रघुवंशम् सर्ग ९

रघुवंशम् सर्ग ९ 

इससे पूर्व महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् सर्ग ८ में आपने... अज का स्वर्गवास होने तक की कथा पढ़ा । अब इससे आगे की कथा रघुवंशम् सर्ग ९ में दशरथ का राज्यशासन, वसन्तोत्सव और आखेट का वर्णन पढ़ेंगे।

रघुवंशम् सर्ग ९

रघुवंशमहाकाव्यम् नवम सर्ग         

कालिदासकृतम् रघुवंशं सर्ग ९

रघुवंशम् नौवां सर्ग

॥ रघुवंशं सर्ग ९ कालिदासकृतम् ॥

पितुरनन्तरमुत्तरकोसलान्समधिगम्य समाधिजितेन्द्रियः ।

दशरथः प्रशशास महारथो यमवतामवतां च धुरि स्थितः ॥ ९ -१॥

संयम से इन्द्रियों की विजय किये हुए तथा संयमियों और रक्षकों व मुख्य महारथी दशरथ” पिता के बाद उत्तर कोसल देश की प्रजाओं का शासन करने लगें ॥ १ ॥

अधिगतं विधिवद्यदपालयत्प्रकृतिमण्डलमात्मकुलोचितम् ।

अभवदस्य ततो गुणवत्तरं सनगरं नगरन्ध्रकरौजसः ॥ ९ -२॥  

प्राप्त हुए, अपने कुल के योग्य नगरसहित देश की प्रजा को ( दशरथ ने ) जो ठीक पालन किया, इससे (क्रौञ्चनामक) पर्वत में छिद्र करनेवाले अर्थात्‌ स्वामी कातिकेय के समान पराक्रमी इस (दशरथ ) का प्रजामण्डल अतिशय गुणी ( दशरथ में स्नेह करनेवाला ) हुआ ॥ २॥

उभयमेव वदन्ति मनीषिणः समयवर्षितया कृतकर्मणाम्।

बलनिषूदनमर्थपतिं च तं श्रमनुदं मनुदण्डधरान्वयम् ॥ ९ -३॥

विद्वान्‌ लोग, इन्द्र तथा राजा मनु के वंशज दशरथ इन दोनों को ही समय में (क्रमशःजल तथा धन की वृष्टि करने से कर्म करनेवाले ) लोगों के परिश्रम को दूर करनेवाले कहते हैं । (इन्द्र यथासमय जलवृष्टिकर कर्मपरायण गृहस्थों के तथा राजा दशरथ यथा समय धनदानकर कर्मपरायण प्रजा के श्रम को दूर करते हैं, ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं )॥ ३॥

जनपदे न गदः पदमादधावभिभवः कुत एव सपत्नजः ।

क्षितिरभूत्फलवत्यजनन्दने शमरतेऽमरतेजसि पार्थिवे ॥ ९ -४॥

शान्तिप्रधान तथा देवतुल्य तेजस्वी अज-कुमार (दशरथ) के राजा होनेपर देश में रोग ने पैर नहीं रखा अर्थात् देश रोगपीडित नहीं हुआ, फिर शत्रुजन्य पराजय कहां से हो सकता है ? (और उस समय) पृथ्वी फल देनेवाली (अधिक पैदावार) हुई ॥ ४॥

दशदिगन्तजिता रघुणा यथा श्रियमपुष्यदजेन ततः परम् ।

तमधिगम्य तथैव पुनर्बभौ न न महीनमहीनपराक्रमम् ॥ ९ -५॥

पृथ्वी दश  दिशाओ के अन्ततक जितनेवाले रघु से जिस प्रकार शोभित हुईं या सम्पत्ति को बढ़ायी तथा उसके बाद अज से जिस प्रकार शोभित हुईं, पूर्ण परक्रमी उस महीपति (दशरथ) को पाकर उसी प्रकार शोभित नही हुई, ऐसा नही अर्थात्‌ उसी प्रकार (रघु तथा अज के शासनकाल के समान ही) शोभित हुई ॥ ५ ॥

समतया वसुवृष्टिविसर्जनैनियमनादसतां च नराधिपः ।

अनुययौ यमपुण्यजनेश्वरौ सवरुणावरुणाग्रसरं रुचा ॥ ९ -६॥

राजा (दशरथ) समान भाव से धन तथा वृष्टि के त्याग से तथा दुष्ठों का शासन करने से वरुणसहित यम तथा कुबेर के और तेज से सूर्य के समान हुए । (कुबेर, वरुण तथा यम क्रमशः धनत्याग, वर्षा, दुष्टशासन करते तथा सूर्य तेजस्वी होते हैं, दशरथ उक्त चारों गुण- युक्त होने से उन सबके तुल्य हुए )॥ ६ ॥

न मृगयाभिरतिर्न दुरोदरं न च शशिप्रतिमाभरणं मधु ।

तमुदयाय न वा नवयौवना प्रियतमा यतमानमपाहरत् ॥ ९ -७॥

उन्नति के लिये प्रयत्नशील उस (दशरथ) को शिकार का व्यसन, जुआ, चन्द्रप्रतिबिम्ब से सुशोभित मद्य अर्थात  चाँदनी रात में मद्यपान अथवा नवयौवनवाली प्रियतमा ने बशीभूत नहीं किया अर्थात् राजा दशरथ इनमें से किसी में आसक्त नही होकर उन्नति के लिये उद्योग करते रहे ॥ ७॥

न कृपणा प्रभवत्यपि वासवे न वितथा परिहासकथास्वपि ।

न च सपत्नजनेष्वपि तेन वागपरुषा परुषाक्षरमीरिता ॥ ९ -८॥

उस (दशरथ ) ने शासन करते रहने पर अर्थात्‌ अपने राज्यकाल में इन्द्र में भी (अथवा--उसने शासन करनेवाले भी इन्द्र में) दीन वचन, हँसी-मजाक में भी असत्य वचन और शत्रुजनों में भी कटू वचन नही कहा। (फिर अन्य किसी के विषय में कहना ही क्या है ? अर्थात्‌ वे सर्वदा अहीन, सत्य और मधुर वचन बोलते थे ) ॥ ८॥

उअदयमस्तमयं च रघूद्वहादुभयमानशिरे वसुधाधिपाः ।

स हि निदेशमलङ्घयतामभूत्सुहृदयोहृदयः प्रतिगर्जताम् ॥ ९ -९॥

राजाओं ने रघुकुलश्रेष्ठ उस (दशरथ ) से समृद्धि और नाश—दोनों को प्राप्त किया, क्योंकि वे (दशरथ) आज्ञोल्लङ्घन नहीं करनेवाले (राजाओं) के मित्र थे ( अतः आज्ञापालक राजाओं ने दक्षरथ से समृद्धि को प्राप्त किया ) तथा प्रतिस्पर्द्धा करनेवाले राजाओं के लिये लौहतुल्य हृदयवाले थे ( अतः प्रतित्पर्द्धी राजाओं ने उनसे नाश को प्राप्त किया ) ॥ ९ ॥

अजयदेकरथेन स मेदिनीमुदधिनेमिमधिज्यशरासनः ।

जयमघोषयदस्य तु केवलं गजवती जवतीव्रहया चमूः ॥ ९ -१०॥

धनुष को चढ़ाये हुए उस (दशरथ ) ने एक रथ से समुद्र तक पृथ्वी को जीत लिया, हाथियों तथा तेज घोड़ोंवाली इनकी सेना ने तो केवल इनकी विजय-घोषणा की । (युद्ध में दशरथ ने अपनी सेना की सहायता की अपेक्षा न करके केवल अपने पराक्रम से ही शत्रुओं को पराजित कर दिया )॥ १० ॥

