रघुवंशम् सर्ग १०

रघुवंशम् सर्ग १०  

इससे पूर्व महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् सर्ग ९ में आपने... राजा दशरथ को पुत्र -वियोग का शाप होने तक की कथा पढ़ा । अब इससे आगे की कथा रघुवंशम् सर्ग १० में श्रीराम,लक्ष्मण,भरत,शत्रुघ्न चारों भाइयों के जन्म की कथा पढ़ेंगे।

कालिदासकृतम् रघुवंशं सर्ग १०

रघुवंशमहाकाव्यम् दशम सर्ग          

कालिदासकृतम् रघुवंशं सर्ग १० 

रघुवंशम् दसवां सर्ग       

॥ रघुवंशं सर्ग १० कालिदासकृतम् ॥

पृथिवीं शासतस्तस्य पाकशासनतेजसः ।

किंचिदूनमनूनर्द्धेः शरदामयुतं ययौ ॥ १० -१॥

भा०-पृथ्वी पालन करनेवाले इन्द्र के समान तेजस्वी महाऋद्धिमान् दशरथ को कुछेक कम दशसहस्त्र वर्ष बीत गये ॥ १॥

(यह दशसहस्रवर्ष शाप के उपरान्त के जानना, कारण कि वाल्मीकि में लिखा है- हे! विश्वामित्र साठ हजार वर्ष की अवस्था में मेरे पुत्र हुए हैं)

न चोपलेभे पूर्वेषामृणनिर्मोक्षसाधनम् ।

सुताभिधानं स ज्योतिः सद्यः शोकतमोपहम् ॥ १० -२॥

भा०-वह पितरों के ऋण से छूटने के साधन तत्काल शोकरूपी अन्धकार का नाश करनेवाले पुत्ररूपी प्रकाश को न प्राप्त हुआ ॥२॥ 

अतिष्ठत्प्रत्ययापेक्षसंततिः स चिरं नृपः ।

प्राङ्मन्थादनभिव्यक्तरत्नोत्पत्तिरिवार्णवः॥ १० -३॥

भा०-वह राजा कारण चाहती हुई सन्तानवाला मथने से प्रथम रत्नों की अप्रकट: उत्पत्तिवाले सागर के समान बहुत काल तक रहा ॥३॥

ऋष्यशृङ्गादयस्तस्य सन्तः सन्तानकाङ्क्षिणः ।

आरेभिरे जितात्मानः पुत्रीयामिष्टिमृत्विजः॥ १० -४॥

भा०-ऋष्यशृंगादि ऋत्विज जितेन्द्रियतायुक्त सन्तान की इच्छा करने वाले उस राजा को पुत्रेष्टियज्ञ कराते भये ॥४॥

तस्मिन्नवसरे देवाः पौलस्त्योपप्लुता हरिम् ।

अभिजग्मुर्निदाघार्ताश्छायावृक्षमिवाध्वगाः॥ १० -५॥      

भा०-जिस प्रकार गरमी से व्याकुल हुए पथिक वृक्षों के निकट जाते हैं (इसी प्रकार) उस समय देवता रावण से भयभीत हो हरि के निकट गये ॥ ५॥

ते च प्रापुरुदन्वन्तं बुबुधे चादिपूरुषः ।

अव्याक्षेपो भविष्यन्त्याः कार्यसिद्धेर्हि लक्षणम् ॥ १० -६॥

भा०-वे सागर पर प्राप्त हुए और आदिपुरुष योगनिद्रा से जागे, कारण कि होने वाली कार्यसिद्धि का विलम्ब न होना ही लक्षण होता है ॥ ६ ॥

भोगिभोगासनासीनं ददृशुस्तं दिवौकसः ।

तत्फणामण्डलोदर्चिर्मणिद्योतितविग्रहम् ॥ १० -७॥

भा०-देवता शेषशय्या पर स्थित उनके फणामंडल के निर्मल मणियों से प्रकाशमान शरीरवाले को देखते हुए ॥७॥

श्रियः पद्मनिषण्णायाः क्षौमान्तरितमेखले ।

अङ्के निक्षिप्तचरणमास्तीर्णकरपल्लवे ॥ १० -८॥

भा०-कमल पर स्थित हुई लक्ष्मी के वस्त्रों से आच्छादित मेखलावाले ( उसके ) हाथरूपी पत्ते विछे हुए अंक (गोद) में चरण धरे हुए ॥ ८॥

प्रबुद्धपुण्डरीकाक्षं बालातपनिभांशुकम् ।

दिवसं शारदमिव प्रारम्भसुखदर्शनम् ॥ १० -९॥

भा०-खिले हुए कमल के समान नेत्र और प्रातःकाल के धूप के समान वस्त्र तथा प्रारंभ से ही सुखदायक दर्शन वाले शरद के दिन के समान स्थित ॥ ९॥

प्रभानुलिप्तश्रीवत्सं लक्ष्मीविभ्रमदर्पणम् ।

कौस्तुभाख्यमपां सारं बिभ्राणं बृहतोरसा॥ १० -१०॥

भा०-कांति से श्रीवत्स के चिह्न को शोभित करनेवाली लक्ष्मी के विलास का-दर्पण रूप कौस्तुभनाम मणि को वृहत हृदय में पहने हुए ॥ १०॥

(भृगु के चरण प्रहार के चिह्न को श्रीवत्स कहते हैं)

बहुभिर्विटपाकारैर्दिव्याभरणभूषितैः ।

आविर्भूतमपां मध्ये पारिजातमिवापरम् ॥ १० -११॥

भा०-शाखा के समान दिव्यभूषणों से युक्त भुजाओं से शोभित समुद्र के बीच में प्रगट हुए दूसरे पारिजात के समान ॥११॥

दैत्यस्त्रीगण्डलेखानां मदरागविलोपिभिः ।

हेतिभिश्चेतनावद्भिरुदीरितजयस्वनम् ॥ १० -१२॥

भा०-दैत्यों की नारियों के गण्डस्थल का मदराग मिटानेवाले, चेतनावाले अस्त्रों से प्रगट किये जयशब्दवाले ॥ १२॥

