Slide show
Ad Code
JSON Variables
Total Pageviews
Blog Archive
-
▼
2022
(523)
-
▼
February
(54)
- गायत्री कवच
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल १७
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल १६
- नारदसंहिता अध्याय ३०
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल १५
- नारदसंहिता अध्याय २९
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल १४
- नारदसंहिता अध्याय २८
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल १३
- उच्चाटन प्रयोग
- नारदसंहिता अध्याय २७
- नारदसंहिता अध्याय २६
- नारदसंहिता अध्याय २५
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल १२
- नारदसंहिता अध्याय २४
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल ११
- नारदसंहिता अध्याय २३
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल १०
- नारदसंहिता अध्याय २२
- मोहन प्रयोग
- नारदसंहिता अध्याय २१
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल ९
- नारदसंहिता अध्याय २०
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल ८
- मारण प्रयोग
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल ७
- गीता
- नारदसंहिता अध्याय १९
- रघुवंशम् सर्ग 8
- नारदसंहिता अध्याय १८
- नारदसंहिता अध्याय १७
- नारदसंहिता अध्याय १६
- दत्तात्रेयतन्त्रम् पटल ६
- नारदसंहिता अध्याय १५
- नारदसंहिता अध्याय १४
- नारदसंहिता अध्याय १३
- रामायण
- सप्तशती
- कार्यपरत्व नवार्ण मंत्र
- नवार्ण मंत्र रहस्य
- नवार्ण मंत्र प्रयोग
- दत्तात्रेयतन्त्रम् पंचम पटल
- दत्तात्रेयतन्त्रम् चतुर्थ पटल
- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग ९
- अन्नपूर्णाकवच
- अन्नपूर्णा स्तोत्र
- दत्तात्रेयतन्त्रम् तृतीय पटल
- दत्तात्रेयतन्त्रम् द्वितीय पटल
- दत्तात्रेयतन्त्रम् प्रथम पटल
- नारदसंहिता अध्याय १२
- चंडिकामाला मंत्र प्रयोग
- दुर्गातंत्र - दुर्गाष्टाक्षरमंत्रप्रयोग
- दुर्गा तंत्र
- मन्त्र प्रतिलोम दुर्गासप्तशती
-
▼
February
(54)
Search This Blog
Fashion
Menu Footer Widget
Text Widget
Bonjour & Welcome
About Me
Labels
- Astrology
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड
- Hymn collection
- Worship Method
- अष्टक
- उपनिषद
- कथायें
- कवच
- कीलक
- गणेश
- गायत्री
- गीतगोविन्द
- गीता
- चालीसा
- ज्योतिष
- ज्योतिषशास्त्र
- तंत्र
- दशकम
- दसमहाविद्या
- देवी
- नामस्तोत्र
- नीतिशास्त्र
- पञ्चकम
- पञ्जर
- पूजन विधि
- पूजन सामाग्री
- मनुस्मृति
- मन्त्रमहोदधि
- मुहूर्त
- रघुवंश
- रहस्यम्
- रामायण
- रुद्रयामल तंत्र
- लक्ष्मी
- वनस्पतिशास्त्र
- वास्तुशास्त्र
- विष्णु
- वेद-पुराण
- व्याकरण
- व्रत
- शाबर मंत्र
- शिव
- श्राद्ध-प्रकरण
- श्रीकृष्ण
- श्रीराधा
- श्रीराम
- सप्तशती
- साधना
- सूक्त
- सूत्रम्
- स्तवन
- स्तोत्र संग्रह
- स्तोत्र संग्रह
- हृदयस्तोत्र
Tags
Contact Form
Contact Form
Followers
Ticker
Slider
Labels Cloud
Translate
Pages
Popular Posts
-
मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
-
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी प...
-
रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
Popular Posts
अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
रघुवंशम् सर्ग 8
इससे पूर्व महाकवि कालिदास जी की
महाकाव्य रघुवंशम् सर्ग 7 में आपने... अज का राजतिलक होने तक की कथा पढ़ा । अब इससे
आगे की कथा रघुवंशम् सर्ग 8 में अज का स्वर्गवास की पढ़ेंगे। यहाँ पहले इस
सर्ग का मूलपाठ अर्थ सहित पश्चात् सरल हिन्दी में भावार्थ नीचे दिया गया है।
रघुवंशमहाकाव्यम् अष्टम सर्ग
रघुवंशं सर्ग ८ कालिदासकृतम्
रघुवंशम् आठवां सर्ग
Raghuvansham sarg 8
रघुवंशमहाकाव्यम्।
अष्टमः सर्गः।
अथ तस्य विवाहकौतुकं ललितं बिभ्रत
एव पार्थिवः ।
वसुधामपि
हस्तगामिनीमकरोदिन्दुमतीमिवापराम् ॥ ८-१॥
इसके बाद राजा रघु ने मनोहर बिबाह –मङ्गल
को धारण करते ही उस अज के हाथों में दूसरी इन्दुमती के समान पृथ्वी को भी सौप दिया
॥
दुरितैरपि कर्तुमात्मसात्प्रयतन्ते
नृपसूनवो हि यत् ।
तदुपस्थितमग्रहीदजः पितुराज्ञेति न
