त्रिवेणी स्तोत्र
त्रिवेणी स्तोत्र- तीर्थराज प्रयाग
में जहाँ गङ्गा यमुना सरस्वती मिलती हैं उसे त्रिवेणी कहते हैं । त्रिवेणी का
वर्णन वेदों में भी आता है। स्त्रियों का सौभाग्य भी वेणी में ही होता है। चोटी को
तीन लट पृथक करके गुथते हैं । पहिले तो वे तीनों पृथक-पृथक दीखती है, किन्त गुथने
पर एक छिप जाती है दो ही दिखायी देती हैं। इसी प्रकार गङ्गा,
यमुना सरस्वती तीनों मिलने पर सरस्वती गुप्त हो जाती है गङ्गा यमुना
की दो धारा ही दिखायी देती हैं।
यह पिण्ड तथा ब्रह्माण्ड त्रित्व पर ही अवलम्बित है। शरीर में भी इडा, पिङ्गला और सुषुम्ना जहाँ मिलती हैं, उसे त्रिवेणी कहते हैं। दोनों भौंहों के बीच में यह स्थान है। जहाँ ये मिलती हैं, उसे युक्त त्रिवेणी कहते हैं, जहाँ से फिर तीनों धारायें पृथक होती हैं उसे मुक्त त्रिवेणी कहते हैं। कलकत्ते के पास गङ्गा यमुना सरस्वती तीनों धारायें फिर पृथक होती है। वह स्थान भी त्रिवेणी के नाम से विख्यात है 'त्रिवेणी' नाम का वहाँ स्टेशन भी है। किन्तु प्राधान्य युक्तत्रिवेणी का ही है। जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड है। इसीलिये ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सत्व, रज, तम इनसे ही सृष्टि होती है। त्रिवेणी में आधिभौतिक, आधिदैविक, और आध्यात्म ये तीनों ही भाव हैं। त्रिवेणीदेवी से ही सृष्टि होती है। त्रिवेणी ही सृष्टि की रक्षा करती हैं और अन्त में त्रिवेणी ही सबका संहार करती है। विश्व की सष्टि, स्थिति, लय त्रिवेणी पर ही अवलम्बित है। त्रिवेणी की एक उपासना ही शक्ति की उपासना है। यही बात इस स्तोत्र में बतायी गयी है। यह ५४ श्लोकों का प्राचीन स्तोत्र बहुत ही दिव्य है, इसकी रचना कब हुई और किसने की पता नहीं। किन्तु इसमें वर्णित भाव अतीव दिव्य है और त्रिवेणी के यथार्थ रूप को बतलाते हैं।
त्रिवेणी स्तोत्रम्
॥अथ त्रिवेणी स्तोत्रम्॥
श्रीवेणीमाधवायनमः ॥
श्रीत्रिवेणीदेव्यैनमः॥
ॐ काराब्ज निवासमत्त मधुपामुद्यान
पीठस्थितां ।
ॐ कारागण काम कल्पलतिकामोजीस्वनी
मौषधीम् ॥
ॐ कारेश्वर केवल प्रिय सखी मोंकार
नाद प्रियाम् ।
ॐ कार प्रभवां विचित्र विभवां देवीं
त्रिवेणी भजे ॥१॥
भावार्थ-जो ॐकार रूपी कमल वाटिका के
पीठ पर मस्त भौरों की तरह निवास करती हैं, ॐकार
के उपासकों की कामना सिद्ध करने के लिये कल्पवृक्ष के समान हैं, तेजोवर्धक औषधि के तुल्य हैं, ॐकारेश्वर (कृष्ण ) की
एकमात्र प्रियसखी हैं, जिन्हें ॐ कार शब्द प्रिय है, ॐ कार से जिनकी उत्पत्ति हुई है और जो विचित्र ऐश्वर्यशालिनी हैं, ऐसे त्रिवेणी देवी की मैं वन्दना करता हूँ ।।१।।
अद्वैतांमभिवांक्षितार्थ फलदाम
ब्याहता मव्ययाम् ।
अष्टैश्वर्य करामनन्त
जयदामब्जस्थितामक्षरीम् ॥
आब्धि ग्रासनुतामशेष जननी मर्काग्नि
कोटिप्रभाम् ।
अज्ञानान्ध हरामपार करुणां देवीं
त्रिवेणी भजे ॥२॥
भावार्थ-जो अद्वैत स्वरूपा,
मनोवांछित फलदायिनी, अव्याहत गतिवाली, अविनाशिनी, आठों सिद्धियों को देनेवाली, सदा विजय प्राप्त करानेवाली, कमल पर स्थित अक्षर
स्वरूपा हैं, जिनकी स्तुति अगस्तजी किया करते हैं, जो जगजननी
हैं करोडों सूर्य एवं अग्नि के समान चमकनेवाली हैं, अज्ञान
रूपी अन्धकार का नाश करनेवाली हैं, और जो अपार करुणामयी हैं,
ऐसे त्रिवेणी देवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥२॥
आम्नायागम सेविताघि युगलामापीनुत्तुङ्गस्तनीम्
।
आपोज्योति रसाभिपूर्ण लहरी मानंद
संधायिनीम्॥
आधारामरुणामनेक कुशलामाकार
संशोभिताम् ।
आदिक्षान्त समस्त वर्ण निलयां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥३॥
भावार्थ-जिनके दोनों चरणों की सेवा
वेद और तन्त्रशास्त्र किया करते हैं, स्तन
स्थूल एवं उत्तुङ्ग हैं, जिनका जल निर्मल स्वादिष्ट तथा
तरङ्गों से युक्त है, जो आनन्द देनेवाली हैं, सबको धारण करनेवाली हैं, जिनका वर्ण लाल है, जो अनेक कार्यों में कुशल हैं, जिनकी आकृति सुन्दर
है, और जो 'अ' से
लेकर 'क्ष' तक के सभी अक्षरों के आधार
है, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥३॥
इष्टानिष्ट विवर्जिता मिह पर
स्वामैक्य सौख्य प्रदां ।
इच्छासिद्धि विलास वैभव परामिच्छा
क्रिया संयुताम् ।।
इच्छा शक्ति धनुश्शराभि दधतीं
मिन्द्रार्चिता मिंदिराम् ।
इष्टावाप्त वरिष्ठ वाक् प्रकरिणीं
देवी त्रिवेणींभजे ॥४॥
भावार्थ-जो अच्छे और बुरे अपने और
पराये के भेदभाव से दूर है। तथा सुख प्रदान करानेवाली एकमात्र स्वामिनी है,
इच्छा शक्ति विलास-वैभव से सम्पन्न यथेच्छ आचरण करनेवाली हैं,
इच्छाशक्ति रूपी धनुष और बाण को धारण करती है, इन्द्र जिनकी पूजा करते हैं, जो धन तथा मनोकामना
पूर्ण करती है। जिनकी वाणी बड़ी ही ओजस्विनी है, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की में वन्दना करता हूँ ॥४॥