अवनिमेकरथेन वरूथिना जितवतः किल तस्य धनुर्भृतः ।

विजयदुन्दुभितां ययुरर्णवा घनरवा नरवाहनसंपदः ॥ ९ -११॥

बख्तरबन्द ( रक्षार्थ बाहर में लौहपात्र लगे हुए) एक रथ से ही प्रथ्वी की विजय करते हुए धनुर्धारी तथा कुबेरतुल्य सम्पत्तिवाले उस (दशरथ) के, मेघतुल्य गर्जनेवाले समुद्रों ने विजय-दुन्दु भित्व को प्राप्त किया अर्थात्‌ शब्दायमान समुद्रों ने विजयी दशरथ के विजयदुन्दुभि को बजाया ॥ ११॥

शमितपक्षबलः शतकोटिना शिखरिणां कुलिशेन पुरंदरः ।

स शरवृष्टिमुचा धनुषा द्विषां स्वनवता नवतामरसाननः ॥ ९ -१२॥

इन्द्र ने सैकड़ों नोकवाले वज्र से पर्वतों के पंख की शक्ति को नष्ट किया तथा नवीन कमल के समान मुखवाले उस ( दशरथ ) ने बाणवर्षा करनेवाले ध्वनियुक्त (टंकार करनेवाले) धनुष से शत्रुओं के पक्ष (में रहनेवालों ) के बल को नष्ट किया ॥ १२ ॥

चरणयोर्नखरागसमृद्धिभिर्मुकुटरत्नमरीचिभिरस्पृशन् ।

नृपतयः शतशो मरुतो यथा शतमखं तमखण्डितपौरुषम् ॥ ९ -१३॥

सैकड़ों राजालोग अखण्डित पुरुषार्थवाले उस (दशरथ) को, इन्द्र को देवताओं के समान, नखों की लालिमा से अधिक शोभनेवाली मुकुटों में जड़े हुए रत्नों की कान्तियों से चरणों में स्पर्श (प्रणाम) किया ॥ १३॥

निववृते स महार्णवरोधसः सचिवकारितबालसुताञ्जलीन् ।

समनुकम्प्य सपत्नपरिग्रहाननलकानलकानवमां पुरीम् ॥ ९ -१४॥

वे दशरथ मन्त्रियों के द्वारा बद्धाञऽजलि कराये गये बालकोंवाले तथा ( पति के मरने से ) संस्कारशुन्य शत्रु-स्त्रीयों के केशों पर कृपा कर अलका (कुबेर की राजधानी ) के समान अयोध्या पुरी को महासमुद्र के किनारे से वापस लौट आये ॥ १४॥

उपगतोऽपि च मण्डलनाभितामनुदितान्यसितातपवारणः ।

श्रियमवेक्ष्य स रन्ध्रचलामभूदनलसोऽनलसोमसमद्युतिः ॥ ९ -१५॥

दूसरे श्वेतछत्र के नहीं उठने पर (अन्य राजा के नहीं रहने पर) और अग्नि तथा चन्द्र के समान द्युतिवाले (शत्रु राजाओं में अग्नि के समान तीव्र प्रतापवाले तथा मित्र राजाओं में चन्द्र के समान आह्लादक तेजवाले) वे (दशरथ) बारह राज-मण्डलो में नाभिरुप बन कर पहिये के अरों (लम्बे २ तीछे काष्ठों) के आधारभूत नाभि (मध्य के काष्ठ) के समान बारह राज-मण्डलों के आधारभूत होकर ) भी थोढ़ा भी छिंद्र (दोष ) होने पर चंचल लक्ष्मी को (अजितमस्ति नृपास्पदम? इस पाठभेद में--राजपद अजेय हैऐसा ) विचारकर निरालस अर्थात् सर्वदा उद्योगशील रहते थे ॥ १५ ॥

तमपहाय ककुत्स्थकुलोद्भवं पुरुषमात्मभवं च पतिव्रता ।

नृपतिमन्यमसेवत देवता सकमला कमलाघवमर्थिषु ॥ ९ -१६॥

पतिब्रता कमलासना या कमलहस्ता लक्ष्मी ने अतिथियों में अपराङमुख ककुत्यवंशोत्पन्न उस राजा (दशरथ) को तथा विष्णु भगवान्‌ को छोड़कर दूसरे किस राजा या देवता की सेवा की ? अर्थांत्‌ किसी की नही ॥ १६ ॥

तमलभन्त पतिं पतिदेवताः शिखरिणामिव सागरमापगाः ।

मगधकोसलकेकयशासिनां दुहितरोऽहितरोपितमार्गणम् ॥ ९ -१७॥

मगध, कोसल तथा केकय देश के राजाओं की पतिव्रता कन्याओं (क्रमशः--सुमित्रा, कौसल्या तथा केकयी) ने शत्रुओं पर बाण को आरोपित करनेवाले (बाण से शत्रुओं को मारने वाले) उस (दशरथ) को, समुद्र को पर्वत कन्याओं अर्थात्‌ नदियों के समान, पति रूप में प्राप्त किया ॥ १७॥

प्रियतमाभिरसौ तिसृभिर्बभौ तिसृभिरेव भुवं सह शक्तिभिः ।

उपगतो विनिनीषुरिव प्रजा हरिहयोऽरिहयोगविचक्षणः ॥ ९ -१८॥

शत्रुनाशक उपायों में चतुर यह (दशरथ) तीन प्रियतमाओं (कोसल्या, कैकयी और सुमित्रा) के साथ, प्रजाओं की विनीत करने की इच्छा करते हुए, तीन शक्तियों (प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति और उत्साहशक्ति ) के साथ पृथ्वी पर आये हुए शत्रुनाशक उपायों से चतुर इन्द्र के समान शोभित हुए ॥ १८॥

स किल संयुगमूर्ध्नि सहायतां मघवतः प्रतिपद्य महारथः ।

स्वभुजवीर्यमगापयदुच्छ्रितं सुरवधूरवधूतभयाः शरैः ॥ ९ -१९॥

महारथ उस (दशरथ) ने युद्ध के आगे इन्द्र की सहायता करके निर्भय देवाङ्गनाओं के द्वारा, अपने बढ़े हुए बाहुबल (के यश) को गवाया। ( युद्ध के आगे होकर इन्द्र की सहायता करने से निर्भय देवाङ्गनाओं ने दशरथ के बाहुबलजन्य यश को गाया ) ॥ १९ ॥

क्रतुषु तेन विसर्जितमौलिना भुजसमाहृतदिग्वसुना कृताः ।

कनकयूपसमुच्छ्रयशोभिनो वितमसा तमसासरयूतटाः ॥ ९ -२०॥

यशों में मुकुट को उतारे हुए, बाहु (बल ) से दिशाओं की सम्पत्ति को प्राप्त किये हुए तथा तमोगुण से रहित उस (दशरथ) ने तमसा और सरयू नदियों के तटों को सुवर्ण के यज्ञस्तम्भों की उंचाई से शोभित कर दिया॥ २० ॥

अजिनदण्डभृतं कुशमेखलां यतगिरं मृगशृङ्गपरिग्रहाम् ।

अधिवसंस्तनुमध्वरदीक्षितामसमभासमभासयदीश्वरः ॥ ९ -२१॥      

और शिवजी ने मृगचर्म तथा दण्ड धारण किये हुए, कुशाओं की मेखलावाले, मौनी, मृग के सींगमात्र परिग्रह (साधन) वाले ( यज्ञ में दीक्षित होनेपर यदि शरीर कहीं खुजलाता है तो हाथ की अंगुलीयों या नखों से खुजलाने का निषेध होने से पूर्व गृहीत मृग की सींग से ही खुजलाते हैं ), यज्ञ में दीक्षा ग्रहण किये हुए, दशरथ के शरीर में निवास करते हुए अनुपम कान्तिमान्‌ उस (दशरथ) को सुशोभित किया ॥ २१॥

अवभृथप्रयतो नियतेन्द्रियः सुरसमाजसमाक्रमणोचितः ।

नमयति स्म स केवलमुन्नतं वनमुचे नमुचेररये शिरः ॥ ९ -२२॥

अवभृथ (यज्ञान्त में किया जानेवाला स्नान विशेष) से शुद्ध, जितेन्द्रिय और देवसभा में बैठने योग्य वह दशरथ उन्नत मस्तक को केवल जल-वृष्टि करनेवाले इन्द्र के लिये नवाते थे । (अन्य राजाओं को पराजित करने से वे केवल इन्द्र को ही प्रणाम करने में मस्तक भुकाते थे )॥ २२ ॥

