्हस्थ्यसाधनसमस्त पदार्थवर्ग-

मूलं धनं विधिवदर्जितमस्ति यत्ते ॥

आयव्ययादि सुपरीक्ष्य निदेशतस्ते

त्वत्प्रीतये बहुविधं परिवर्द्धयामि ॥ १० ॥

तीसरे पद में वधू कहती है-

आपके घर में उचित उपायों से प्राप्त किया हुआ जो भी कुछ आपका धन होगा, उसको आपकी आज्ञानुसार आय व्यय जाँच- कर बहुत प्रकार से बढ़ाऊँगी, क्योंकि गृहस्थी के सम्पूर्ण पदार्थों को प्राप्त करने के लिए धन ही मूल कारण होता है, इस बात को मैं भली भांति जानती हूँ ॥ १० ॥

चतुर्थपदे वर आह— (४)

संरक्षां ननु पारिणाह्यविषयां सौख्यप्रदानोद्धुरे !

नानाऽऽशंसितवस्तुसंग्रहधुरामारोप्य शीर्षे तव ।

तत्तत्सौख्यनिमित्तवस्तुभरितं राष्ट्र समृद्धं स्वकं

कुर्वन्कीर्तिमवाप्नुवन्निह महर्लोकं जयामि त्वया ॥ ११॥

चौथे पद में वर कहता है-

घर में सर्व प्रकार की आवश्यक वस्तुओं के संग्रह का भार तथा घर की सम्पूर्ण वस्तुओं के संरक्षण का भार तुम्हारे शिर पर ही रक्खूंगा, क्योंकि प्रत्येक वस्तु को सुखकारक बनाने में तुम बहुत चतुर हो । उन उन सुखकारक वस्तुओं से अपने राष्ट्र को समृद्ध करता हुआ मैं तुम्हारे साथ इस लोकों विशुद्ध कीर्त्ति को प्राप्त कर महर्लोक को जीत सकूंगा ॥ ११ ॥

मायोभवाय विष्णुस्त्वां सुखविज्ञे! जयाम्यहम् ॥

चतुष्पदमिति प्रोक्ते पत्या प्राह वधूरिदम् ॥ १२ ॥

हे सुखतत्त्व को जाननेवाली ! सांसारिक पदार्थों से सुख के लिए विष्णुरूप मैं तुमको चार पद अपने साथ ले चल रहा हूँ, ऐसा पति के कहने पर वधू यह कहती है ॥१२॥

चतुर्थपदे वधूराह

आवश्यकानि विविधानि गृहे त्वदीये

वस्तूनि यानि गृहिणां सुखसाधनानि ॥

तेषामहं समुदयं विरचय्य नूनं

त्वामात्मवर्गसहितं सुखयामि शश्वत् ॥ १३ ॥

चौथे पद में वधू कहती है-

गृहस्थियों के लिए सुखकारक तथा आवश्यक जो भी वस्तुएँ होती हैं, उन प्रत्येक प्रकार की सम्पूर्ण वस्तुओं का संग्रह तथा संरक्षण करती हुई मैं आपको तथा आपके परिवार को निरन्तर सुख दूंगी, यह आप निश्चय रखिये ॥१३॥

पञ्चमपदे वर आह - (५)

मेधाकान्तिवलाऽगदत्वरचनं गव्यं परं कारणं

तन्मूलं पशुवृन्दपालनमतस्त्वां तद्व्यवस्थापने ।

वार्ताज्ञे ! विनियोज्य राष्ट्रभरणे कुर्वन् प्रयत्नं सदा

जानं लोकमहं त्वया सह पुनर्जेष्यामि शुद्धाशये ॥१४॥

हे शुद्ध हृदयवाली ! मेधा (स्मृतिशक्ति) कान्ति, बल, नीरोगता आदि का मूल कारण गोरस (दुग्ध घृतादि) ही है, यह (गोरस) बिना पशुओं के प्राप्त नहीं हो सकता, अत: पशुपालन अत्यन्त आवश्यक है । तुम वार्ताशास्त्र (खेती, पशुपालन और व्यापार) की जाननेवाली हो, इसलिए पशुओं की व्यवस्था का भार भी तुम्हें सौंपकर मैं अपने राष्ट्र को प्रत्येक प्रकार से समृद्धिशालि बनाने का प्रयत्न करता हुआ तुम्हारे साथ जनलोक को जीत लूंगा ॥ १४ ॥

पश्वर्थं विष्णुरूपो हे वार्ताज्ञे ! त्वां नयाम्यहम् ॥

पदपञ्चकमित्युक्ते पत्या प्राह वधूरिदम् ॥ १५ ॥

हे वार्ताशास्त्र जाननेवाली ! पशुओं के लिए विष्णुरूप मैं तुमको पांच पद अपने साथ ले चल रहा हूँ, ऐसा पति के कहने पर वधू यह कहती है ॥ १५॥

पञ्चमपदे वधूराह-

दधिदुग्धघृतादिसाधनं

कृषिवाणिज्यनिमित्तमस्ति यत् ॥

सुखदं परमं कुटुम्बिनां

पशुवृन्दं परिपालयामि तत् ॥ १६॥

पांचवें पद में वधू कहती है-

खेती तथा व्यापार जिनके आधार पर होता है, दही दूध घृत आदि पोषक पदार्थ जिनसे प्राप्त होता है, गृहस्थियों के लिए जो अत्यन्त सुखदायक हैं, उन पशुओं की व्यवस्था मैं भली- भांति करूँगी ॥ १६ ॥

पषपदे वर आह - (६)