ईपत्स्मरे विराजमान वदना मीशान
दैवार्चिताम् ।
ईशित्वादि समस्त सिद्धि सहिता
मींकार वर्णातिकाम् ॥
ईशां काम कलां विशुद्धमनसां
विश्वेश्वरीमीश्वरीम् ।
ईषंत्री सकलार्थ दीपन करीं देवीं
त्रिवेणी भजे ॥५॥
भावार्थ-जिनका मुख मन्द मन्द
मुस्कान से सुशोभित है, शङ्कर जिनका पूजन
करते हैं, जो 'ईशित्व' (सबको वश में रखना) आदि सम्पूर्ण सिद्धियों से युक्त हैं, जिनका स्वरूप इकार अक्षरमय है, जो सबकी स्वामिनी है,
काम की कला हैं, पवित्र अन्तःकरण वाली हैं,
विश्व की शासिका हैं, ईश्वरी हैं, तथा सकल पदार्थों को प्रकाशित करनेवाली, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की में वन्दना करता हूँ ॥५॥
उत्फुल्लारुण पद्मनेत्र युगला
मुद्दण्ड दैत्यापहाम् ।
उद्योतोज्ज्वल तीर्थराज रमणी
मुल्लास तेजोवतीम् ॥
उत्कर्षाभयदान पेशलकरा मुच्छास
शक्तिप्रदाम् ।
म उर्वस्यार्चित पादुकां पर कलां
देवीं त्रिवेणींभजे ॥६॥
भावाथ-प्रस्फुटित लाल कमल के समान
जिनके नेत्र हैं, जो उद्दण्ड दैत्यों
को नाश करनेवाली हैं, प्रभा से विलसित हैं, तीर्थराज प्रयाग की प्रिया है, उल्लास और तेज से
युक्त हैं, उत्कर्ष एवं अभयदान देने में सिद्धहस्त हैं,
जीवनशक्ति प्रदान करनेवाली हैं, जिनके खड़ाऊँ की
पूजा उर्वशी करती है तथा जो उत्कृष्ट कला स्वरूपा हैं, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥६॥
ऊर्ध्वश्रोत परा सरां त्रिनयना
मूर्ध्वस्वरा मूर्ध्वगाम ।
ऊर्ध्वाश्वास सुषुम्नमार्ग गमना मूर्ध्वेज्वल
ज्वालिनीम् ॥
ऊर्ध्वाधः परिपूर्णधाम लहरी
मूर्ध्वप्रभां भास्वराम् ।
ऊर्ध्वस्थान निवासिनीं शुभ करीं
देवीं त्रिवेणींभजे ॥७॥
भावार्थ-जो ऊर्ध्वगामी प्रवाह से
युक्त हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जिनका स्वर ऊर्ध्व है, जो ऊर्ध्वगामिनी है, ऊध्र्व-उच्छवास एवं सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग से गमन करनेवाली हैं, ऊपर को उठने वाली भास्वर ज्वाला से दैदीप्यमान है, ऊपर
और नीचे अत्यन्त तेज तरङ्गों से व्याप्त है, ऊध्र्व
कान्तिवाली है, जाज्वल्यमान हैं, ऊर्ध्व स्थान में निवास
करनेवाली है, तथा शुभ करनेवाली हैं, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥७॥
ऋक्सामैरभि वन्दितां ऋषिगणैर्ध्येयां
जगत्मोहिनीम् ।
ऋत्विक श्रोत्रिय यज्ञ सेवित तरां
ऋग्दुःख संहारिणीम् ॥
ऋग् घोरासुर मर्दिनीं ऋतुमती
सिंहासनाधीश्वरीम् ।
ऋकक्षामार्चित् पादपद्म युगलां
देवीं त्रिवेणींभजे ॥८॥
भावार्थ- ऋग्वेद और सामवेद जिनकी
अभिवन्दना करते हैं, ऋषिवन्द जिनका
ध्यान करते हैं, जो जगत को मोह में डाल देती है, ऋत्विक एवं श्रोत्रिय लोग यज्ञ द्वारा जिनकी उपासना करते हैं, जो ऋचाओं द्वारा दुःख का संहार तथा भयङ्कर असुरों का मर्दन करनेवाली हैं,
ऋतुमती हैं, सिंहासन की अधीश्वरी हैं, और जिनके चरणारविन्दों की पूजा ऋग्वेद एवं सामवेद किया करते हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ।।८।।
ऋृत्य कल्पित नासिकां ऋृजुकरां ऋृङ्कारभूषोज्वलाम्
।
ऋृदिव्यामृत पूर्ण हेम लहरीं ऋृवर्ण
सञ्चारिणीम् ॥
ऋृकाराक्षर रूपिणी गुरुतरां ऋृदीर्घ
सारांगणाम् ।
ऋृनित्यां ऋृगणां भयापहरिणीं देवीं त्रिवेणींभजे
॥९॥
भावार्थ-जिनकी नासिका ऋ अक्षर के
समान है,
कल्याण कारिणी हैं, जो ऋकार रूप आभूषण से
प्रकाशमान हैं, ऋकार रूप दिव्य एवं अमृतपूर्ण स्वर्ण लहरी के
समान हैं, ऋवर्ण के साथ संचरण करनेवाली है, ऋकार अक्षर स्वरूपा है, अतिशय विशाल है, दीर्घ ऋ कार
की सार है, ऋ अक्षर में नित्य रूप से अवस्थित है, ऋृ कार ही गण है, भय को दूर करनेवाली है, ऐसे त्रिवेणीदेवी को मैं वन्दना करता हूँ ॥
लृब्धद्रोह विनाश हेतु चतुरां लृ लॄ
कपोलाक्षरां।
लॄत्त प्रेत पिशाच लुंठन करां लृ लॄ
कला शोभिताम् ॥
लृप्तां लृप्त विहीन विद्रुम लतां
लोकेषु विख्यातिनीम् ।
लृ लॄ निर्मित नीलकान्ति चिकुरां
देवीं त्रिवेणींभजे ॥१०॥
भावार्थ-जो ईष्या और द्रोह को नष्ट
करने में पटु हैं, जिन्हें कपोल से
उच्चरित होनेवाले लृ और लॄ अक्षर प्रिय हैं, जिनके हाथ भूत,
प्रेत और पिशाच के लूटने में दक्ष हैं, जो लृ
और लॄ अक्षरों की कला से सुशोभित हैं, जो जगत् विख्यात हैं,
जिनके केश लृ और लॄ अक्षरों की नीलकांति से परिपूर्ण हैं, ऐसे त्रिवेणी देवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥१०॥
लॄकारां परम प्रकाश लहरी लॄकार
मध्येस्थिताम् ।
लोभ क्रोध निराकरां सुरुचिरां
लावण्य नीलालकाम् ॥
लीला लब्ध यशस्विनी स्थिरतरां लॄङ्कार
नित्यार्चिताम्।
लक्षार्क
प्रतिम प्रदीप कलिकां देवीं त्रिवेणींभजे ॥११॥
भावार्थ-जो लॄ अक्षर से युक्त हैं,
महाप्रकाश की तरङ्ग रूप हैं, लॄ कार के बीच
में रहनेवाली हैं, लोभ और क्रोध का निवारण करनेवाली है.
