शिवमहापुराण माहात्म्य – अध्याय 07
शिवमहापुराण
माहात्म्य – अध्याय 07 श्रोताओं के पालन
करने योग्य नियमों का वर्णन
शिवमहापुराण माहात्म्य – अध्याय 07
शिवमहापुराण सातवाँ
अध्याय
॥ शौनक
उवाच ॥
सूत सूत
महाप्राज्ञ धन्यस्त्वं शैवपुङ्गव ।
श्रावितेयं
कथाऽस्माकमद्भुता च शुभावहा ॥ १ ॥
पुंसां
शिवपुराणस्य श्रवणव्रतिनां मुने ।
सर्वलोकहितार्थाय
दयया नियमं वद ॥ २ ॥
शौनकजी बोले — हे शिवभक्तों में श्रेष्ठ
महाबुद्धिमान् सूतजी ! आप धन्य हैं, जो कि आपने यह अद्भुत
एवं कल्याणकारिणी कथा हमें सुनायी । हे मुने ! शिवपुराण की कथा सुनने के लिये व्रत
धारण करनेवाले लोगों को किन नियमों का पालन करना चाहिये — यह
भी कृपापूर्वक सबके कल्याण की दृष्टि से बताइये ॥ १-२ ॥
॥ सूत उवाच
॥
नियमं शृणु
सद्भक्त्या पुंसां तेषां च शौनक ।
नियमात्सत्कथां
श्रुत्वा निर्विघ्नफलमुत्तमम् ॥ ३ ॥
सूतजी बोले
—
हे शौनक ! अब शिवपुराण सुनने का व्रत लेनेवाले पुरुषों के लिये जो
नियम हैं, उन्हें भक्तिपूर्वक सुनिये । नियमपूर्वक इस
श्रेष्ठ कथा को सुनने से बिना किसी विघ्न-बाधा के उत्तम फल की प्राप्ति होती है ॥
३ ॥
पुंसां
दीक्षाविहीनानां नाधिकारः कथाश्रवे ।
श्रोतुकामैरतो
वक्तुर्दीक्षा ग्राह्या च तैर्मुने ॥ ४ ॥
ब्रह्मचर्यमधःसुप्तिः
पत्रावल्यां च भोजनम् ।
कथासमाप्तौ
भुक्तिं च कुर्यान्नित्यं कथाव्रती ॥ ५ ॥
दीक्षा से
रहित लोगों का कथा-श्रवण में अधिकार नहीं है । अतः मुने ! कथा सुनने की इच्छावाले
सब लोगों को पहले वक्ता से दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये । कथाव्रती को ब्रह्मचर्य से
रहना,
भूमि पर सोना, पत्तल में खाना और प्रतिदिन कथा
समाप्त होने पर ही अन्न ग्रहण करना चाहिये ॥ ४-५ ॥
आसमाप्तपुराणं
हि समुपोष्य सुशक्तिमान् ।
शृणुयाद्भक्तितः
शुद्धः पुराणं शैवमुत्तमम् ॥ ६ ॥
घृतपानं
पयःपानं कृत्वा वा शृणुयात्सुखम् ।
फलाहारेण
वा श्राव्यमेकभुक्तं न वा हि तत् ॥ ७ ॥
एकवारं
हविष्यान्नं भुञ्ज्यादेतत् कथाव्रती ।
सुखसाध्यं
यथा स्यात्तच्छ्रवणं कार्यमेव च ॥ ८ ॥
जिसमें
शक्ति हो,
वह पुराण की समाप्ति तक उपवास करके शुद्धतापूर्वक भक्तिभाव से उत्तम
शिवपुराण को सुने । घृत अथवा दुग्ध पीकर सुखपूर्वक कथाश्रवण करे । अथवा फलाहार
करके अथवा एक ही समय भोजन करके इसे सुनना चाहिये । इस कथा का व्रत लेनेवाले पुरुष