मुक्तशेषविरोधेन कुलिशव्रणलक्ष्मणा ।

उपस्थितं प्राञ्जलिना विनीतेन गरुत्मता ॥ १० -१३॥

भा०-शेष के साथ वैर त्यागे हुए वज्रघाव के चिह्नवाले हाथ जोडे नम्रतायुक्त गरुड से सेवित ॥१३॥

योगनिद्रान्तविशदैः पावनैरवलोकनैः ।

भृग्वादीननुगृह्णन्तं सौखशायनिकानृषीन् ॥ १० -१४॥

भा०-योगनिद्रा के अन्त में स्वच्छ और पवित्र अवलोकन से सुख शयन पूंछनेवाले. भृगु आदि ऋषियों पर अनुग्रह करते हुए ॥ १४ ॥

प्रणिपत्य सुरास्तस्मै शमयित्रे सुरद्विषां ।

अथैनं तुष्टुवुः स्तुत्यमवाङ्मनसगोचरम् ॥ १० -१५॥

भा-इसके उपरान्त देवता दैत्यों के मारनेवाले के निमित्त प्रणाम करके स्तुति योग्य उन मन और वाणी के अगोचर की स्तुति करने लगे ॥ १५ ॥

नमो विश्वसृजे पूर्वं विश्वं तदनु बिभ्रते ।

अथ विश्वस्य संहर्त्रे तुभ्यं त्रेधास्थितात्मने ॥ १० -१६॥

भा०-प्रथम विश्व के उत्पन्न करनेवाले फिर पालन करनेवाले पीछे संहार करनेवाले तीन प्रकार रूप धारण करनेवाले आपको नमस्कार है ॥ १६ ॥

रसान्तराण्येकरसं यथा दिव्यं पयोऽश्नुते ।

देशे देशे गुणेष्वेवमवस्थास्तवमविक्रियः॥ १० -१७॥

भा०-जैसे एक रस रहनेवाला आकाश का जल देश देश में पृथक्पृथक् स्वाद को धारण करता है इसी प्रकार एकरूप तुम गुणों से अनेक रूप धारण करते हो ॥ १७ ॥

अमेयो मितलोकस्त्वमनर्थी प्रार्थनावहः ।

अजितो जिष्णुरत्यन्तमव्यक्तो व्यक्तकारणम् ॥ १० -१८॥

भा०-(हे भगवन् !) तुम लोक के अतुल की तुलना करने वाले हो प्रयोजन के विना प्रयोजन देनेवाले अजित तुम जय करनेवाले हो अत्यन्त ही सूक्ष्म तुम स्थूलरूप के कारण हो ॥ १८॥

हृदयस्थमनासन्नमकामं त्वां तपस्विनम् ।

दयालुमनघस्पृष्टं पुराणमजरं विदुः॥ १० -१९॥

भा०-तुमको हृदय में स्थित अत्यन्त दूर, इच्छा रहित, तपस्वी, दुःखरहित, दयालु, पापरहित, पुराणपुरुष, जरारहित जानते हैं ॥ १९॥

सर्वज्ञस्त्वमविज्ञातः सर्वयोनिस्त्वमात्मभूः ।

सर्वप्रभुरनीशस्त्वमेकस्त्वं सर्वरूपभाक्॥ १० -२०॥

भार-तुम सर्वज्ञ हो तुम्हें कोई नहीं जानता तुम सबके उत्पन्न करनवाले और आप स्वयं हुए हो तुम सबके स्वामी हो और तुम्हारा स्वामी कोई नहीं तुम एक ही सम्पूर्ण के स्वरूप हो ॥२०॥

सप्तसामोपगीतं त्वां सप्तार्णवजलेशयम् ।

सप्तार्चिमुखमाचख्युः सप्तलोकैकसंश्रयम्॥ १० -२१॥

भा०-हे भगवन् ! तुमको सात सामवेद के मंत्रों से गाया हुआ सात समुद्रों के जल में शयन करनेवाला, सात ज्वाला अर्थात् अग्नि मुखवाला, सात लोकों का एक आश्रय कहते हैं ॥ २१॥

चतुर्वर्गफलं ज्ञानं कालावस्थाश्चतुर्युगाः ।

चतुर्वर्णमयो लोकस्त्वत्तः सर्वं चतुर्मुखात् ॥ १० -२२॥

भा०-अर्थ धम काम मोक्ष इस चतुर्वर्ग का फल देनेवाला ज्ञान चारों युगों के समय का परिमाण चारों वर्ण मय लोक यह सब चतुर्मुख तुमसे उत्पन्न हुए हैं ॥ २२ ॥

अभ्यासनिगृहीतेन मनसा हृदयाश्रयम् ।

ज्योतिर्मयं विचिन्वन्ति योगिनस्त्वां विमुक्तये ॥ १० -२३॥

भा०-योगीजन अभ्यास से वश किये मन से हृदय में स्थित ज्योति स्वरूप तुमको मुक्ति के निमित्त खोजते हैं ॥ २३ ॥

अजस्य गृह्णतो जन्म निरीहस्य हतद्विषः ।

स्वपतो जागरूकस्य याथार्थ्यं वेद कस्तव ॥ १० -२४॥

भा०-तुम जन्मरहित होकर भी जन्म लेनेवाले, उद्योग रहित होकर भी शत्रुओं के मारनेवाले, सोते हुए भी जागनेवाले आपको यथार्थ कौन जान सकता है ॥२४॥

शब्दादीन्विषयान्भोक्तुं चरितुं दुश्चरं तपः ।

पर्याप्तोऽसि प्रजाः पातुमौदासीन्येन वर्तितुम् ॥ १० -२५॥

भा०-शब्दादि विषयों को भोगने और दुश्चर तपस्या करने तथा प्रजा पालन करने और उदासीनता से रहने को आप ही समर्थ हो ॥ २५ ॥

बहुधाप्यागमैर्भिन्नाः पन्थानः सिद्धिहेतवः ।

त्वय्येव निपतन्त्योघा जाह्नवीया इवार्णवे ॥ १० -२६॥

भा०-शास्त्रों के पृथक् पृथक् किये हुए भी सिद्धि की प्राप्ति के मार्ग आप में समाते हैं जैसे गंगाजी के प्रवाह सागर में समाते हैं ॥ २६॥