अत्यन्त सुंदरी है, घुघराले तथा नीले रङ्ग के बालों से
सुशोभित हैं, अपने लीलाओं के द्वारा यश प्राप्त करने वाली
हैं, अत्यन्त स्थिर रहनेवाली हैं, लॄ
कार से नित्य पूजित होने वाली हैं, तथा लाखों सूर्य के समान
देदीप्यमान है, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥
एकप्राभव शालिनीं निज सुखामेकाग्र
चित्तप्रदाम् ।
एकां निश्चल योगिनीमनुपमा
मेकाक्षरां शाश्रिताम् ॥
एकाकार विराजमान तरुणी मेक
प्रतापाज्वलाम् ।
एकाभां नवयावर्काद चरणां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥१२॥
भावार्थ-जो महा प्रभुता से सम्पन्न
हैं,
अपने आप आनंदित रहनेवाली हैं, चित्त को एकाग्र
करनेवाली हैं, अकेली रहनेवाली हैं, निश्चल
होकर योगाभ्यास करनेवाली हैं, जो अनुपम हैं, एकाक्षर के भाग पर आधारित है, एक रूप में सदा युवती
है, अद्भुत प्रताप से युक्त हैं, विशिष्ट
शोभावाली हैं, चरणों में महावर लगाये हुई हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥१२॥
ऐंकारांरुण वह्निचक्र निलया
मैरावताधिष्ठिताम् ।
ऐंकारांकुर दीप्त काश्चनलता मैंकार
वर्णात्मिकाम् ॥
ऐंकाराम्बुधि चन्द्रिका मसुरहा
मैंकार पीठस्थिताम् ।
ऐंकारासन गर्भिता नलशिखां देवीं त्रिवेणींभजे
॥१३॥
भावार्थ-अग्नि समूहों को धारण करनेवाली ऐंकार के समान लाल, तथा ऐरावत पर आसीन ऐंकार के अंकुर के समान प्रकाशवती स्वर्णलता है, ऐंकार अक्षर स्वरूपा हैं, ऐंकार रूपी समुद्र में चाँदनी के समान, असुरों को नाश करनेवाली, ऐंकार की पीठ पर विराजमान, ऐंकार रूपी आसन पर स्थित अग्निशिखा है, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।
औन्नत्याम्मभय प्रदान
चतुरामौघत्रयाराधिताम् ।
औद्धत्यामघ शोषणां सुविदुषामोघोध
बुद्धिप्रदाम् ॥
औद्गीतां सकलैः पुराण पुरुषैःर्वैदै
पदैस्स क्रमैः ।
ओंकाराक्षर राजराज्य वशगां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥१४॥
भावार्थ-जो उन्नति और अभय प्रदान
करने में चतुर हैं, गङ्गा, यमुना, सरस्वती जिनकी उपासना करती हैं, जो लोगों की उद्दण्डता और पापों का नाश करती हैं, विद्वानों
को बुद्धि एवं आनन्द प्रदान करती हैं, वेद-पुराण जिनकी महिमा
गाते हैं, जो औकार अक्षर मन्त्र को वशीभूत हैं। ऐसे
त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥१४॥
अंबाम्बर मध्य देश ललिता मंबात्रया
राधिताम् ।
अंबोजोद्भव यागसिद्धवरदा मंभोज
पत्रेक्षणाम् ॥
अंतर्ध्यान विधान तत्व विषदांमंगा
सुधी मङ्गणाम् ।
अङ्गस्थामनुभूति भावन रतां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥१५॥
भावार्थ-जो मध्य आकाश में शोभायमान होती हैं, तीनों महाशक्तियाँ जिनकी आराधना करती हैं, जो ब्रह्माजी के यज्ञ को सफल करती एवं वरदान देती हैं, जिनकी आँखें कमलपत्र के समान है, जो अन्तर्ध्यान होने की कला में निपुण हैं, जिनकी उपासना सुधीगण किया करते हैं, जो अनुभूति एवं ध्यान में लीन रहती हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।
अर्कामाल निरूपणाम निमिषा
मध्यात्मविद्यां सुधाम् ।
आद्यामक्षतरामनुग्रहकरां क्षीराब्धि
मध्यस्थिताम् ॥
अन्तर्याग तपः प्रसन्न सुमुखी
मष्टाङ्ग योगीश्वरीम् ।
आचार्यामवधूतचर्य महिमां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥१६॥
भावार्थ-जो सूर्य के समान है,
आत्मचिन्तन में रत रहती है, जिनका पलकें नहीं गिरती, जो आध्यात्मविद्या की अमृत हैं, सबकी आदि हैं,
धरती की धुरी हैं, दयामयी हैं, क्षीरसागर के मध्य में निवास करनेवाली हैं, यज्ञ और
तप से प्रसन्न रहनेवाली है, अष्टाङ्ग योग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और
समाधि) की स्वामिनी है, अवधूताचार्य, सन्यासी
लोग जिनकी महिमा गाते हैं, ऐसे त्रिवेणादेवी की मैं वन्दना
करता हूँ ॥
कर्पूरागुरु कुंकुमाङ्कितकुचां कर्पूर
वर्णस्थिताम् ।
कष्टोत्कृष्ट निकृष्ट कर्मदहनां
कामेश्वरी कामिनीम् ॥
कामाक्षीं करुणा रसार्द्र हृदयां
कल्पान्तर स्थायिनीम् ।
कस्तूरी तिलकाभिराम निलयां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥१७॥
भावार्थ--जिनके स्तन कर्पूर अगर और
केसर से अङ्कित हैं, जिनका वर्ण कपूर के
समान शुभ्र हैं, जो कष्टकारक उत्कृष्ट एवं निकृष्ट कर्मों को
जलानेवाली है, काम की ईश्वरी कामिनी है, कामाक्षी हैं, जिनका हृदय करुण रस से सराबोर है,
जिनका कल्पान्तर होने पर भी नाश नहीं होता, जो
कस्तूरी तिलक से सुशोभित तथा सुंदरता की धाम हैं, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की मैं बंदना करता हूँ ॥१७॥
खस्थां खङ्गधरां खरासुर हतां
खट्वाङ्ग हस्तांखगाम् ।
खट्वस्थां खललोक नाशनकरां खर्वी खचेन्द्रार्चिताम्
॥
खाकारां खग बाहनार्चितपदां
खण्डेन्दु भूषोज्ज्वलाम् ।
ख व्याप्तां कलिदोष खंडनकरी देवीं
त्रिवेणींभजे ॥१८॥
भावार्थ-जो आकाश में स्थित होती हैं, खड्ग को धारण करती है, दुष्ट असुरों को मारनेवाली हैं, खट्वांग नामक अस्त्र को हाथ में रखती है, आकाश में विचरण करनेवाली है, खट्वांग पर आसीन हैं, दुष्टों का नाश करनेवाली है, कद में छोटी हैं, गरुड़ द्वारा पूजित हैं, आकाश जैसी विस्तृत आकृति वाली हैं, ब्रह्मा से पूजित चरणोंवाली हैं, अर्धचन्द्र रूपी आभूषण से उद्भासित है, आकाश में व्याप्त है तथा कलियुग के दोषों का नाश करनेवाली हैं,ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।
गायत्रीं गरुडध्वजां गगनगां गंधर्व
गानप्रियाम् ।
गंभीरां गज-गामिनीं गिरिसुतां
गंधाक्षतालंकृताम् ॥
गङ्गा गौतम गर्ग सन्नुतपदां गां
गौतमी गोमतीम् ।
गौरी गर्व गरिष्ठ यौवनवतीं देवी
