शिवमहापुराण माहात्म्य – अध्याय 01
शिवमहापुराण माहात्म्य –
अध्याय 01 शौनकजी के साधनविषयक प्रश्न करने पर सूतजी का उन्हें
शिवमहापुराण की महिमा सुनाना
शिवमहापुराण माहात्म्य – अध्याय 01
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
पहला अध्याय
शिवमहापुराण
॥ श्रीशौनक उवाच ॥
हे हे सूत महाप्राज्ञ
सर्वसिद्धान्तवित्प्रभो ।
आख्याहि मे कथासारं पुराणानां
विशेषतः ॥ १ ॥
श्रीशौनकजी बोले —
हे महाज्ञानी सूतजी ! सम्पूर्ण सिद्धान्तों के ज्ञाता हे प्रभो !
मुझसे पुराणों की कथाओं के सारतत्त्व का विशेषरूप से वर्णन कीजिये ॥ १ ॥
सदाचारश्च सद्भक्तिर्विवेको
वर्द्धते कथम् ।
स्वविकारनिरासश्च सज्जनैः क्रियते
कथम् ॥ २ ॥
सदाचार,
भगवद्भक्ति और विवेक की वृद्धि कैसे होती है तथा साधु-पुरुष किस
प्रकार अपने काम-क्रोध आदि मानसिक विकारों का निवारण करते हैं ? ॥ २ ॥
जीवाश्चासुरतां प्राप्ताः प्रायो
घोरे कलाविह ।
तस्य संशोधने किं हि विद्यते
परमायनम् ॥ ३ ॥
इस घोर कलियुग में जीव प्रायः आसुर
स्वभाव के हो गये हैं, उस जीव-समुदाय को
शुद्ध (दैवी सम्पत्ति से युक्त) बनाने के लिये सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है ? ॥ ३ ॥
यदस्ति वस्तु परमं श्रेयसां श्रेय
उत्तमम् ।
पावनं पावनानां च साधनं तद्वदाधुना
॥ ४ ॥
आप इस समय मुझे ऐसा कोई शाश्वत साधन
बताइये,
जो कल्याणकारी वस्तुओं में भी सबसे उत्कृष्ट एवं परम मंगलकारी हो
तथा पवित्र करनेवाले उपायों में भी सर्वोत्तम पवित्रकारक उपाय हो ॥ ४ ॥
येन तत्साधनेनाशु शुद्ध्यत्यात्मा
विशेषतः ।
शिवप्राप्तिर्भवेत्तात सदा
निर्मलचेतसः ॥ ५ ॥
तात ! वह साधन ऐसा हो,
जिसके अनुष्ठान से शीघ्र ही अन्तःकरण को विशेष शुद्धि हो जाय तथा
उससे निर्मल चित्तवाले पुरुष को सदा के लिये शिव की प्राप्ति हो जाय ॥ ५ ॥
॥ सूत उवाच ॥
धन्यस्त्वं मुनिशार्दूल
श्रवणप्रीतिलालसः ।
अतो विचार्य सुधिया वच्मि शास्त्रं
महोत्तमम् ॥ ६ ॥
सूतजी बोले —
मुनिश्रेष्ठ शौनक ! आप धन्य हैं; आपके हृदय
में पुराण-कथा सुनने के प्रति विशेष प्रेम एवं लालसा है, इसलिये
मैं शुद्ध बुद्धि से विचारकर परम उत्तम शास्त्र का वर्णन करता हूँ ॥ ६ ॥
सर्वसिद्धान्तनिष्पन्नं
भक्त्यादिकविवर्द्धनम् ।
शिवतोषकरं दिव्यं शृणु वत्स रसायनम्
॥ ७ ॥
वत्स ! सम्पूर्ण शास्त्रों के
सिद्धान्त से सम्पन्न, भक्ति आदि को
बढ़ानेवाले, भगवान् शिव को सन्तुष्ट करनेवाले तथा कानों के