भोगतृष्णया ॥ ८-२॥
रामकुमार लोग जिस राज्य को (विष
देने आदि ) पाप कर्मो के द्वारा भी स्वाधीन करने के लिये प्रयत्न करते है, प्राप्त
हुए भी उस राज्य को अज ने 'पिता की आज्ञा है” इस कारण से
स्वीकार किया, भोग की तृष्णा से नही (स्वीकार किया ) ॥
अनुभूय वसिष्ठसंभृतैः सलिलैस्तेन
सहाभिषेचनम् ।
विशदोच्छ्वसितेन मेदिनी कथयामास
कृतार्थतामिव ॥ ८-३॥
पृथ्वी ने वशिष्ठ ऋषि के द्वारा (मंत्र
पूर्वक) छोड़े गए जलों से अभिषिक्त होकर निर्मल उच्छ्वास (या आनंदोच्छ्वास) से (गुणवान पति को प्राप्त करने से)
कृतार्थता को प्रकट किया
स बभूव दुरासदः
परैर्गुरुणाऽथर्वविदा कृतक्रियः ।
पवनाग्निसमागमो ह्ययं सहितं ब्रह्म
यदस्त्रतेजसा ॥ ८-४॥
अथर्व वेद के ज्ञाता गुरु वशिष्ट जी
से अभिषिक्त वह अज शत्रुओं के दुर्धर्ष (अजेय)
हुए क्योंकि क्षत्रिय तेज से युक्त जो ब्रह्मा तेज है वह वायु तथा अग्नि का समागम
है अर्थात् जिस प्रकार वायु का संयोग होने पर अग्नि असह्य हो जाती है उसी प्रकार
वशिष्ठ ऋषि के ब्रह्म तेज से युक्त अज का क्षत्रीय तेज शत्रुओं को असह्य हो गया
रघुमेव निवृत्तयौवनं तममन्यन्त
नवेश्वरं प्रजाः ।
स हि तस्य न केवलां श्रियं
प्रतिपेदे सकलान्गुणानपि ॥ ८-५॥
प्रजाओं ने उस नए राजा को लौटी हुई
जवानी वाला रघु ही माना क्योंकि उस (अज) ने उस (रघु) के केवल राजलक्ष्मी को ही
नहीं प्राप्त किया किंतु (रघु) के सब गुणों को भी प्राप्त किया
अधिकं शुशुभे शुभंयुना द्वितयेन
द्वयमेव संगतम् ।
पदमृद्धमजेन पैतृकं विनयेनास्य नवं
च यौवनम् ॥ ८-६॥
शुभ युक्त दोनों (अज तथा विनय) से
संगत दोनों (पैतृक राज्य तथा अज की युवावस्था) से अधिक शोभित हुए अज से समृद्धिशाली
पितृक्रमागत राज्य और विनय से इसकी नई युवावस्था
सदयं बुभुजे महाभुजः सहसोद्वेगमियं
व्रजेदिति ।
अचिरोपनतां स मेदिनीं नवपाणिग्रहणां
वधूमिव ॥ ८-७॥
महाबाहू अज ने थोड़े दिनों से
प्राप्त पृथ्वी को नवविवाहित वधू के समान बलात (कठोर शासन या दबाव से भोग करने पर)
यह (पृथ्वी तथा नववधू) उद्विग्न हो जाएगी इस कारण दया पूर्वक (धीरे-धीरे) भोग किया
अहमेव मतो महीपतेरिति सर्वः
प्रकृतिष्वचिन्तयत् ।
उदधेरिव निम्नगाशतेष्वभवन्नास्य
विमानना क्वचित् ॥ ८-८॥
प्रकृतियो (प्रजाओं व मंत्री आदि
अधीनस्थ कर्मचारियों) में मुझे ही राजा अधिक मानते हैं ऐसा सब ने समझा सैकड़ों
नदियों में समुद्र के समान इस (अज) के द्वारा किसी का भी तिरस्कार नहीं हुआ
न खरो न च भूयसा मृदुः पवमानः
पृथिवीरुहानिव ।
स पुरस्कृतमध्यमक्रमो नमयामास
नृपाननुद्धरन् ॥ ८-९॥
ना बहुत तेज तथा ना बहुत मंद किंतु
मध्यम गति से बहती हुई वायु जिस प्रकार वृक्षों को नहीं उखाड़ती हुई उन्हें झुका
देती है उसी प्रकार ना बहुत कठोर तथा ना बहुत सरल किंतु मध्यम शासन को करने वाले अज
ने राजाओं को नष्ट (राज्य भ्रष्ट) नहीं करते हुए उन्हें झुका दिया अर्थात अपने वश
में कर लिया
अथ वीक्ष्य रघुः प्रतिष्ठितं प्रकृतिष्वात्मजमात्मवत्तया
।
विषयेषु विनाशधर्मसु
त्रिदिवस्थेष्वपि निःस्पृहोऽभवत् ॥ ८-१०॥
इसके बाद रघु पुत्र (अज) को विकार
हीन भाव से मंत्री आदि प्रकृतियों में स्थिर (जमे हुए प्रभाव वाला) देख कर विनश्वर
पर स्वर्गीय विषयों में भी नि:स्पृह हो गए
गुणवत्सुतरोपितश्रियः परिणामे हि
दिलीपवंशजाः ।
पदवीं तरुवल्कवाससां प्रयताः
संयमिनां प्रपेदिरे ॥ ८-११॥
क्योंकि दिलीप वंशोत्पन्न राजा लोग
वृद्धावस्था में गुणवान पुत्रों को राज्यभार सौंपकर वृक्षों पर वल्कल (छाल) पहनने
वाले मुनियों के मार्ग को ग्रहण किया है (अतः रघु का विषय नि:स्पृह होना उचित ही
था)
तमरण्यसमाश्रयोन्मुखं शिरसा
वेष्टनशोभिना सुतः ।
पितरं प्रणिपत्य
पादयोरपरित्यागमयाचतात्मनः ॥ ८-१२॥
वन को जाने के लिए तैयार पिता रघु
को पुत्र अज ने पगड़ी या राजमुकुट से शोभित मस्तक से दोनों चरणों में प्रणाम कर
मुझे छोड़कर मत जाइए ऐसा प्रार्थना किया
रघुरश्रुमुखस्य तस्य
तत्कृतवानीप्सितमात्मजप्रियः ।
न तु सर्प इव त्वचं पुनः प्रतिपेदे
व्यपवर्जितां श्रियम् ॥ ८-१३॥
पुत्रवत्सल रघु ने डबडबाई हुई आंखों
वाले उस अज के अभिलाषा को पूर्ण किया अर्थात् वन को जाने का विचार छोड़ दिया किंतु
छोड़ी गई केंचुली को सर्प के समान छोड़ी हुई राजलक्ष्मी को पुनः स्वीकार नहीं किया
स