असकृदेकरथेन तरस्विना हरिहयाग्रसरेण धनुर्भृता ।

दिनकराभिमुखा रणरेणवो रुरुधिरे रुधिरेण सुरद्विषाम् ॥ ९ -२३॥

अद्वितीय (प्रधान) रथी, बलवान्‌ , इन्द्र के आगे चलनेवाले धनुर्धारी (दशरथ) ने सूर्य के सम्मुख स्थित अर्थात्‌ ऊपर उड़ी हुई युद्ध की धूलियों को राक्षसों के रक्त से अनेक बार शान्त किया। ( युद्ध में इन्द्र के आगे २ बढ़कर राक्षसों को अनेक बार संहार किया ) ॥ २३ ॥

अथ समाववृते कुसुमैर्नवैस्तमिव सेवितुमेकनराधिपम् ।

यमकुबेरजलेश्वरवज्रिणां समधुरं मधुरञ्चितविक्रमम् ॥ ९ -२४॥        

इसके बाद यम, कुबेर, वरुण और इन्द्र के समान भारवाले (क्रमशः यमादि पूर्वोक्त चारों दिकपालों के समान समदर्शिता, दानशीलता, नियमन (शासन) और ऐश्वर्यवाले), श्रेष्ठ पराक्रमी और प्रधान राजा उस (दशरथ) को मानो सेवा करने के लिये बसन्त (ऋतु) नये २ फूलों से युक्त होकर उपस्थित हुआ ॥ (जिस प्रकार अन्य राजालोग रत्नादि का उपहार लाकर दशरथ की सेवा में उपस्थित होते थे, उसी प्रकार ऋतुराज (वसन्त) भी नये फूलों का उपहार लेकर उनकी सेवा के लिये उपस्थित हुआ अर्थात्‌ वसन्त ऋतु आने पर नये २ फूल खिलने लगे)॥ २४ ॥

जिगमिषुर्धनदाध्युषितां दिशं रथयुजा परिवर्तितवाहनः ।

दिनमुखानि रविर्हिमनिग्रहैर्विमलयन्मलयं नगमत्यजत् ॥ ९ -२५॥

कुबरपालित (उत्तर ) दिशा को , जाने के इच्छुक ( उत्तरायण होनेवाले), सारथि (अरुण) के द्वारा घुमाये गये घोड़ोंवाले सुर्य ने हिम (पाला या ठंडक) को रोकने से प्रात: काल को निर्मल करते हुए मलय पर्वत को छोड़ा (सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण हुए )॥ २५ ॥।

कुसुमजन्म ततो नवपल्लवास्तदनु षट्पदकोकिलकूजितम् ।

इति यथाक्रममाविरभून्मधुर्द्रुमवतीमवतीर्य वनस्थलीम् ॥ ९ -२६॥

 (पहले) फूलों की उत्पत्ति, फिर नये २ पल्लव, उसके बाद ( क्रमशः ) भ्रमरों का गुञ्जार और कोयलों का कुहुकना, इस प्रकार वसन्त क्रमानुमार पेड़ोंवाली वन 'भूमि में उतरकर प्रकट हुआ । (पहले पेड़ों में फूल लग गये और उन पर भ्रमर गुञ्जार करने लगे, तथा तदनन्तर नये २ कोमल पल्लव निकलने लगे, जिनके आस्वादन से कषाय कण्ठ कोकिल कूजने लगी, इस प्रकार वसन्त वनराजियों में दिखाई पड़ने लगा )॥ २६ ॥

नयगुणोपचितामिव भूपतेः सदुपकारफलां श्रियमर्थिनः ।

अभिययुः सरसो मधुसंभृतां कमलिनीमलिनीरपतत्रिणः ॥ ९ -२७॥

नीतिरूपी गुण से (या नीति तथा पराक्रमादि गुणों से ) बढ़ी हुई और सज्जनों का उपकारमात्र फलवाली राजा (दशरथ) की सम्पत्ति को याचकों के समान, वसन्त से वृद्धि को प्राप्त, तडाग की कमलिनी को भ्रमर तथा जलचरप्राणियों (हंस आदि) ने प्राप्त किया ॥ २७॥

कुसुममेव न केवलमार्तवं नवमशोकतरोः स्मरदीपनम् ।

किसलयप्रसवोऽपि विलासिनां मदयिता दयिताश्रवणार्पितः ॥ ९ -२८॥

ऋतु में उत्पन्न अशोक वृक्ष का केवल फूल ही कामोद्दीपक नहीं हुआ, किन्तु विलासियों को उन्मादित करनेवाला, प्रियाओं का कर्णभूषण बना हुआ नवपल्लव भी कामोद्दीपक हुआ ॥२८॥

विरचिता मधुनोपवनश्रियामभिनवा इव पत्रविशेषकाः ।

मधुलिहां मधुदानविशारदाः कुरबका रवकारणतां ययुः ॥ ९ -२९॥

वसन्त के द्वारा उपवन-लक्ष्मी की बनायी गयी नयी २ पत्ररचना (स्त्री कपोलस्य चन्दनादि की पत्राकार रचना) के समान स्थित, बहुत मधु-दान करनेवाले लाल फूलवाली कटसरैया के वृक्ष भ्रमरों के गुञ्जार के कारण बन गये । (भ्रमर कटसरैया वृक्षों के लाल पुष्पों के रस को पीकर वैसे गुञ्जार करने लगे, जैसे दाता से दान प्राप्तकर याचक उसकी गुणगान करते हैं) ॥ २९ ॥

सुवदनावदनासवसंभृतस्तदनुवादिगुणः कुसुमोद्गमः ।

मधुकरैरकरोन्मधुलोलुपैर्बकुलमाकुलमायतपङ्क्तिभिः ॥ ९ -३०॥

सुमुखी के मुख-मदिरा से उत्पन्न ( तरुणियां मुख में मदिरा लेकर बकुल वृक्ष पर कुल्ला फेंकती हैं तो वह शीघ्र विकसित होता है--ऐसी कविसमय-प्रसिद्धि हे) और उस (मदिरा) के अनुरूप गुण (सुगन्धि) वाली पुष्पोत्पत्ति ने मधु के लोभी, लम्बी २ कतारों को बांधकर आते हुए भ्रमरों से मौलेसरी के वृक्ष को व्याकुल (सब ओर व्याप्त) कर दिया ॥३०॥

उपहितं शिशिरापगमश्रिया मुकुलजालमशोभत किंशुके ।

प्रणयिनीव नखक्षतमण्डनं प्रमदया मदयापितलज्जया ॥ ९ -३१॥

(नायिकारूप) वसन्तश्री के द्वारा (नायकरूप) पलाश वृक्ष में उत्पन्न किया गया कलिका-समूह, मद से लज्जाहीन प्रमदा के द्वारा प्रियतम (के अंगों) पर किये गये नखक्षतरूप भूषण के समान शोभता था ॥ ३१॥

व्रणगुरुप्रमदाधरदुःसहं जघननिर्विषयीकृतमेखलम् ।

न खलु तावदशेषमपोहितुं रविरलं विरलं कृतवान्हिमम् ॥ ९ -३२॥   

अधिक दन्तक्षतोंवाले प्रमदाओं के अधरोष्ठों से असह्य और (ठण्डा लगने से) जघनों को करधनी से रहित करनेवाले शीत (ठण्डक) को सूर्य ने पूर्णतया नही दूर किया, किन्तु उसे कम कर दिया । (पहले शिशिर ऋतु में अत्यधिक ठण्डक से दन्तक्षत असह्य हो रहे थे तथा करधनी को पहनना भी स्त्रियों ने छोड़ दिया था, उस ठंडक को सूर्यताप ने कुछ कम कर दिया था, विशेष कम नही किया था) ॥ ३२ ॥

