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कर्मकाण्ड

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अर्धनारीश्वरस्तोत्रम्

अर्धनारीश्वरस्तोत्रम्

भगवान शिव का अर्धनारीश्वररूप जगत्पिता और जगन्माता के सम्बन्ध को दर्शाता है। सत्-चित् और आनन्द-ईश्वर के तीन रूप हैं। इनमें सत्स्वरूप उनका मातृस्वरूप है, चित्स्वरूप उनका पितृस्वरूप है और उनके आनन्दस्वरूप के दर्शन अर्धनारीश्वररूप में ही होते हैं, जब शिव और शक्ति दोनों मिलकर पूर्णतया एक हो जाते हैं। सृष्टि के समय परम पुरुष अपने ही वामांग से प्रकृति को निकालकर उसमें समस्त सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं। शिव गृहस्थों के ईश्वर और विवाहित दम्पत्तियों के उपास्य देव हैं क्योंकि अर्धनारीश्वर शिव स्त्री और पुरुष की पूर्ण एकता की अभिव्यक्ति हैं। संसार की सारी विषमताओं से घिरे रहने पर भी अपने मन को शान्त व स्थिर बनाये रखना ही योग है। भगवान शिव अपने पारिवारिक सम्बन्धों से हमें इसी योग की शिक्षा देते हैं। अपनी धर्मपत्नी के साथ पूर्ण एकात्मकता अनुभव कर, उसकी आत्मा में आत्मा मिलाकर ही मनुष्य आनन्दरूप शिव को प्राप्त कर सकता है। यहाँ भगवान अर्धनारीश्वर की प्रसन्नता के लिए दो अर्धनारीश्वरस्तोत्रम् दिया जा रहा है-

अर्धनारीश्वरस्तोत्रम्

अर्धनारीश्वरस्तोत्रम्

मन्दारमालालुलितालकायै कपालमालाङ्कितशेखराय ।

दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय ॥ १॥

एकः स्तनस्तुङ्गतरः परस्य वार्तामिव प्रष्टुमगान्मुखाग्रम् ।

यस्याः प्रियार्धस्थितिमुद्वहन्त्याः सा पातु वः पर्वतराजपुत्री ॥ २॥

यस्योपवीतगुण एव फणावृतैक-वक्षोरुहः कुचपटीयति वामभागे ।

तस्मै ममास्तु तमसामवसानसीम्ने चन्द्रार्धमौलिशिरसे च नमः शिवाय ॥ ३॥

स्वेदार्द्रवामकुचमण्डनपत्रभङ्ग-संशोषिदक्षिणकराङ्गुलिभस्मरेणुः ।

स्त्रीपुंनपुंसकपदव्यतिलङ्घिनी वःशम्भोस्तनुः सुखयतु प्रकृतिश्चतुर्थी ॥ ४॥

इत्यर्धनारीश्वरस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

 

अर्धनारीश्वरस्तोत्रम् २

ब्रह्मोवाच -

जय देव महादेव जयेश्वर महेश्वर ।

जय सर्वगुणश्रेष्ठ जय सर्वसुराधिप ॥ १॥

जय प्रकृतिकल्याणि जय प्रकृतिनायिके ।

जय प्रकृतिदूरे त्वं जय प्रकृतिसुन्दरि ॥ २॥

जयामोघमहामाय जयामोघमनोरथ ।

जयामोघमहालील जयामोघमहाबल ॥ ३॥

जय विश्वजगन्मातर्जय विश्वजगन्मये ।

जय विश्वजगद्धात्रि जय विश्वजगत्सखि ॥ ४॥

जय शाश्वतिकैश्वर्ये जय शाश्वतिकालय ।

जय शाश्वतिकाकार जयशाश्वतिकानुग ॥ ५॥

जयात्मत्रयनिर्मात्रि जयात्मत्रयपालिनि ।

जयात्मत्रयसंहर्त्रि जयात्मत्रयनायिके ॥ ६॥

जयावलोकनायत्तजगत्कारणबृंहण । 

जयोपेक्षाकटाक्षोत्थहुतभुग्भुक्तमौक्तिक ॥ ७॥

जय देवाद्यविज्ञेयस्वात्मसूक्ष्मदृशोज्ज्वले ।

जय स्थूलात्मशक्त्येशेजय व्याप्तचराचरे ॥ ८॥

जय नामैकविन्यस्तविश्वतत्त्वसमुच्चय ।

जयासुरशिरोनिष्ठश्रेष्ठानुगकदम्बक ॥ ९॥

जयोपाश्रितसंरक्षां संविधानपटीयसी ।

जयोन्मूलितसंसारविषवृक्षाङ्कुरोद्गमे ॥ १०॥

जय प्रादेशिकैश्वर्यवीर्यशौर्यविजृम्भिणे ।

जय विश्वबहिर्भूत निरस्तपरवैभव ॥ ११॥

जय प्रणीतपञ्चार्थप्रयोगपरमामृत ।

जय पञ्चार्थविज्ञानसुधास्तोत्रस्वरूपिणे ॥ १२॥ 

जयति घोरसंसारमहारोगभिषग्वर ।

जयानादिमलाज्ञानतमःपटलचन्द्रिके ॥ १३॥

जय त्रिपुरकालाग्ने जय त्रिपुरभैरवि ।

जय त्रिगुणनिर्मुक्ते जय त्रिगुणमर्दिनि ॥ १४॥

जय प्रथमसर्वज्ञ जय सर्वप्रबोधिक । 

जय प्रचुरदिव्याङ्ग जय प्रार्थितदायिनि ॥ १५॥

क्व देव ते परं धाम क्व च तुच्छं च नो वचः ।

तथापि भगवन् भक्त्या प्रलपन्तं क्षमस्व माम् ॥ १६॥

विज्ञाप्यैवंविधैः सूक्तैर्विश्वकर्मा चतुर्मुखः ।

नमश्चकार रुद्राय रुद्राण्यै च मुहुर्मुहुः ॥ १७॥

इदं स्तोत्रवरं पुण्यं ब्रह्मणा समुदीरितम् ।

अर्धनारीश्वरं नाम शिवयोर्हर्षवर्धनम् ॥ १८॥

य इदं कीर्तयेद्भक्त्या यस्य कस्यापि शिक्षया । 

महत्फलमवाप्नोति शिवयोः प्रीतिकारणात् ॥ १९॥

सकलभुवनभूतभावनाभ्यां जननविनाशविहीनविग्रहाभ्याम् ।

नरवरयुवतीवपुर्धराभ्यां सततमहं प्रणतोऽस्मि शङ्कराभ्याम् ॥ २०॥

॥ इति श्रीशैवे महापुराणे वायवीयसंहितायां पूर्वभागे

शिवशिवास्तुतिवर्णनं नाम पञ्चदशाध्याये

अर्धनारीश्वरस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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