त्रिवेणीं भजे ॥१९॥
भावार्थ--जो अपने गायकों ( भक्तों)
की रक्षा करती हैं, गरुड़ जिनका चिन्ह
है, जो आकाश में गमन करती हैं, जिन्हें
गन्धों का संगीत प्रिय है, जो गम्भीर है, हाथी के समान मन्द गति से चलती हैं, पर्वत की पुत्री
( पार्वती ) है, गन्ध अक्षतों से अलंकृत है, गङ्गा हैं, गौतम और गर्गमुनि से वन्दित चरणोंवाली
हैं, गोस्वरूपा हैं, गौतमी हैं,
गोमती हैं, गौरी हैं, और
गर्व एवं गुरुता से परिपूर्ण जिनका यौवन है ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं बंदना करता
हूँ ॥
घण्टा शङ्खधरां घनस्तनभरां घंटा
निनादप्रियाम् ।
धर्मघ्नां करुणाकटाक्ष लहरी
घोरासुरोचाटिनीम् ॥
घांघ्राणां घटिकां प्रसिद्ध घुटिकां
घ्रूणांघ्रुणोचिद्घनाम् ।
घातां दुष्ट दुरासदां घनकचां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥२०॥
भावार्थ-जो घण्टा और शङ्ख धारण करती
हैं,
जिनके स्तन सघन एवं स्थूल हैं, जिन्हें घण्टा
का शब्द प्रिय है, जो पाप का नाश करनेवाला है, दया-दृष्टि को लहर फेंकनेवाली है, भयङ्कर राक्षसों
का उच्चाटन करनेवाली हैं, जिनकी नासिका लम्बी है, जो ज्ञान स्वरूपा है, जिनके पास दुष्ट लोग नहीं
पहुँच सकते और जिनके बाल सधन हैं. ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥२०॥
ज्ञानाज्ञान विवर्धिनी गुणनिधिं
श्रीराजराजेश्वरीम् ।
ज्ञानानन्द विचार मुक्तिफलदां
ज्ञानेश्वरीं गोचरीम् ॥
ज्ञानाक्षी सुजनां सुरासुर नतां
प्रज्ञान दीपांकुराम् ।
ज्ञानाढयां कमलां कलंकरहितां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥२१॥
भावार्थ-जो ज्ञान और अज्ञान को
बढ़ानेवाली हैं, गुणों की निधि हैं, राजाओं के राजा की भी शासिका हैं, ज्ञान आनन्द,
विवेक एवं मोक्ष को देनेवाली हैं, ज्ञानेश्वरी
हैं, इन्द्रियगम्य है, ज्ञान की नेत्र
हैं, सुन्दर व्यक्तित्व से पूर्ण हैं, सुर
तथा असुरों की आराधनीया है, प्रज्ञान रूपी दीपक की ज्योति
हैं, ज्ञान से सम्पन्न हैं, लक्ष्मी
स्वरूपा एवं कलङ्क से रहित हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना
करता हूँ ॥२१॥
चन्द्रार्काग्नि लसत्रिनेत्र कलितां
चक्राधिराजस्थिताम् ।
चन्द्राग्निस्तन भारशोभनवती
चंद्रार्क ताराङ्किनीम् ॥
चेतः सद्भनि योगिनां विहरिणीं
चित्सन्न मोदप्रदाम् ।
चक्राधीश्वर सद्ममध्यनिलयां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥२२॥
भावार्थ- जो चन्द्रमा,
सूर्य और अग्नि रूपी तीन नेत्रों से सुशोभित हैं, तीर्थराज में स्थित हैं, चन्द्र और अग्नि रूपी
स्तनों के भार से सुशोभित हैं, चन्द्र सूर्य और तारा के
चिन्हों से युक्त हैं, योगियों के चित्त में विहरण करनेवाली
हैं, ज्ञान तथा आनन्द को देनेवाली और तीर्थराज प्रयाग के भवन
में निवास करनेवाला हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना
करता हूँ ।।
छायामात्मविदां चराचर गतां
छत्राधिराजेश्वरीम् ।
छंदोभिर्विविधैर्वरैस्सहचरां चर्चा
भयच्छेदिनीम् ।।
छन्नास्व प्रभया समस्त जगतां
चामीकरा भासिनीम् ।।
छिन्नामासुर कोटि कोटि शिरसां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥२३॥
भावार्थ-जो आत्मज्ञानियों की छाया
हैं,
चराचर में व्याप्त हैं, छत्र सुशोभित
साम्राज्ञी हैं, विविध प्रकार के उत्तम छन्दों के साथ
चलनेवाली हैं, स्मरणमात्र से भय का नाश करनेवाली हैं,
अपनी प्रभा से सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करनेवाली हैं, सुवर्ण के समान चमकनेवाली हैं, और करोड़ों असुरों के
सिरों को छेदन करनेवाली हैं, उन त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना
करता हूँ ।।२३।
जम्बूद्वीप निवासिनीं जयकरीं
जाड्यान्धकारापहाम् ।
जल्पांजन्म विवर्जितां जलधिजां
ज्वाला जगज्जीवनीम् ॥
जाग्रत स्वप्न सुषुप्तिषु स्फुटतरां
ज्वालामुखीजानकीम् ।।
जंभाराति समर्चिताङिघ्र युगलां
देवीं त्रिवेणींभजे ॥२४॥
भावार्थ-जो जम्बूद्वीप की निवासिनी
हैं,
जय प्रदान करने वाली हैं, अज्ञानता रूपी
अन्धकार का नाश करनेवाली हैं, स्पष्ट वक्ता हैं, जन्म-मरण से रहित हैं, समुद्र में उत्पन्न हैं,
ज्वाला स्वरूपा हैं, संसार को जिलानेवाली हैं,
जागृति स्वप्न एवं सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में प्रकाशित होनेवाली
हैं, ज्वालामुखी हैं, जानकी हैं,
और इन्द्र जिनके चरणकमलों की पूजा करते हैं, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥२४॥
ॐकारामुष लोचनामुलमुलां जाड्यान्ध
कारापहाम् ।
ॐ ॐकार उषध्वजाम्मुनमनां जालंध्र
पीठस्थिताम् ॥
ॐ ॐ ॐ कृत नुपुरां चित्तपदां
जाज्वल्य मानप्रभाम् ।
कान्तस्थां झटिति प्रसाद करणीं देवीं
त्रिवेणींभजे ॥२५॥
भावार्थ-जो ॐकार स्वरूपा हैं,
जिनके नेत्र दीप्तिमान हैं, जो उल-उल शब्द से
युक्त हैं, अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करनेवाली हैं,
ॐकार जिनका ध्वज है, जो उन-उन शब्द से युक्त
है,जालन्ध्र के पीठ पर स्थित है, ॐॐॐ शब्द करनेवाली पायल से
जिनके चरण सुशोभित हैं, जिनकी कान्ति जाज्वल्यम्गन है,
जो रमणीय वाहन पर स्थित हैं, जो शीघ्र प्रसन्न
होनेवाली हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ॥२५॥
या योकार विराजितां ययनखाँ
निर्मानसीं निष्कृयाम् ।
निंद्रां निर्विषयां चिदम्बर समां
निर्मत्सरां निर्ममाम् ॥
निर्द्वन्दां प्रथमां प्रबंधकरणी
पञ्चाक्षरी पार्वतीम् ।
निश्चिन्तां विमलां नरेन्द्र विन्रुतां
देवीं त्रिवेणींभजे ॥२६॥
भावार्थ-जो 'या' 'या' के स्वरूप में
विराजमान हैं, 'य' और 'य' के समान नखवाली है, मन की (