को प्रतिदिन एक ही बार हविष्यान्न भोजन करना चाहिये । जिस प्रकार से कथाश्रवण का
नियम सुखपूर्वक पालित हो सके, वैसे ही करना चाहिये ॥ ६-८ ॥
भोजनं
सुकरं मन्ये कथासु श्रवणप्रदम् ।
नोपवासो
वरश्चेत् स्यात् कथाश्रवणविघ्नकृत् ॥ ९ ॥
कथाश्रवण
में विघ्न उत्पन्न करनेवाले उपवास की तुलना में तो मैं कथाश्रवण में शक्ति प्रदान
करनेवाले भोजन को ही अच्छा समझता हूँ ॥ ९ ॥
गरिष्ठं
द्विदलं दग्धं निष्पावांश्च मसूरिकाम् ।
भावदुष्टं
पर्युषितं जग्ध्वा नित्यं कथाव्रती ॥ १० ॥
गरिष्ठ
अन्न,
दाल, जला अन्न, सेम,
मसूर, भावदूषित तथा बासी अन्न को खाकर
कथा-व्रती पुरुष कभी कथा को न सुने ॥ १० ॥
वार्ताकं च
कलिन्द च पिचण्डं मूलकं तथा ।
मूष्माण्डं
नालिकेरं च मूलं जग्ध्वा कथाव्रती ॥ ११ ॥
कथाव्रती
को बैंगन,
तरबूज, चिचिंडा, मूली,
कोहड़ा, प्याज, नारियल
का मूल तथा अन्य कन्द-मूल का त्याग करना चाहिये ॥ ११ ॥
पलाण्डु
लशुनं हिङ्गुं गृञ्जनं मादकं हि तत् ।
वस्तून्यामिषसंज्ञानि
वर्जयेद्यः कथावती ॥ १२ ॥
कामादिषड्विकारं
च द्विजानां च विनिन्दनम् ।
पतिव्रताऽसतां
निन्दां वर्जयेद्यः कथाव्रती ॥ १३ ॥
जिसने कथा
का व्रत ले रखा हो, वह पुरुष प्याज,
लहसुन, हींग, गाजर,
मादक वस्तु तथा आमिष कही जानेवाली वस्तुओं को त्याग दे । कथा का
व्रत लेनेवाला जो पुरुष हो, उसे काम, क्रोध
आदि छः विकारों, ब्राह्मणों की निन्दा तथा पतिव्रता और
साधु-संतों की निन्दा का त्याग कर देना चाहिये ॥ १२-१३ ॥
रजस्वलां न
पश्येच्च पतितान्न वदेत्कथाम् ।
द्विजद्विषो
वेदवर्ज्यान्न वदेद्यः कथव्रती ॥ १४ ॥
कथाश्रवण
का व्रत धारण करनेवाला व्यक्ति रजस्वला स्त्री को न देखे,
पतित मनुष्यों को कथा की बात न सुनाये, ब्राह्मणों
से द्वेष रखनेवालों और वेदबहिष्कृत मनुष्यों के साथ सम्भाषण न करे ॥ १४ ॥
सत्यं शौचं
दयां मौनमार्जवं विनयं तथा
औदार्यं
मनसश्चैव कुर्यान्नित्यं कथाव्रती ॥ १५ ॥
निष्कामश्च
सकामश्च नियमाच्छ्रुणुयात्कथाम् ।
सकामः
काममाप्नोति निष्कामो मोक्षमाप्नुयात् ॥ १६ ॥
दरिद्रश्च
क्षयी रोगी पापी निर्भाग्य एव च ।
अनपत्योऽपि
पुरुषः शृणुयात् सत्कथामिमाम् ॥ १७ ॥
कथाव्रती
पुरुष प्रतिदिन सत्य, शौच, दया, मौन, सरलता, विनय तथा मन की उदारता — इन सद्गुणों को सदा अपनाये