त्वय्यावेशितचित्तानां त्वत्समर्पितकर्मणाम् ।

गतिस्त्वं वीतरागाणामभूयःसंनिवृत्तये ॥ १० -२७॥

भा०-तुममें ध्यान लगानेवाले तुममें सम्पूर्ण कर्म समर्पण करनेवाले रागादि रहित पुरुषों को जन्म न होने के निमित्त तुम ही साधन हो ॥२७॥

प्रत्यक्षोऽप्यपरिच्छेद्यो मह्यादिर्महिमा तव ।

आप्तवागनुमानाभ्यां साध्यं त्वां प्रति का कथा॥ १० -२८॥

भा-प्रत्यक्ष प्रमाण की भी तुम्हारी पृथिवी आदि महिमा अनन्त है, फिर वेद और अनुमान से सिद्ध होनेवाले तुम्हारी तो क्या कथा है ।। २८॥

केवलं स्मरणेनैव पुनांसि पुरुषं यतः ।

अनेन वृत्तयः शेषा निवेदितफलास्त्वयि॥ १० -२९॥

भा०-जब तुम स्मरणमात्र से ही पुरुष को पवित्र करते हो, इससे तुममें दूसरे दर्शन स्पर्शनादि व्यापारों के फल जाने जाते हैं ॥ २९॥

उदधेरिव रत्नानि तेजांसीव विवस्वतः ।

स्तुतिभ्यो व्यतिरिच्यन्ते दूराणि चरितानि ते ॥ १० -३०॥

भा०-सागर के रत्नों की समान, सूर्य के किरणों के समान तुम्हारे अनन्त चरित्र स्तुतियों से बाहर हैं ॥ ३०॥

अनवाप्तमवाप्तव्यं न ते किञ्चन विद्यते ।

लोकानुग्रह एवैको हेतुस्ते जन्मकर्मणोः॥ १० -३१॥

भा०- प्राप्त होने योग्य तुमको कोई वस्तु भी अलभ्य नहीं है, एक लोक के ऊपर अनुग्रह ही आपके जन्म और कर्म का कारण है ॥ ३१ ॥

महिमानं यदुत्कीर्त्य तव संह्रियते वचः ।

श्रमेण तदशक्त्या वा न गुणानामियत्तया॥ १० -३२॥

भा०-तुम्हारी महिमा वर्णन करते जो सरस्वती विराम को प्राप्त होती है, यह श्रम अथवा असामर्थ्य से होती है कुछ आपके गुणों के पार पाने से नहीं॥३२॥

इति प्रसादयामासुस्ते सुरास्तमधोक्षजम् ।

भूतार्थव्याहृतिः सा हि न स्तुतिः परमेष्ठिनः ॥ १० -३३॥

भा०-इस प्रकार वे देवता भगवान को प्रसन्न करते हुए, कारण कि यह परमात्मा की सत्य कथा थी न कि स्तुति ॥ ३३॥

तस्मै कुशलसंप्रश्नव्यञ्जितप्रीतये सुराः ।

भयमप्रलयोद्वेलादाचख्युर्नैरृतोदधेः॥ १० -३४॥

भा०-कुशल पूछकर प्रसन्नता प्रगट करते हुए भगवान्से देवताओं ने प्रलय के विना ही मर्यादा भंग करनेवाले राक्षसरूपी सागर का भय वर्णन किया ॥ ३४ ॥

अथ वेलासमासन्नशैलरन्ध्रानुवादिना ।

स्वरेणोवाच भगवान् परिभूतार्णवध्वनिः॥ १० -३५॥

भा०-तब समुद्र के किनारेवाले पर्वतों में प्रतिध्वनि से उठाये हुए स्वर से सागर की ध्वनि तिरस्कार करते हुए भगवान् वोले ॥ ३५॥

पुराणस्य कवेस्तस्य वर्णस्थानसमीरिता ।

बभूव कृतसंस्कारा चरितार्थैव भारती ॥ १० -३६॥

भा०-उस सनातन पुरुष के कंठ आदि स्थानों से भले प्रकार उच्चारण होकर शुद्धता को प्राप्त हुई सरस्वती कृतार्थ हुई ।। ३६ ।।

बभौ सदशनज्योत्स्ना सा विभोर्वदनोद्गता ।

निर्यातशेषा चरणाद्गङ्गेवोर्ध्वप्रवर्तिनी॥ १० -३७॥

भा०-विष्णु के मुख से निकली हुई दांतों की कांति से वह वाणी चरण से निकली हुई ऊर्ध्ववाहिनी गंगा के समान शोभित हुई ॥ ३७॥

जाने वो रक्षसाक्रान्तावनुभावपराक्रमौ ।

अङ्गिनां तमसेवोभौ गुणौ प्रथममध्यमौ ॥ १० -३८॥

भा०-हे देवताओ ! तुम्हारे प्रभाव आर पराक्रम रक्षसों से दबे हुए जाने, जैसे देहधारियों के पहले और बीच के (सत् और रजोगुण) तमोगुण से दबे हों ॥ ३८॥

विदितं तप्यमानं च तेन मे भुवनत्रयम् ।

अकामोपनतेनेव साधोर्हृदयमेनसा ॥ १० -३९॥

भा०-और विना इच्छा के प्राप्त हुए पाप से साधुओं के हृदय के समान उस (राक्षस) से तपता हुआ त्रिलोक मैने जाना ॥ ३९॥

कार्येषु चैककार्यत्वादभ्यर्थ्योऽस्मि न वज्रिणा ।

स्वयमेव हि वातोऽग्नेः सारथ्यं प्रतिपद्यते ॥ १० -४०॥

भा०-और काय की एकता के हेतु में देवेन्द्र से प्रार्थना करने योग्य नहीं हूं, कारण कि पवन स्वयं ही अग्नि की सहायता को जाता है ॥ ४० ॥