चञ्चल ) वृत्ति से रहित हैं, क्रिया से शून्य है, निद्रा और विषयों से रहित है, चित्स्वरूपा है, आकाश
के समान स्वच्छ हैं, ईष्या एवं ममता से रहित हैं, निर्द्वद्व हैं, आद्याशक्ति है, सबका प्रबन्ध करनेवाली हैं, "नमःशिवाय' के पञ्चाक्षर मन्त्र में निवास करनेवाली हैं, पार्वती
हैं, निश्चिन्त हैं, राजाओं से स्तुत्य हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥
टंकाभासुर भूभृतां विजयिनी
विश्वाधिकां सौख्यदां ।
विख्यातां वरवीर वाग्भवलतां
ब्राग्बोधिनी वासुकीम् ॥
विश्वामित्र समर्चितां विषहरां
विद्याश्रितां वैष्णवीम् ।
वीरामर्जुन भीमधर्म विन्रुतां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥२७॥
भावार्थ-जो केवल शब्द नाद से
राक्षसों और राजाओं पर विजय प्राप्त करनेवाली हैं, विश्ववरेण्य हैं, सुखदायिनी हैं, प्रसिद्ध हैं, श्रेष्ठ वीरों की वाणी रूपी लता है,
वाणी का बोध करानेवाली हैं, वासुकी हैं, विश्वामित्र से पूजित हैं, विषों का हरण करनेवाली
हैं, विद्या से सेवित हैं, वैष्णवी हैं,
वीर अर्जुन और भीम के धर्म से समन्वित हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी
की मैं वन्दना करता हूँ ॥२७॥
टंताराधिप सेवितांघ्रि युगलां
बैकुण्ठ लोकाधिपाम् ।
विज्ञानां विरजां विशाल महिमां
वीणाधरां वारुणीम् ॥
वाणीवासव वन्दितां सुखकरां
वाग्बोधिनीं वामनाम् ।
कालां काम कलावती कविन्रुतां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥२८॥
भावार्थ-जिनके दोनों चरणों की सेवा
चन्द्रमा करते हैं, जो वैकुण्ठलोक की
स्वामिनी हैं, विज्ञान स्वरूपा हैं, कालुष्य
से रहित हैं, जिनकी महिमा अपार है, जो
वीणा को धारण करती हैं, वरुण की प्रिय हैं, सरस्वती एवं इन्द्र से वन्दित हैं, सुख देनेवाली हैं,
वाणी का बोध करानेवाली हैं, सुंदरी हैं,
काल स्वरूपा है, कामकला में निपुण हैं, तथा
कवियों द्वारा स्तुत्य हैं, ऐसे त्रिवेणी देवी की मैं वन्दना
करता हूँ ॥२८।।
डाकिन्यादि भिरावृतां धवलिनीं
डाल्यादि संसेविताम् ।
रक्षो द्रावणकारिणीं दनुजहां
ॐकारिणी डामरीम् ॥
दीर्घाङ्गी दिविजां दिनेश विन्रुतां
दीनार्तिविच्छेदिनीम् ।
दुर्गा दुर्गति नाशिनीं दुरति हां
देवीं त्रिवेणींभजे ॥२९ ॥
भावार्थ-जो डाकिनी आदि से घिरी रहती
हैं,
जिनका वर्ण उज्वल है, डाला (मातृकागण) आदि
जिनकी सेवा करती हैं, जो राक्षसों का संहार करती है, दानवों का विनाश करती हैं, ॐकार शब्द का उच्चारण करती
हैं, डामर (तन्त्रशास्त्र) जिन्हें प्रिय है, लम्बे अङ्गोवाली हैं, दिव्या है, सूर्य जिनकी प्रार्थना करते हैं, जो दीन दुखियों की
पीड़ा हरनेवाली हैं, दुर्गा स्वरूपा दुखों का नाश करनेवाली
है, तथा पापों को भञ्जन करनेवाली है, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥२९॥
ढ़क्कानाद विनोदिनी विभवदां दारिद्रय
संहारिणीम् ।
ढ़िं ढ़िं भूषण भूषितां ढ़मढ़मा ढ़ंकार
वर्णात्मिकाम् ।।
ढ़ं ढ़ां ढ़िं ढ़िम वर्तिनीं ढ़ल ढ़लांधम्मिल्ल
संशोभितां ।
सायुज्यां पुरुषार्थ साधनकरीं देवीं
त्रिवेणींभजे ॥३०॥
भावार्थ-जो डमरू के शब्द से मनोरंजन
करनेवाली हैं, धन देनेवाली हैं, दरिद्रता का नाश करानेवाली है, ढ़िंम ढ़िंम शब्द
करनेवाले आभूषणों से विभूषित हैं, ढ़म ढ़मा ढ़म शब्द करनेवाले
अक्षरों की आत्मा हैं, ढ़ं ढ़ां ढ़िं ढ़िं शब्द के साथ नृत्य
करनेवाली हैं, जूड़े से सुशोभित हैं, और
सायुज्य मोक्ष एवं पुरुषार्थ को सिद्ध करनेवाली हैं, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥३०॥
णकारां नवनान्त दिव्य हृदयां
नीलाम्बरालंकृताम् ।
नीलां नीरज लोचनां निगमगां
नीरेश्वरीं नीरजाम् ॥
नीलाङ्गी नल सेवितां कुवलयां
कोलाहलां कोमलाम् ।
नीलाराधित पाद पङ्कज युगां देवीं त्रिवेणींभजे
॥३१॥
भावार्थ-जिनके नाम में 'ण' या 'न' अक्षर और 'त' एवं 'व' अक्षर जुड़े हुए हैं, जिनका
हृदय दिव्य है, जो नीलवन से सुशोभित है, जिनका वर्ण नील है, नेत्र कमल के समान हैं, वेदों में जिनकी गति है, जो जल की स्वामिनी है,
जल से उत्पन्न हैं, नल नामक (बन्दर ) से सेवित
हैं, कमल के समान हैं, कोलाहल प्रिय
हैं, कोमल हैं, और जिनके दोनों
चरणारविन्दों की सेवा नील नामक ( बन्दर ) ने की थी, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥३१॥
तारां ताण्डव साक्षिणीं तनुलतां
तंत्रत्रयाधीश्वरीम् ।
तन्वी तत्व निधि तपः फलकरीं ताम्बूल
राजन्मुखीम् ॥
तत्त्वज्ञा तरुणीं तरान्तर गतां
तापत्रयध्वंसिनीम् ।
ताराहार विराजित स्तन तलां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥३२॥
भावार्थ--जो तारण ( उद्धार ) करने
वाली स्वयं तारादेवी हैं, ताण्डव नृत्य की
साक्षिणी हैं, सुन्दर शरीरवाली हैं, तीनों
तन्त्र (तन्त्र मन्त्र यन्त्र शास्त्र) की अधीश्वरी हैं, तन्वी
हैं, तत्व की निधि हैं, तपस्या का फल
देनेवाली हैं, जिनका मुख ताम्बूल से सुशोभित है, जो तत्व-ज्ञात्री हैं, तरुणी हैं, तीनों प्रकार के (दैहिक, दैविक, भौतिक,) तापों का ध्वंस करनेवाली हैं, और जिनके स्तन तट पर ताराओं की माला विराजमान हैं, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता ॥३२॥
थथत्थैय थथत्थैय शब्द रचनैर्माङ्गल्य
गीतोज्वलैः ।
सौंदर्ध्याप्स रसाल सन्मृग दृशां
नृत्यै विराजत्सभाम् ॥
थं तत्वावरणां तटोपतटिनीं तत्सिद्धिदां
तारिणीम् ।
चातुर्यां परिपूर्ण चन्द्र वदनां
देवीं त्रिवेणींभजे ॥३३॥
भावार्थ-"थ थ थैय्या”
इस प्रकार के शब्दों से ताल देकर माङ्गलिक गीत गाती एवं नाचती हुई
सुन्दरी अप्सरायें जिनकी सभा की शोभा बढ़ाती हैं, जो