लिये रसायनस्वरूप दिव्य पुराण का श्रवण कीजिये ॥ ७ ॥
कालव्यालमहात्रासविध्वंसकरमुत्तमम्
।
शैवं पुराण परमं शिवेनोक्तं पुरा
मुने ॥ ८ ॥
सनत्कुमारस्य मुनेरुपदेशात्परादरात्
।
व्यासेनोक्तं तु सङ्क्षेपात्कलिजानां
हिताय च ॥ ९ ॥
यह उत्तम शिवपुराण कालरूपी सर्प से
प्राप्त होनेवाले महान् त्रास का विनाश करनेवाला है । हे मुने ! पूर्वकाल में
शिवजी ने इसे कहा था । गुरुदेव व्यासजी ने सनत्कुमार मुनि का उपदेश पाकर कलियुग के
प्राणियों के कल्याण के लिये बड़े आदर से संक्षेप में इस पुराण का प्रतिपादन किया
है ॥ ८-९ ॥
एतस्मादपरं किञ्चित्पुराणाच्छैवतो
मुने ।
विद्यते न मनःशुद्ध्यै कलिजानां
विशेषतः ॥ १० ॥
हे मुने ! विशेष रूप से कलियुग के
प्राणियों की चित्तशुद्धि के लिये इस शिवपुराण के अतिरिक्त कोई अन्य साधन नहीं है
॥ १० ॥
जन्मान्तरे भवेत्पुण्यं महद्यस्य
सुधीमतः ।
तस्य प्रीतिर्भवेत्तत्र महाभाग्यवतो
मुने ॥ ११ ॥
हे मुने ! जिस बुद्धिमान् मनुष्य के
पूर्वजन्म के बड़े पुण्य होते हैं, उसी
महाभाग्यशाली व्यक्ति की इस पुराण में प्रीति होती है ॥ ११ ॥
एतच्छिवपुराणं हि परमं
शास्त्रमुत्तमम् ।
शिवरूपं क्षितौ ज्ञेयं सेवनीयं च
सर्वथा ॥ १२ ॥
यह शिवपुराण परम उत्तम शास्त्र है ।
इसे इस भूतल पर भगवान् शिव का वाङ्मय स्वरूप समझना चाहिये और सब प्रकार से इसका
सेवन करना चाहिये ॥ १२ ॥
पठनाच्छ्रवणादस्य भक्तिमान्नरसत्तमः
।
सद्यः शिवपदप्राप्तिं लभते
सर्वसाधनात् ॥ १३ ॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन काङ्क्षितं
पठनं नृभिः ।
तथास्य श्रवणं प्रेम्णा
सर्वकामफलप्रदम् ॥ १४ ॥
इसके पठन और श्रवण से शिवभक्ति पाकर
श्रेष्ठतम स्थिति में पहुँचा हुआ मनुष्य शीघ्र ही शिवपद को प्राप्त कर लेता है ।
इसलिये सम्पूर्ण यत्न करके मनुष्यों ने इस पुराण के अध्ययन को अभीष्ट साधन माना है
और इसका प्रेमपूर्वक श्रवण भी सम्पूर्ण वांछित फलों को देनेवाला है ॥ १३-१४ ॥
पुराणश्रवणाच्छम्भोर्निष्पापो जायते
नरः ।
भुक्त्वा
भोगान्सुविपुलाञ्छिवलोकमवाप्नुयात् ॥ १५ ॥
भगवान् शिव के इस पुराण को सुनने से
मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है तथा बड़े-बड़े उत्कृष्ट भोगों का उपभोग करके
[अन्त में] शिवलोक को प्राप्त कर लेता है ॥ १५ ॥
राजसूयेन यत्पुण्यमग्निष्टोमशतेन च
।
तत्पुण्यं लभते शम्भोः
कथाश्रवणमात्रतः ॥ १६ ॥
राजसूययज्ञ और सैकड़ों
अग्निष्टोमयज्ञों से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह
