शिवमहापुराण माहात्म्य –
अध्याय 05
शिवमहापुराण माहात्म्य –
अध्याय 05 चंचुला के प्रयत्न से पार्वतीजी की
आज्ञा पाकर तुम्बुरु का विन्ध्यपर्वत पर शिवपुराण की कथा सुनाकर बिन्दुग का
पिशाचयोनि से उद्धार करना तथा उन दोनों दम्पती का शिवधाम में सुखी होना बिन्दुगसद्गतिः
शिवमहापुराण माहात्म्य – अध्याय 05
शिवमहापुराण पाँचवाँ अध्याय
॥ शौनक उवाच ॥
सूत सूत महाभाग धन्यस्त्वं
शिवसक्तधीः ।
श्रावितेयं कथास्माकमद्भुता
भक्तिवर्द्धिनी ॥ १ ॥
तत्र गत्वा किं चकार चञ्चुला
प्राप्तसद्गतिः ।
तत्त्वं वद विशेषेण तत्पतेश्च
महामते ॥ २ ॥
शौनकजी बोले —
हे महाभाग सूतजी ! आप धन्य हैं, आपकी बुद्धि
भगवान् शिव में लगी हुई है । आपने कृपापूर्वक यह शिवभक्ति को बढ़ानेवाली अद्भुत
कथा हमें सुनायी । हे महामते ! सद्गति प्राप्त करने के बाद वहाँ जाकर चंचुला ने
क्या किया और उसके पति का क्या हुआ; यह सब वृत्तान्त विस्तार
से हमें बताइये ॥ १-२ ॥
॥ सूत उवाच ॥
सा कदाचिदुमां देवीमुपगम्य प्रणम्य
च ।
सुतुष्टाव करौ बद्ध्वा
परमानन्दसम्प्लुता ॥ ३ ॥
सूतजी बोले —
हे शौनक ! एक दिन परमानन्द में निमग्न हुई चंचुला ने उमादेवी के पास
जाकर प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़कर वह उनकी स्तुति करने लगी ॥ ३ ॥
॥ चञ्चुलोवाच ॥
गिरिजे स्कन्दमातस्त्वं सेविता
सर्वदा नरैः ।
सर्वसौख्यप्रदे शम्भुप्रिये
ब्रह्यस्वरूपिणि ॥ । ४ ॥
विष्णुब्रह्मादिभिः सेव्या सगुणा
निर्गुणापि च ।
त्वमाद्या प्रकृतिः सूक्ष्मा
सच्चिदानन्दरूपिणी ॥ ५ ॥
सष्टिस्थितिलयकरी त्रिगुणा
त्रिसुरालया ।
ब्रह्मविष्णुमहेशानां सुप्रतिष्ठाकरा
परा ॥ ६ ॥
चंचुला बोली —
हे गिरिराजनन्दिनी ! हे स्कन्दमाता ! मनुष्यों ने सदा आपकी सेवा की
है । समस्त सुखों को देनेवाली हे शम्भुप्रिये ! हे ब्रह्मस्वरूपिणि ! आप विष्णु और
ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा सेव्य हैं । आप ही सगुणा और निर्गुणा भी हैं तथा आप ही
सूक्ष्मा सच्चिदानन्दस्वरूपिणी आद्या प्रकृति हैं । आप ही संसार की सृष्टि,
पालन और संहार करनेवाली हैं । तीनों गुणों का आश्रय भी आप ही हैं ।
ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर — इन तीनों
देवताओं का आवास — स्थान तथा उनकी उत्तम प्रतिष्ठा करने वाली
पराशक्ति आप ही हैं ॥ ४-६ ॥
॥ सूत उवाच ॥
इति स्तुत्वा महेशीं तां चञ्चुला
प्राप्तसद्गतिः ।
विरराम नतस्कन्धा
प्रेमपूर्णाश्रुलोचना ॥ ७ ॥
सूतजी बोले —
हे शौनक ! जिसे सद्गति प्राप्त हो चुकी थी, वह
चंचुला इस प्रकार महेश्वरपत्नी उमा की स्तुति करके सिर झुकाये चुप हो गयी । उसके