स्वासिधारापरिहृतः कामं चक्रस्य तेन मे ।

स्थापितो दशमो मूर्धा लभ्यांश इव रक्षसा ॥ १० -४१॥

भा०-उस राक्षस ने अपनी तलवार से बचाया हुआ दशवां शिर मेरे चक्र के निमित्त उचित भाग की नाई धर रक्खा है ॥ ४१ ॥

(रावण ने दश शिरों से नौ तो तलवार से काटकर शिवजी को चढा दिये थे एक रख छोडा था)

स्रष्टुर्वरातिसर्गात्तु मया तस्य दुरात्मनः ।

अत्यारूढं रिपोः सोढं चन्दनेनेव भोगिनः ॥ १० -४२॥

भा०-परन्तु ब्रह्माजी के वरदान से मैंने उस दुरात्मा शत्रु का शिर चढना सर्प का चन्दन के समान सहा ॥ ४२ ॥ . . (जैसे कि चन्दन का वृक्ष सर्प के चढने को सहन करता है)

धातारं तपसा प्रीतं ययाचे स हि राक्षसः ।

दैवात्सर्गादवध्यत्वं मर्त्येष्वास्थापराङ्मुखः ॥ १० -४३॥

भा०-उस राक्षस ने तपस्या से प्रसन्न होनेवाले ब्रह्माजी से मनुष्यों का अनादर कर देवताओं से अवध्यपना मांग लिया है ॥ ४३ ॥

सोऽहं दाशरथिर्भूत्वा रणभूमेर्बलिक्षमम् ।

करिष्यामि शरैस्तीक्ष्णैस्तच्छिरःकमलोच्चयम् ॥ १० -४४॥

भा०-सो दशरथ का पुत्र होकर तीक्ष्णवाणों से उसके शिररूपी कमलों का ढेर रणभूमि की पूजा के योग्य करूंगा ।। ४४॥

अचिराद्यज्वभिर्भागं कल्पितं विधिवत्पुनः ।

मायाविभिरनालीढमादास्यध्वे निशाचरैः ॥ १० -४५॥

भा०-हे देवताओं! यजमानों से विधिपूर्वक कल्पित किये हए, माया जाननेवाले राक्षसों से न चखे हुए भाग को शीघ्र ही तुम फिर पाओगे ॥ ४५ ॥

वैमानिकाः पुण्यकृतस्त्यजन्तु मरुतां पथि ।

पुष्पकालोकसंक्षोभं मेघावरणतत्पराः ॥ १० -४६॥

भा०-देवताओं के मार्ग में पुण्य करनेवाले मेघों में छिपे हुए विमानों में फिरनेवाले देवता (रावण के) पुष्पक विमान के देखने से उत्पन्न हुए भय को त्याग कर दें ॥ ४६॥

मोक्ष्यध्वे स्वर्गबन्दीनां वेणीबन्धनदूषितान् ।

शापयन्त्रितपौलस्त्यबलात्कारकचग्रहैः ॥ १० -४७॥

भा०-हे देवताओ! शाप के कारण रावण के बलपूर्वक कच ग्रहण से बचे हुए बंदी की हुई देवांगनाओं के वेणी बंधन को तुम लोग खोलोगे ॥ ४७॥

(रावण को नलकूवर ने शाप दिया था कि यदि तू किसी स्त्री के बाल बल से पकडेगा तो मर जायगा, इस कारण जो बंदी की हुई अप्सरा उसके यहां थीं उनके बाल बंधे थे)

रावणावग्रहक्लान्तमिति वागमृतेन सः ।

अभिवृष्य मरुत्सस्यं कृष्णमेघस्तिरोदधे ॥ १० -४८॥

भा०-वह कृष्णमेघ रावणरूपी अनावृष्टि से सूखते हुए देवतारूप अन्न को इस प्रकार वाणीरूप अमृत से सींचकर अन्तर्द्धान हुआ ॥ ४८॥

पुरहूतप्रभृतयः सुरकार्योद्यतं सुराः ।

अंशैरनुययुर्विष्णुं पुष्पैर्वायुमिव द्रुमाः ॥ १० -४९॥

भा०-इन्द्रादिक देवता देवताओं के कार्य में उद्यत हुए विष्णु के पीछे गये, जैसे पवन के पीछे पुष्पों से वृक्ष जाता है ॥ ४९ ॥

अथ तस्य विशांपत्युरन्ते कामस्य कर्मणः ।

पुरुषः प्रबभूवाग्नेर्विस्मयेन सहर्त्विजाम् ॥ १० -५०॥

भा०-इसके उपरांत उस राजा दशरथ के पुत्रेष्टियज्ञ के अनन्तर अग्नि में से एक पुरुष –ऋत्विजों के आश्चर्य सहित प्रगट हुआ ॥५०॥

हेमपात्रगतं दोर्भ्यामादधानः पयश्चरुम् ।

अनुप्रवेशादाद्यस्य पुंसस्तेनापि दुर्वहम् ॥ १० -५१॥

भा०-(जो कि)आदिपुरुष के प्रवेश के कारण उससे भी कठिनता से उठनेवाली सुवर्ण के पात्र में भरी हुई खीर को दोनो हाथों से उठाये था ॥५१॥

प्राजापत्योपनीतं तदन्नं प्रत्यग्रहीन्नृपः ।

वृषेव पयसां सारमाविष्कृतमुदन्वता ॥ १० -५२॥

भा०-राजा दशरथ प्रजापति सम्बन्धी पुरुष के दिये हुए उस अन्न को समुद्र से निकले हुए अमृत को इन्द्र के समान ग्रहण करता हुआ ॥५२॥

अनेन कथिता राज्ञो गुणास्तस्यान्यदुर्लभाः ।

प्रसूतिं चकमे तस्मिंस्त्रैलोक्यप्रभवोऽपि यत् ॥ १० -५३॥

भा०-उस राजा के दूसरे को न मिलने योग्य गुण इस कारण कहे गये कि उसमें त्रिलोकी के कर्ता ने भी जन्म लेने की अभिलाषा की ॥ ५३ ॥