किलाश्रममन्त्यमाश्रितो निवसन्नावसथे पुराद्बहिः ।
समुपास्यत पुत्रभोग्यया
स्नुषयेवाविकृतेन्द्रियः श्रिया ॥ ८-१४॥
वह (रघु) अंतिम आश्रम (सन्यास आश्रम)
को स्वीकार कर नगर के बाहरी स्थान में रहते हुए जितेन्द्रिय होकर पुत्र के भोग
करने योग्य पतेहू(पुत्रवधू) के समान राजलक्ष्मी से सेवित हुए
प्रशमस्थितपूर्वपार्थिवं
कुलमभ्यद्यतनूतनेश्वरम् ।
नभसा निभृतेन्दुना तुलामुदितार्केण
समारुरोह तत् ॥ ८-१५॥
शांति में स्थित पुराने राजा (रघु)
वाला तथा उन्नत होते हुए नए राजा (अज) वाला वह (इक्ष्वाकु) वंश अस्त होते हुए
चंद्र वाले तथा उदय हुए सूर्य वाले अकाश के सदृश्य हुआ
यतिपार्थिवलिङ्गधारिणौ ददृशाते
रघुराघवौ जनैः ।
अपवर्गमहोदयार्थयोर्भुवमंशाविव
धर्मयोर्गतौ ॥ ८-१६॥
भिक्षु (सन्यासी) तथा राजा के
चिन्हों (क्रमश: गैरिक वस्त्र आदि तथा राजमुकुट श्वेतच्छत्र एवं चमार आदि) को धारण
करते हुए रघु तथा अज को लोग मुक्ति तथा महोन्नति रूप फल वाले (निवृत्ति तथा
प्रवृत्ति को करने वाले) दो धर्मों के भूलोक ने अवतीर्ण अंश के समान देखते थे
अजिताधिगमाय मन्त्रिभिर्युयुजे
नीतिविशारदैरजः ।
अनुपायिपदोपप्राप्तये रघुराप्तैः
समियाय योगिभिः ॥ ८-१७॥
अज अजीत पद को प्राप्त करने के लिए
नीति निपुण मंत्रियों से मिले (उनके साथ मंत्रणा करने लगे) और रघु अविनश्वर पद
अर्थात मुक्ति को प्राप्त करने के लिए यथार्थ तत्वदर्शी योगियों से मिले
नृपतिः प्रकृतीरवेक्षितुं
व्यवहारासनमाददे युवा ।
परिचेतुमुपांशु धारणां कुशपूतं
प्रवयास्तु विष्टरम् ॥ ८-१८॥
युवक राजा (अज) प्रजाओं के (व्यवहार-
विवाद) को देखने के लिए धर्मासन को तथा वृद्ध राजा (रघु) चित्त की एकाग्रता के
अभ्यास के लिए एकांत में पवित्र कुशासन को ग्रहण किए
अनयत्प्रभुशक्तिसंपदा
वशमेको नृपतीननन्तरान् ।
अपरः प्रणिधानयोग्यया मरुतः पञ्च
शरीरगोचरान् ॥ ८-१९॥
एक राजा (अज) ने प्रभु शक्ति अर्थात
कोष एवं दण्ड की संपत्ति से अनन्तर राजाओं को तथा दूसरे राजा (रघु) ने समाधि के
अभ्यास से शरीरस्थ पांच वायुओं (प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान) को वश में किया
अकरोदचिरेश्वरः क्षितौ
द्विषदारम्भफलानि भस्मसात् ।
इतरो दहने स्वकर्मणां ववृते
ज्ञानमयेन वह्निना ॥ ८-२०॥
नए राजा (अज) ने पृथ्वी पर शत्रुओं
के आरंभ किए गए कार्यों के फलों को भस्म (नष्ट) कर दिया तथा दूसरे (प्राचीन राजा
रघु) ने ज्ञानमय अग्नि से अपने (संसार के कारण भूत) कर्मों को जलाने (नष्ट करने)
में लग गए अर्थात ज्ञान प्राप्ति से अपने कर्मों को नष्ट करने लगे
पणबन्धमुखान्गुणानजः षडुपायुङ्क्त
समीक्ष्य तत्फलम् ।
रघुरप्यजयत्गुणत्रयं प्रकृतिस्थं
समलोष्टकाञ्चनः ॥ ८-२१॥
अज संधि आदि सद्गुणों का उनका फल
देखकर (देश काल के अनुसार) प्रयोग करने लगे तथा मिट्टी के ढेले और स्वर्ण को समान
समझते हुए अर्थात संपत्ति से नि:स्पृह होते हुए रघु भी प्रकृतिस्थ तीनों गुणों (सत्व,
रज और तम) को जीत लिए
न नवः प्रभुरा फलोदयात्स्थिरकर्मा
विरराम कर्मणः ।
न च योगविधेर्नवेतरः स्थिरधीरा
परमात्मदर्शनात् ॥ ८-२२॥
स्थिरकर्मा (फल प्राप्ति तक काम में
लगे रहने वाले) नए राजा (अज) ने फल के दृष्टिगोचर होने तक कार्य को नहीं छोड़ा तथा
स्थिर बुद्धि वाले प्राचीन राजा (रघु) ने परमात्मा के दर्शन होने तक योग विधि को
नहीं छोड़ा
इति शत्रुषु चेन्द्रियेषु च
प्रतिषिद्धप्रसरेषु जाग्रतौ ।
प्रसितावुदयापवर्गयोरुभयीं
सिद्धिमुभाववापतुः ॥ ८-२३॥
इस प्रकार (श्लोक 17 से 22) रोके गए स्वार्थ प्रवृत्तिवाली इंद्रियों
तथा शत्रुओं के विषय में जागरूक (तथा क्रमश:) उन्नति एवं मोक्ष में लगे हुए उन
दोनों (अज तथा रघु) ने द्विविध सिद्धियों को प्राप्त कर लिया
अथ काश्चिदजव्यपेक्षया गमयित्वा
समदर्शनः समाः ।
तमसः परमापदव्ययं पुरुषं योगसमाधिना
रघुः ॥ ८-२४॥
इसके बाद सब वस्तुओं को समान देखने
वाले रघु ने अज की इच्छा से कुछ वर्षों तक बिताकर योग समाधि से विनाशरहित तथा मायातीत
परमपुरुष (सायुज्य) को प्राप्त किया अर्थात शरीर त्याग कर दिया
श्रुतदेहविसर्जनः पितुश्चिरमश्रूणि
विमुच्य राघवः ।
विदधे विधिमस्य नैष्ठिकं यतिभिः
सार्धमनग्निरग्निचित् ॥ ८-२५॥
अग्निहोत्र करने वाले रघु पुत्र (अज)
ने पिता के शरीर त्याग को सुनकर बहुत देर तक रोकर इन (रघु) के अग्नि संस्काररहित