अभिनयान्परिचेतुमिवोद्यता मलयमारुतकम्पितपल्लवा ।

अमदयत्सहकारलता मनः सकलिका कलिकामजितामपि ॥ ९ -३३॥  

अभिनयों (हाव-भाव व्यञ्जक व्यापारों) को अभ्यास करने के लिये तैयार (नर्तकी) के समान स्थित, मलयाचल की वायु से कम्पित पल्लवोंवाली कोरकयुक्त आम्रलता द्वेष तथा काम के विजेताओं (ऋषि-मुनियों) के भी मन को उन्मत्त कर दिया ॥ ३३ ॥

प्रथममन्यभृताभिरुदीरिताः प्रविरला इव मुग्धवधूकथाः ।

सुरभिगन्धिषु शुश्रुविरे गिरः कुसुमितासु मिता वनराजिषु ॥ ९ -३४॥

सुगन्धियुक्त गन्धोंवाली (खुशबूदार) पुष्पयुक्त वनराजियों में पहले कोयलों से कही गयी परिमित वचन(कुहकना) मुग्ध बधुओं की कथाओ के समान सुना गया । (जिस प्रकार रतिकाम में नववधुएं लज्जा से थोड़ा २ बोलती हैं, उसी प्रकार सुगन्धियुक्त पुष्पित उपवन में कहीं २ कोयलों का कहुकना सुनाई पड़ने लगा) ॥ ३४ ॥

श्रुतिसुखभ्रमरस्वनगीतयः कुसुमकोमलदन्तरुचो बभुः ।

उपवनान्तलताः पवनाहतैः किसलयैः सलयैरिव पाणिभिः ॥ ९ -३५॥

कानों को सुखकर, भ्रमर गुञ्जनरूपी गीतवाली, तथा पुष्परूपी कोमल दॉतों की शोभावाली उपवन के पास की लतायें वायु से हिलते हुए नवीन पल्लवों से लय (हाव-भाव प्रदर्शक अभिनय विशेष) सहित हाथों के समान शोभित हुईं ॥ ३५॥

ललितविभ्रमबन्धविचेक्षणं सुरभिगन्धपराजितकेसरम् ।

पतिषु निर्विविशुर्मधुमङ्गनाः स्मरसखं रसखण्डनवर्जितम् ॥ ९ -३६॥

स्त्रियों ने सुन्दर विलास घटना से अधिक चातुर्ययुक्त, सुगन्धि से मौलेसरी को पराजित करनेवाले और काम वर्द्धक मद्य को पतियों के विषय में अखण्डित प्रेम के साथ पान किया । (परस्पर प्रेमयुक्त होकर स्त्रियों ने पतियों के साथ मद्यपान किया )॥ ३६ ॥

शुशुभिरे स्मितचारुतराननाः स्त्रिय इव श्लथशिञ्जितमेखलाः ।

विकचतामरसा गृहदीर्घिका मदकलोदकलोलविहंगमाः ॥ ९ -३७॥   

खिले हुए कमलोंवाली, मद से अस्पष्ट एवं मधुर चहचहाती हुईं जलचर पक्षियों (हंसादि) वाली गृह की बावड़ियाँ, मुस्कान से अधिक सुन्दर मुखोंवाली और ढीली लटकती एवं बजती हुईं करघनियोंवाली स्त्रियों के समान शोभित हुईं ॥ ३७॥

उपययौ तनुतां मधुखण्डिता हिमकरोदयपाण्डुमुखच्छविः ।

सदृशमिष्टसमागमनिर्वृतिं वनितयानितया रजनीवधूः ॥ ९ -३८॥

वसन्त-समय (के आने) से उदय से पाण्डुवर्ण सायङ्काल (पक्षान्तर में-मुख) वाली रात्रिरूपिणी, स्त्री इष्ट (प्रिय)-समागम के सुख को नहीं पायी हुई नायिका के समान कृशता (दुर्बलता, रात्रिपक्ष में-छोटी होना) को ग्रहण किया। ( स्त्री दुर्बल हो गयी तथा रात्रि छोटी होने लगी )॥ ३८ ॥

अपतुषारतया विशदप्रभैः सुरतसङ्गपरिश्रमनोदिभिः ।

कुसुमचापमतेजयदंशुभिर्हिमकरो मकरोर्जितकेतनम् ॥ ९ -३९॥

चन्द्र हिमनाश होने से निर्मल प्रकाशवाले तथा सुरत (रतिक्रीडा) के सङ्गम से उत्पन्न परिश्रम को दूर करनेवाले किरणों के द्वारा मकर से उन्नत पताकावाले कामदेवको तीक्ष्ण करने (बढ़ाने) लगा ॥ ३९॥

हुतहुताशनदीप्ति वनश्रियः प्रतिनिधिः कनकाभरणस्य यत् ।

युवतयः कुसुमं दधुराहितं तदलके दलकेसरपेशलम् ॥ ९ -४०॥

प्रज्वलित अग्नि के समान कान्तिवाला जो (कनेर का) फूल वनलक्ष्मी के कर्णभूषण का प्रतिनिधि हुआ, पंखुड़ियों तथा परागों में सुकोमल अर्थात्‌ सुन्दर उस फूल को युवतियों ने बालों में लगाया (गूँथा)॥ ४० ॥

अलिभिरञ्जनबिन्दुमनोहरैः कुसुमपङ्क्तिनिपातिभिरङ्कितः ।

न खलु शोभयति स्म वनस्थलीं न तिलकस्तिलकः प्रमदामिव ॥ ९ -४१॥

कज्जलबिन्दु के समान सुन्दर, पुष्प समूहों पर बैठते हुए भ्रमरों से चिन्हित तिलक वृक्ष वनस्थली को, स्त्री को तिलक (ललाटस्थ टीका) के समान नहीं सुशोभित करता था ऐसा नहीं, किन्तु सुशोभित करता ही था ॥ ४१॥

अमदयन्मधुगन्धसनाथया किसलयाधरसंगतया मनः ।

कुसुमसंभृतया नवमल्लिका स्मितरुचा तरुचारुविलासिनी ॥ ९ -४२॥

वृक्ष (पक्षान्तर में-पुरुष ) को सुन्दर विलासिनी नवमल्लिका लता (नेवाड़ी या मोंगरा) पराग तथा सुगन्धि से युक्त (नायिकापक्ष में -मद्य तथा इत्र आदि सुगन्धियों से युक्त), नवपल्लवरूप अधरवाली (नायिकापक्ष में-नव पल्लव के तुल्य अधरवाली) और पुष्पों से सम्पादित मुस्कान की कान्ति से (नायिकापक्ष में-मुस्कान तथा लवापक्ष में -पुष्परूप मुस्कान से) मन को मदयुक्त (मस्त) कर दिया ॥ ४२ ॥

अरुणरागनिषेधिभिरंशुकैः श्रवणलब्धपदैश्च यवाङ्कुरैः ।

परभृताविरुतैश्च विलासिनः स्मरबलैरबलैकरसाः कृताः ॥ ९ -४३॥

विलासी लोगों को अरुण (प्रातःकाल की लालिमा) को तिरस्कृत करनेवाले (लाल) वस्त्र, कर्णभूषण बनाये गये यव के अङ्कुर और कोयलों का कुहुकना-इन कामसेना रूप इन सबों ने एकमात्र स्त्रियों के पराधीन (केवल स्त्रियों में आसक्त) बना दिया॥ ४३ ॥

उपचितावयवा शुचिभिः कणैरलिकदम्बकयोगमुपेयुषी ।

सदृशकान्तिरक्ष्यत मञ्जरी तिलकजालकजालकमौक्तिकैः ॥ ९ -४४॥

श्वेत परागों से ब्याप्त अवयवोंवाली तथा भ्रमरसमूह से अधिष्ठित तिलक वृक्ष की मञ्जरी (नायिकाओं के) केशों को बांधनेवाली जालियों में गुथे हुए मोतियों के समान दिखलाई पड़ती थी ॥ ४४॥