स तेजो वैष्णवं पत्न्योर्विभेजे चरुसंज्ञितम् ।

द्यावापृथिव्योः प्रत्यग्रमहर्पतिरिवातपम् ॥ १० -५४॥

भा०-वह राजा ने चरु नामक वैष्णव तेज को दो रानियों में जैसे सूर्य ने प्रातःकाल का आतप पृथ्वी और आकाश में तिस प्रकार बांट दिया ॥ ५४॥

अर्चिता तस्य कौसल्या प्रिया केकयवंशजा ।

अतः संभावितां ताभ्यां सुमित्रामैच्छदीश्वरः ॥ १० -५५॥

भा०-उस राजा की कौशल्या वडी महारानी और केकय के वंश उत्पन्न हुई केकयी प्रिया थी इस कारण महाराज ने सुमित्रा का उन दोनों से सत्कार कराने की इच्छा की ॥ १५॥

ते बहुज्ञस्य चित्तज्ञे पत्नौ पत्युर्महीक्षितः ।

चरोरर्धार्धभागाभ्यां तामयोजयतामुभे ॥ १० -५६॥

भा०-सब कुछ जाननेवाले अपने पति महाराज के चित्त को जाननेवाली उन दोनो रानियों ने अपनी २ खीर का चतुर्थांश उसको दिया ॥ ५६ ॥

सा हि प्रणयवत्यासीत्सपत्न्योरुभयोरपि ।

भ्रमरी वारणस्येव मदनिस्यन्दरेखयोः ॥ १० -५७॥

भा०-वह सुमित्रा उन दोनों सपत्नियों में हाथी के मद की दोनो रेखाओं में भौंरी के समान प्रीति करनेवाली थी॥ ५७॥

ताभिर्गर्भः प्रजाभूत्यै दध्रे देवांशसंभवः ।

सौरीभिरिव नाडीभिरमृताख्याभिरम्मयः ॥ १० -५८॥

भा०-उन रानियों ने प्रजा के उपकार के निमित्त विष्णु के अंश से उत्पन्न होने वाले गर्भ को मानो सूर्य की अमृतानाम किरणों ने जल के समान धारण किया ॥ ५८ ॥

सममापन्नसत्त्वास्ता रेजुरापाण्डुरत्विषः ।

अन्तर्गतफलारम्भाः सस्यानामिव संपदः ॥ १० -५९॥

भा०-समान ही गर्भधारण करनेवाली पीलेपन को प्राप्त होकर वह भीतर फलक अंकुर धारण करनेवाली सस्य की शाखाओं के समान शोभित हुई॥ ५९॥

गुप्तं ददृशुरात्मानं सर्वाः स्वप्नेषु वामनैः ।

जलजासिकदाशार्ङ्गचक्रलाञ्छितमूर्तिभिः ॥ १० -६०॥

भा०-वे सब रानी स्वप्न में शङ्ख, खड्ग, गदा, धनुष और चक्र के चिह्नों से युक्त बान पुरुषों से अपने को रक्षित देखती हुई ॥ ६ ॥

हेमपक्षप्रभाजालं गगने च वितन्वता ।

उह्यन्ते स्म सुपर्णेन वेगाकृष्टपयोमुचा ॥ १० -६१॥

भा०-और सुवर्ण के पंखों के प्रभाजाल विस्तारनेवाले, और शीघ्रता से बादलों को खचनेवाले गरुड पर चढकर आकाश में जाते हुए ॥ ६१ ॥

बिभ्रत्या कौस्तुभन्यासं स्तनान्तरविलम्बितम् ।

पर्युपास्यन्त लक्ष्म्या च पद्मव्यजनहस्तया ॥ १० -६२॥

भा०-और भी छाती के बीच में लम्वायमान कौस्तुभमणि धारण करनेवाली हाथ में कमल का पंखा लिये लक्ष्मी से सेवित हैं ॥२॥

कृताभिषेकैर्दिव्यायां त्रिस्रोतसि च सप्तभिः ।

ब्रह्मर्षिभिः परं ब्रह्म गृणद्भिरुपतस्थिरे ॥ १० -६३॥

भा०-और आकाशगंगा में स्नान किये वेद घोष करते हुए सप्त ऋषियों से सेवित हैं (ऐसा उन रानियों ने कहा) ॥ ६३॥

ताभ्यस्तथाविधान्स्वप्नाञ्छ्रुत्वा प्रीतो हि पार्थिवः ।

मेने परार्ध्यमात्मानं गुरुत्वेन जगद्गुरोः ॥ १० -६४॥

भा० राजा दशरथ ने रानियों से इस प्रकार के स्वप्न सुनकर प्रसन्न हो जगत्पति के पिता बनने से अपने को महाश्रेष्ठ माना ॥ ६४॥

विभक्तात्मा विभुस्तासामेकः कुक्षिष्वनेकधा ।

उवास प्रतिमाचन्द्रः प्रसन्नानामपामिव ॥ १० -६५॥

भा०-एक ही विष्णु ने उनकी कुक्षियों में निर्मल जलों में चंद्रमा के प्रतिबिंव के समान अपने को अनेक रूप करके वास किया ॥ ६५ ॥

अथाग्र्यमहिषी राज्ञः प्रसूतिसमये सती ।

पुत्रं तमोपहं लेभे नक्तं ज्योतिरिवौषधिः ॥ १० -६६॥

भा०-इसके उपरान्त राजाकी बडी रानी ने प्रसव के समय (दसवें महीने में ) तमोगुण का नाशक पुत्र उत्पन्न किया, जैसे रात्रि में औषधी ने (अंधकार के दूर करनेवाली) ज्योति ॥६६॥

राम इत्यभिरामेण वपुषा तस्य चोदितः ।

नामधेयं गुरुश्चक्रे जगत्प्रथममङ्गलम् ॥ १० -६७॥

भा०-मनोहर शरीर से प्रेरित हो गुरु ने तिसका राम ऐसा जगत्का प्रथम मंगल रूप नामकरण किया ॥ ६७॥