रहे । श्रोता निष्काम हो या सकाम, वह नियमपूर्वक कथा सुने ।
सकाम पुरुष अपनी अभीष्ट कामना को प्राप्त करता है और निष्काम पुरुष मोक्ष पा लेता
है । दरिद्र, क्षय का रोगी, पापी,
भाग्यहीन तथा सन्तानरहित पुरुष भी इस उत्तम कथा को सुने ॥ १५-१७ ॥
काकवन्ध्यादयः
सप्तविधा अपि खलस्त्रियः ।
स्रवद्गर्भा
च या नारी ताभ्यां श्राव्या कथा परा ॥ १८ ॥
सर्वैश्च
श्रवणं कार्यं स्त्रीभिः पुम्भिश्च यत्नतः ।
एतच्छिवपुराणस्य
विधिना च कथां मुने ॥ १९ ॥
काकवन्ध्या
आदि जो सात प्रकार की दुष्टा स्त्रियाँ हैं तथा जिस स्त्री का गर्भ गिर जाता हो —
इन सभी को शिवपुराण की उत्तम कथा सुननी चाहिये । हे मुने ! स्त्री
हो या पुरुष — सबको यत्नपूर्वक विधि-विधान से शिवपुराण की
उत्तम कथा सुननी चाहिये ॥ १८-१९ ॥
एतच्छिवपुराणस्य
पारायणदिनानि वै ।
अत्युत्तमानि
बोध्यानि कोटियज्ञसमानि च ॥ २० ॥
एतेषु
विधिना दत्तं यदल्पमपि वस्तु हि ।
दिवसेषु
वरिष्ठेषु तदक्षय्यफलं लभेत् ॥ २१ ॥
इस
शिवपुराण कथापारायण के दिनों को अत्यन्त उत्तम और करोड़ों यज्ञों के समान पवित्र
मानना चाहिये । इन श्रेष्ठ दिनों में विधिपूर्वक जो थोड़ी-सी भी वस्तु दान की जाती
है,
उसका अक्षय फल मिलता है ॥ २०-२१ ॥
एवं कृत्वा
व्रतविधिं श्रुत्वेमां परमां कथाम् ।
परानन्तयुतः
श्रीमानुद्यापनमथाचरेत् ॥ २२ ॥
एतदुद्यापनविधिश्चतुर्दश्याः
समो मतः ।
कार्यस्तद्वद्धनाढ्यैश्च
तदुक्तफलकाङ्क्षिभिः ॥ २३ ॥
अकिञ्चनेषु
भक्तेषु प्रायो नोद्यापनग्रहः ।
श्रवणेनैव
पूतास्ते निष्कामाः शाम्भवा मताः ॥ २४ ॥
इस प्रकार
व्रतधारण करके इस परम श्रेष्ठ कथा का श्रवण करके आनन्दपूर्वक श्रीमान् पुरुषों को
इसका उद्यापन करना चाहिये । इसके उद्यापन की विधि शिवचतुर्दशी के उद्यापन के समान
है । अतः यहाँ बताये गये फल की आकांक्षावाले धनाढ्य लोगों को उसी प्रकार से
उद्यापन करना चाहिये । अल्पवित्तवाले भक्तों के लिये प्रायः उद्यापन की आवश्यकता
नहीं है;
वे तो कथाश्रवणमात्र से पवित्र हो जाते हैं । शिवजी के निष्काम भक्त
तो शिवस्वरूप ही होते हैं ॥ २२-२४ ॥
एवं
शिवपुराणस्य पारायणमखोत्सवे ।
समाप्ते
श्रोतृभिर्भक्त्या पूजा कार्या प्रयत्नतः ॥ २५ ॥
शिवपूजनवत्सम्यक्पुस्तकस्य
पुरो मुने ।
पूजा
कार्या सुविधिना वक्तुश्च तदनन्तरम् ॥ २६ ॥
पुस्तकाच्छादनार्थं
हि नवीनं चासनं शुभम् ।