अंतिम संस्कार को यतियों के साथ किया
अकरोत्स तदौर्ध्वदैहिकं पितृभक्त्या
पितृकार्यकल्पवित् ।
न हि तेन पथा
तनुत्यजस्तनयावर्जितपिण्डकाङ्क्षिणः ॥ ८-२६॥
पितृ कार्यविधि को जानने वाले उस(अज)ने
पिता की भक्ति से उनके पारलौकिक कार्य श्राद्धादि को किया, क्योंकि उस मार्ग
अर्थात योग से शरीर त्याग करनेवाले (महायोगी लोग) पुत्र के दिए हुए पिंड की चाहना नहीं
करते हैं
स परार्ध्यगतेरशोच्यतां
पितुरुद्दिश्य सदर्थवेदिभिः ।
शमिताधिरधिज्यकार्मुकः
कृतवानप्रतिशासनं जगत् ॥ ८-२७॥
उत्तम गति (मोक्ष) को पाए हुए पिता
की अशोच्यता को उद्देश्य कर परमार्थ ज्ञाताओं के द्वारा समझाएं गए (आपके पिता ने
मुक्ति को प्राप्त किया है अतः उनके विषय में शोक नहीं करना चाहिए इस प्रकार
ज्ञानियों के समझाने पर पितृ शोक को त्याग किए हुए)अज ने धनुष को चढ़ाकर संसार को
एक शासन वाला कर दिया ( संसार में सब राजाओं को अपने वश में कर लिया)
क्षितिरिन्दुमती च भामिनी
पतिमासाद्य तमग्र्यपौरुषम् ।
प्रथमा बहुरत्नसूरभूदपरा
वीरमजीजनत्सुतम् ॥ ८-२८॥
पृथ्वी तथा धर्मपत्नी इंदुमती
महापुरुषार्थी उस (अज)को पति (रूप में) प्राप्त कर पहली अर्थात पृथ्वी ने बहुत
रत्नों को पैदा करनेवाली हुई तथा दूसरी अर्थात इंदुमती ने वीर पुत्र को पैदा किया
दशरश्मिशतोपमद्युतिं यशसा दिक्षु
दशस्वपि श्रुतम् ।
दशपूर्वरथं यमाख्यया दशकण्ठारिगुरुं
विदुर्बुधाः ॥ ८-२९॥
विद्वान लोग दस सौ किरणोंवाले (सूर्य)
के समान कांतिवाले और यश से दशों दिशाओं में प्रसिद्ध दशमुख (रावण) शत्रु (राम) के
पिता जिसका नाम दसपूर्वक रथ अर्थात दशरथ जानते हैं (ऐसे पुत्र को इंदुमती ने पैदा
किया वह पूर्व श्लोक से संबंध है)
ऋषिदेवगणस्वधाभुजां श्रुतयागप्रसवैः
स पार्थिवः ।
अनृणत्वमुपेयिवान्बभौ परिधेर्मुक्त
इवोष्णदीधितिः ॥ ८-३०॥
वेदादी शास्त्रों के अध्ययन यज्ञ
तथा पुत्रोत्पादन से (क्रमशः) ऋषि, देवता तथा पितरों के (वेदादी पढ़ने के द्वारा
ऋषियों के, यज्ञों के द्वारा देवताओं के और पुत्र उत्पन्न करने के द्वारा पितरों
के) ऋण से छुटकारा पाए हुए वह राजा (अज) परिवेष(सूर्य के चारों ओर कभी-कभी दिखलाई
पड़ने वाले गोल घेरे) से मुक्त सूर्य के समान शोभामान हुए।
बलमार्तभयोपशान्तये विदुषां
सत्कृतये बहु श्रुतम् ।
वसु तस्य विभोर्न केवलं गुणवत्तापि
परप्रयोजना ॥ ८-३१॥
(उस अज का) बल दुखियों के भय दूर
करने के लिये तथा शास्त्राध्ययन विद्वानों के सत्कार के लिये हुआ, (इस प्रकार) समर्थ उस अज का केवल धन ही परोपकार के किये नहीं हुआ, किन्तु गुणवान् होना भी परोपकार के लिये हुआ ॥ ३१॥
स कदाचिदवेक्षितप्रजः सह देव्या
विजहार सुप्रजाः ।
नगरोपवने शचीसखो मरुतां पालयितेव
नन्दने ॥ ८-३२॥
प्रजाओं की देख भाल करनेवाले तथा
उत्तम सन्तानवाले के वह (अज) किसी समय नगर के उपवन में पटरानी ( इन्दुमती ) के साथ,
“नन्दन” वन में इन्द्राणी के साथ देवरक्षक
इन्द्र के समान विहार करने कगे॥ ३२॥
अथ रोधसि दक्षिणादधेः
श्रितगोकर्णनिकेतमीश्वरम् ।
उपवीणयितुं ययौ रवेरुदयावृत्तिपथेन
नारदः ॥ ८-३३॥
इसके बाद दक्षिण समुद्र के तट पर “गोकर्ण' नामक स्थान में शिवजी के पास वीणा बजाकर
स्तुति करने के लिये नारदजी आकाश-मार्ग से चले ॥ ३३ ॥
कुसुमैर्ग्रथितामपार्थिवैः
स्रजमातोद्यशिरोनिवेशिताम् ।
अहरत्किल तस्य वेगवानधिवासस्पृहयेव
मारुतः ॥ ८-३४॥
दिव्य (स्वर्गीय) पुष्पों से गुथी
हुईं तथा वीणा के ऊपरी भाग में लपेटी या लटकाई हुई माला को तीव्र वायु ने मानो
अपने को (उन फूलों से) सुगन्धित करने की इच्छा से हरण कर लिया । ( कल्पवृक्षादि के
स्वर्गीय फूलों की बनी एवं वीणा के ऊपरी भाग में लटकती हुई माला तेज हवा से उड़
गयी )॥ ३४ ॥
भ्रमरैः कुसुमानुसारिभिः परिकीर्णा
परिवादिनी मुनेः ।
ददृशे पवनापलेपजं सृजती
बाष्पमिवाञ्जनाविलम् ॥ ८-३५॥
फूलों के पीछे चलने वाले भ्रमरों से
व्याप्त नारदजी का वीणा वायुकृत अपमान से उत्पन्न,अजन से मलिन आंसु को छोड़ती हुई के समान देखी गयी ॥ ३५॥
अभिभूय विभूतिमार्तवीं
मधुगन्धातिशयेन वीरुधाम् ।
नृपतेरमरस्रगाप सा दयितोरुस्तनकोटिसुस्थितीम्
॥ ८-३६॥
वह दिव्य माला पराग तथा सुगन्धि की
अधिकता से लताओं के ऋतूत्पन्न ऐश्वर्यों (सुगन्धियों) को दबाकर राजा अज की प्रिया के
विशाल स्तनों के चूचुकों (अग्रभागों) पर गिरी ॥ ३६॥