नेत्रों में प्रेम के आँसू उमड़ आये थे ॥ ७ ॥
ततः सा करुणाविष्टा पार्वती शङ्करप्रिया
।
तामुवाच महाप्रीत्या चञ्चुलां
भक्तवत्सला ॥ ८ ॥
तब करुणा से भरी हुई शंकरप्रिया
भक्तवत्सला पार्वतीदेवी चंचुला को सम्बोधित करके बड़े प्रेम से इस प्रकार कहने
लगीं —
॥ ८ ॥
॥ पार्वत्युवाच ॥
चञ्चुले सखि सुप्रीतानया स्तुतास्मि
सुन्दरि ।
किं याचसे वरं ब्रूहि नादेयं
विद्यते तव ॥ ९ ॥
पार्वती बोलीं —
हे सखी चंचुले ! हे सुन्दरि ! मैं तुम्हारी की हुई इस स्तुति से
बहुत प्रसन्न हूँ । बोलो, क्या वर माँगती हो ? तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है ॥ ९ ॥
॥ सूत उवाच ॥
इत्युक्ता सा गिरिजया चञ्चुला
सुप्रणम्य ताम् ।
पर्यपृच्छत सुप्रीत्या
साञ्जलिर्नतमस्तका ॥ १० ॥
सूतजी बोले —
पार्वती के इस प्रकार कहने पर चंचुला उन्हें प्रणाम करके दोनों हाथ
जोड़कर नतमस्तक हो प्रेमपूर्वक पूछने लगी — ॥ १० ॥
॥ चञ्चुलोवाच ॥
मम भर्ताऽधुना क्वाऽऽस्ते नैव
जानामि तद्गतिम् ।
तेन युक्ता यथाऽहं वै भवामि
गिरिजेऽनघे ॥ ११ ॥
तथैव कुरु कल्याणि कृपया दीनवत्सले
।
महादेवि महेशानि भर्ता मे वृषलीपतिः
।
मत्तः पूर्वं मृतः पापी न जाने कां
गतिं गतः ॥ १२ ॥
चंचुला बोली —
हे निष्पाप गिरिराजकुमारी ! मेरे पति बिन्दुग इस समय कहाँ हैं,
उनकी कैसी गति हुई है यह मैं नहीं जानती ! कल्याणमयी दीनवत्सले !
मैं अपने उन पतिदेव से जिस प्रकार संयुक्त हो सकूँ, कृपा
करके वैसा ही उपाय कीजिये । हे महेश्वरि ! हे महादेवि ! मेरे पति एक शूद्रजातीय
वेश्या के प्रति आसक्त थे और पाप में ही डूबे रहते थे । उनकी मृत्यु मुझसे पहले ही
हो गयी थी । वे न जाने किस गति को प्राप्त हुए हैं ॥ ११-१२ ॥
॥ सूत उवाच ॥
इत्याकर्ण्य वचस्तस्याश्चञ्चुलाया
हि पार्वती ।
प्रत्युवाच सुसम्प्रीत्या गिरिजा
नयवत्सला ॥ १३ ॥
सूतजी बोले —
चंचुला का यह वचन सुनकर नीतिवत्सला हिमालयपुत्री देवी पार्वती ने
अत्यन्त प्रेमपूर्वक यह उत्तर दिया — ॥ १३ ॥
॥ गिरिजोवाच ॥
सुते भर्ता बिन्दुगाह्वो महापापी
दुराशयः ।
वेश्याभोगी महामूढो मृत्वा स नरकं
गतः ॥ १४ ॥
भुक्त्वा नरकदुःखानि विविधान्यमिताः
समाः ।
पापशेषेण पापात्मा विन्ध्ये जातः
पिशाचकः ॥ १५ ॥
इदानीं स पिशाचोऽस्ति
नानाक्लेशसमन्वितः ।
तत्रैव वातभुग्दुष्टः सर्वकष्टवहः
सदा ॥ १६ ॥
गिरिजा बोलीं —
हे सुते ! तुम्हारा बिन्दुग नामवाला पति बड़ा पापी था । उसका
अन्त:करण बड़ा ही दूषित था । वेश्या का उपभोग करनेवाला वह महामूढ़ मरने के बाद नरक
में पड़ा; अगणित वर्षों तक नरक में नाना प्रकार के दु:ख