तत्वज्ञान से आवृत हैं, तटों एवं उपतटों से युक्त हैं,
सिद्धि की दात्री हैं, तारण करनेवाली हैं,
चतुरता से परिपूर्ण हैं, तथा चन्द्रमुखी हैं,
ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥३३॥
दक्षां दैन्य निवारिणीं दुरुगला
दक्षेश्वरध्वंसिनीम् ।
दिव्यां द्रव्य समूहृदां दिनमणि
दुतां दुराधर्षिणीम् ॥
दीक्षां दानव दाहिनीं समधियां
दिव्याम्बरालंकृताम् ।
दौहित्री-दुहितां द्युतिं त्रिपथगां
देवीं त्रिवेणींभजे ॥३४॥
भावार्थ-जो दक्ष हैं,
दीनता का निवारण करनेवाली हैं, दक्ष के यज्ञ
का ध्वंस करनेवाली हैं, दिव्या है, धन
समृद्धि देनेवाली सूर्य के समान प्रचंड हैं, दीक्षा स्वरूपा
हैं, दानवों को जलानेवाली हैं, समभाव
रखनेवाली हैं, दिव्यवन एवं अलङ्कारों से सुसज्जित हैं,
दौहित्री हैं, दुहिता है, कान्ति स्वरूपा है,
और तीनों मार्गों पर चलनेवाली हैं, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥३४॥
धन्यां धन्यतरां धनाधन करां
धर्मार्थ कामप्रदाम् ।
धर्मज्ञां धरणीं धनाधिप नुतां
धर्मस्थितां धीमतीम् ।।
धर्माधर्म फलप्रदां धनवतीं
धीराध्वनि धीमिताम् ।
धारा ध्रां ध्रुव पूजितां ध्रुवपदां
देवीं त्रिवेणींभजे ॥३५॥
भावार्थ-जो धन्य हैं,
धन्य से बढ़कर हैं, धन और धनाभाव दोनों ही
करनेवाली है, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं, धर्मज्ञा हैं, धारण करनेवाली पृथ्वी स्वरूपा हैं,
कुवेर से पूजित हैं, धर्म में स्थित है,
बुद्धिमती हैं, धर्म और अधर्म के फलों को देने
वाली हैं, धनवती हैं, धीमानों की
गम्भीर ध्वनि है, प्रखर धारा से युक्त हैं, ध्रुव से पूजित हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना
करता हूँ ॥३५॥
नादा तां नवयौवनां नवरसां नादप्रियां
नादिनीम् ।
नाना वेष धरां नगाधिप नुतां नारायणीं
नर्मदाम् ॥
नागेन्द्रा भरणां नदी नद नुतां
नित्यां निधिं निर्मलाम ।
निक्षेपां निखिलां निजां निरवधीं
देवीं त्रिवेणींभजे ॥३६॥
भावार्थ- जिनके अन्त में नाद है,
जो नवयौवना है, नवों रसोंवाली हैं, नाद जिन्हें प्रिय है, जो नाद से युक्त हैं, नाना प्रकार के वेश धारण करनेवाली हैं, नागराज से
स्तुत हैं, नारायणी हैं, विनोद
करनेवाली हैं, नागों के आभूषण से सुशोभित हैं, नदियों और
नदों से स्तुत हैं, नित्य हैं, निधि
हैं, निर्मल हैं, निक्षेप [धरोहर ]
स्वरूप है, सर्वस्वरूपा हैं, स्वयं सब
कुछ हैं निःसीम हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता
हूँ ॥३६।।
पश्यन्ती पर देवतां पुरहरां पापौध
विध्वंसिनीम् ।
प्राणां पद्मधरां प्रयाग निलयां
पाकारि संसेविताम् ॥
प्रसक्षां प्रणवां पुराण पुरुषां
प्राणेश्वरी पद्मिनीम् ।
बन्धूक प्रसवारुणां वरधरां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥३७॥
भावार्थ-जो दूसरे देवताओं को भी
देखती हैं, त्रिपुरासुर का हरण करनेवाली
हैं, पाप समुह का विध्वंस करनेवाली हैं, प्राण स्वरूपा हैं, कमलधारिणी हैं, प्रयाग में निवास करनेवाली हैं, इन्द्र से परिसेवित
हैं, प्रत्यक्ष हैं, प्रणव है, पुराणपुरुष हैं, प्राणेश्वरी है, पद्मिनी है, बन्धूक (गुलदुपहरिया फूल के समान लाल है,
और वर नामक अस्त्र धारण करनेवाली हैं, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥३७॥
फालाक्षां भ्रमरां भ्रमापहरिणीं
भ्रान्ताज्ञ दूरी कृताम् ।
भासांभास्कर सेवितां फणिधरां फाकार
तत्त्वप्रभाम् ॥
भ्रष्ट क्लेश विनासिनीं भुगभुगां
भोगप्रदां भोगिनीम् ।
भोगीन्द्रा भरणां फलाफल करां देवी
त्रिवेणींभजे ॥३८॥
भावार्थ-जिनके नेत्र विशाल हैं,
जो भ्रमर के समान हैं, भ्रम का निवारण
करनेवाली हैं, अज्ञानता को दूर करनेवाली है, कान्तिमती हैं, सूर्य से सेवित हैं, सर्प धारण करनेवाली हैं, 'फ' अक्षर
जैसी आकृति वाली हैं, तत्वों से जगमगाती हैं, क्लेश का विनाश करनेवाली हैं, भोग प्रदान करनेवाली
हैं, भोगिनी हैं, साँपों के आभूषणों से
विभूषित हैं, एवं सुफल तथा कुफल दोनों का देनेवाली हैं,
ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥३८।।
बालां वाम शशाङ्क वद्ध मुकुटां
पद्मासना धिष्ठिनीम् ।
भेदाभेद विभेद भेदनकरी बाधापहा
ब्राह्मणीम् ॥
बोधावोध वलां बुधार्चित पदां
बुद्धिप्रदां बोधिनीम् ।
ब्रह्मस्त्रां बगलां बलप्रमथिनी
देवीं त्रिवेणींभजे ॥३९॥
भावार्थ-जो बाला हैं,
जिनका मुकुट वक्रचन्द्र से सुशोभित हैं, जो
पद्मासन पर विराजमान हैं, जो भेदाभेद को मिटानेवाली हैं,
बाधाओं को दूर करनेवाली हैं, ब्राह्मणी हैं,
बोधाबोध तथा बल स्वरूपा हैं, जिनके चरणों की
पूजा बुद्धिमान लोग किया करते हैं, जो बुद्धि देनेवाली हैं,
बोध करानेवाली हैं, ब्रह्मास्त्र हैं, बगलामुखी देवी हैं, और दुष्ट बल का मन्थन करनेवाली
हैं, ऐसे ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥३९॥
भव्यां भक्तिवशां भवाब्धि तरणी
भामां भवानीभवाम् ।
भद्रा भाग्यवरां भयापहरणीं भक्तिप्रियां
भारतीम् ॥
भाषां भानुमती भगाक्ष निहतां
भ्रांतां जगद्भावनाम् ।
भर्गा भार्गव सन्नुता भगवतीं देवीं
त्रिवेणींभजे ॥४०॥
भावार्थ-जो भव्य हैं,
भक्ति से वशीभूत होनेवाली हैं, संसार रूपी
सागर पार करने के लिये नौका के समान हैं, भामा हैं, संसार की भवानी हैं, भद्रा हैं, उत्तम भाग्यवाली हैं, भय का अपहरण करनेवाली हैं,
भक्तिप्रिय हैं, भारती हैं, भाषा है, भानुमती हैं, इन्द्र
कर्मों को और संसार के भ्रान्त भावनाओं को निहत करनेवाली हैं, तेज स्वरूपा हैं, और परशुरामजी से स्तुत हैं,
ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥४०॥
मायां मंगलदायिनीं मनसिजां
माहेश्वरीम् माधुरीम् ।