क्षणमात्रसखीं सुजातयोः
स्तनयोस्तामवलोक्य विह्वला ।
निमिमील नरोत्तमप्रिया हृतचन्द्रा
तमसेव कौमुदी ॥ ८-३७॥
सुन्दर स्तनों की क्षणमात्र के लिये
सखी उस माला को देखकर अज की प्रिया (इन्दुमती) राहु से अपहृत चन्द्रमावाली चाँदनी के
समान मोहित हो गयी (मर गयी)॥ ३७॥
वपुषा करणोज्झितेन सा निपतन्ती
पतिमप्यपातयत् ।
ननु तैलनिषेकबिन्दुना सह
दीपार्चिरुपैति मेदिनीम् ॥ ८-३८॥
इन्द्रिय-शून्य शरीर से गिरती हुईं
उस इन्दुमती ने पति (अज) को भी गिरा दिया ( इन्दुमती के संज्ञाशून्य शरीर के गिरते
ही उसे मरी हुई जानकर अज भी (मूर्च्छित हो) पछाड़खाकर गिर पड़े)। तेल-बिन्दु के
टपकने (चूने--गिरने) के साथ ही दीपक की लौ भी निश्चय ही पृथ्वी को प्राप्त करती
पृथ्वी पर गिरती) है॥ ३८ ॥
उभयोरपि पार्श्ववर्तिनां
तुमुलेनार्तरवेण वेजिताः ।
विहगाः कमलाकरालयाः समदुःखा इव तत्र
चुक्रुशुः ॥ ८-३९॥
दोनों (इन्दुमती-अज) के पास में
स्थित लोगों की फैली हुई आर्तध्वनि से तडाग मे रहने-वाले पक्षी भी मानो (उनके) समान दुखी होकर
वहां पर चिल्लाने लगे ( राजानुचरों के रोने की ध्वनि के अत्यन्त बढ़ने पर तडागवासी
पक्षी भी घबड़ाकर कोलाहल करने लगे)॥ ३९॥
नृपतेर्व्यजनादिभिस्तमो नुनुदे सा
तु तथैव संस्थिता ।
प्रतिकारविधानमायुषः सति शेषे हि
फलाय कल्पते ॥ ८-४०॥
राजा (अज) की मुर्छा पंखा आदि
(चन्दनमिश्रित जल सेक आदि ढंडे उपचारों) से दूर हुईं,
किन्तु वह (इन्दुमती) वैसे ही पड़ी रही, क्योंकि
आयु के शेष रहने पर उपाय सफल होता है ॥ ४० ॥
प्रतियोजयितव्यवल्लकीसमवस्थामथ सत्त्वविप्लवात्
।
स निनाय नितान्तवत्सलः
परिगृह्योचितमङ्कमङ्गनाम् ॥ ८-४१॥
इसके बाद (प्रिया के) अत्यन्त
प्रेमी उस अज ने चेतनाशून्य होने (मर जाने) से तार चढ़ाने योग्य वीणा के समान
स्थित प्रिया को (हाथ से) उठाकर गोद में ले लिया ॥ ४१॥
पतिरङ्कनिषण्णया तया करणापायविभिन्नवर्णया
।
समलक्ष्यत बिभ्रदाविलां
मृगलेखामुषसीव चन्द्रमाः ॥ ८-४२॥
पति (अज),
गोद में स्थित तथा प्राणों के निकल जाने से शोभाहीन उस (इन्दुमती)
से प्रातः/काल में मलिन मृग-चिन्ह को धारण करते हुए चन्द्रमा के समान मालूम पड़ते
थे ॥ ४२॥
विललाप स बाष्पगद्गदं सहजामप्यपहाय
धीरताम् ।
अभितप्तमयोऽपि मार्दवं भजते कैव कथा
शरीरिषु ॥ ८-४३॥
वह (अज) स्वाभाविक भी धैर्य को
छोड़कर आँसू से गद्गद होकर विलाप करने लगे, तपा
हुआ (जड) लोहा भी कोमल हो जाता दे (तब चेंतन्य) शरीरधारियों के विषय में क्या कहना
है? अर्थात् दुःखसन्तप्त प्राणियों के तरल होने में कोई आश्वर्य
नहीं है ॥ ४३॥
कुसुमान्यपि
गात्रसंगमात्प्रभवन्त्यायुरपोहितुं यदि ।
न भविष्यति हन्त साधनं
किमिवान्यत्प्रहरिष्यतो विधेः ॥ ८-४४॥
“यदि फूल भी शरीर पर गिरने से
मारने के लिये समर्थ होते हैं, तब खेद है कि भविष्य में
मारनेवाले दैव का दूसरी कौन वस्तु (मारने के लिये) साधन नहीं होगी॥ ४४ ॥
अथवा मृदु वस्तु हिंसितुं
मृदुनैवारभते प्रजान्तकः ।
हिमसेकविपत्तिरत्र मे नलिनी
पूर्वनिदर्शनं मता ॥ ८-४५॥
अथवा काल कोमल पदार्थ को कोमल पदार्थ
से ही नष्ट करता है, इस विषय में पाला (तुषार) पड़ने से नष्ट होनेवाली कमलिनो मुझे पहले उदाहरण रूप में प्राप्त हो
चुकी है॥४५॥
स्रगियं यदि जीवितापहा हृदये किं
निहिता न हन्ति माम् ।
विषमप्यमृतं क्वचिद्भवेदमृतं वा
विषमीश्वरेच्छया ॥ ८-४६॥
यदि यह माला मारनेवाली है तो हृदय पर
रखी हुई मुझको क्यों नहीं मारती, अथवा ईश्वर की
इच्छा से विष भी कहीं पर अमृत हो जाता है और अमृत भी विष हो जाता है ॥ ४६॥
अथवा मम भाग्यविप्लवादशनिः कल्पित
एव वेधसा ।
यदनेन तरुर्न पातितः क्षपिता
तद्विटपाश्रिता लता ॥ ८-४७॥
अथवा मेरे भाग्य की प्रतिकूलता से
विधाता ने इसे (इस पुष्पमाला को) वज़ बनाया है, जो
इस (बज्र) ने वृक्ष (वृक्षतुल्य मुझ) को नहीं गिराया, किन्तु
उसको आश्रित लता ( मुझे आश्रित इन््दुमती) को नष्ट कर दिया॥
४७॥
कृतवत्यसि नावधीरणामपराद्धेऽपि यदा
चिरं मयि ।
कथमेकपदे निरागसं जनमाभाष्यमिमं न
मन्यसे ॥ ८-४८॥
(अब इन्दुमती के प्रति भाषण करते
हुए अज विलाप करते हैं) जब मेरे बहुत वार अपराध करने पर भी तुमने मेरा अपमान
(असंभाषणादि) नहीं किया है, तब एकाएक निरपराधी इस जन (मुझ)
को बातचित करने योग्य क्यों नहीं मानती हो अर्थात् मुझसे क्यों नहीँ बोलती हो ?