रघुवंशप्रदीपेन तेनाप्रतिमतेजसा ।

रक्षागृहगता दीपाः प्रत्यादिष्टा इवाभवन् ॥ १० -६८॥

भा०-महातेजस्वी उन रघुवंश के तेज से सूतिका घर के दीपक मन्द ज्योति हो गये॥ ६८॥

शय्यागतेन रामेण माता शातोदरी बभौ ।

सैकताम्भोजबलिना जाह्नवीव शरत्कृशा ॥ १० -६९॥

भा०-दुबले पेटवाली कौशल्या सेज पर सोते हुए राम से शरत्काल में किनारे की कमल रचना से दुर्बल गंगाजी के समान शोभित हुई ॥ ६९ ॥ ।

कैकेय्यास्तनयो जज्ञे भरतो नाम शीलवान् ।

जनयित्रीमलंचक्रे यः प्रश्रय इव श्रियम् ॥ १० -७०॥

भा०-केकई भरत नामक शीलवान् पुत्र को उत्पन्न करती भई जो कि लक्ष्मी (लज्जा) को प्रश्रय (नम्रता ) के समान माता को शोभित करता भया ।। ७० ॥

सुतौ लक्ष्मणशत्रुघ्नौ सुमित्रा सुषुवे यमौ ।

सम्यगाराधिता विद्या प्रबोधविनयाविव ॥ १० -७१॥

भा०-सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न नामक दो युग्म कुमारों को मानों सम्यक् अभ्यास की हुई विद्या ने प्रबोध और विनय के समान उत्पन्न किया ॥ ७१ ।।

निर्दोषमभवत्सर्वमाविष्कृतगुणं जगत् ।

अन्वगादिव हि स्वर्गो गां गतं पुरुषोत्तमम् ॥ १० -७२॥

सम्पूर्ण जगत् सब दोषों से रहित और गुणों से प्रकाशित हुआ, मानो स्वर्ग, पृथ्वी पर आये हुये नारायण के पीछे आया ।। ७२ ॥

तस्योदये चतुर्मूर्तेः पौलस्त्यचकितेश्वराः ।

विरजस्कैर्नभस्वद्भिर्दिश उच्छ्वसिता इव ॥ १० -७३॥

भा०-उन चतुर्मुर्ति के उदय में पुलस्त्य के बेटे (रावण) से डरे हुए स्वामियों की दिशा ने धूलि रहित पवन के बहाने से मानों स्वांस लिया॥ ७३ ॥

कृशानुरपधूमत्वात्प्रसन्नत्वात्प्रभाकरः ।

रक्षोविप्रकृतावास्तामपविद्धशुचाविव ॥ १० -७४॥

भा०-राक्षस से पीडित किये हुए निधूमता पाकर अग्नि और निर्मलता पाकर सूर्य यह दोनो सोंच त्याग करनेवाले से हुए ॥ ७४॥

दशाननकिरीटेभ्यस्तत्क्षणं राक्षसश्रियः ।

मणिव्याजेन पर्यस्ताः पृथिव्यामश्रुबिन्दवः ॥ १० -७५॥

भा०-उस समय राक्षस की लक्ष्मी के आसूं की बूंदे रावण के मुकुटों से मणियों के वहाने से पृथ्वी पर गिरीं ॥ ७५ ॥

पुत्रजन्मप्रवेश्यानां तूर्याणां तस्य पुत्रिणः ।

आरम्भं प्रथमं चक्रुर्देवदुन्दुभयो दिवि ॥ १० -७६॥

भा०-उस पुत्रवान् राजा के पुत्र जन्म में बजने योग्य ढोल तुरही वाजों का प्रारम्भ प्रथम आकाश में देवताओं की दुंदुभियों ने किया ॥ ७६ ॥

संतानकमयी वृष्टिर्भवने चास्य पेतुषी ।

सन्मङ्गलोपचाराणां सैवादिरचनाऽभवत् ॥ १० -७७॥

भा०-इस राजा के भवन में जो कल्पवृक्ष के पुष्पों की वर्षा हुई वही सुन्दर मंगल के उपचारों की प्रथम रचना हुई ॥ ७७ ॥

कुमाराः कृतसंस्कारास्ते धात्रीस्तन्यपायिनः ।

आनन्देनाग्रजेनेव समं ववृधिरे पितुः ॥ १० -७८॥

भा०-संस्कार को प्राप्त हुए धाय का स्तनपान करनेवाले वे कुमार बड़े भाई सहित पिता के आनन्द के साथ ही वृद्धि को प्राप्त होने लगे ॥ ७८॥

स्वाभाविकं विनीतत्वं तेषां विनयकर्मणा ।

मुमूर्च्छ सहजं तेजो हविषेव हविर्भुजाम् ॥ १० -७९॥

भा०-उन कुमारों का स्वाभाविक ही विनीतपन शिक्षा पाकर, हवि पाकर अग्नि के स्वाभाविक तेज के समान वृद्धि को प्राप्त हुआ ॥ ७९॥

परस्परविरुद्धास्ते तद्रघोरनघं कुलम् ।

अलमुद्योतयामासुर्देवारण्यमिवर्तवः ॥ १० -८० ॥

भा०-परस्पर विरोध रहित उन्होंने वह पापरहित रघु का कुल ऋतुओं ने नन्दन वन के समान अधिक प्रकाशित किया ॥ ८०॥

समानेऽपि हि सौभ्रात्रे यथेभौ रामलक्ष्मणौ ।

तथा भरतशत्रुघ्नौ प्रीत्या द्वन्द्वं बभूवतुः ॥ १० -८१॥

भा०-अच्छे भाईपन की समानता में भी जैसे राम और लक्ष्मण दोनो थे इसी प्रकार भरत और शत्रुघ्न यह भी प्रीति से (दो-दो) जोड़े हुए ॥ ८१॥

तेषां द्वयोर्द्वयोरैक्यं बिभिदे न कदाचन ।

यथा वायुर्विभावस्वोर्यथा चन्द्रसमुद्रयोः ॥ १० -८२॥

भा०-तिनकी जोडी की प्रीति में अग्नि और पवन समुद्र और चन्द्रमा की (प्रीति की) समान कभी अन्तर न पड़ा ॥ ८२॥