भगवान् शिव की कथा सुननेमात्र से प्राप्त हो जाता है ॥ १६ ॥
ये शृण्वन्ति मुने शैवं पुराणं
शास्त्रमुत्तमम् ।
ते मनुष्या न मन्तव्या रुद्रा एव न
संशयः ॥ १७ ॥
हे मुने! जो लोग इस श्रेष्ठ शास्त्र
शिवपुराण का श्रवण करते हैं, उन्हें मनुष्य
नहीं समझना चाहिये; वे रुद्रस्वरूप ही हैं; इसमें सन्देह नहीं है ॥ १७ ॥
शृण्वतां तत्पुराणं हि तथा
कीर्तयतां च तत् ।
पादाम्बुजरजांस्येव तीर्थानि मुनयो
विदुः ॥ १८ ॥
इस पुराण का श्रवण और कीर्तन
करनेवालों के चरणकमल की धूलि को मुनिगण तीर्थ ही समझते हैं ॥ १८ ॥
गन्तुं निःश्रेयसं स्थानं
येऽभिवाञ्छन्ति देहिनः ।
शैवंपुराणममलं भक्त्या शृण्वन्तु ते
सदा ॥ १९ ॥
जो प्राणी परमपद को प्राप्त करना
चाहते हैं, उन्हें सदा भक्तिपूर्वक इस
निर्मल शिवपुराण का श्रवण करना चाहिये ॥ १९ ॥
सदा श्रोतुं यद्यशक्तो भवेत्स
मुनिसत्तम ।
नियतात्मा प्रतिदिनं शृणुयाद्वा
मुहूर्तकम् ॥ २० ॥
यदि प्रतिदिनं श्रोतुमशक्तो मानवो
भवेत् ।
पुण्यामासादिषु मुने
श्रूयाच्छिवपुराणकम् ॥ २१ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! यदि मनुष्य सदा
इसे सुनने में समर्थ न हो, तो उसे प्रतिदिन
स्थिर चित्त से एक मुहूर्त भी इसको सुनना चाहिये । हे मुने ! यदि मनुष्य प्रतिदिन
सुनने में भी अशक्त हो, तो उसे किसी पवित्र महीने में इस शिवपुराण
का श्रवण करना चाहिये ॥ २०-२१ ॥
मुहूर्तं वा तदर्द्धं वा तदर्द्धं
वा क्षणं च वा ।
ये शृण्वन्ति पुराणं तन्न तेषां
दुर्गतिर्भवेत् ॥ २२ ॥
जो लोग एक मुहूर्त,
उसका आधा, उसका भी आधा अथवा क्षणमात्र भी इस
पुराण का श्रवण करते हैं, उनकी दुर्गति नहीं होती ॥ २२ ॥
तत्पुराणं च शृण्वानः पुरुषो यो
मुनीश्वर ।
स निस्तरति संसारं दग्ध्वा
कर्ममहाटवीम् ॥ २३ ॥
हे मुनीश्वर ! जो पुरुष इस शिवपुराण
की कथा को सुनता है, वह सुननेवाला पुरुष
कर्मरूपी महावन को जलाकर संसार के पार हो जाता है ॥ २३ ॥
तत्पुण्यं सर्वदानेषु सर्वयज्ञेषु
वा मुने ।
शंभोः पुराणश्रवणात्तत्फलं निश्चलं
भवेत् ॥ २४ ॥
हे मुने! सभी दानों और सभी यज्ञों
से जो पुण्य मिलता है, वह फल भगवान् शिव
के इस पुराण को सुनने से निश्चल हो जाता है ॥ २४ ॥
विशेषतः कलौ शैवपुराणश्रवणादृते ।
परो धर्मो न पुंसां हि
मुक्तिसाधनकृन्मुने ॥ २५ ॥
हे मुने ! विशेषकर इस कलिकाल में तो
शिवपुराण के श्रवण के अतिरिक्त मनुष्यों के लिये मुक्तिदायक कोई अन्य श्रेष्ठ साधन
नहीं है ॥ २५ ॥
पुराणश्रवणं शम्भोर्नामसङ्कीर्तनं