॥ ४८ ॥
ध्रुवमस्मि शठः शुचिस्मिते विदितः
कैतववत्सलस्तव ।
परलोकमसंनिवृत्तये यदनापृच्छ्य
गतासि मामितः ॥ ८-४९॥
हे सुन्दर हासवाली प्रीये ! निश्चय ही
तुम मुझे शठ (गुप्त रूप से बुराई करनेवाला)कपटी प्रेमी जानती हो,
क्योंकि मुझसे विना कहे ही फिर नहीं लौटने के लिये यहां से स्वर्ग
में चली गयी हो ॥ ४९॥
दयितां यदि तावदन्वगाद्विनिवृत्तं
किमिदं तया विना ।
सहतां हतजीवितं मम प्रबलामात्मकृतेन
वेदनाम् ॥ ८-५०॥
यह मेरा निन्दित जीवन यदि पहले
प्रिया के पीछे गया ( देखें, श्लो० ३८ ) तो
फिर उसके बिना लौट क्यों आया (देखें, श्लो० ४० )? इसलिये अपनी करनी के महान् दुःख को यह सहन करे ॥ ५० ॥
सुरतश्रमसंभृतो मुखे ध्रियते
स्वेदलवोद्गमोऽपि ते ।
अथ चास्तमिता त्वमात्मना धिगिमां
देहभृतामसारताम् ॥ ८-५१॥
सुरत के परिश्रम से उत्पन्न पसीने का
कुछ २ लेश भी तुम्हारे मुख पर है और तुम स्वरूप से नष्ट हो (मर) गयी,
(अतएव) देहधारियों की इस निःसारता को धिक्कार है॥ ५१ ॥
मनसापि न विप्रियं मया कृतपूर्वं तव
किं जहासि माम् ।
ननु शब्दपतिः क्षितेरहं त्वयि मे
भावनिबन्धना रतिः ॥ ८-५२॥
मैंने मन से भी तुम्हारा अप्रिय पहले
कभी नहीं किया तो मुझे क्यों छोड़ रही हो? मैं निश्चय ही नाम मात्र से अर्थात्
कहने के लिये पृथ्वी का पति हूं, किन्तु तुममें
स्वाभाविक प्रेम है (अतः 'ये मेरी सपत्नीरूप पृथ्वी के पति
हैं, ऐसा मानकर तुम्हें मेरा त्याग करना उचित नहीं है)॥ ५२ ॥
कुसुमोत्खचितान्वलीभृतश्चलयन्भृङ्गरुचस्तवालकान्
।
करभोरु करोति मारुतस्त्वदुपावर्तनशङ्कि
मे मनः ॥ ८-५३॥
हे करभोरु ! फूल गूथे हुए तथा टेढ़े
२,
तुम्हारे बालों को हिलाती हुईं वायु मेरे मन में तुम्हारे लौटने
(जीने) का सन्देश उत्पन्न करती है ॥ ५३ ॥
तदपोहितुमर्हसि प्रिये प्रतिबोधेन
विषादमाशु मे ।
ज्वलितेन गुहागतं तमस्तुहिनाद्रेरिव
नक्तमोषधिः ॥ ८-५४॥
हे प्रिये! इस कारण से मेरे विषाद को,
रात में हिमालय परवत की गुफाओं के अन्धकार को प्रकाशसे ओषधि के समान,
(तुम्हें) ज्ञान (चैतन्य) से दूर करना चाहिये ॥ ५४ ॥
इदमुच्छ्वसितालकं मुखं तव
विश्रान्तकथं दुनोति माम् ।
निशि सुप्तमिवैकपङ्कजं विरताभ्यन्तरषट्पदस्वनम्
॥ ८-५५॥
हिलते हुए केशोंवाला भाषणशुन्य
(चुप) तुम्हारा मुख, रात्रि में भीतर
में भ्रमर के गुञ्जार से रहित बन्द हुए एक कमल के समान मुझे पीडित कर रहा है ॥ ५५
॥
शशिनं पुनरेति शर्वरी दयिता
द्वन्द्वचरं पतत्रिणम् ।
इति तौ विरहान्तरक्षमौ कथमत्यन्तगता
न मां दहेः ॥ ८-५६॥
(रात्रि चन्द्रमा को तथा प्रिया
(चकई) मिथुन चारी पक्षी (चकवे) को फिर प्राप्त करती है? अत
एव वे दोनों (चन्द्रमा तथा चकवा पक्षी अपनी २ प्रियाओं के) विरह मध्यभाग को सहन
करने में समर्थ होते हैं, (किन्तु) सर्वथा गयी हुई (फिर नहीं
लौटनेवाली) अर्थात् मरी हुई तुम मुझे क्यों नही जलावोगी (सम्तप्त करोगी) अर्थात्
अवश्य सन्तप्त करोगी ॥
नवपल्लवसंस्तरेऽपि ते मृदु दूयेत
यदङ्गमर्पितम् ।
तदिदं विषहिष्यते कथं वद वामोरु
चिताधिरोहणम् ॥ ८-५७॥
नये पल्लवों की शय्या पर भी स्थित
जो तुम्हारा यह शरीर सन्तप्त होता था, हे
बामोरु (सुन्दर जघनोंवाली प्रिये) ! तब यह (शरीर) चिता पर
रखने को कैसे सहन करेगा ? ५७
इयमप्रतिबोधशायिनीं रशना त्वां
प्रथमा रहःसखी ।
गतिविभ्रमसादनीरवा न शुचा नानु
मृतेव लक्ष्यते ॥ ८-५८॥
यह मुख्य तथा एकांत की सहेली गमन-बिलास
के अभ।व से शब्दरहित करधनी फिर नहीं जगने के लिये सोई हुई अर्थात् मरी हुई तुम्हारे