ते प्रजानां प्रजानाथास्तेजसा प्रश्रयेण च ।

मनो जह्रुर्निदाघान्ते श्यामाभ्रा दिवसा इव ॥ १० -८३॥

भा०-प्रजा के स्वामी वे कुमार तेज और नम्रता से गरमी के अन्त में श्याम मेघोंवाले दिनों के समान प्रजा के मन को हरते हुए ॥ ८३ ॥

स चतुर्धा बभौ व्यस्तः प्रसवः पृथिवीपतेः ।

धर्मार्थकाममोक्षाणामवतार इवाङ्गवान् ॥ १० -८४॥

भा०-चार प्रकार से विभाग को प्राप्त हुई वह राजा की सन्तान धर्म अर्थ काम मोक्ष के अवतार के समान शोभित हुई॥ ८४॥

गुणैराराधयामासुस्ते गुरुं गुरुवत्सलाः ।

तमेव चतुरन्तेशं रत्नैरिव महार्णवाः ॥ १० -८५॥

भा-पिता के प्यारे वे कुमार गुणों से पिता को प्रसन्न करते हुए, जैसे महासागरों ने उस धरापति को रत्नों से (प्रसन्न किया था)॥ ८५॥

सुरगज इव दन्तैर्भग्नदैत्यासिधारै - र्नय इव पणबन्धव्यक्तयोगैरुपायैः ।

हरिरिव युगदीर्घैर्दोर्भिरंशैस्तदीयैःपतिरवनिपतीनांतैश्चकाशे चतुर्भिः ॥ १० -८६॥    

भा०-जैसे दैत्यों के तलवार की धार भग्न करनेवाले चारों दांतों से ऐरावत और जैसे फलसिद्धि के चारों उपायों से नीति, जैसे युग (जुआ) के समान चार बाहुओं से विष्णु इस प्रकार (भगवान् ) के उन चारों अंशों से पृथ्वी पतियों का पति (दशरथ) दीप्तिमान हुआ ॥८६॥

॥ इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये कविश्रीकालिदासकृतौ रामावतारू नाम दशमः सर्गः ॥१०॥

