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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्री जगन्नाथ अष्टकम्
जगन्नाथ हिन्दू भगवान विष्णु के
पूर्ण कला अवतार श्रीकृष्ण का ही एक रूप हैं। इनका एक बहुत बड़ा मन्दिर ओडिशा
राज्य के पुरी शहर में स्थित है। इस शहर का नाम जगन्नाथ पुरी से निकल कर पुरी बना
है। यहाँ वार्षिक रूप से रथ यात्रा उत्सव भी आयोजित किया जाता है। पुरी की गिनती
हिन्दू धर्म के चार धाम में होती है। अषाढ़ शुक्ल द्वितीया को इसी उपलक्ष्य में भगवान
जगन्नाथ को समर्पित रथ यात्रा विशेषकर पुरे भारत में मनाया जाता है व भगवान
जगन्नाथ के पूजन और उनसे मनोकामना पूर्ति हेतू आशीर्वाद लेने हेतू श्री जगन्नाथ अष्टकम् का पाठ करें। यहाँ दो श्री जगन्नाथ अष्टकम् दिया जा रहा है।
श्रीजगन्नाथाष्टकम्
कदाचित्कालिन्दीतटविपिनसङ्गीतकरवो
मुदा गोपीनारीवदनकमलास्वादमधुपः
।
रमाशम्भुब्रह्मामरपतिगणेशार्चितपदो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे
॥ १ ॥
भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिंछं
कटितटे
दुकूलं नेत्रान्ते सहचरकटाक्षं
विदधते ।
सदा श्रीमद्वृन्दावनवसतिलीलापरिचयो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु ने
॥ २ ॥
महाम्भोधेस्तीरे कनकरुचिरे नीलशिखरे
वसन् प्रासादान्तस्सहजबलभद्रेण
बलिना ।
सुभद्रामध्यस्थस्सकलसुरसेवावसरदो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे
॥ ३ ॥
कृपापारावारास्सजलजलदश्रेणिरुचिरो
रमावाणीसौमस्सुरदमलपद्मोद्भवमुखैः ।
सुरेन्द्रैराराध्यः
श्रुतिगणशिखागीतचरितो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे
॥ ४ ॥
रथारूढो गच्छन् पथि मिलितभूदेवपटलैः
स्तुतिप्रादुर्भावं प्रतिपद
मुपाकर्ण्य सदयः ।
दयासिन्धुर्बन्धुस्सकलजगता
सिन्धुसुतया
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे
॥ ५ ॥
परब्रह्मापीडः कुवलयदलोत्फुल्लनयनो
निवासी नीलाद्रौ
निहितचरणोऽनन्तशिरसि ।
रसानन्दो राधासरसवपुरालिङ्गनसखो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे
॥ ६ ॥
न वै प्रार्थ्यं राज्यं न च कनकतां
भोगविभवं
न याचेऽहं रम्यां निखिलजनकाम्यां
वरवधूं ।
सदा काले काले प्रमथपतिना गीतचरितो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे
॥ ७ ॥
हर त्वं संसारं द्रुततरमसारं सुरपते
हर त्वं पापानां विततिमपरां यादवपते
।
अहो दीनानाथं निहितमचलं निश्चितपदं
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे
॥ ८ ॥
इति श्रीमद् शङ्कराचार्यप्रणीतं
जगन्नाथाष्टकं सम्पूर्णं॥
श्रीजगन्नाथाष्टकम् २
कदाचिच्छ्रीक्षेत्रे विबुधपुरधाम्नि
प्रियतमे
कदा सिंहद्वारे पतितजनतात्राणवपुषम्
।
कदा गर्भे गेहे निखिलमणिसिंहासनगतं
जगन्नाथं नत्वा चरमचिरसौख्यं भवतु
मे ॥ १॥
कदा शङ्खे स्थित्वा मधुरबडदाण्डे हि
विचरन्
महारज्जुं धृत्वा जयतु शरणं
दिव्यपुरुषम् ।
रथं स्पृष्ट्वा प्रेम्णा
विरलरथयात्रासुरभितं
जगन्नाथं नत्वा चरमचिरसौख्यं भवतु
मे ॥ २॥
कदा द्वाविंशेशं कुमतिहरपावच्छनिचये
पिकाख्ये वैकुण्ठे
कुसुमतुलसीदिव्यविपिने ।
महाम्भोधेस्तीरे
त्रिदिवभुवनद्वारललिते
जगन्नाथं नत्वा चरमचिरसौख्यं भवतु
मे ॥ ३॥
सुकान्तं श्रीकान्तं निगमपुरभान्तं
निरुपमं
कदा तं गोपालं रघुवरविशालं बलपतिम्
।
महान्तं वेदान्तं विपुलदनुजान्तं
सुरपतिं
जगन्नाथं नत्वा चरमचिरसौख्यं भवतु
मे ॥ ४॥
वटं स्पृष्ट्वा दृष्ट्वा
विमलविमलादेवतरुणीं
तदा पद्मां छद्मां
कमलनिलयामन्नजननीम् ।
प्रसादं संप्राप्य क्षुधितजनतानन्दविपणौ
जगन्नाथं नत्वा चरमचिरसौख्यं भवतु
मे ॥ ५॥
ठनेत्राभ्यां दीप्तं स्वजनबलभद्रेण सहितं
सुभद्रामध्यस्थं
रिपुदलनसौदर्शनयुतम् ।
महादारुस्फुर्जत्तरलरसिकश्रीहरिवरं
जगन्नाथं नत्वा चरमचिरसौख्यं भवतु
मे ॥ ६॥
कदा नीले चक्रे सुविततपताका मलहरी
प्रकाश्य माधुर्यं विलसतितरां
मुग्धमनसा ।
पुरीप्रान्ते शान्तं
विहगगरुडस्तम्भनिकटं
जगन्नाथं नत्वा चरमचिरसौख्यं भवतु
मे ॥ ७॥
नरेन्द्रे कासारे सजलमधुरे
तीर्थविधुरे
कदा जन्मस्थाने नवदिवसयात्राविलसिते
।
सदा स्वात्मारामं सकलजनकामं गुणमयं
जगन्नाथं नत्वा चरमचिरसौख्यं भवतु
मे ॥ ८॥
सदानन्दात्मजस्तोत्रं यः पठेत् सततं
सुधीः ।
सर्वपापविशुद्धात्मा विष्णुलोकं स
गच्छति ॥ ९॥
इति प्रदीप्तनन्दशर्मविरचितं श्रीजगन्नाथाष्टकं सम्पूर्णम् ।
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