भोगकर वह पापात्मा अपने शेष पाप को भोगने के लिये विन्ध्यपर्वत पर पिशाच हुआ है ।
इस समय वह पिशाच की अवस्था में ही है और नाना प्रकार के क्लेश उठा रहा है । वह
दुष्ट वहीं वायु पीकर रहता है और सदा सब प्रकार के कष्ट सहता है ॥ १४-१६ ॥
॥ सूत उवाच ॥
इति गौर्या वचः श्रुत्वा चञ्चुला सा
शुभव्रता ।
पतिदुःखेन महता दुःखिताऽऽसीत्तदा
किल ॥ १७ ॥
समाधाय ततश्चित्तं सुप्रणम्य
महेश्वरीम् ।
पुनः पप्रच्छ सा नारी हृदयेन
विदूयता ॥ १८ ॥
सूतजी बोले —
हे शौनक ! गौरीदेवी की यह बात सुनकर उत्तम व्रत का पालन करनेवाली वह
चंचुला उस समय पति के महान् दुःख से दुखी हो गयी । फिर मन को स्थिर करके उस
ब्राह्मणपत्नी ने व्यथित हृदय से महेश्वरी को प्रणाम करके पुनः पूछा — ॥ १७-१८ ॥
॥ चञ्चुलोवाच ॥
महेश्वरि महादेवि कृपां कुरु ममोपरि
।
समुद्धर पतिं मेऽद्य दुष्टकर्मकरं
खलम् ॥ १९ ॥
केनोपायेन मे भर्ता पापात्मा स
कुबुद्धिमान् ।
सद्गतिं प्राप्नुयाद्देवि तद्वदाशु
नमोऽस्तु ते ॥ २० ॥
चंचुला बोली —
हे महेश्वरि ! हे महादेवि ! मुझपर कृपा कीजिये और दूषित कर्म
करनेवाले मेरे उस दुष्ट पति का अब उद्धार कर दीजिये । हे देवि ! कुत्सित
बुद्धिवाले मेरे उस पापात्मा पति को किस उपाय से उत्तम गति प्राप्त हो सकती है,
यह शीघ्र बताइये । आपको नमस्कार है ॥ १९-२० ॥
॥ सूत उवाच ॥
इत्याकर्ण्य वचस्तस्याः पार्वती
भक्तवत्सला ।
प्रत्युवाच प्रसन्नात्मा चञ्चुलां
स्वसखीं च ताम् ॥ २१ ॥
सूतजी बोले —
उसकी यह बात सुनकर भक्तवत्सला पार्वतीजी अपनी सखी चंचुला से प्रसन्न
होकर ऐसा कहने लगीं ॥ २१ ॥
॥ पार्वत्युवाच ॥
शृणुयाद्यदि ते भर्ता पुण्यां
शिवकथां पराम् ।
निस्तीर्य दुर्गतिं सर्वां सद्गतिं
प्राप्नुयादिति ॥ २२ ॥
पार्वतीजी बोलीं —
तुम्हारा पति यदि शिवपुराण की पुण्यमयी उत्तम कथा सुने तो सारी
दुर्गति को पार करके वह उत्तम गति का भागी हो सकता है ॥ २२ ॥
इति गौर्य्या वचः
श्रुत्वाऽमृताक्षरमथादरात् ।
कृताञ्जलिर्नतस्कन्धा प्रणनाम पुनः
पुनः ॥ २३ ॥
तत्कथाश्रवणं भर्तुः
सर्वपापविशुद्धये ।
सद्गतिप्राप्तये चैव प्रार्थयामास
तां तदा ॥ २४ ॥
अमृत के समान मधुर अक्षरों से युक्त
गौरीदेवी का यह वचन आदरपूर्वक सुनकर चंचुला ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर उन्हें
बारंबार प्रणाम किया और अपने पति के समस्त पापों की शुद्धि तथा उत्तम गति की
प्राप्ति के लिये पार्वतीदेवी से यह प्रार्थना की कि मेरे पति को शिवपुराण सुनाने
की व्यवस्था होनी चाहिये ॥ २३-२४ ॥
॥ सूत उवाच ॥
तया मुहुर्मुहुर्नार्या
प्रार्थ्यमाना शिवप्रिया ।