माहेन्द्री मकरध्वजां मधुमतीं
मन्दस्मितोघन्मुखीम् ॥
मुक्तां मा मदलालसा मलयजां मायावतीं
मानिनीम् ।
मीनाक्षीं महतीं महेश्वरन्रुतां
देवीं त्रिवेणीभजे ॥४१॥
भावार्थ-जो माया हैं,
मङ्गलदायिनी हैं, मन से उत्पन्न होने वाली हैं,
शिव की प्रिया है, माधुरी हैं, इन्द्राणी हैं, मकरध्वजा हैं, मधुमती
है, जिनका मुख मन्द मुस्कान से सुशोभित है, जो मुक्ता स्वरूपा है, लक्ष्मी हैं, मदलालसा है, मलयपर्वत से उत्पन्न है, मायावती है, मानिनी हैं, मछली
के समान नेत्रों वाली हैं, महान हैं, और
शिव से स्तुत हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ
।।४१।।
यात्रा सिद्धिकरीं यशः सुखकरी
यात्रोत्सवा यातुनाम् ।
यज्ञाङ्गां यमसन्नुतां यतनदीं
यज्ञार्चितां योगिनीम् ।
यामा यक्ष समर्चितां यतिनतां
यंत्रस्थितां यामिनीम् ॥
यलायल कृताधमारि विन्रुतां देवीं
त्रिवेणीभजे ॥४२॥
भावार्थ-जो यात्रा को सुफल
बनानेवाली है, यश और सुख प्रदान करनेवाली हैं,
यात्रा में उत्सव प्रदान करनेवाली है, यज्ञ के
अङ्ग स्वरूपा है, यमराज से भली-भाँति स्तुत है, नदियों का भली-भाँति संयमन करनेवाली है, यज्ञ में
पूजित होनेवाली हैं, यक्षों द्वारा पूजित है, साधुओं के द्वारा नमस्कृत हैं, रात्रि में यंत्र पर
स्थित है, (तन्त्रशास्त्र के अनुसार यन्त्र पर स्थित) और
यत्नपूर्वक 'या' लीला से नीचे दिखाये
हुए शत्रु द्वारा प्रणत है, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना
करता हूँ ॥
राज्ञी राजसुपूजितां रघुनतां रामा
रमां राकिनीम् ।
राकाचन्द्रमुखीं रसां रसवतीं
राज्यप्रदां रागिणीम् ॥
राधा रक्षणतत्परां रविन्रुतां रंभां
रथान्तः स्थिताम् ।
राधा रत्न किरीट कुण्डलधरां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥४३॥
भावार्थ-जो राजा-रानियों से सुपूजित
हैं,
रघु से स्तुत हैं, रामा है, लक्ष्मी हैं, पूर्णिमा की रात्रि को चाहने वाली हैं,
पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान सुखवाली हैं, पृथ्वी
स्वरूपा हैं, रसवती हैं, राज्य
देनेवाली हैं, रागिणी है, राधा की
रक्षा करने में तत्पर रहनेवाली है, सूर्य से स्तुत हैं,
हाथी से युक्त रथ पर स्थित है, और रत्न एवं
रत्न से भिन्न वस्तु का मुकुट तथा कुंडल धारण करनेवाली हैं, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥४३॥
लक्ष्मी लक्षणलक्षितां लवलवा
लाक्षारुणांघ्रिइयाम् ।
लक्ष्यां लक्ष्मण सेवितां लघुतरां
लास्यप्रियां लाकिनीम् ।
लक्ष्यार्थां ललितां लसत्कुचभरां
तन्वीं लघुश्यामलाम् ।
लावण्यालय वर्जितां सुललनां देवीं
त्रिवेणीभजे ॥४४॥
भावार्थ-जो लक्ष्मी के लक्षणों से
सम्पन्न हैं, जिनके दोनों चरण महावर के समान
लाल हैं, जो देखने योग्य हैं, लक्ष्मण
द्वारा सेवित हैं, अत्यन्त सूक्ष्म हैं, नृत्य प्रिय हैं, योगिनी हैं, प्रयोजन
सिद्ध करनेवाली हैं ललित हैं, कुचों के भार से शोभायमान हैं,
सूक्ष्मा हैं, किञ्चित श्यामवर्णा है, सौन्दर्यमयी हैं, और नाश से रहित हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥४४॥
वाशिष्ठां वसुधा वरां वसुमतीं
वागर्थ विज्ञानदाम् ।
वाराहीं वरुणां वराभयकरां वागीश्वरी
वाग्मवीम् ॥
वश्याकर्षण वाग्विलास करणी वाक्
सिद्धिसंपक्तरीम् ।
वामाक्षी वरदां वदान्य विभवां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥४५॥
भावार्थ--जो वशिष्ठजी से स्तुत हैं,
पृथ्वी स्वरूपा हैं, वसुमती हैं, वाणी, अर्थ तथा विज्ञान को देनेवाली हैं, वाराह रूपधारी विष्णु की शक्ति है, वरुणा है,
वर और अभय नामक अरों को हाथों में धारण करनेवाली हैं, वाणी की ईश्वरी हैं, वाणी से उत्पन्न होनेवाली हैं,
वशीकरण, आकर्षण तथा वाणी का वैभव प्रदान
करनेवाली हैं, वाकसिद्धि एवं सम्पत्ति देनेवाली हैं, वामाक्षी हैं, वर देनेवाली हैं, महादानी हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता
हूँ॥४५॥
श्यामाचक्र धरां शशांकवदनां शत्रु
क्षयां शारदाम् ।
शास्त्रां शास्त्र करां शमाशम करां
शंखेन्दु कुन्दोज्वलाम् ॥
शातां घ्रांशवरीं शताक्षरमयीं
शेषादि संसेविताम् ।
शंकाटक विदारिणीं शशिकलां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥४६॥
भावार्थ-जो श्यामा हैं,
चक्र धारण करनेवाली हैं, ( या मन्त्रशास्त्र
के अनुसार चक्रपूजन में बैठनेवाली हैं) चंद्रमुखी हैं, शत्रुओं
का क्षय करनेवाली हैं, सरस्वती हैं, शास्त्र
स्वरूपा हैं, स्वयं शास्त्रों को बनानेवाली हैं, शान्ति और अशान्ति दोनों ही उत्पन्न करनेवाली हैं, शङ्ख,
चन्द्रमा एवं कुन्द पुष्प के समान उज्वल हैं, शान्त
है, शताक्षरमयी हैं, शेष आदि से
संसेवित हैं, शङ्काओं का उन्मूलन करनेवाली हैं, और चन्द्रमा
की कला के समान हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ॥४६॥
षड़योगैर्विहितां षड़र्थ सहितां षाड़गुण्य
संभाविताम् ।
षड़चक्रोर्ध्वगतां षड़घ विनतां
षट्कूल मध्यस्थिताम् ॥
षट्कर्मा तुरतां षडूर्मिरहितां षड्
दर्शनाधिष्ठिताम् ।
षड्योगिन्याभि सेविताधियुगलां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥४७॥
भावार्थ-योगाभ्यास से प्रयुक्त छः तरीकों से जिनकी उपासना की जाती है, जो छः प्रकार के अर्थों से युक्त हैं, षड्गुणों (उपाय, सन्धि आदि ) से सम्मानित हैं, षट्चक्र ( मूलाधार, अधिष्ठान आदि ) के द्वारा ऊर्ध्वगामिनी हैं, छ: कूलों के मध्य में (गङ्गा + जमुना+सरस्वती=२ X ३=६) स्थित है, षट्कर्म (मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, स्मभन, विद्वेषण ) के करने में व्यग्र रहती हैं, छः उर्मियों (भूख, प्यास आदि से) रहित हैं, छः दर्शनों (सांख्य, वेदान्त, आदि) की आधार शिलाहै, और छःहों योगिनियाँ जिनके चरणों की सेवा निरन्तर करती रहती हैं, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ।
