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कर्मकाण्ड

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नीलरुद्रोपनिषद् द्वितीय खण्ड

नीलरुद्रोपनिषद् द्वितीय खण्ड

नीलरुद्रोपनिषद् अथर्ववेदीय उपनिषद् कहा जाता है । इस उपनिषद् में तीन खण्ड है। प्रथम खण्ड में भगवान रूद्र के कल्याणकारी स्वरूप द्वारा कल्याण करने की कामना की गई । अब इस द्वितीय खण्ड में नीलकण्ठ भगवान के गोपेश्वर रूप और भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की गई हैं।

नीलरुद्रोपनिषद् द्वितीयः खण्डः

नीलरुद्रोपनिषद्

द्वितीयः खण्डः


अपश्यं त्वावरोहन्तं नीलग्रीवं विलोहितम्।

उत त्वा गोपा अदृशन्नुत त्वचोदहार्यः ॥१॥

उत त्वा विश्वा भूतानि तस्मै दृष्टाय ते नमः ।

नमो अस्तु नीलशिखण्डाय सहस्त्राक्षाय वाजिने ॥२॥

हे रक्त वर्ण वाले नीलकण्ठ रुद्रदेव ! हमने धरती पर अवतरित होते हुए आपके स्वरूप का दर्शन किया है। आपके उस स्वरूप को या तो गोपों ने देखा या फिर जल भरने वाली गोपिकाओं ने देखा है या विश्व के समस्त प्राणियों ने देखा है। आपके उस देखे हुए श्रीकृष्ण स्वरूप को हम प्रणाम करते हैं । हे मोरमुकुटधारी भगवन् ! आपके प्रति हमारा नमस्कार है । महान् शक्तिशाली इन्द्ररूप भी आप ही हैं। आप अपने प्रिय भक्तजनों के सामने असंख्य नेत्रों से युक्त होकर अपने विराट् रूप में प्रकट होते हैं ॥

अथो ये अस्य सत्वानस्तेभ्योऽहमकरं नमः ।

नमांसि त आयुधायानातताय धृष्णवे ॥३॥

उभाभ्यामकरं नमो बाहुभ्यां तव धन्वने ।

प्रमुञ्च धन्वनस्त्वमुभयोरार्त्निर्ज्याम् ॥४॥

आपके इस स्वरूप को जिसमें सात्त्विक भाव वाले गोपाल, गोपिकाएँ भी सहचर रूप में आपके साथ हैं, उनके प्रति हम नमस्कार करते हैं। हे भगवान् रुद्र! आपके अति सामर्थ्ययुक्त उन आयुधों को हमारा अनेक बार नमन है, जो इस समय उपयोग में नहीं लाये जा रहे । आपके धनुष के प्रति दोनों हाथ जोड़कर हमारा नमन है। आप अपने और शत्रु पक्ष के राजाओं के प्रति अपने धनुष की प्रत्यञ्चा को उतार दें अर्थात् शान्त स्वरूप धारण करके युद्ध की सम्भावना को ही मिटा दें ।।

याश्च ते हस्त इषवः परा ता भगवो वप।

अवतत्य धनुस्त्वँ सहस्राक्ष शतेषुधे ॥५॥

निशीर्य शल्यानां मुखा शिवो नः शंभुराभर।

विज्यं धनुः शिखण्डिनो विशल्यो वाणवाँउत ।।६॥

आप अपने हाथ में धारण किये वाण को पुनः तूणीर में लौटा लें। हे मोरपंखधारी सहस्त्राक्ष ! आप सौ-सौ बाणों के एक साथ संधानकर्ता हैं। हमें मंगल एवं सुख प्रदान करने हेतु आप अपने बाणों के अग्रभाग को तीक्ष्ण करके धनुष पर चढ़ायें। (शत्रुओं के विनष्ट होने पर आपका धनुष प्रत्यञ्या रहित हो । संताप देने की प्रक्रिया त्यागकर बाण पुनः तरकस में लौट आयें ॥

अनेशन्नस्येषव आभुरस्य निषङ्गथिः ।

परि ते धन्वनो हेतिरस्मान्वृणक्तु विश्वतः ॥७॥

अथो य इषुधिस्तवारे अस्मिन्निधेहि तम्।

या ते हेतिर्मीढुष्टम हस्ते बभूव ते धनुः ॥८॥

तया त्वं विश्वतो अस्मानयक्ष्मया परिब्भुज।

नमो अस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमन् ॥९॥

ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ।

ये वाभिरोचने दिवि ये च सूर्यस्य रश्मिषु ॥१०॥  

येषामप्स सदस्कृतं तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ।

या इषवो यातुधानानां ये वा वनस्पतीनाम्।

ये वाऽवटेषु शेरते तेभ्य: सर्पेभ्यो नमः ॥११॥

आपके तीखे बाण जो पर्वत को भी विदीर्ण करने वाले हैं, आपके तरकस में लौटकर कल्याणप्रद हों। आपके धनुष पर संधान किया हुआ बाण हमारा सभी ओर से संरक्षण करे । संरक्षण के पश्चात् आप अपने बाण को तरकस में स्थापित कर लें। हे भक्तवत्सल कृपाजर्षक प्रभो! आप अपने अक्षय बाण और धनुष द्वारा चारों ओर से हमारा संरक्षण करें। उन सर्पो को हमारा प्रणाम है, जो पृथिवी पर वास करते हैं। आकाश और स्वर्ग में वास करने वाले सर्पो (पीड़ा पहुँचाने वाली शक्तियों) को हमारा प्रणाम । प्रकाश युक्त लोकों, सूर्य की किरणों और जल में रहने वाले उन सभी सर्पो (कष्टदायिनी शक्तियों) को प्रणाम । राक्षसों के बाण रुप सर्पो को प्रणाम है, जो गड्ढों और वनस्पतियों में वास करते हैं।।

शेष जारी..............नीलरुद्रोपनिषद् अंतिम खण्ड

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