ध्वजपटं मदनस्य धनुर्भृतश्छविकरं मुखचूर्णमृतुश्रियः ।

कुसुमकेसररेणुमलिव्रजाः सपवनोपवनोत्थितमन्वयुः ॥ ९ -४५॥

भौरों के समूह धनुर्धारी कामदेव की पताका के वस्ररूप, वसन्त ऋतु की श्री को शोभित करनेवाले मुख में लगाने योग्य चुर्णरूप वायुसहित उपवन में उड़े हुए पुष्पपराग के पीछे चले ॥ ४५ ॥

अनुभवन्नवदोलमृतूत्सवं पटुरपि प्रियकण्ठजिघृक्षया ।

अनयदासनरज्जुपरिग्रहे भुजलतां जलतामबलाजनः ॥ ९ -४६॥

नये झूले पर चढ़कर वसन्तोत्सव मनाती हुई स्त्री सावधान रहती हुई भी (साथ में झूलते हुए) पति के गले से आलिङ्गन करने की ईच्छा से बैठे जानेवाले काठ की रस्सी को पकड़ने में ढिलाई कर दी । ( झूले से वस्तुतः में  नहीं गिरती हुई भी नायिका ने मानों गिरती हुई-सी होकर झूले की रस्सी के पकड़ने को ढीलाकर पति के गले का आलिङ्गन कर लिया ) ॥ ४६ ॥

त्यजत मानमलं बत विग्रहैर्न पुनरेति गतं चतुरं वयः ।

परभृताभिरितीव निवेदिते स्मरमते रमते स्म वधूजनः ॥ ९ -४७॥

हाय ! तुम मान को छोड़ दो, विरोधों को करना व्यर्थ है, बीती हुई नौजवानी फिर नहीं लौटतीइस प्रकार कोयलों के कामोद्दीपक वचन कहने पर स्त्री (पति के साथ) रमण करने लगी । ( मानिनी स्त्री कोयलों का कामोंद्दीपक कुहकना सुनकर मान छोड़कर पतियों के साथ रमण करने लगी ) ॥ ४७ ॥

अथ यथासुखमार्तवमुत्सवं समनुभूय विलासवतीसखः ।

नरपतिश्चकमे मृगयारतिं स मधुमन्मधुमन्मथसंनिभः ॥ ९ -४८॥

फिर विष्णु, वसन्त तथा कामदेव के समान राजा (दशरथ) ने विलासिनियों (प्रियाओं) के साथ बसन्त ऋतु के उत्सव को सुखपूर्वक भोगकर शिकार खेलना चाहा ॥ ४८॥

परिचयं चललक्ष्यनिपातने भयरुचोश्च तदिङ्गितबोधनम् ।

श्रमजयात्प्रगुणां च करोत्यसौ तनुमतोऽनुमतः सचिवैर्ययौ ॥ ९ -४९॥

यह (शिकार) चञ्चल लक्ष्य (पक्षी या मृग व्याघ्रादि पशु) के गिराने में अभ्यास को, (इन लक्ष्यभूत पशुओं) के भय तथा क्रोध की चेष्टओं की जानकारी को तथा श्रम के जीतने से शरीर में फुर्ती' (हलकापन) को करता है, अतः मन्त्रियों से अनुमति पाकर (राजा शिकार के लिये ) चले ॥ ४९ ॥

मृगवनोपगमक्षमवेषभृद्विपुलकण्ठनिषक्तशरासनः ।

गगनमश्वखुरोद्धतरेणुभिर्नृसविता स वितानमिवाकरोत् ॥ ९ -५०॥    

मृगों से पूर्ण वन के योग्य भेषवाले, विशाल कण्ठ में धनुष को रखे हुए और राजाओं में सूर्यवत्‌ (तेजस्वी) वे (दशरथ) घोड़ों के खुरों से उड़ी हुईं धूलियों से आकाश को मानो छोटा (सङ्कुचित), ( या 'सवितानमिव” पाठ मानकर मानो चँदोवे से युक्त) कर दिया ॥ ५० ॥

ग्रथितमौलिरसौ वनमालया तरुपलाशसवर्णतनुच्छदः ।

तुरगवल्गनचञ्चलकुण्डलो विरुरुचे रुरुचेष्टितभूमिषु ॥ ९ -५१॥

वनमाला (पत्र-पुष्प रचितमाला) से केश बांधे तथा पेड़ों की पत्तियों के समान अर्थात् हरे रंग के कवच को पहने हुए और घोड़े के उछलती हुईं चाल से हिलते हुए कुण्डलोंवाले! (दशरथ) रुरु मृगों से युक्त (वन) स्थलियों में शोभित हुए ॥ ५१ ॥

तनुलताविनिवेशितविग्रहा भ्रमरसंक्रमितेक्षणवृत्तयः ।

ददृशुरध्वनि तं वनदेवताः सुनयनं नयनन्दितकोसलम् ॥ ९ -५२॥

सूक्ष्म लताओं में शरीर को तथा भ्रमरों में नेत्र व्यापार को संक्रमित की हुई वनदेवियों ने सुन्दर नेत्रवाले तथा नीति से कोसल (देश की प्रजाओं) को आनन्दित करनेवाले उन्हें (दशरथ को) मार्ग में देखा ॥ ५२ ॥

श्वगणिवागुरिकैः प्रथमास्थितं व्यपगतानलदस्यु विवेश सः ।

स्थिरतुरंगमभूमि निपानवन्मृगवयोगवयोपचितं वनम् ॥ ९ -५३॥     

वे (दशरथ) शिकारी कुत्तों के समूह तथा जालवाले लोगों से पहले से ही युक्त दावाग्नि और चोरों से रहित, घोड़ों के चलने योग्य सूखी हुई (दलदलरहित) भूमिवाले कुओं के पास पशुओं के पानी पीने योग्य हौजों से युक्त और हरिण, पक्षी तथा गवय ( शाबर, नीलगायों ) से परिपूण हुए बन में प्रवेश किये ॥ ५३ ॥

अथ नभस्य इव त्रिदशायुधं कनकपिङ्गतडिद्गुणसंयुतम् ।

धनुरधिज्यमनाधिरुपाददे नरवरो रवरोषितकेसरी ॥ ९ -५४॥         

इसके बाद कष्टरहित, (धनुष) के टङ्कार से सिंह को क्रोधित किये हुए नरश्रेष्ठ (दशरथ) प्रत्यञ्चा चढ़े हुए घनुष को, सुर्वण के समान बिजलीरूपी प्रत्यञ्चा से युक्त इन्द्रधनुष को भाद्रपद मास के समान ग्रहण किया ॥ ५४ ॥

तस्य स्तनप्रणयिभिर्मुहुरेणशावै - र्व्याहन्यमानहरिणीगमनं पुरस्तात् ।

आविर्बभूव कुशगर्भमुखं मृगाणां यूथं तदग्रसरगर्वितकृष्णसारम् ॥ ९ -५५॥

स्तन का पीने के लिये बच्चों से बार २ रोके गये हरिणियों के गमनवाला, मुख में कुशा लिया हुआ आगे २ चलते हुए मस्त कृष्णसार मृगवाला, मृगों का झूण्ड उस (दशरथ) के सामने आया ॥ ५५ ॥ 

तत्प्रार्थितं जवनवाजिगतेन राज्ञा तूणीमुखोद्धृतशरेण विशीर्णपङ्क्ति ।

श्यामीचकार वनमाकुलदृष्टिपातै - र्वातेरितोत्पलदलप्रकरैरिवार्द्रैः ॥ ९ -५६॥

तेज घोड़े पर चढ़े हुए, तरकस के सिरे से बाण को निकाले हुए राजा से पीछा किया गया, (अतएव) बिखरी (छिन्न-भिन्न) पंक्तिवाले उस मृगों के झुण्ड ने, अश्रुयुक्त एवं भयचकित नेत्रों से, वायु के द्वारा कम्पित हुए नीलकमलपत्रों के समान, वन को श्यामवर्ण कर दिया ॥५६॥