पीछे शोक से मरी हुई नहीं लक्षित होती है, यह
बात नहीं है अर्थात् यह तुम्हारा करधनी भी नहीं बजने के कारण तुम्हारे पीछे शोक से
मरी हुई-सी मालूम पड़ती है ॥ ५८ ॥
कलमन्यभृतासु भासितं कलहंसीषु
मदालसं गतम् ।
पृषतीषु विलोलमीक्षितं पवनाधूतलतासु
विभ्रमाः ॥ ८-५९॥
त्रिदिवोत्सुकयाप्यवेक्ष्य मां
निहिताः सत्यममी गुणास्त्वया ।
विरहे तव मे गुरुव्यथं हृदयं न
त्ववलम्बितुं क्षमाः ॥ ८-६०॥
कोयलों में मधुर भाषण,
कलहंसियों में मद से आलससहित गमन, मृगियों में
चञ्चल देखना और पवन से थोड़ा २ हिलती हुई लताओं में विलास; इन
गुणों को स्वर्ग जाने के लिये उत्कण्ठित तुमने मुझको देखकर (मेरे स्वर्ग जाने पर इन
मेरे गुणों की देखकर ही ये मन बहलावेंगे, ऐसा विचारकर)
वस्तुतः में स्थापित किये हैं; तथापि वे तुम्हारे विरह में
अत्यधिक पीडित मेरे हृदय को धारण करने के लिये समर्थ नहीं होते हैं। (मधुर भाषण आदि
तुम्हारे गुणों को कोयल आदि में देखकर तुम्हारे विना मेरे हृदय को सुख नहीं मिलता है)
॥
मिथुनं परिकल्पितं त्वया सहकारः
फलिनी च नन्विमौ ।
अविधाय विवाहसत्क्रियामनयोर्गम्यत
इत्यसांप्रतम् ॥ ८-६१॥
तुमने इस आम के वृक्ष तथा प्रियङ्गु
लता को जोड़ी (दम्पतिरूप) माना था, (अतः)
इन दोनों के विवाह मंगल को विना किये जा रही हो, यह अनुचित
है ॥ ६१ ॥
कुसुमं कृतदोहदस्त्वया
यदशोकोऽयमुदीरयिष्यति ।
अलकाभरणं कथं नु तत्तव नेष्यामि
निवापमाल्यताम् ॥ ८-६२॥
तुमसे प्राप्त (पादप्रहाररूप)
दोहदवाला यह अशोक जिस पुष्प को उत्पन्न करेगा, तुम्हारे
केश के भूषणयोग्य उस पुष्पों में किस प्रकार दाह संस्कार के बाद तिलांजलि में प्रदान
करूंगा ? ॥ ६२ ॥
स्मरतेव सशब्दनूपुरं
चरणानुग्रहमन्यदुर्लभम् ।
अमुना कुसुमाश्रुवर्षिणा त्वमशोकेन सुगात्रि
शोच्यसे ॥ ८-६३॥
हे सुन्दर शरीरवाली प्रिये! दूसरे को
दुर्लभ,
झंकार करते हुए नूपुरों वाले चरण (ताडनरूप)
कृपा को स्मरण करते हुए के समान पुष्परूप आँसू को बरसाता हुआ यह अशोक तुम्हारे
लिये मानो पश्चात्ताप कर रहा है ॥ ६३ ॥
तव निःश्वसितानुकारिभिर्बकुलैरर्धचितां
समं मया ।
असमाप्य विलासमेखलां किमिदं
किन्नरकण्ठि सुप्यते ॥ ८-६४॥
हे किन्नर के समान (मधुर
ध्वनियुक्त) कण्ठवाली प्रिये ! (सुगन्धि में) तुम्हारे श्वास का अनुकरण करनेवाले
इन मोलेसरी के फू्लों से मेरे साथ आधी गुथी हुई विलास-मैखला (विलासार्थ करधनी) को विना पूरा किये क्यों सो रही हो?॥ ६४ ॥
समदुःखसुखः सखीजनः
प्रतिपच्चन्द्रनिभोऽयमात्मजः ।
अहमेकरसस्तथापि ते व्यवसायः
प्रतिपत्तिनिष्ठुरः ॥ ८-६५॥
(यद्यपि) ये सहेलियां सुख-दुख में
समान रहनेवाली हैं, यह बालक प्रतिपद के चन्द्रमा के समान
(बहुत ही अवोध एवं छोटा होने से मातृपालन की अपेक्षा करने योग्य) है और मैं एकरस
पहले ही के समान प्रेम करनेवाला हूं; तथापि तुम्हारा वर्ताव
(हमलोगों को छोड़कर स्वर्ग सिधारना) अवश्य ही निष्ठुर मालूम पड़ता है ॥ ६५॥
धृतिरस्तमिता रतिश्च्युता विरतं
गेयमृतुर्निरुत्सवः ।
गतमाभरणप्रयोजनं परिशून्यं
शयनीयमद्य मे ॥ ८-६६॥
आज मेरा धैर्य टूट गया,
प्रेम नष्ट हो गया, गाना बन्द हो गया, ऋतु उत्सव शून्य हो गयी, भूषण पहनने का प्रयोजन
समाप्त हो गया और शब्या शून्य हो गयी ॥ ६६ ॥
गृहिणी सचिवः सखी मिथः प्रियशिष्या
ललिते कलाविधौ ।
करुणाविमुखेन मृत्युना हरता त्वां
वद किं न मे हृतम् ॥ ८-६७॥
(तुम) गृहणी, मन्त्री, एकान्त की सखी और मनोहर कलाओं के प्रयोग में
प्रिय शिष्या थी। तुमको हरण करते हुए निर्दय मृत्यु ने मेरा क्या नही हरण कर लिया?
