श्रीपर शिवाष्टकम्

श्रीपर शिवाष्टकम्

डी०पी०कर्मकाण्ड के स्तोत्र श्रृंखला में पराशक्ति से युक्त शिव की स्तुति करते हुए, ऋषिकेश में गङ्गा के तट पर त्रिवेणी नामक घाट पर पद्मासन में बैठ कर विद्वान् अमृतवाग्भव ने इस उत्तम श्रीपर शिवाष्टकम् स्तोत्र का निर्माण किया ।

श्रीपर शिवाष्टकम्

श्रीपर शिवाष्टकम् 

Shri Par Shivashtakam

जाह्नवी-जल- तुषार सङ्गिना

पावनेन पवनेन पावितः ।

प्रापिताखिलशुभो जनावनं

भावये परशिवं शिवायुतम् ॥ १ ॥

गंगा जी के जल की फुहार से मिश्रित पवित्र वायु से मैं पवित्र हो गया हूं और उससे मुझे समस्त कल्याण प्राप्त कराए गए हैं। इस प्रकार का मैं अपने भक्तों की पालना करने वाले पार्वती से युक्त परम शिव की भावना कर रहा हूं ।

विशेष - भावना वास्तविक सत्य के कल्पनात्मक ज्ञान के अभ्यास को कहते हैं ।

एकतो भासित-भासुराङ्गकं

बाल- भानु - शत- कान्तिमेकतः ।

बालचन्द्र कलिकाञ्चितालिकं

भावये परशिवं शिवायुतम् ॥ २ ॥

एक (अर्थात् दाईं) ओर से भस्म की शुभ्र कान्ति से चमकते हुए शरीर वाले और एक (बाईं) ओर से सैंकड़ों उदय- कालीन सूर्यो की जैसी लाल कान्ति वाले तथा नए चाँद की कला से अलङ्कृत ललाट वाले पार्वती से युक्त अर्द्धनारीश्वर भगवान् परमशिव की मैं भावना कर रहा हूं ।

विशेष- दाईं ओर से शिव भस्म धवल हैं और उनके शरीर का बायां भाग पार्वती है जो अरुण वर्ग की कान्ति से देदीप्यमान है ।

दुष्कृतानि निखिलानि दूरतः

साम्प्रतं परिगतानि सन्ति मे ।

निर्मलीकृतवपुः स्वमान से

भावये परशिवं शिवायुतम् ॥ ३ ॥

मुझे घेर कर रखने वाले मेरे समस्त पाप अब दूर हट गए हैं। मैंने अपने स्थूल सूक्ष्म - कारण शरीरों को निर्मल कर लिया है और अब अपने मन में पार्वती समेत परमशिव की मैं भावना कर रहा हूं।

साम्प्रतं दलित- सर्व वासनो

बद्ध-सौख्यकर- पङ्कजासनः ।

नासिकाग्रमवलोकयन्मुदा

भावये परशिवं शिवायुतम् ॥ ४ ॥

अब तो मैं समस्त वासनाओं का दलन कर चुका हूं और सुख देने वाले पद्मासन को बांध कर मैं अपनी नासिका के अग्र भाग को अनायास ही देखता हुआ पराशक्ति से युक्त परमशिव की भावना कर रहा हूं ।

विशेष- इस श्लोक में उस शाम्भव योग के अभ्यास की ओर संकेत है जिसकी दीक्षा उन्हें भगवान् दुर्वासा से स्तोत्र निर्माण के काल से दस वर्ष पूर्व मिली थी ।

मीलिताक्षिगलदश्रुधारया

गद्गदाक्षरपदेः स्तुवन् गिरा ।

भक्तपालनकरं दयानिधि

भावये परशिवं शिवायुतम् ॥ ५ ॥

बन्द की हुई आंखों से बहती हुई अश्रुधारा से और गद्गद ध्वनि से बोले जाते हुए अक्षरों और शब्दों वाली वाणी से स्तुति करता हुआ मैं भक्त की परिपालना करने वाले, दया के समुद्र, पराशक्ति से युक्त परमशिव की भावना करता हूं ।

दीननाथ, भगवन्, दयानिधे

पाहि पाहि शरणागतं प्रभो ।

क्षम्यतां मयि शिवेति चारटन्

भावये परशिवं शिवायुतम् ॥ ६ ॥

"हे दीनों के नाथ, हे परम ऐश्वर्य वाले, हे दया के निधि, शरण में आए हुए मुझको बचाओ, बचाओ; हे शिव, मेरे ऊपर क्षमा करो" इस प्रकार से रट लगाता हुआ मैं पराशक्ति से युक्त परम शिव की भावना करता हूं ।

नाथ, सम्प्रति दयार्द्र-चक्षुषा

पश्य मां झटिति दीनजीवितम् ।

मन्तुमन्तमपि रक्ष आरटन्

भावये परशिवं शिवामयम् ॥ ७ ॥

"नाथ, अब तो दया से आर्द्र (गीली) दृष्टि से जल्दी मुझे देख लो, अर्थात् मेरे ऊपर दया की दृष्टि डालो, क्योंकि मेरा जीवन ही अति दीन बन गया है। यदि फिर मैं पाप युक्त भी हूं, फिर भी मेरी रक्षा कर ही लो" इस प्रकार से चिल्लाता हुआ मैं पराशक्ति से युक्त परमशिव की भावना कर रहा हूं।

शर्व सर्वजन शर्म - कारण

प्रापय त्वमधुना निजान्तिकम् ।

एवमेव सततं रटन्नहं

भावये परशिवं शिवायुतम् ॥ ८ ॥

"हे दुःखों का नाश करने वाले और सभी प्राणियों का कल्याण करने वाले, अब आप मुझे अपने समीप पहुंचा दीजिए," इस प्रकार से सदा रट लगाता हुआ मैं पराशक्ति से युक्त परम शिव की भावना करता हूं ।

श्री परशिवाष्टकम् लेखक परिचय

षड्ज - धान्यमित वैक्रमेऽब्दके

शुक्रशुक्ल दशमी तिथौ रवौ ।

स्वर्धुनीतटनिवासिना मुदा

निर्मितं परशिवाष्टकं शुभम् ॥ ९ ॥

विक्रम संवत् १९८६ में, ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को रविवार के दिन गङ्गा जी के तट पर निवास करने वाले (आचार्य जी) ने अनायास ही हर्षपूर्वक इस कल्याण स्वरूप परमशिवाष्टक का निर्माण किया ।

स्तुवन् शिवं शिवायुक्तं क्रीडन्नात्मन्यनारतम् ।

विमृशन् स्वं स्वप्रकाशं विद्वानमृतवाग्भवः ॥ १० ॥

त्रिवेणीघट्ट सोपाने उपविश्याम्बुजासने ।

गङ्गातीरे हृषीकेशे निरमात् स्तोत्रमुत्तमम् ॥ ११ ॥

पराशक्ति से युक्त शिव की स्तुति करते हुए, लगातार अपने आप से ही क्रीडा करते हुए, स्वयं अपने ही प्रकाश से प्रकाशमान् अपने वास्तविक स्वरूप का विमर्श करते हुए, विद्वान् अमृतवाग्भव ने ऋषिकेश में गङ्गा के तट पर त्रिवेणी नामक घाट पर पद्मासन में बैठ कर इस उत्तम स्तोत्र का निर्माण किया ।

इत्याचार्यश्रीमदमृतवाग्भवप्रणीतं श्री परशिवाष्टक- स्तोत्रम् ।

यह श्रीमान् चार्य अमृतवाग्भव द्वारा निर्मित श्री परशिवाष्टक स्तोत्र है ।

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