तथा ।
कल्पद्रुमफलं सम्यङ्मनुष्याणां न
संशयः ॥ २६ ॥
शिवपुराण का श्रवण और भगवान् शंकरके नाम का संकीर्तन — दोनों ही मनुष्यों
को कल्पवृक्ष के समान सम्यक् फल देनेवाले हैं, इसमें सन्देह
नहीं है ॥ २६ ॥
कलौ दुर्मेधसा पुंसां
धर्माचारोज्झितात्मनाम् ।
हिताय विदधे शम्भुः पुराणाख्यं
सुधारसम् ॥ २७ ॥
कलियुग में धर्माचरण से शून्य
चित्तवाले दुर्बुद्धि मनुष्यों के उद्धार के लिये भगवान् शिव ने अमृतरसस्वरूप
शिवपुराण की उद्भावना की है ॥ २७ ॥
एकोऽजरामरः स्याद्वै पिबन्नेवामृतं
पुमान् ।
शम्भोः कथामृतं
कुर्यात्कुलमेवाजरामरम् ॥ २८ ॥
अमृतपान करने से तो केवल अमृतपान
करनेवाला ही मनुष्य अजर-अमर होता है, किंतु
भगवान् शिव का यह कथामृत सम्पूर्ण कुल को ही अजर-अमर कर देता है ॥ २८ ॥
सदा सेव्या सदा सेव्या सदा सेव्या
विशेषतः ।
एतच्छिवपुराणस्य कथा परमपावनी ॥ २९
॥
एतच्छिवपुराणस्य कथाश्रवणमात्रतः ।
किं ब्रवीमि फलं तस्य शिवश्चित्तं
समाश्रयेत् ॥ ३० ॥
इस शिवपुराण की परम पवित्र कथा का
विशेष रूप से सदा ही सेवन करना चाहिये, करना
ही चाहिये, करना ही चाहिये । इस शिवपुराण की कथा के श्रवण का
क्या फल कहूँ ? इसके श्रवणमात्र से भगवान् सदाशिव उस प्राणी
के हृदय में विराजमान हो जाते हैं ॥ २९-३० ॥
चतुर्विंशतिसाहस्रो ग्रन्थोऽयं
सप्तसंहितः ।
भक्तित्रिकसुसम्पूर्णः शृणुयात् तं
परादरात् ॥ ३१ ॥
यह [शिवपुराण नामक] ग्रन्थ चौबीस
हजार श्लोकों से युक्त है । इसमें सात संहिताएँ हैं । मनुष्य को चाहिये कि वह
भक्ति,
ज्ञान और वैराग्य से भली-भाँति सम्पन्न हो बड़े आदर से इसका श्रवण
करे ॥ ३१ ॥
विद्येश्वरसंहिताऽऽद्या द्वितीया
रुद्रसंहिता ।
तृतीया शतरुद्राख्या कोटिरुद्रा
चतुर्थिका ॥ ३२ ॥
पञ्चम्युमासहितोक्ता षष्ठी
कैलाससंहिता ।
सप्तमी वायवीयाख्या सप्तैवं संहिता
इह ॥ ३३ ॥
पहली विद्येश्वरसंहिता,
दूसरी रुद्रसंहिता, तीसरी शतरुद्रसंहिता,
चौथी कोटिरुद्रसंहिता और पाँचवीं उमासंहिता कही गयी है; छठी कैलाससंहिता और सातवीं वायवीयसंहिता —इस प्रकार
इसमें सात संहिताएँ हैं ॥ ३२-३३ ॥
ससप्तसंहितं दिव्यं पुराणं
शिवसंज्ञकम् ।
वरीवर्ति ब्रह्मतुल्यं
सर्वोपरिगतिप्रदम् ॥ ३४ ॥
सात संहिताओं से युक्त यह दिव्य
शिवपुराण परब्रह्म परमात्मा के समान विराजमान है और सबसे उत्कृष्ट गति प्रदान
करनेवाला है ॥ ३४ ॥
एतच्छिवपुराणं हि सप्तसंहितमादरात्
।
परिपूर्णं पठेद्यस्तु स जीवन्मुक्त
उच्यते ॥ ३५ ॥
जो मनुष्य सात संहिताओं वाले इस