आत्माऽयं परमो बहिर्मुखमहाऽऽनन्दाय बद्धीकृत-

स्तस्मात्त्वां परिणीय चित्तरचितं सर्वसौख्यं भजन् ॥

राष्ट्रप्रीणनतत्परं सुयशसं वंशं प्रतिष्ठापयन्

जेष्यामि प्रथितं त्वया सह तपोलोकं विशुद्धाशये ! ॥१७॥

छठे पद में वर कहता है-

हे विशुद्ध कामनावाली ! मैंने अपने आपको बहिर्मुख महान् आनन्द के उपभोग की लालसा से अपने परिपूर्ण परब्रह्म पर शिव- भाव को छुपाकर जीवभाव में बद्ध किया है, इसलिए तुम्हारे साथ विवाह कर चित्त से सङ्कल्पित नाना प्रकार के उन उन ऋतुयों के सम्पूर्ण सुखों को प्राप्त करता हुआ मैं तुम्हारे साथ, राष्ट्र को सन्तुष्ट करने में संलग्न विशुद्ध कीर्तिशाली वंश की प्रतिष्ठा कर अत्यन्त प्रसिद्ध उस तपोलोक को भी जीत लूंगा ॥१७॥

विशुद्धकामने ! विष्णुर्ऋतुभ्यस्त्वां नयाम्यहम् ॥

पदषट्कमिति प्रोक्ते पत्या प्राह वधूरिदम् ॥ १८ ॥

हे विशुद्ध कामनावाली ! विष्णुरूप मैं सम्पूर्ण ऋतुओं के सुख के लिये तुमको छह पद अपने साथ ले चल रहा हूँ। ऐसा पति के कहने पर वधू यह कहती है ॥१८॥

षष्ठपदे वधूराह-

अद्वैतभावमुपगम्य तवाज्ञयैव

तत्तद्-हृषीकसुखसाधनतामुपेता ॥

सर्वासु तासु ऋतुषु त्वयि बद्धभावा

त्वामर्चयामि नितरां परितोपयामि ॥ १९ ॥

छठे पदमें. वधू कहती है

आपकी आज्ञा से आपके साथ अद्वैतभाव को प्राप्तकर उन उन सम्पूर्ण इन्द्रियों के सुखों का साधन मैं बनूंगी, और उन सम्पूर्ण ऋतुओं में केवल आप में ही परिपूर्ण भाव रखती हुई आप की पूजा करूँगी, तथा आपको अत्यन्त सन्तुष्ट करूँगी ॥ १९ ॥

सप्तमपदे वर आह-- (७)

सख्यं साप्तपदीनमत्र मुनयः सम्पूर्ण माहुः सदा

तेन त्वामभिगम्य सप्तममहं लोकं जयामि ध्रुवम् ॥

मोक्षार्थं हृदयं विधाय भरती राष्ट्रस्य सम्भावने

मामेवानुगता भविष्यति तदा मोक्षो न ते दुर्लभः ॥२०॥

सातवें पद में वर कहता है-

संसार में सात पद् साथ चलने से परिपूर्ण मित्रता होती है ऐसा विचारशील विद्वानों का कहना है। मैं भी उसी साप्तपदीन मित्रभाव से तुमको प्राप्त कर सातवें लोक (सत्यलोक ) को भी निश्चय से जीत लूंगा । मोक्ष प्राप्ति के लिए राष्ट्र को समुन्नति में अपने हृदय को लगाकर मेरे पीछे पीछे चली आओ तो तुम्हें मोक्ष भी दुर्लभ नहीं है ॥ २० ॥

वध्वाः प्रतिश्रुतं ज्ञात्वा पतिः प्राहैवमुत्तमम् ।।

सखे ! सप्तपदा भव सा मामनुव्रता भव ॥२१॥

वधू की स्वीकृति जानकर अन्त में पति कहता है, हे सखे ! मेरे साथ सात पद चलकर पूर्ण मित्रभाव को प्राप्त कर, तथा सब प्रकार से मेरा अनुसरण कर ॥ २१॥

सप्तमपदे वधूराह-

प्राप्तं मया मनुजदेहफलं समस्तं

यत्सख्यमुत्तममहं भवता गताऽद्य ॥

सर्वं प्रतिश्रुतमिदं हृदये दधाना

त्वामेव पूर्णहृदयेन नु कामयिष्ये ॥२२॥

सातवें पद में वधू कहती है-

आप जैसे सुयोग्य पुरुष से सप्तपदा परिपूर्ण मैत्री को प्राप्तकर आज मैंने मनुष्य देह धारण करने का सम्पूर्ण फल प्राप्त कर लिया है। हम दोनों की प्रतिज्ञा को पूर्णरूप से हृदय में धारण करती हुई मैं आप ही को पूर्ण हृदय से सर्वदा चाहूँगी, यह आप निश्चय रखिये ॥२२॥

सप्तपदी हृदयम्

श्रीसप्तपदीहृदयं प्रणीय शास्त्रानुकूलमर्थज्ञः ॥

वाञ्छति विश्वोद्धारं श्रीमदमृतवाग्भवाचार्यः ॥ २३॥

यथार्थ वस्तु को जाननेवाला श्रीमान् आचार्य अमृतवाग्भव शास्त्रों के अनुकूल इस श्रीसप्तपदी हृदय को बनाकर जगत् के उद्धार की इच्छा रखता है ॥ २३ ॥

षडङ्कनन्देन्दुमिते गते वैक्रमवत्सरे ॥

एकादश्यां रवौ माघे कृष्णपक्षे कृतिः कृता ॥२४॥

यह ग्रन्थ सं० १९९६ वि० माघ कृष्ण ११ रविवार को बनाया ॥ २४ ॥

इति श्री सर्वतन्त्रस्वतन्त्र महामहिम आचार्य श्रीमदमृतवाग्भव- प्रणीतं श्रीसप्तपदीहृदयम् ॥

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