गौरी कृपान्वितासीत्सा महेशी
भक्तवत्सला ॥ २५ ॥
अथ तुम्बुरुमाहूय
शिवसत्कीर्तिगायकम् ।
प्रीत्या गन्धर्वराजं हि
गिरिकन्येदमब्रवीत् ॥ २६ ॥
सूतजी बोले —
उस ब्राह्मणपत्नी के बारंबार प्रार्थना करने पर शिवप्रिया गौरीदेवी
को बड़ी दया आयी । उन भक्तवत्सला महेश्वरी गिरिराजकुमारी ने भगवान् शिव की उत्तम
कीर्ति का गान करनेवाले गन्धर्वराज तुम्बुरु को बुलाकर उनसे प्रसन्नतापूर्वक इस
प्रकार कहा — ॥ २५-२६ ॥
॥ गिरिजोवाच ॥
हे तुम्बुरोः शिवप्रीत मम मानसकारक
।
सहानया विन्ध्यशैलं भद्रं ते गच्छ
सत्वरम् ॥ २७ ॥
आस्ते तत्र महाघोरः पिशाचोऽतिभयङ्करः
।
तद्वृत्तं शृणु सुप्रीत्याऽऽदितः
सर्वं ब्रवीमि ते ॥ २८ ॥
गिरिजा बोलीं —
मेरे मन की बातों को जानकर मेरे अभीष्ट कार्यों को सिद्ध करनेवाले
तथा शिव में प्रीति रखनेवाले हे तुम्बुरो ! [मैं तुमसे एक बात कहती हूँ] तुम्हारा
कल्याण हो । तुम मेरी इस सखी के साथ शीघ्र ही विन्ध्यपर्वत पर जाओ । वहाँ एक
महाघोर और भयंकर पिशाच रहता है । उसका वृत्तान्त तुम आरम्भ से ही सुनो । मैं तुमसे
प्रसन्नतापूर्वक सब कुछ बताती हूँ ॥ २७-२८ ॥
पुराभवे पिशाचः स बिन्दुगाह्वोऽभवद्द्विजः
।
अस्या नार्याः पतिर्दुष्टो मत्सख्या
वृषलीपतिः ॥ २९ ॥
स्नानसन्ध्याक्रियाहीनोऽशौचः
क्रोधविमूढधीः ।
दुर्भक्षो सज्जनद्वेषी
दुष्परिग्रहकारकः ॥ ३० ॥
हिंसकः शस्त्रधारी च सव्यहस्तेन
भोजनी ।
दीनानां पीडकः क्रूरः
परवेश्मप्रदीपकः ॥ ३१ ॥
चाण्डालाभिरतो नित्यं वेश्याभोगी
महाखलः ।
स्वपत्नीत्यागकृत्पापी दुष्टसङ्गरतस्तदा
॥ ३२ ॥
पूर्वजन्म में वह पिशाच बिन्दुग
नामक ब्राह्मण था । वह मेरी इस सखी चंचुला का पति था । परंतु वह दुष्ट वेश्यागामी
हो गया । स्नान — सन्ध्या आदि
नित्यकर्म छोड़कर वह अपवित्र रहने लगा । क्रोध के कारण उसकी बुद्धि पर मूढ़ता छा
गयी थी । वह कर्तव्याकर्तव्य का विवेक नहीं कर पाता था । अभक्ष्यभक्षण, सज्जनों से द्वेष और दूषित वस्तुओं का दान लेना — यही
उसका स्वाभाविक कर्म बन गया था । वह अस्त्र-शस्त्र लेकर हिंसा करता, बायें हाथ से खाता, दीनों को सताता और क्रूरतापूर्वक
पराये घरों में आग लगा देता था । वह चाण्डालों से प्रेम करता और प्रतिदिन वेश्या
के सम्पर्क में रहता था । वह बड़ा दुष्ट था । उस पापी ने अपनी पत्नी का परित्याग
कर दिया था और वह दुष्टों के संग में निरत रहता था ॥ २९-३२ ॥
तेन वेश्याकुसङ्गेन सुकृतं नाशितं
महत् ।
वित्तलोभेन महिषी निर्भया जारिणी
कृता ॥ ३३ ॥
उसने वेश्या के कुसंग से अपने सारे
पुण्य नष्ट कर लिये और धन के लोभ से अपनी पत्नी को निर्भय करके व्यभिचारिणी बना