रघुवंशमहाकाव्यम्  दशम: सर्गः 

रघुवंशं सर्ग १० कालिदासकृत

रघुवंश दसवां सर्ग संक्षिप्त कथासार

राम - जन्म

इन्द्र के समान तेजस्वी तथा प्रतापी राजा दशरथ को पृथ्वी का राज्य करते बहुत वर्ष व्यतीत हो गए। परन्तु उसे पितृ - ऋण चुकाने का एकमात्र साधन पुत्र प्राप्त न हुआ । मन्थन से पूर्व भी समुद्र में रत्न थे, परन्तु निमित्त न होने के कारण वे प्रकट न हुए । उस समय राजा दशरथ की भी ऐसी ही दशा थी । तब राजा को सन्तान प्राप्त हो, इस उद्देश्य से ऋष्यश्रृंगादि ऋषियों ने पुत्रेष्टि यज्ञ का आयोजन किया । जिस समय यह यज्ञ आरम्भ हुआ उसी समय, जैसे धूप से बचने के लिए राही लोग वृक्ष के पास जाते हैं, रावण के अत्याचारों से सताए हुए देवगण विष्णु भगवान के पास जा पहुंचे। जब देवगण क्षीरसमुद्र में पहुंचे, तो भगवान की नींद खुल गई । यदि भेंट में देर न हो, तो समझ लो कि कार्यसिद्धि होगी। देवताओं ने झुककर भगवान को प्रणाम किया और स्तुति - वाक्यों द्वारा उनके असुरविनाशक तथा वाणी और मन के अगोचर रूप का इस प्रकार अभिनन्दन किया-  सृष्टि की रचना, पालन और संहार करने के कारण ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों नामों से स्मरण किए जाने वाले भगवान, तुम्हें नमस्कार हो । जैसे वर्षा का जल पृथ्वी पर आकर देश - देश के विकारों को अपना हिस्सा बनाकर भी स्वयं जल ही रहता है, वैसे तुम भी सब व्यवस्थाओं में रहते हए स्वयं निर्विकार रहते हो । तुम अपरिमित हो, परन्तु संसार तुमसे परिमित है। तुम्हें कुछ नहीं चाहिए, परन्तु तुम सब सज्जनों की अभिलाषाएं पूर्ण करते हो । तुम्हें कोई नहीं जीत सकता, परन्तु तुम सबको जीते हुए हो, और तुम स्वयं सूक्ष्मातिसूक्ष्म होते हुए भी स्थूल सृष्टि के कारण हो । योगाभ्यास द्वारा मन को अन्तर्मुख करके योगिजन तुम्हारे ज्योतिर्मय रूप को देखने का यत्न करते हैं । अनेक प्रकार के मत मतांतर मानने वाले साधक लोग समुद्र में गिरने वाली गंगा की अनेक धाराओं की भांति एक तुम्हीं को प्राप्त हो जाते हैं । जैसे सिन्धु के गर्भ में वर्तमान रत्न गिने नहीं जा सकते, और जैसे सूर्य की किरणें असंख्य हैं, वैसे ही हे प्रभो, तुम्हारे गुणों की तुलना नहीं हो सकती । तुम्हारी महिमा का वर्णन करके मौन हो जाना पड़ता है; उसका कारण यह नहीं कि तुम्हारी महिमा का अन्त है अपितु यह है कि हमारी स्तुति करने की शक्ति सीमित है । इस प्रकार देवताओं ने भगवान विष्णु को स्तुति द्वारा प्रसन्न किया । वह स्तुति क्या थी, केवल भगवान के सच्चे गुणों का वर्णन था । स्तुति के पश्चात् कुशल प्रश्न करके देवताओं ने संसार के उस संकट का वर्णन किया, जो अकाल-प्रलय के समान उमड़ते हुए रावणरूपी समुद्र से हो रहा था । देवताओं का निवेदन सुनकर समुद्र- तट के पर्वतों की गुफाओं से प्रतिध्वनित होते हुए स्वर से भगवान बोले-  हे देवगण, जैसे तमोगुण सत् और रज को परास्त कर देता है, वैसे ही रावण द्वारा आप लोगों के परास्त होने की बात मुझे मालूम है । प्रमाद के कारण पाप से कुचले गए मन की भांति आप लोगों का रावण द्वारा दलित होना मुझे विदित है। हम दोनों का एक ही लक्ष्य है, इस कारण देवराज ने मुझसे रावण के नाश की प्रार्थना नहीं की, ठीक भी है ! जब जंगल में आग लगती है तब वायु निमन्त्रण के बिना ही उसका सारथि बन जाता है । अपने दुष्ट कर्मों से रावण ने अपना सिर मानो मेरे चक्र का लक्ष्य बना दिया है । जैसे चन्दन का वृक्ष अपने साथ सर्प के सम्पर्क को यह समझकर सह लेता है कि विधाता की ऐसी इच्छा है, वैसे ही मैंने रावण की अब तक केवल इसलिए उपेक्षा की है कि उसे ब्रह्मा का वर प्राप्त है। उसने अपने तप से संतुष्ट करके ब्रह्मा से यह वर मांगा था कि मुझे देवताओं से अभय प्राप्त हो । मनुष्य को तुच्छ जानकर उससे अवध्यता के वर की याचना नहीं की थी । सो मैं दशरथ के घर में जन्म लेकर रावण का नाश करूंगा मैं रणक्षेत्र की बलिवेदी पर उसके कटे हुए सिररूपी कमलों की भेंट चढ़ाऊंगा। तुम लोग घबराओ नहीं। शीघ्र ही पृथ्वी पर यज्ञादि क्रियाएं निर्विघ्न रूप में होने लगेंगीं। आकाश में विचरण करने वाले लोग पुष्पक के डर को छोड़ निर्भय रूप से मेघ- रहित अन्तरिक्ष में विहार कर सकेंगे। रावणरूपी दुर्भिक्ष के आंतक से कुम्हलाए हुए देव - शस्य को अपनी आशाभरी वाणी के अमृत से सींचकर वह अन्यायहारी मेघ तिरोहित हो गए । राजा दशरथ का जो पुत्रेष्टि यज्ञ हो रहा था, उसके अन्त में पात्र में चरु लेकर एक दिव्यपुरुष उपस्थित हुआ । उसने इस सूचना के साथ वह चरु महाराज को दिया कि इसे रानियों को खाने के लिए बांट दिया जाए । महाराज ने चरु का आधा - आधा भाग पटरानी कौशल्या और प्रिया कैकेयी को देकर उन्हें इशारा किया कि सुमित्रा को भी बांट दो । दोनों रानियों ने महाराज के आशय को समझकर अत्यन्त सौजन्य से अपने दोनों भागों में से आधा- आधा सुमित्रा को भी दे दिया । मद पर झूमनेवाली भ्रमरी हाथी के मस्तक के दोनों ओर बहनेवाली मदरेखाओं को समान रूप से प्यारी होती है । इसी प्रकार सुमित्रा दोनों रानियों को एक - सी प्यारी थी । राजपत्नियां यथासमय गर्भवती हुईं । उस दशा में उन्हें जो स्वप्न आए, वे अत्यन्त मंगलसूचक थे। उन्हें अपने चारों ओर शंख, चक्र, गदा और धनुष धारण करने वाली मूर्तियां दिखाई देती थीं । उन्हें प्रतीत होता था कि वे आकाश में सुनहले पंखों से तेज को फैलानेवाले और पंखों के वेग से मेघों को विचलित करनेवाले सुवर्ण- गरुड़ पर सवारी कर रही हैं । पद्मपत्र से हवा करती हई, कौस्तुभधारिणी लक्ष्मी उनकी सेवा में संलग्न है । आकाशगंगा में स्नान करके विशुद्ध हुए ब्रह्मर्षि वेदपाठ करते हुए उनकी उपासना कर रहे हैं । इस प्रकार के स्वप्नों को सुनकर राजा मन ही मन प्रसन्न होता था । उसे अनुभव होता था कि जैसे एक ही चन्द्रमा विशुद्ध जल में प्रतिबिम्बित होकर अनेक रूपों में दिखाई देता है, वैसे ही एक भगवान अनेक रूप धारण करके पत्नियों के गर्भो में विद्यमान हैं । समय आने पर पटरानी कौशल्या ने रात्रि के अन्धकार को नष्ट करने वाली ज्योति के समान तेजस्वी बालक को जन्म दिया । बालक की सुन्दरता से प्रभावित होकर राजा ने उसका, संसार के लिए मंगलकारी राम यह नाम रखा । रघुवंश के उस दीपक के जलने पर सूतिकागृह के सब दीप मानो आभाहीन हो गए । कैकेयी के भरत नाम का सुशील बालक उत्पन्न हुआ । जैसे नम्रता के संसर्ग से ऐश्वर्य की शोभा बढ़ जाती है, उस पुत्र के संसर्ग से माता की शोभा भी सौ गुणी हो गई । सुमित्रा के गर्भ से जोड़ा उत्पन्न हुआ उन दोनों के नाम लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखे गए । उन बालकों के जन्म लेने पर आकाश में देवताओं और पृथ्वी पर प्रकृति ने आनन्द प्रकट किया । यों तो वे सभी एक - दूसरे से गहरा प्रेम करते थे, परन्तु उनमें से भी राम और लक्ष्मण तथा भरत और शत्रुघ्न में परस्पर असाधारण प्रेम था, जैसे वायु और अग्नि का और चांद और समुद्र का परस्पर आकर्षण अटूट है, वैसे उन युगलों का भी था । दैत्यों की असि -धाराओं को तोड़ देने वाले चार दांतों से जैसे ऐरावत, साम, दाम, दण्ड, भेद इन चार उपायों से जैसे नीति और घुटनों को छुनेवाली लम्बी चार भुजाओं से जैसे विष्णु शोभायमान होते हैं, वैसे ही वह चक्रवर्ती राजा उन तेज के पुंज चारों पुत्रों से शोभायमान हो रहा था ।

कालिदासकृत रघुवंश महाकाव्य सर्ग १० समाप्त हुआ ॥       

शेष जारी..............आगे रघुवंशमहाकाव्यम् सर्ग ११

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1 Comments

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