समर्चयेद्
दृढं दिव्यं बन्धनार्थं च सूत्रकम् ॥ २७ ॥
हे महर्षे
! इस प्रकार शिवपुराण की कथा के पाठ एवं श्रवण-सम्बन्धी यज्ञोत्सव की समाप्ति होने
पर श्रोताओं को भक्ति एवं प्रयत्नपूर्वक भगवान् शिव की पूजा की भाँति पुराण-पुस्तक
की भी पूजा करनी चाहिये । तदनन्तर विधिपूर्वक वक्ता का भी पूजन करना चाहिये ।
पुस्तक को आच्छादित करने के लिये नवीन एवं सुन्दर बस्ता बनाये और उसे बाँधने के
लिये दृढ़ एवं दिव्य सूत्र लगाये; फिर उसका
विधिवत् पूजन करे ॥ २५-२७ ॥
पुराणार्थं
प्रयच्छन्ति ये सूत्रं वसनं नवम् ।
योगिनो
ज्ञानसम्पन्नास्ते भवन्ति भवे भवे ॥ २८ ॥
वक्त्रे
दद्यान्महार्हाणि वस्तूनि विविधानि च ।
वस्त्रभूषणपात्राणि
द्रव्यं बहु विशेषतः ॥ २९ ॥
आसनार्थं
प्रयच्छन्ति पुराणस्य च ये नराः ।
कम्बलाजिनवासांसि
मञ्चं फलकमेव च ॥ ३० ॥
स्वर्गलोकं
समासाद्य भुक्त्वा भोगान्यथेप्सितान् ।
स्थित्वा
ब्रह्मपदे कल्पं यान्ति शैवपदं ततः ॥ ३१ ॥
पुराण के
लिये जो लोग नया वस्त्र और सूत्र देते हैं, वे
जन्म-जन्मान्तर में भोग और ज्ञान से सम्पन्न होते हैं । कथावाचक को अनेक प्रकार के
बहुमूल्य पदार्थ देने चाहिये और उत्तम वस्त्र, आभूषण और
सुन्दर पात्र आदि विशेष रूप से देने चाहिये । पुराण के आसनरूप में जो लोग कम्बल,
मृगचर्म, वस्त्र, चौकी,
तख्ता आदि प्रदान करते हैं, वे स्वर्ग प्राप्त
करके यथेच्छ सुखों का उपभोग कर पुनः कल्पपर्यन्त ब्रह्मलोक में रहकर अन्त में
शिवलोक प्राप्त करते हैं ॥ २८-३१ ॥
एवं कृत्वा
विधानेन पुस्तकस्य प्रपूजनम् ।
वक्तुश्च
भुवि शार्दूल महोत्सवपुरःसरम् ॥ ३२ ॥
सहायार्थं
स्थापितस्य पण्डितस्य प्रपूजनम् ।
कुर्यात्तदनुसारेण
किञ्चिदूनं धनादिभिः ॥ ३३ ॥
समागतेभ्यो
विप्रेभ्यो दद्यादन्नं धनादिकम् ।
महोत्सवः
प्रकर्तव्यो गीतैर्वाद्यैश्च नर्तनैः ॥ ३४ ॥
मुनिश्रेष्ठ
! इस प्रकार महान् उत्सव के साथ पुस्तक और वक्ता की विधिवत् पूजा करके वक्ता की
सहायता के लिये स्थापित किये गये पण्डित का भी उसी के अनुसार उससे कुछ ही कम धन
आदि के द्वारा सत्कार करे । वहाँ आये हुए ब्राह्मणों को अन्न-धन आदि का दान करे ।
साथ ही गीत, वाद्य और नृत्य आदि के द्वारा
महान् उत्सव करे ॥ ३२-३४ ॥
विरच्छ
भवेच्छ्रोता परेऽहनि विशेषतः ।
गीता
वाच्या शिवेनोक्ता रामचन्द्राय या मुने ॥ ३५ ॥
हे मुने !