लक्ष्यीकृतस्य हरिणस्य हरिप्रभावः प्रेक्ष्य स्थितां सहचरीं व्यवधाय देहम् ।

आकर्णकृष्टमपि कामितया स धन्वी बाणं कृपामृदुमनाः प्रतिसंजहार ॥ ९ -५७॥

विष्णु (या इन्द्र) के समान समर्थ धनुर्धारी उस (दशरथ) ने निशाना बनाये गये हरिण के शरीर को ब्यवहित (मेरे पति को पहले बाण न लगकर मुझे ही लगे इस भावना से राजा दशरथ तथा प्रिय मृग के मध्य में) करके खड़ी हुईं हरिणी को देखकर कान तक खेंचे हुए धनुष को भी स्वयं कामी होने के कारण कृपा से दयार्द्रचित्त होते हुए उतार लिया ( प्रत्यञ्चा ढीलीकर दी अर्थात्‌ बाण नहीं छोड़ा ) ॥ ५७ ॥

तस्यापरेष्वपि मृगेषु शरान्मुमुक्षोः कर्णान्तमेत्य बिभिदे निबिडोऽपि मुष्टिः ।

त्रासातिमात्रचटुलैः स्मरतः सुनेत्रैः प्रौढप्रियानयनविभ्रमचेष्टितानि ॥ ९ -५८॥

भय से अत्यन्त चञ्चल नेत्रों के द्वारा अपनी प्रौढ प्रियाओं के नेत्रों के विलासपूर्ण चेष्टओं को स्मरण करते हुए दूसरे मृगों पर भी बाणों को छोड़ने के इच्छुक उस (दशरथ) की दृढ़ मुट्ठी भी कान तक पहुंच कर ढीली पड़ गयी । (अत एव दूसरे मृगों पर भी राजा दशरथ बाण नहीं छोड़ सके ) ॥ ५८ ॥

उत्तस्थुषः सपदि पल्वलपङ्कमध्या - न्मुस्ताप्ररोहकवलावयवानुकीर्णम् ।

जग्राह स द्रुतवराहकुलस्य मार्गं सुव्यक्तमार्द्रपदपङ्क्तिभिरायताभिः ॥ ९ -५९॥        

उस (दशरथ) ने मोथे की जड़ों के ग्रासों के (मुखपतित) अवयवों से ब्याप्त, सुदूर तक गीले पैरों के चिन्हों की कतारों से स्पष्ट, तत्काल (कुछ समय पहले) ही (गड्ढों से) निकलकर भागे हुए सूअरों के झुंडों के रास्ते का अनुसरण किया। (उस रास्ते से बढ़ते हुए उनका पीछा किया )॥

तं वाहनादवनतोत्तरकायमीष - द्विध्यन्तमुद्धृतसटाः प्रतिहन्तुमीषुः ।

नात्मानमस्य विविदुः सहसा वराहा वृक्षेषु विद्धमिषुभिर्जघनाश्रयेषु ॥ ९ -६०॥

सूअरों ने घोड़े पर शरीर को थोड़ा झुकाकर प्रहार करते हुए उन (राजा दशरथ) को गर्दनों के बालों को खड़ाकर (ऐसा सूअरों का स्वभाव होता है कि किसी को मारने के पूर्व वे गर्दन को उठाकर बालों को कड़ा कर लेते हैं) मारना चाहा, किन्तु इस (दशरथ) के बाणों से एकाएक जङ्घों के आश्रयभूत पेड़ों में अपने को विधा हुआ नहीं जाना । (जब तक सूअरों ने राजा को मारना चाहा, इतने में ही उन्होंने झट उन सूअरों की जङ्घाओं में बाण मारकर उन्हें विवश कर दिया ) ॥ ६० ॥

तेनाभिघातरभसस्य विकृष्य पत्री वन्यस्य नेत्रविवरे महिषस्य मुक्तः ।

निर्भिद्य विग्रहमशोणितलिप्तपुङ्ख - स्तं पातयां प्रथममास पपात पश्चात् ॥ ९ -६१॥

वेग से प्रहार करनेवाले जङ्गली भेंसे की आँख में उस (दशरथ) से खेंचकर छोड़ा गया बाण पंख में विना रक्तरञ्जित होता हुआ (भैंस के) शरीर को विदीर्णकर उसको तो पहले गिराया तथा रक्त स्वयं पीछे गिरा ॥ ६१ ॥

प्रायो विषाणपरिमोक्षलघूत्तमाङ्गा - न्खड्गांश्चकार नृपतिर्निशितैः क्षुरप्रैः ।

शृङ्गं स दृप्तविनयाधिकृतः परेषा - मत्युच्छ्रितं न ममृषे न तु दीर्घमायुः ॥ ९ -६२॥

राजा (दशरथ) ने तेज बाणों से गेंडों के अधिकतर सिंग को तोड़कर हल के मस्तकवाला कर दिया। अभिमानियों के शासक (राजा दशरथ) झजुभोंके अत्युन्नत सींग को (शत्रुपक्ष में -उनको प्रधानता को) नही सहन किये (और उनकी) दीर्घायु को नहीं सहन किये ऐसी बात नहीं थी। (राजा ने दयाकर उनके प्राण नहीं लिये, किन्तु मान को नष्ट कर दिया) ॥ ६२ ॥

व्याघ्रानभीरभिमुखोत्पतितान्गुहाभ्यःफुल्लासनाग्रविटपानिव वायुरुग्णान् ।  

शिक्षाविशेषलघुहस्ततया निमेषा - त्तूणीचकार शरपूरितवक्त्ररन्ध्रान् ॥ ९ -६३॥

निर्भय दशरथ ने गुहा से निकलकर सामने आये हुए, बायु से बिखरे हुए विकसित पुष्पोवाले सर्ज वृक्षों के समान स्थित बाघों का मुख उत्तम शिक्षा पाने के कारण फुर्तीले हाथों से पलक भर में बाणों से भर दिया। (गुफा से उछलकर सामने आते ही क्षणमात्र में बाणों से उनके मुखों को पूर्ण कर दिया )॥ ६३॥

निर्घातोग्रैः कुञ्जलीनाञ्जिघांसुर्ज्यानिर्घोषैः क्षोभयामास सिंहान् ।

नूनं तेषामभ्यसूयापरोऽभूद्वीर्योदग्रे राजशब्दो मृगेषु ॥ ९ -६४॥

कुञ्जों में छिपे हुए सिहों को मारने के इच्छुक (राजा दशरथ)ने बिजली कड़कने के समान तीव्र धनुष के टङ्कारों से उन्‍हें व्याकुल कर दिया। मालूम पड़ता है कि निश्चय ही (राजा दशरथ) मृगों में पराक्रम से उन्नत राजशब्द अर्थात् 'मृगराज” शब्दों में ईष्या करते थे। ( वे स्वयं एकच्छत्र राजा रहते हुए इन सिंहों का 'मृगराजकहलाना नहीं सहन करते थे, अत एव उन्हें मारने की इच्छा से कुञ्जों में छिपे हुए सिहों को धनुषटंकार से व्याकुल कर दिया)॥ ६४॥

तान्हत्वा गजकुलबद्धतीव्रवैरान्काकुत्स्थः कुटिलनखाग्रलग्नमुक्तान् ।

आत्मानं रणकृतकर्मणां गजानामानृण्यं गतमिव मार्गणैरमंस्त ॥ ९ -६५॥

दशरथ ने गज समूहों से घोर विरोध करनेवाले और टेंढे नखों के अग्रभाग में स्थित गजमुक्तावाले उन सिंहों को मारकर युद्ध कार्य में उपकार करनेवाले हाथियों के ऋण से अपने को मुक्त हुआ माना ॥ ६५ ॥

