पवननन्दनाष्टकम्
श्री पवननन्दनाष्टकम्
Pavan Nandnashtak
हनुमत्स्तोत्रम्
स्वमसि दीनजनावनतत्परस्
त्वमसि भीत-भयापहरः सदा ।
त्वमसि पापनिवारण- दीक्षितः
पवन- नन्दन पाहि निरन्तरम् ॥ १ ॥
हे वायुपुत्र श्री हनुमान् जी,
आप दीन जनों की रक्षा करने में तत्पर रहते हैं; आप सदैव भयभीत प्राणियों के भय दूर करने वाले हैं, आप
पापों का निवारण करने में भली भान्ति सुशिक्षित हैं, आप
निरन्तर हमारी रक्षा करते रहें।
भवभयानक-पाप-गणावृतं
कलिकराल - कला-कलनाकुलम् ।
तव पदाब्ज-युगे शरणागतं
पवननन्दन पाहि निरन्तरम् ॥ २ ॥
हे वायुपुत्र श्री हनुमान् जी,
मैं संसार में होने वाले भयानक पापों के समूहों से ढांपा हुआ हूं,
कलियुग देवता की भयानक कलाओं की कलनाओं से घिरा होने से व्याकुल हूं,
फिर भी आप के चरणों के युगल की शरण में आया हूं, इस कारण मेरी निरन्तर रक्षा कीजिए ।
पतित-पावन,
दुःखित- जीवन,
प्रणतपालन,
पुण्यवदाश्रय ।
कुमतिनाशन,
दीन दया निधे
पवननन्दन पाहि निरन्तरम् ॥ ३ ॥
हे पवननन्दन श्री हनुमान् जी,
हे दुःख-पीड़ित जनों को जीवन देने वाले, हे
शरणागतों की पालना करने वाले, हे पुण्यवानों को आसरा देने
वाले, हे दुष्टबुद्धि वाले दुर्जनों का नाश करने वाले,
हे दीनों के ऊपर की जाने वाली दया के खजाने, आप
निरन्तर मेरी रक्षा करते रहें ।
न जननी न पिता न च सोदरो
जगति कोऽपि ममास्ति न साम्प्रतम् ।
मम विनाशय दुःख-कदम्बकं
पवननन्दन पाहि निरन्तरम् ॥ ४ ॥
हे पवनपुत्र श्री हनुमान् जी मेरी न
तो माता है और न ही पिता है और नहीं कोई सगा भाई है, अब तो संसार में मेरे दुःख समूहों को दूर हटाइए और निरन्तर मेरी रक्षा
करते रहिए ।
तव विहाय पदाब्जयुगं प्रभो,
शरणमन्यदहं क्व नु यामि भोः ।
मयि दयां सपदि प्रविधीयतां
पवननन्दन पाहि निरन्तरम् ॥ ५ ॥
हे पवनपुत्र हनुमान् जी,
हे प्रभो, आप के चरणकमल युगल को छोड़कर मैं और
किस की शरण में कहां जाऊं आप ही मुझ पर जल्दी से दया कीजिए और निरन्तर मेरी रक्षा
करते रहिए ।
करुणयाशु मयि प्रविलोक्यतां
न मम पाप-गणः प्रविचार्यताम् ।
गतनयोऽपि शिशुः किमुपेक्ष्यते
पवननन्दन पाहि निरन्तरम् ॥ ६ ॥
हे पवनपुत्र श्री हनुमान् जी,
जल्दी ही मुझे करुणाभरी दृष्टि से ज़रा देखिए, मेरे पापों के समूहों की ओर ध्यान मत दीजिए। यदि बच्चा ठीक नीति पर नहीं
चलता हो तो क्या उसकी कभी उपेक्षा की जाती है ? तो आप
निरन्तर मेरी रक्षा करते रहिए ।
जगति ते विपुलं प्रथितं यशो
यदयमेव हि सङ्कट-मोचनः ।
सपदि मय्यपि नाम तथास्तु ते
पवननन्दन,
पाहि निरन्तरम् ॥ ७ ॥
हे पवनपुत्र श्री हनुमान् जी,
संसार में आपकी बहुत कीर्ति है कि यह समस्त संकटों से छुटकारा
दिलाने वाले हैं। तो मेरे विषय में भी आप एकदम ही वैसे ही हो जाइए, अर्थात् मुझे भी संकटों से छुटकारा दिलाइए और मेरे लिए भी आप का वह नाम
यथार्थ बने । आप निरन्तर मेरी रक्षा करते रहिए ।
झटिति मे वद नाथ कदा दयां
मयि करिष्यसि दुःखित-वत्सल ।
तव पदाब्ज युगैक-समाश्रयं
पवननन्दन पाहि निरन्तरम् ॥ ८ ॥
हे दुखियों से प्यार करने वाले हमारे
नाथ,
मुझे जल्दी ही बताइए कि आप मुझ पर कब दया करेंगें । हे पवनपुत्र, हनुमान् जी, मेरा एकमात्र आसरा आपके चरणकमलों का युगल
ही है, अतः आप लगातार मेरी रक्षा करते रहिए।
पवन नन्दनाष्टक लेखक परिचय
षड्जधान्यमिते वर्षे वैक्रमे
स्वर्धुनीतटे ।
शुक्रशुक्ल चतुर्दश्यां
हनूमत्स्तोत्रमुत्तमम् ॥ ९ ॥
पञ्जाबसिन्धक्षेत्रान्तर्वर्त्ति -
श्रीराममन्दिरे ।
हरिद्वारे विनिरमाद्
विद्वानमृतवाग्भवः ॥ १० ॥
विक्रम संवत् १६८६ में ज्येष्ठ मास
के शुक्लपक्ष चतुर्दशी तिथि शुक्रवार को हरिद्वार में पंजाब - सिन्ध क्षेत्र के
भीतर विद्यमान गंगा तट पर श्री राम मन्दिर में इस स्तोत्र का निर्माण विद्वान्
अमृतवाग्भवाचार्य ने किया ।
इत्याचार्य श्रीमदमृतवाग्भव प्रणीतं
श्री हनुमत्स्तोत्रं पवन- नन्दनाष्टकं नाम सम्पूर्णम् ।
आचार्य श्रीमद् अमृतवाग्भव के द्वारा निर्मित यह पवननन्दनाष्टक नाम वाला श्री हनुमान् जी का स्तोत्र पूरा हो गया ।
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