सर्वज्ञां सकलार्थदां समरसां
सौभाग्यदां स्वामिनीम् ।
सर्वानन्दमयीं समस्त जननीं
सन्मोहिनीम् सुन्दरीम् ॥
स्वस्थां सर्वफलप्रदां समयिनी
सौभाग्य विद्यश्वरीम् ।
साकारां समयेश्वरी सुमनसां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥४८॥
भावार्थ-जो सर्वज्ञा है,
सभी प्रयोजनों को सिद्ध करनेवाली हैं, एक
रसवाली हैं, सौभाग्य देनेवाली हैं, स्वामिनी
हैं, सबको आनन्द देनेवाली हैं, सबकी
जननी है, सबको मोहित करनेवाली हैं, सुन्दरी
हैं, स्वस्थ हैं, सभी फलों की दात्री
हैं, समय की अपेक्षा करनेवाली हैं, सौभाग्य
और विद्या की ईश्वरी हैं, साकार हैं, समयेश्वरी
हैं, और सुन्दर मनवाली हैं, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥४८॥
हव्याज्यैरभिपूजितां हलधरां
हंक्षस्थलाधीश्वरीम् ।
हंसा हंस गतिं हतासुर गतिं
हस्तीन्द्र कुम्भस्तनीम् ।।
हस्ते पुस्तक धारिणीं हरिहर
ब्रह्मात्मिकां हस्तिनीम् ।
हस्तीन्द्रानन् वन्दितांघ्रियुगलां
देवीं त्रिवेणींभजे ॥४९॥
भावार्थ-हवनीय घृतों से जिनकी पूजा
की जाती है, जो हल को धारण करनेवाली हैं,
'ह' और 'क्ष' अक्षरों के स्थान की अधीश्वरी हैं, हंस और हंस से भी
इतर जिनकी गति है, जो असुरों की गति को विनष्ट करनेवाली हैं,
गजराज के कुम्भस्थल के समान जिनके स्तन है, जो
हाथ में पुस्तक धारण किये हुई हैं, 'ब्रह्मा, विष्णु एवं शङ्कर को भी अपने हाथों में लिये हुए हैं, गणेश जिनके दोनों चरणों की वन्दना करते हैं, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥४९॥
लं तत्वार्चित पादपद्म युगलां
लक्ष्यागमार्धातुगाम् ।
लक्ष्यालक्ष्य विलक्ष्य लक्षणवतीं
लक्ष्यार्थं संसिद्धिताम् ॥
लीलालोल विलास कज्जललसन्नेत्र
त्रयां चिन्मयीं ।
लाकारां शरदेन्दु सुन्दरमुखीं देवीं
त्रिवेणींभजे ॥५०॥
भावार्थ -'ल' तत्व से जिनके दोनों चरणारविन्दों की पूजा की
जाती है, लक्ष्यशास्त्र में जिनकी प्रवृत्ति है, जो लक्षणा के योग्य, लक्षण के न योग्य और
विशिष्ठलक्षण के योग्य लक्षणों से समन्वित हैं, लक्ष्य,
अर्थ की सिद्धि देनेवाली हैं, जिनके तीनों
नेत्र लीला से चञ्चल और विलास एवं काजल से सुशोभित हैं, जो
चित्स्वरूपा है, 'ल' अक्षर की आकृति
जैसी है, और शरवन्द के मुख के समान है, ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥५०॥
क्षत्रां क्षात्र विशारदां क्षतधरां
क्षौमांवरालंकृताम् ।
क्षुद्रोपद्रव नाशिनीं क्षयहतां क्षामापहां
क्षेमदाम् ॥
सुत्तृष्णापहतां क्षितीश विन्रुतां
क्षेत्रां क्षितिक्षेत्रगाम् ।
क्षेत्रज्ञां सुगमार्क्षवर्ण
पृथिवीं देवीं त्रिवेणींभजे ॥५॥
भावार्थ -जो क्षात्र धर्म का
अवलम्बन करनेवाली है, युद्ध विद्या में
निपुण हैं, घावों को धारण करनेवाली हैं, रेशमी वस्त्र से अलंकृत हैं, क्षुद्रों द्वारा किये
हुए उपद्रवों का नाश करनेवाली हैं, क्षय और क्षीणता को दूर
करनेवाली हैं, कल्याण करनेवाली हैं, भूख
प्यास को मिटानेवाली हैं, राजाओं से नमस्कृत है, क्षेत्रस्वरूपा हैं, पृथ्वी स्वरूपा हैं, क्षेत्रगामिनी हैं, क्षेत्र को जाननेवाली है,
और धरती के धुरी के समान हैं, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥५१॥
अं आ दिव्य शिरोमुखाब्ज ललितां 'इ' 'ई' सुनेत्रां उ 'ॐ'।
कर्णा 'ऋ''ऋृ' सुनासिकासुरचना 'लृ ' 'लॄ'कपोलद्वयाम् ।।
'ए ऐ ओष्ठ युगां
परात्परतरां 'ओ औ' सुदन्तोज्वलाम् ।
अमूर्ध्वा कलितां असर्ग रसनां देवीं
त्रिवेणीभजे ॥५२॥
भावार्थ-जिनके 'अ' और 'आ' दिव्य मस्तक, 'उ' और 'ऊ'' कान हैं, 'ऋ' और 'ऋृ' सुडौल एवं सुन्दर नाक
हैं, 'लृ' और 'लॄ'
दोनों गाल हैं, 'ए' और 'ऐं' दोनों ओठ हैं, 'ओ, और 'औ' सुन्दर चमकते हुए दाँत
हैं, 'अं' तालु है, 'अ:' जीभ है और जो श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ हैं,
ऐसे त्रिवेणीदेवी की मैं वन्दना करता हूँ ॥५२॥
कं खं गं घं ङं दक्षबाहु कमलां चं छं
जं झं ञान्विताम् ।
वामां वामकरां वशिष्ठ विन्रुतां टं ठं
डं ढं णान्विताम् ।।
दक्षांघ्रि त थ द ध द्धनां चितपदा
वामाख्य विद्याश्रिताम् ।
पंफाकार कटिप्रदेश रचितां देवीं
त्रिवेणींभजे ॥५३॥
भावार्थ-कं खं गं घं और ङं बीज
मन्त्रों से जिनकी दाहिनी भुजा सुरक्षित हैं, चं
छं जं झं और ञं से जिनकी बायीं भुजा लक्ष्मी के समान है, वशिष्ठ
ने जिनकी स्तुति की है,टं ठं डं ढं और णं से युक्त जिनका
दाहिना पैर है, त थ द ध से जिनके चरणों की पूजा की जाती है,
जो तन्त्र-विद्या (वाम मार्ग) कः आश्रित हैं, पं
तथा फ के आकार से जिनके कटि भाग की रचना की गई है, ऐसे
त्रिवेणीदेवी की मैं बन्दना करता हूँ ॥५३॥
[ङ्गदं त्रिवेण्या प्रयतः पुनानय: स्तोत्रं
पठेत् साधु समाहितात्मा ।
तस्यार्थ
कामाः सकला भवेयु:सिद्धा ध्रुवं नात्र वितर्कणास्यात् ॥५४॥]
भावार्थ-जो मनुष्य पवित्र एवं
सावधान होकर इस त्रिवेणी स्तोत्र का पाठ करेंगे, उनकी सकल कामनायें निश्चित रूप से सिद्ध होंगी इसमें सन्देह नहीं है ॥५४॥
नोट-श्लोक ५२ और ५३ में सभी वर्णमाला बीजमन्त्र से भगवती त्रिवेणीदेवी की आराधना की गई है, समस्त वर्णमालाओं में ही वीजमन्त्र एवं संसार की विद्या एवं अविद्या निहित है। अतः यदि सम्पूर्ण पाठ भक्तजन न कर सके तो केवल इन्हीं दो श्लोकों का पाठ कर लेने से ही पूर्ण फल का लाभ कर सकते हैं।
॥ इति श्रीत्रिवेणी स्तोत्रं समाप्तम् ॥
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