डाला ॥ ३३ ॥
आमृत्योः स दुराचारी कालेन निधनं
गतः ।
ययौ यमपुरं घोरं भोगस्थानं हि
पापिनाम् ॥ ३४ ॥
तत्र भुक्त्वा स दुष्टात्मा नरकानि
बहूनि च ।
इदानीं स पिशाचोऽस्ति विन्ध्येऽद्रौ
पापभुक्खलः ॥ ३५ ॥
वह मृत्युपर्यन्त दुराचार में ही
फँसा रहा । फिर समय आने पर उसकी मृत्यु हो गयी । वह पापियों के भोगस्थान घोर यमपुर
में गया और वहाँ बहुत-से नरकों को भोगकर वह दुष्टात्मा इस समय विन्ध्यपर्वत पर
पिशाच बना हुआ है । वहीं पर वह दुष्ट पिशाच अपने पापों का फल भोग रहा है ॥ ३४-३५ ॥
तस्याग्रे परमां पुण्यां
सर्वपापविनाशिनीम् ।
दिव्यां शिवपुराणस्य कथाङ्कथय
यत्नतः ॥ ३६ ॥
द्रुतं शिवपुराणस्य कथाश्रवणतः
परात् ।
सर्वपापविशुद्धात्मा हास्यति
प्रेततां च सः ॥ ३७ ॥
मुक्तं च दुर्गतेस्तं वै बिन्दुगं
त्वं पिशाचकम् ।
मदाज्ञया विमानेन समानय शिवान्तिकम्
॥ ३८ ॥
तुम उसके आगे यत्नपूर्वक शिवपुराण
की उस दिव्य कथा का प्रवचन करो, जो परम
पुण्यमयी तथा समस्त पापों का नाश करनेवाली है । उत्तम शिवपुराण की कथा के श्रवण से
उसका हृदय शीघ्र ही समस्त पापों से शुद्ध हो जायगा और वह प्रेतयोनि का परित्याग कर
देगा । दुर्गति से मुक्त होने पर उस बिन्दुग नामक पिशाच को मेरी आज्ञा से विमान पर
बिठाकर तुम भगवान् शिव के समीप ले आओ ॥ ३६-३८ ॥
॥ सूत उवाच ॥
इत्यादिष्टो महेशान्या
गन्धर्वेन्द्रश्च तुम्बुरुः ।
मुमुदेऽतीव मनसि भाग्यं निजमवर्णयत्
॥ ३९ ॥
आरुह्य सुविमानं स सत्या तत्प्रियया
सह ।
ययौ विन्ध्याचलं सोऽरं यत्रास्ते
नारदप्रियः ॥ ४० ॥
सूतजी बोले —
[हे शौनक !] महेश्वरी उमा के इस प्रकार आदेश देने पर गन्धर्वराज
तुम्बुरु मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने भाग्य की सराहना की ।
तत्पश्चात् उस पिशाच की सती- साध्वी पत्नी चंचुला के साथ विमान पर बैठकर नारद के
प्रिय मित्र तुम्बुरु वेगपूर्वक विन्ध्याचल पर्वत पर गये, जहाँ
वह पिशाच रहता था ॥ ३९-४० ॥
तत्रापश्यत्पिशाचं तं महाकायं
महाहनुम् ।
प्रहसन्तं रुदन्तं च वल्गन्तं
विकटाकृतिम् ॥ ४१ ॥
बलाज्जग्राह तं पाशैः पिशाचं
चातिभीकरम् ।
तुम्बुरुश्शिवसत्कीर्तिगायकश्च
महाबली ॥ ४२ ॥
वहाँ उन्होंने उस पिशाच को देखा ।
उसका शरीर विशाल था और उसकी ठोढ़ी बहुत बड़ी थी । वह कभी हँसता,
कभी रोता और कभी उछलता था । उसकी आकृति बड़ी विकराल थी । भगवान् शिव
की उत्तम कीर्ति का गान करनेवाले महाबली तुम्बुरु ने उस अत्यन्त भयंकर पिशाच को
बलपूर्वक पाशों द्वारा बाँध लिया ॥ ४१-४२ ॥
अथो शिवपुराणस्य वाचनार्थं स
तुम्बुरुः ।
निश्चित्य रचनां चक्रे
