नीलरुद्रोपनिषद् तृतीय खण्ड
नीलरुद्रोपनिषद् अथर्ववेदीय उपनिषद्
कहा जाता है । इसमे तीन खण्ड है। प्रथम खण्ड में भगवान रुद्र व द्वितीय खण्ड में
भगवान के गोपेश्वर रूप और भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की गई हैं। अब इस तृतीय
खण्ड में हलाहल पान करने वाले भगवान नीलकण्ठ के श्रीहरि रूप, पिङ्गल रूप,
विरूपाक्ष रूप, भव रूप केदारेश्वर रूप, नीलशिखण्डरूप को नमस्कार किया गया है।
नीलरुद्रोपनिषद्
तृतीयः खण्डः
यः स्वजनान्नीलग्रीवो यः
स्वजनान्हरिः ।
कल्माषपुच्छमोषधे
जम्भयोताश्वरुन्धति ॥१॥
जो भगवान् शंकर विश्वकल्याणार्थ
हलाहल पान करके नीलकण्ठ कहे जाते हैं तथा स्वभक्तों का कल्याण करने के लिए श्रीहरि
(विष्णु) रूप को धारण करते हैं। हे ओषधियो ! उन काली पूंछ वाले (महिष रुपधारी
केदारेश्वर) के निमित्त शीघ्र ही अमोघ सामर्थ्ययुक्त होकर आप उन्हें तुष्टि प्रदान
करें ।।
बभ्रुश्च बभ्रुकर्णश्च नीलग्रीवश्च
यः शिवः ।
शर्वेण नीलकण्ठेन भवेन मरुतां पिता
।।२॥
विरूपाक्षेण बभ्रणा वाचं वदिष्यतो
हतः ।
शर्व नीलशिखण्ड वीर कर्मणि
कर्मणि।।३॥
पिङ्गल (भूरे) वर्ण देह और पिङ्गल
कानों वाले नीलकण्ठधारी भगवान् शंकर सर्वस्वरूप तथा शर्मथ्यापी हैं। उन्हीं
विरूपाक्ष भव (शंकर) द्वारा वाणी बोलने वाले (गर्जन करने वाले) का संहार हुआ। हे
वीर । प्रत्येक कर्म में उन्हें ही सर्वव्यापक रूप में देखना चाहिए ॥
इमामस्य प्राशं जहि येनेदं विभजामहे
।
नमो भवाय नमश्शर्वाय नमः कुमाराय
शत्रवे।
नमः सभाप्रपादने।
यस्याश्वतरौ द्विसरौ
गर्दभावभितस्सरौ।
तस्मै नीलशिखण्डाय नमः।
नीलशिखण्डाय नमः ॥४॥
उनके बारे में पूछताछ करने की इच्छा
(शंकाभाव) का परित्याग कर देना चाहिए। इस संशय दृष्टि से हम विश्व को उनसे भिन्न
मान बैठते हैं, यह शंका सर्वथा परित्याज्य है।
जगत् के कारण रूप भगवान् भव को नमन, संहार करने वाले
रुद्रदेव को नमन, नीलशिखण्डधारी अथवा महिषरूप केदारेश्वर को
नमन तथा दक्ष प्रजापति के यहाँ विवाह मण्डप को शोभायमान करने वाले कुमाररूप शंकर
को नमन। जिन महिषरूप केदारेश्वर नीलरूप से अश्व, खच्चर तथा
चारों ओर दौड़ने वाले गर्दभों का सृजन हुआ, उन्हें हमारा
नमन। नीलशिखण्डरूप भगवान् को बारम्बार नमन ॥
नीलरुद्रोपनिषद्॥शांतिपाठ ॥
॥ ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्तुवाश्सस्तनूभिर्व्यशेम
देवहितं यदायुः ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इन श्लोकों के भावार्थ आत्मउपनिषद् पढ़ें।
नीलरुद्रोपनिषद् समाप्त॥
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