यदि श्रोता विरक्त हो तो उसके लिये कथासमाप्ति के दिन विशेषरूप से उस गीता का पाठ
करना चाहिये, जिसे श्रीरामचन्द्रजी के प्रति
भगवान् शिव ने कहा था ॥ ३५ ॥
गृहस्थश्चेद्भवेच्छ्रोता
कर्तव्यस्तेन धीमता ।
होमः
शुद्धेन हविषा कर्मणस्तस्य शान्तये ॥ ३६ ॥
रुद्रसंहितया
होमः प्रतिश्लोकेन वा मुने ।
गायत्र्यास्तन्मयत्वाच्च
पुराणस्यास्य तत्त्वतः ॥ ३७ ॥
अथवा
मूलमन्त्रेण पञ्चवर्णेन शैवतः ।
होमाशक्तो
बुधो हौम्यं हविर्दद्याद्द्विजाय तत् ॥ ३८ ॥
यदि श्रोता
गृहस्थ हो तो उस बुद्धिमान् को उस श्रवण-कर्म की शान्ति के लिये शुद्ध हविष्य के
द्वारा होम करना चाहिये । हे मुने ! रुद्रसंहिता के प्रत्येक श्लोक द्वारा होम करे
अथवा गायत्री-मन्त्र से होम करना चाहिये; क्योंकि
वास्तव में यह पुराण गायत्रीमय ही है । अथवा शिवपंचाक्षर मूलमन्त्र से हवन करना
उचित है । होम करने की शक्ति न हो तो विद्वान् पुरुष यथाशक्ति हवनीय हविष्य का
ब्राह्मण को दान करे ॥ ३६-३८ ॥
दोषयोः
प्रशमार्थं च न्यूनताधिकताख्ययोः ।
पठेच्च
शृणुयाद्भक्त्या शिवनामसहस्रकम् ॥ ३९ ॥
तेन
स्यात्सफलं सर्वं सुफलं नात्र संशयः ।
यतो
नास्त्यधिकं त्वस्मात्त्रैलोक्ये वस्तु किञ्जन ॥ ४० ॥
न्यूनातिरिक्ततारूप
दोषों की शान्ति के लिये भक्तिपूर्वक शिवसहस्रनाम का पाठ अथवा श्रवण करे । इससे सब
कुछ सफल होता है, इसमें संशय नहीं है;
क्योंकि तीनों लोकों में उससे बढ़कर कोई वस्तु नहीं है ॥ ३९-४० ॥
एकादशमितान्विप्रान्
भोजयेन्मधुपायसैः ।
दद्यात्तेभ्यो
दक्षिणां च व्रतपूर्णत्वसिद्धये ॥ ४१ ॥
कथाश्रवण
सम्बन्धी व्रत की पूर्णता की सिद्धि के लिये ग्यारह ब्राह्मणों को मधुमिश्रित खीर
भोजन कराये और उन्हें दक्षिणा दे ॥ ४१ ॥
शक्तौ
पलत्रयमितस्वर्णेन सुन्दरं मुने ।
सिंहं
विधाय तत्रास्य पुराणस्य शुभाक्षरम् ॥ ४२ ॥
लेखितं
लिखितं वापि संस्थाप्य विधिना पुमान् ।
सप्पूज्य
वाहनाद्यैश्च ह्युपचारैः सदक्षिणम् ॥ ४३ ॥
वस्त्रभूषणगन्धाद्यैः
पूजिताय यतात्मने ।
आचार्याय
सुधीर्दद्याच्छिवसन्तोषहेतवे ॥ ४४ ॥
मुने ! यदि
शक्ति हो तो तीन पल (बारह तोला) सोने का एक सुन्दर सिंहासन बनवाये और उसपर उत्तम
अक्षरों में लिखी अथवा लिखायी हुई शिवपुराण की पुस्तक विधिपूर्वक स्थापित करे ।
तत्पश्चात् पुरुष आवाहन आदि विविध उपचारों से उसकी पूजा करके दक्षिणा चढ़ाये ।
तदनन्तर जितेन्द्रिय आचार्य का वस्त्र, आभूषण
एवं गन्ध आदि से पूजन करके उत्तम बुद्धिवाला श्रोता भगवान् शिव के सन्तोष के लिये
दक्षिणासहित वह पुस्तक उन्हें समर्पित कर दे ॥ ४२-४४॥
तेन
दानप्रभावेण पुराणस्यास्य शौनक ।
सम्माप्यानुग्रह
शैवं मुक्तः स्याद्भवबन्धनात् ॥ ४५ ॥
एवं कृते
विधाने च श्रीमच्छिवपुराणकम् ।
सम्पूर्णफलदं
स्याद्वै भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ॥ ४६ ॥
हे शौनक !