चमरान्परितः प्रवर्तिताश्वः क्वचिदाकर्णविकृष्टभल्लवर्षी ।

नृपतीनिव तान्वियोज्य सद्यः सितबालव्यजनैर्जगाम शन्तिम् ॥ ९ -६६॥

चमर मृगों के चारों ओर घोड़े को दौड़ाये हुए तथा कान तक खींच २ कर भाला मारनेवाले वे (दशरथ) राजाओं के समान उनको श्वेत चामरों ( पक्षा०--पूंछों ) से हीनकर शीघ्र शान्त हो गये । राजाओं को पराजित कर उन्हें राजचिन्हरूप श्वेत चामरों से रहित कर शान्त होने के समान चमर मृगों के भी पूंछों को काटकर छोड़ दिया, उन्हें मारा नहीं)॥ ६६ ॥

अपि तुरगसमीपादुत्पतन्तं मयूरं न स रुचिरकलापं बाणलक्ष्यीचकार ।

सपदि गतमनस्कश्चित्रमाल्यानुकीर्णे रतिविगलितबन्धे केशपाशे प्रियायाः ॥ ९ -६७॥

वे (राजा दशरथ) घोड़े के पास से उड़ते हुए भी मनोहर पूछोंवाले मोर को, चित्र- विचित्र मालाओं से व्याप्त (गुथे हुए) तथा रति में बन्धन खुले हुए प्रिया के केश-समूह (चोटी) को स्मरणकर बाण का निशाना नही बनाये, (उन पर बाण नहीं चलाये)॥६७॥

तस्य कर्कशविहारसंभवं स्वेदमाननविलग्नजालकम् ।

आचचाम सतुषारशीकरो भिन्नपल्लवपुटो वनानिलः ॥ ९ -६८॥       

कठोर (मृगया) विहार करने से उत्पन्न मुख पर बूंदों के समूहों से युक्त उनके पसीने को, ठन्डे जलकणों से युक्त, तथा पल्लवों के बन्द कोषों को स्फुटित करनेवाली वन की हवा ने दूर किया ॥ ६८॥

इति विस्मृतान्यकरणीयमात्मनः सचिवावलम्बिधुरं धराधिपम् ।

परिवृद्धरागमनुबन्धसेवया मृगया जहार चतुरेव कामिनी ॥ ९ -६९॥

इस प्रकार अपने दूसरे कर्तव्यों को भूले हुए तथा राज्यभार को मन्त्रीयों के अधीन किये हुए और निरन्तर सेवन करने (लगे रहने) से अधिक प्रेम (आसक्ति) युक्त राजा को आखेट ने चतुर कामिनी के समान आर्कषित कर लिया ॥ ६९ ॥

स ललितकुसुमप्रवालशय्यां ज्वलितमहौषधिदीपिकासनाथाम् ।

नरपतिरतिवाहयांबभूव क्वचिदसमेतपरिच्छदस्त्रियामाम् ॥ ९ -७०॥

उस राजा (दशरथ) ने सुन्दर पुष्पों तथा नवपल्लबों की शय्यावाली, जलती हुई महौषधिरूप दीपकोंवाली रात्रि को कहीं पर परिजनों से रहित होते हुए अर्थात्‌ अकेला बिताया | (राजा दशरथ ने अपने अनुचरों का साथ छूट जाने पर रात को किसी स्थान में फूलों तथा पत्तों पर सोकर बीताया और वहां दीपक के स्थान में औषधियां प्रकाशित हो रही थी)॥७०॥

उषसि स गजयूथकर्णतालैः पटुपटहध्वनिभिर्विनीतनिद्रः ।

अरमत मधुराणि तत्र शृण्वन्विहगविकूचितबन्दिमङ्गलानि ॥ ९ -७१॥

प्रातःकाल बड़े नगाड़े के समान ध्वनिवाली हाथियों के कानों की ध्वनि से जगे हुए वे (राजा दशरथ) वहां पर पक्षियों का मधुर मधुर वचन (चहचहाना) रूप बन्दियों के मङ्गल स्तुतियों को सुनते हुए प्रसन्न हुए॥ ७१॥

अथ जातु रुरोर्गृहीतवर्त्मा विपिने पार्श्वचरैरलक्ष्यमाणः ।

श्रमफेनमुचा तपस्विगाढां तमसां प्राप नदीं तुरंगमेण ॥ ९ -७२॥       

इसके बाद किसी समय रुरु मृग के मार्ग को ग्रहण किये (रुरु मृग का पीछा करते) हुए, वन में अनुचरों से नहीं देखे जाते हुए वे (दक्षरथ राजा) थकावट से फेन को गिराते हुए, घोड़े पर चढ़े हुए, तपस्वियों ने जिस में स्नान किया है ऐसी तमसा नदी को प्राप्त किया अर्थात् रुरु मृग का पीछा करते हुए दशरथ साथियों का साथ छूट जाने पर थके हुए घोड़े पर चढ़े हुए तमसा नदी पर पहुंचे ॥ ७२ ॥  

कुम्भपूरणभवः पटुरुच्चैरुच्चचार निनदोऽम्भसि तस्याः ।

तत्र स द्विरदबृंहितशङ्की शब्दपातिनमिषुं विससर्ज ॥ ९ -७३॥

उस (तमसा नदी) के पानी में घड़ा भरने से मधुर एवं तीव्र ध्वनि हुई, उस ध्वनि में हाथी के गर्जने का सन्देहकर उस (दशरथ) ने शब्दवेधी बाण छोड़ा ॥ ७३ ॥

नृपतेः प्रतिषिद्धमेव तत्कृतवान्पङ्क्तिरथो विलङ्घ्य यत् ।

अपथे पदमर्पयन्ति हि श्रुतवन्तोऽपि रजोनिमीलिताः ॥ ९ -७४॥

वह (गजवधरूप) कर्म राजा के प्रतिकूल ही हुआ, जिस (गजवधरूप) कर्म को दशरथ ने ('युद्धभूमि के सिवा हाथी का वध नहीं करना चाहिये”? इस शास्त्रीय वचन का) उल्लङ्घन कर दिया। विद्वान भी राजसिक गुण से आक्रान्त होते हुए अयोग्य स्थान में पैर रखते हैं, अर्थात्‌ नहीं करने योग्य काम कर देते हैं ॥ ७४ ॥

हा तातेति क्रन्दितमाकर्ण्य विषण्ण - स्तस्यान्विष्यन्वेतसगूढं प्रभवं सः ।

शल्यप्रोतं प्रेक्ष्य सकुम्भं मुनिपुत्रं तापादन्तःशल्य इवासीत्क्षितिपोऽपि ॥ ९ -७५॥

हा पिताजी !ऐसा रोदन सुनकर हतोत्साह होते हुए, बेतों (के कुञ्ज) में छिपे हुए उस (रोदनध्वनि) के उत्पत्ति स्थान को ढूंढते हुए, बाण से आहत तथा घड़ा लिये मुनि कुमार को देखकर राजा भी दुःख के कारण हृदय में बाणविद्ध के समान (दुखित) हो गये ॥७५॥

तेनावतीर्य तुरगात्प्रथितान्वयेन पृष्टान्वयः स जलकुम्भनिषण्णदेहः ।

तस्मै द्विजेतरतपस्विसुतं स्खलद्भि - रात्मानमक्षरपदैः कथयांबभूव ॥ ९ -७६॥

विख्यात कुलवाले उस (दशरथ) ने धोड़े से उतरकर वंश पूछा तो पानी के घड़े पर शरीर को रखकर (सहारा देकर) वह मुनिकुमार उन (दशरथ) से स्खलित होते हुए अर्थात्‌ अपष्ट अक्षरोंवाले शब्दों से अपने को द्विज से भिन्न (वैश्य पिता से शूद्र माता में उत्पन्न 'करण' संज्ञक) मुनि-कुमार बतलाया (इसी कारण राजा दशरथ ब्रह्महत्या के पाप से बच गये )॥