महोत्सवसमन्विताम् ॥ ४३ ॥
पिशाचं तारितुं देव्याः
शासनात्तुम्बुरुर्गतः ।
विन्ध्यं शिवपुराणं स ह्यद्रिं
श्रावयितुं परम् ॥ ४४ ॥
इति कोलाहलो जातः सर्वलोकेषु वै
महान् ।
तत्र तच्छ्रवणार्थाय ययुर्देवर्षयो
द्रुतम् ॥ ४५ ॥
समाजस्तत्र परमोऽद्भुतश्चासीच्छुभावहः
।
तेषां शिवपुराणस्यागतानां
श्रोतुमादरात् ॥ ४६ ॥
तदनन्तर तुम्बुरु ने शिवपुराण की
कथा बाँचने का निश्चय करके महोत्सवयुक्त स्थान और मण्डप आदि की रचना की । इतने में
ही सम्पूर्ण लोकों में बड़े वेग से यह प्रचार हो गया कि देवी पार्वती की आज्ञा से
एक पिशाच का उद्धार करने के उद्देश्य से शिवपुराण की उत्तम कथा सुनाने के लिये
तुम्बुरु विन्ध्यपर्वत पर गये हैं । तब तो उस कथा को सुनने के लोभ से बहुत-से
देवता और ऋषि भी शीघ्र ही वहाँ जा पहुँचे । आदरपूर्वक शिवपुराण सुनने के लिये आये
हुए लोगों का उस पर्वत पर बड़ा अद्भुत और कल्याणकारी समाज जुट गया ॥ ४३-४६ ॥
पिशाचमथ तं पाशैर्बद्ध्वा समुपवेश्य
च ।
तुम्बुरुर्वल्लकीहस्तो जगौ गौरीपतेः
कथाम् ॥ ४७ ॥
आरभ्य संहितामाद्यां
सप्तमीसंहितावधि ।
स्पष्टं शिवपुराणं हि समाहात्म्यं
समावदत् ॥ ४८ ॥
तत्पश्चात् तुम्बुरु ने उस पिशाच को
पाशों से बाँधकर आसन पर बिठाया और हाथ में वीणा लेकर गौरीपति की कथा का गान आरम्भ
किया । माहात्म्यसहित पहली अर्थात् प्रथम संहिता से लेकर सातवीं संहिता तक
शिवपुराण की कथा का उन्होंने स्पष्ट वर्णन किया ॥ ४७-४८ ॥
श्रुत्वा शिवपुराणं तु
सप्तसंहितमादरात् ।
बभुवुः सुकृतार्थास्ते सर्वे
श्रोतार एव हि ॥ ४९ ॥
स पिशाचो महापुण्यं श्रुत्वा
शिवपुराणकम् ।
विधूय कलुषं सर्वं जहौ पैशाचिकं
वपुः ॥ ५० ॥
दिव्यरूपो बभूवाशु गौरवर्णः
सितांशुकः ।
सर्वालङ्कारदीप्ताङ्गस्त्रिनेत्रश्चन्द्रशेखरः
॥ ५१ ॥
सात संहितावाले शिवपुराण का
आदरपूर्वक श्रवण करके वे सभी श्रोता पूर्णतः कृतार्थ हो गये । उस परम पुण्यमय
शिवपुराण को सुनकर उस पिशाच ने अपने सारे पापों को धोकर उस पैशाचिक शरीर को त्याग
दिया । शीघ्र ही उसका रूप दिव्य हो गया । अंगकान्ति गौरवर्ण की हो गयी । शरीर पर
श्वेत वस्त्र तथा सब प्रकार के पुरुषोचित आभूषण उसके अंगों को उद्भासित करने लगे ।
वह त्रिनेत्रधारी चन्द्रशेखररूप हो गया ॥ ४९-५१ ॥
दिव्यं दिव्यवपुर्भूत्वा तया स
निजकान्तया ।
जगौ स्वयमपि श्रीमांश्चरितं
पार्वतीपतेः ॥ ५२ ॥
तद्वधूमिति सन्दृष्ट्वा सर्वे
देवर्षयश्च ते ।
बभूवुर्विस्मिताश्चित्ते
परमानन्दसंयुताः ॥ ५३ ॥
सुकृतार्था महेशस्य श्रुत्वा
चरितमद्भुतम् ।
स्वं स्वं धाम ययुः प्रीत्या
शंसन्तः शाङ्करं यशः ॥ ५४ ॥