इस पुराण के उस दान के प्रभाव से भगवान शिव का अनुग्रह पाकर पुरुष भवबन्धन से
मुक्त हो जाता है । इस तरह विधि-विधान का पालन करने पर श्रीसम्पन्न शिवपुराण
सम्पूर्ण फल को देनेवाला तथा भोग और मोक्ष का दाता होता है ॥ ४५-४६ ॥
इति ते
कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।
श्रीमच्छिवपुराणस्य
माहात्म्यं सर्वकामदम् ॥ ४७ ॥
श्रीमच्छिवपुराणं
तु पुराणतिलकं स्मृतम् ।
महच्छिवप्रियं
रम्यं भवरोगनिवारणम् ॥ ४८ ॥
हे मुने !
मैंने आपको शिवपुराण का यह सारा माहात्म्य, जो
सम्पूर्ण अभीष्ट को देनेवाला है, बता दिया । अब और क्या
सुनना चाहते हैं ? श्रीसम्पन्न शिवपुराण समस्त पुराणों का
तिलकस्वरूप माना गया है । यह भगवान् शिव को अत्यन्त प्रिय, रमणीय
तथा भवरोग का निवारण करनेवाला है ॥ ४७-४८ ॥
ये
जन्मभाजः खलु जीवलोके ये वै सदा ध्यानरताः शिवस्य ।
वाणी
गुणान्स्तौति कथां शृणोति श्रोत्रद्वयं ते भवमुत्तरन्ति ॥ ४९ ॥
जो सदा
भगवान् विश्वनाथ का ध्यान करते हैं, जिनकी
वाणी शिव के गुणों की स्तुति करती है और जिनके दोनों कान उनकी कथा सुनते हैं,
इस जीवजगत् में उन्हीं का जन्म लेना सफल है, वे
निश्चय ही संसारसागर से पार हो जाते हैं ॥ ४९ ॥
सकलगुणविभेदैर्नित्यमस्पष्टरूपं
जगति च बहिरन्तर्भासमानं महिम्ना ।
मनसि च
बहिरन्तर्वाङ्मनोवृत्तिरूपं परमशिवमनन्तानन्दसान्द्रं प्रपद्ये ॥ ५० ॥
भिन्न-भिन्न
प्रकार के समस्त गुण जिनके सच्चिदानन्दमय स्वरूप का कभी स्पर्श नहीं करते,
जो अपनी महिमा से जगत् के बाहर और भीतर वाणी एवं मनोवृत्तिरूप में
प्रकाशित होते हैं, उन अनन्त आनन्दघनरूप परम शिव की मैं शरण
लेता हूँ ॥ ५० ॥
इति
श्रीस्कान्दे महापुराणे सनत्कुमारसंहितायां श्रीशिवपुराणश्रवणव्रतिनां
विधिनिषेधपुस्तकवक्तृपूजनवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
॥ इस
प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराण में सनत्कुमारसंहिता के अन्तर्गत श्रीशिवपुराण के
श्रवणव्रतियों के विधि-निषेध और ग्रन्थ तथा वक्ता के पूजन का वर्णन नामक सातवाँ
अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥
॥
श्रीशिवमहापुराणमाहात्म्य पूर्ण हुआ ॥
शेष जारी..........शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता अध्याय ०१
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