शिवपुराण को आदरपूर्वक पूरा पढ़ता है, वह
जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ ३५ ॥
पुमानज्ञानतस्तावद्भ्रमतेऽस्मिन्भवे
मुने ।
यावत्कर्णगतं नास्ति पुराण
शैवमुत्तमम् ॥ ३६ ॥
हे मुने ! जबतक इस उत्तम शिवपुराण
को सुनने का सुअवसर नहीं प्राप्त होता, तबतक
अज्ञानवश प्राणी इस संसार-चक्र में भटकता रहता है ॥ ३६ ॥
किं श्रुतैर्बहुभिः शास्त्रं
पुराणैश्च भ्रमावहैः ।
शैवम्पुराणमेकं हि मुक्तिदानेन
गर्जति ॥ ३७ ॥
भ्रमित कर देनेवाले अनेक शास्त्रों
और पुराणों के श्रवण से क्या लाभ है, जबकि
एक शिवपुराण ही मुक्ति प्रदान करने के लिये गर्जन कर रहा है ॥ ३७ ॥
एतच्छिवपुराणस्य कथा भवति यद्गृहे ।
तीर्थभूतं हि तद्गेहं वसतां
पापनाशनम् ॥ ३८ ॥
जिस घर में इस शिवपुराण की कथा होती
है,
वह घर तीर्थस्वरूप ही है और उसमें निवास करनेवालों के पाप यह नष्ट
कर देता है ॥ ३८ ॥
अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।
कलां शिवपुराणस्य नार्हन्ति खलु
षोडशीम् ॥ ३९ ॥
हजारों अश्वमेधयज्ञ और सैकड़ों
वाजपेययज्ञ शिवपुराण की सोलहवीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकते ॥ ३९ ॥
तावत्स प्रोच्यते पापी
पापकृन्मुनिसत्तम ।
यावच्छिवपुराणं हि न शृणोति
सुभक्तितः ॥ ४० ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! कोई अधम प्राणी जब
तक भक्तिपूर्वक शिवपुराण का श्रवण नहीं करता, तभी
तक उसे पापी कहा जा सकता है ॥ ४० ॥
गङ्गाद्याः पुण्यनद्यश्च
सप्तपुर्य्यो गया तथा ।
एतच्छिवपुराणस्य समतां यान्ति न
क्वचित् ॥ ४१ ॥
गंगा आदि पवित्र नदियाँ,
[मुक्तिदायिनी] सप्त पुरियाँ तथा गयादि तीर्थ इस शिवपुराण की समता
कभी नहीं कर सकते ॥ ४१ ॥
नित्यं शिवपुराणस्य श्लोकं
श्लोकार्द्धमेव च ।
स्वमुखेन पठेद्भक्त्या
यदीच्छेत्परमां गतिम् ॥ ४२ ॥
जिसे परमगति की कामना हो,
उसे नित्य शिवपुराण के एक श्लोक अथवा आधे श्लोक का ही स्वयं
भक्तिपूर्वक पाठ करना चाहिये ॥ ४२ ॥
एतच्छिवपुराणं यो वाचयेदर्थतोऽनिशम्
।
पठेद्वा प्रीतितो नित्यं स
पुण्यात्मा न संशयः ॥ ४३ ॥
जो निरन्तर अर्थानुसन्धानपूर्वक इस
शिवपुराण को बाँचता है अथवा नित्य प्रेमपूर्वक इसका पाठमात्र करता है,
वह पुण्यात्मा है, इसमें संशय नहीं है ॥ ४३ ॥
अन्तकाले हि यश्चैनं शृणुयाद्भक्तितः
सुधीः ।
सुप्रसन्नो महेशानस्तस्मै यच्छति
स्वं पदम् ॥ ४४ ॥
जो उत्तम बुद्धिवाला पुरुष अन्तकाल
में भक्तिपूर्वक इस पुराण को सुनता है, उसपर