तच्चोदितः स तमनुद्धृतशल्यमेव पित्रोः सकाशमवसन्नदृशोर्निनाय ।

ताभ्यां तथागतमुपेत्य तमेकपुत्रमज्ञानतः स्वचरितं नृपतिः शशंस ॥ ९ -७७॥

राजा (दशरथ) उसके ऐसा कहने पर विना बाण निकाले ही उस (कुमार) को अन्धे माता-पिता के पास ले गये और इकलौते पुत्रवाले उन लोगों से उस प्रकार (बेंतों कुञ्ज में छिपे रहने से) अज्ञान से किये गये अपने कार्य (हाथी के भ्रम से मारने) को बतला दिया ॥

तौ दंपती बहु विलप्य शिशोः प्रहर्त्रा शल्यं निखातमुदहारयतामुरस्तः ।

सोऽभूत्परासुरथ भूमिपतिं शशाप हस्तार्पितैर्नयनवारिभिरेव वृद्धः ॥ ९ -७८॥

उस दम्पति मुनि ने बहुत विलापकर बालक को मारनेवाले (दशरथ) से गड़े हुए बाण को (बालक की) छाती से निकलवाया और वह मर गया, इसके बाद बूढ़े (मुनि) ने चूल्लू में आँसू का जल लेकर राजा को ऐसा शाप दिया-॥ ७८ ॥

दिष्टान्तमाप्स्यति भवानपि पुत्रशोका - दन्त्ये वयस्यहमिवेति तमुक्तवन्तम् ।

आक्रान्तपूर्वमिव मुक्तविषं भुजंगं प्रोवाच कोसलपतिः प्रथमापराद्धः ॥ ९ -७९॥

 “आप भी वृद्धावस्था में मेरे समान पुत्र शोक से मरेंगेऐसा कहनेवाले, पहले आक्रान्त (पैर आदि से दबे हुए) विष को उगलनेवाले सर्प के समान उस (मुनि) से, पहले (अपने) को अपराधी कहनेवाले कोसलाधीश (दशरथ) बोले--॥ ७९ ॥

शापोऽप्यदृष्टतनयाननपद्मशोभेसानुग्रहो भगवता मयि पातितोऽयम् ।

कृष्यां दहन्नपि खलु क्षितिमिन्धनेद्धो बीजप्ररोहजननीं ज्वलनः करोति ॥ ९ -८०॥

पुत्र के मुखकमल की शोभा को नहीं देखे हुए मुझपर आपने यह अनुग्रहरूप शाप को गिराया है । इन्धन से बढ़ी हुईं जोतने योग्य भूमि को जलाती हुई भी अग्नि उसे बीजाङ्कुरोत्पदि का बनाती है। (मुझे अब तक कोई पुत्र नहीं हुआ है अत एव आपका वचन तो सत्य होगा तथा मुझे पुत्र का मुखकमल देखने का मत्सौभाग्य प्राप्त होगा, इस प्रकार आपने शाप देकर भी मुझ पर उस प्रकार अनुग्रह किया है, जिस प्रकार घास-फूस आदि इन्धनों से जोतने योग्य भूमि भको जलानेवाली भी आग उसे पैदावार ही बना देती है) ॥ ८० ॥

इत्थं गते गतघृणः किमयं विधत्तां वध्यस्तवेत्यभिहितो वसुधाधिपेन ।

एधान्हुताशनवतः स मुनिर्ययाचे पुत्रं परासुमनुगन्तुमनाः सदारः ॥ ९ -८१॥

ऐसा होने पर निर्दय होने से तुम्हारा वध्य यह व्यक्ति क्या करे? (मैं क्या करूं)”? इस प्रकार राजा के पूछने पर मरे हुए पुत्र के पीछे स्त्रीसहित मरने की इच्छा करनेवाले मुनि ने अग्नियुक्त लकड़ियों को मांगा। (राजा से मुनि ने चिता बनाकर जलाने के लिये कहा)॥ ८१॥

प्राप्तानुगः सपदि शासनमस्य राजा संपाद्य पातकविलुप्तधृतिर्निवृत्तः ।

अन्तर्निविष्टपदमात्मविनाशहेतुंशापं दधज्ज्वलनमौर्वमिवाम्बुराशिः ॥ ९ -८२॥

परिजनों को प्राप्तकर राजा (दशरथ) ने तत्काल इस (मुनि) की आज्ञाका पालन कर पाप से अधीर होते हुए तथा अन्तःकरण में स्थित अपने विनाश के कारणभूत शाप को, भीतर में स्थित बडवाग्नि को समुद्र के समान, धारण करते हुए (राजधानी को) लौटे॥ ८२॥

॥ इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये कविश्रीकालिदासकृतौ मृगयावर्णनो नाम नवमः सर्गः ॥

रघुवंशमहाकाव्य 'मृगयावर्णन नामक नवम सर्ग समाप्त हुआ ॥९॥     

रघुवंशमहाकाव्यम् नवम: सर्गः 

रघुवंशं सर्ग ९ कालिदासकृत

रघुवंश नौवां सर्ग संक्षिप्त कथासार

अपने पिता के पश्चात् उत्तर कोसल प्रान्तों को प्राप्त करके जितेन्द्रिय दशरथ ने अच्छी प्रकार से शासन किया। उस समय मनीषियों ने देवराज इन्द्र तथा राजा दशरथ इन दोनों को हो जल वर्षा धनवर्षा कर परिश्रमियों की थकावट दूर करने वाला कहा है। महाराज दशरथ के राज्य में न रोग था, न शत्रु से किसी के अभिभव की कल्पना थी। इस प्रकार १२ पद्यों में राज्य का तथा दिग्विजय का बड़ा ही रोचक तथा सत्य वर्णन किया गया है। इसके बाद मगध, कोसल, केकय की राजकुमारियों में राजा का विवाह होता है। मानों प्रभुशक्ति, मंत्रशक्ति, उत्साहशक्ति के साथ पृथिवी में अवतीर्ण इन्द्र के समान सुशोभित हुए, राजा ने अनेक यज्ञ किये । इन सबका भी कवि ने बड़ा प्रभावकारी वर्णन किया।

इसके पश्चात् वसन्त ऋतु का आगमन होता है। महाकवि ने वसन्त वर्णन तथा वसन्तोत्सव का वर्णन प्रायः २३ श्लोकों में बहुत मार्मिक, मनोरम ढंग से किया है। वसन्तोत्सव के उपरान्त राजा मृगया ( शिकार ) खेलने के लिए सदल बल जाते हैं । २६ पद्यों में शिकार खेलने का वर्णन कवि ने स्वभाविक रूप से किया है । इस अवसर पर श्रवणकुमार अपने अन्धे माता पिता के लिये जल लेने तमसा नदी के तीर पर आता है। घड़ा भरने के शब्द को सुनकर हाथी की कल्पना कर भ्रमवश राजा शब्दवेधी बाण चला देते हैं, वह बाण श्रवणकुमार को लग जाता है । "हा पिताजी" यह श्रवणकुमार का रोना सुनकर राजा उसके पास जाकर ब्रह्महत्या की आशंका से उसका कुल पूछते हैं । श्रवणकुमार के वैश्य से शूद्रा में उत्पन्न अपने को करण जाति का बताने पर राजा भी बहुत दुःखी होते हैं । श्रवणकुमार के कहने पर राजा, उसे उसके अन्धे माता पिता के पास ले जाकर अज्ञानवश अपना अपराध स्वीकार करते हैं। अन्धमुनि के कहने पर राजा चिता तैयार करते हैं तथा श्रवणकुमार के हृदय से वाण निकालते ही वह मर जाता है, तब अन्धे मूनि राजा को यह शाप देकर कि "आप भी मेरी तरह वृद्धावस्था में पुत्रशोक से मरोगे"। पुत्र के साथ माता पिता भी मर जाते हैं। पुत्रहीन होने के कारण राजा इस शाप को भी अनुग्रह मानकर दुःखित हृदय से घर लौट जाते हैं।

कालिदासकृत रघुवंश महाकाव्य सर्ग ९ समाप्त हुआ ॥         

शेष जारी..............आगे रघुवंशमहाकाव्यम् दसम सर्ग।

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