इस प्रकार दिव्य देहधारी होकर
श्रीमान् बिन्दुग अपनी भार्या चंचुला के साथ स्वयं भी पार्वतीपति भगवान् शिव के
दिव्य चरित्र का गुणगान करने लगा । उसकी स्त्री को इस प्रकार दिव्य रूप से सुशोभित
देखकर वे सभी देवता और ऋषि बड़े विस्मित हुए; उनका
चित्त परमानन्द से परिपूर्ण हो गया । भगवान् महेश्वर का वह अद्भुत चरित्र सुनकर वे
सभी श्रोता परम कृतार्थ हो प्रेमपूर्वक श्रीशिव का यशोगान करते हुए अपने-अपने धाम
को चले गये ॥ ५२-५४ ॥
बिन्दुगः सोऽपि दिव्यात्मा
सुविमानस्थितः सुखी ।
स्वकान्तापार्श्वगः
श्रीमाञ्छुशुभेऽतीव खस्थितः ॥ ५५ ॥
दिव्यरूपधारी श्रीमान् बिन्दुग भी
सुन्दर विमान पर अपनी प्रियतमा के पास बैठकर सुखपूर्वक आकाश में स्थित हो परम शोभा
पाने लगा ॥ ५५ ॥
अथ गायन्महेशस्य सुगुणान्सुमनोहरान्
।
स तुम्बुरुर्जगामाशु सकान्तः शाङ्करं
पदम् ॥ ५६ ॥
सुसत्कृतो महेशेन पार्वत्या च स
बिन्दुगः ।
स्वगणश्च कृतः प्रीत्या साऽभवद्गिरिजासखी
॥ ५७ ॥
तस्मिँल्लोके परानन्दे घनज्योतिषि
शाश्वते ।
लब्ध्वा निवासमचलं लभेते परमं सुखम्
॥ ५८ ॥
तदनन्तर महेश्वर के सुन्दर एवं
मनोहर गुणों का गान करता हुआ वह अपनी प्रियतमा तथा तुम्बुरु के साथ शीघ्र ही
शिवधाम में जा पहुँचा । वहाँ भगवान् महेश्वर तथा पार्वती देवी ने प्रसन्नतापूर्वक
बिन्दुग का बड़ा सत्कार किया और उसे अपना गण बना लिया । उसकी पत्नी चंचुला
पार्वतीजी की सखी हो गयी । उस घनीभूतज्योतिः स्वरूप परमानन्दमय सनातनधाम में अविचल
निवास पाकर वे दोनों दम्पती परम सुखी हो गये ॥ ५६-५८ ॥
इत्येतत्कथितं पुण्यमितिहासमघापहम्
।
शिवाशिवपरानन्दं निर्मलं
भक्तिवर्द्धनम् ॥ ५९ ॥
य इदं शृणुयाद्भक्त्या कीर्तयेद्वा
समाहितः ।
स भुक्त्वा विपुलान्भोगानन्ते
मुक्तिमवाप्नुयात् ॥ ६० ॥
इति श्रीस्कान्दे महापुराणे
शिवपुराणमाहाम्ये बिन्दुसद्गतिवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
यह उत्तम इतिहास मैंने आपको सुनाया,
जो पापों का नाश करनेवाला, उमा-महेश्वर को
आनन्द देनेवाला, अत्यन्त पवित्र तथा उनमें भक्ति बढ़ानेवाला
है । जो इसे भक्तिपूर्वक सुनता है अथवा एकाग्रचित्त होकर इसका पाठ करता है,
वह अनेक सांसारिक सुखों को भोगकर अन्त में मुक्ति प्राप्त करता है ॥
५९-६० ॥
॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराण के
अन्तर्गत शिवपुराणमाहात्म्य में बिन्दुगसद्गतिवर्णन नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ
॥ ५ ॥
शेष जारी........शिवमहापुराण माहात्म्य – अध्याय ०६
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