अत्यन्त प्रसन्न हुए भगवान् महेश्वर उसे अपना पद (धाम) प्रदान करते हैं ॥ ४४ ॥
एतच्छिवपुराणं यः
पूजयेन्नित्यमादरात् ।
स भुक्त्वेहाखिलान्कामानन्ते शिवपदं
लभेत् ॥ ४५ ॥
जो प्रतिदिन आदरपूर्वक इस शिवपुराण
का पूजन करता है, वह इस संसार में
सम्पूर्ण भोगों को भोगकर अन्त में भगवान् शिव के पद को प्राप्त कर लेता है ॥ ४५ ॥
एतच्छिवपुराणस्य
कुर्वन्नित्यमतन्द्रितः ।
पट्टवस्त्रादिना सम्यक् सत्कारं स
सुखी सदा ॥ ४६ ॥
जो प्रतिदिन आलस्यरहित हो रेशमी
वस्त्र आदि के वेष्टन से इस शिवपुराण का सत्कार करता है,
वह सदा सुखी होता है ॥ ४६ ॥
शैवं पुराणममलं शैवसर्वस्वमादरात् ।
सेवनीयं प्रयत्नेन
परत्रेहसुखेप्सुना ॥ ४७ ॥
यह शिवपुराण निर्मल तथा शैवों का
सर्वस्व है; इहलोक और परलोक में सुख
चाहनेवाले को आदर के साथ प्रयत्नपूर्वक इसका सेवन करना चाहिये ॥ ४७ ॥
चतुर्वर्गप्रदं शैवं पुराणममलं परम्
।
श्रोतव्यं सर्वदा प्रीत्या पठितव्यं
विशेषतः ॥ ४८ ॥
यह निर्मल एवं उत्तम शिवपुराण धर्म,
अर्थ, काम और मोक्षरूप चारों पुरुषार्थों को
देनेवाला है, अतः सदा प्रेमपूर्वक इसका श्रवण एवं विशेष रूप
से पाठ करना चाहिये ॥ ४८ ॥
वेदेतिहासशास्त्रेषु परं श्रेयस्करं
महत् ।
शैवं पुराणं विज्ञेयं सर्वथा हि
मुमुक्षुभिः ॥ ४९ ॥
वेद, इतिहास तथा अन्य शास्त्रों में यह शिवपुराण विशेष कल्याणकारी है — ऐसा मुमुक्षुजनों को समझना चाहिये ॥ ४९ ॥
शैवं पुराणमिदमात्मविदां वरिष्ठं
सेव्यं सदा परमवस्तु सता समर्च्यम् ।
तापत्रयाभिशमनं सुखदं सदैव
प्राणप्रियं विधिहरीशमुखामराणाम् ॥ ५० ॥
यह शिवपुराण आत्मतत्त्वज्ञों के
लिये सदा सेवनीय है, सत्पुरुषों के लिये
पूजनीय है, तीनों प्रकार के तापों का शमन करनेवाला है,
सुख प्रदान करनेवाला है तथा ब्रह्माविष्णु-महेशादि देवताओं को
प्राणों के समान प्रिय है ॥ ५० ॥
वन्दे शिवपुराणं हि सर्वदाऽहं
प्रसन्नधीः ।
शिवः प्रसन्नतां यायाद्दद्यात्स्वपदयो
रतिम् ॥ ५१ ॥
ऐसे शिवपुराण को मैं प्रसन्नचित्त
से सदा वन्दन करता हूँ । भगवान् शंकर मुझपर प्रसन्न हों और अपने चरणकमलों की भक्ति
मुझे प्रदान करें ॥ ५१ ॥
इति श्रीस्कान्दे महापुराणे
शिवपुराणमाहात्म्ये तन्महिमवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराण के अन्तर्गत शिवपुराणमाहात्म्य में उसकी महिमा वर्णन नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥
शेष जारी..............शिवमहापुराण माहात्म्य – अध्याय ०२
0 Comments