कहो, अर्थात् मृत्यु ने मेरा सब कुछ हरण कर
किया ॥ ६७ ॥
मदिराक्षि मदाननार्पितं मधु पीत्वा
रसवत्कथं नु मे ।
अनुपास्यसि बाष्पदूषितं परलोकोपनतं
जलाञ्जलिम् ॥ ८-६८॥
हे मतवाली आँखोंवाली प्रिये ! (पहले
सर्वदा) मेरे पीये हुए सरस मदिरा को पीकर बाद में (अब मर जाने पर) मेरी आँसू से
दूषित तथा परलोक में प्राप्त (तिलयुक्त) जलाञ्जलि को कैसे पीओगी ?
॥ ६८ ॥
विभवेऽपि सति त्वया विना
सुखमेतावदजस्य गण्यताम् ।
अहृतस्य विलोभनान्तरैर्मम सर्वे
विषयास्त्वदाश्रयाः ॥ ८-६९॥
(राज्यादि) ऐश्वर्य के रहने पर भी
तुम्हारे विना अज का इतना ही सुख था ऐसा समझो, (क्योंकि)
दूसरे लुभावने पदार्थो से नहीं आकृष्ट होनेवाले मेरे भोग-साधन तुम्हारे ही आश्रित
थे, (अतः तुम्हारे विना सब भोग-साधन निष्फल मालूम पड़ते हैं
)” ॥ ६९ ॥
विलपन्निति कोसलाधिपः
करुणार्थग्रथितं प्रियां प्रति ।
अकरोत्पृथिवीरुहानपि
स्रुतशाखारसबाष्पदूषितान् ॥ ८-७०॥
इस प्रकार प्रिया के लिये सकरुण विलाप
करते हुए कोसलेश्वर अज ने (जड) वृक्षों को भी गिरे हुए मकरन्द (या निर्यास-आद्र
गोंद ) रूपी आँसू से दूषित कर दिया अर्थात् जड़ वृक्षों तक को भी रुला दिया ॥ ७० ॥
अथ तस्य कथंचिदङ्कतः स्वजनस्तामपनीय
सुन्दरीम् ।
विससर्ज
तदन्त्यमण्डनामनलायागुरुचन्दनैधसे ॥ ८-७१॥
इसके बाद आत्मीय जनों ने किसी
प्रकार अज की गोद से अलगकर उस दिव्य पुष्पमालारूप अन्तिम श्रृंगारवाली उस सुन्दरी को
अगर तथा चन्दन के इन्धनोंवाली अग्नि के किये समर्पित कर दिया अर्थात् अगर तथा
चन्दन की जलती हुई चिता पर जला दिया ॥ ७१॥
प्रमदामनु संस्थितः शुचा नृपतिः
सन्निति वाच्यदर्शनात् ।
न चकार शरीरमग्निसात्सह देव्या न तु
जीविताशया ॥ ८-७२॥
राजा (अज) “विद्वान होते हुए भी शोक से प्रिया के पीछे मर गये”! इस लोकनिन्दा के भय से ही पटरानी (इन्दुमती)के साथ में शरीर को नहीं जलाया,
जीने की आशा से नहीं ॥७२॥
अथ तेन दशाहतः परे गुणशेषामपदिश्य
भामिनीम् ।
विदुषा विधयो महर्द्धयः पुर एवोपवने
समापिताः ॥ ८-७३॥
इसके बाद विद्वान् उस अज ने
गुणमात्रावशेष अर्थात् मरी हुईं सुन्दरी (इन्दुमती) के उद्दश्य से दश दिनों के बाद
की सब श्राद्ध क्रिया को विस्तार के साथ नगर के उपबन में ही पूरा किया ॥ ७३॥
स विवेश पुरीं तया विना
क्षणदापायशशाङ्कदर्शनः ।
परिवाहमिवावलोकयन्स्वशुचः
पौरवधूमुखाश्रुषु ॥ ८-७४॥
उस (इन्दुमति) के विना रात्रि के
बाद चन्द्रमा के समान प्रभाहीन वह (अज) नगर की स्त्रीयों के मुख पर आँसूओं में
अपने शोक के प्रवाह को देखते हुए राजधानी में प्रवेश किये अर्थात् राजा प्रिया के
विना निष्प्रभ हो रहे थे तथा नगर की रमणियां उनके दुःख से रो रही थीं ॥७४॥
अथ तं सवनाय दीक्षितः
प्रणिधानाद्गुरुराश्रमस्थितः ।
अभिषङ्गजडं विजज्ञिवानिति शिष्येण
किलान्वबोधयत् ॥ ८-७५॥
इसके बाद यश के लिये दीक्षा को
ग्रहण किये हुए ( अतएव अज के यहां स्वयं आने में असमर्थ ) गुरु वसिष्ठजी ने आश्रम पर
रहते हुए ही, दुःख से मोहित उस अज को इस
प्रकार मालूमकर शिष्य के द्वारा ( श्लो० ७६-९०, प्रथम तीन श्लोकों
(७६-७८) को शिष्य ने अपनी ओर से कहा है, शेष वसिष्ठजी का कथन है) समझाया ॥ ७५ ॥
असमाप्तविधिर्यतो मुनिस्तव
विद्वानपि तापकारणम् ।
न भवन्तमुपस्थितः स्वयं प्रकृतौ
स्थापयितुं पथश्च्युतम् ॥ ८-७६॥
“मुनि (वसिष्ठजी) का यज्ञ समाप्त
नहीं हुआ है अतएव आपके सन्ताप के कारण को जानते हुए भी वे मार्ग (धैर्य) से भ्रष्ट
आपको प्रकृतिस्थ करने के किये ( समझाकर पुनः अपने स्वभाव पर लाने के लिये) स्वयं
नहीं आये हैं, (किन्तु मेरे द्वारा आपको यह सन्देश भेजा है)
॥ ७६ ॥
मयि तस्य सुवृत्त वर्तते
लघुसंदेशपदा सरस्वती ।
श्रुणु विश्रुतसत्त्वसार तां हृदि
चैनामपधातुमर्हसि ॥ ८-७७॥
हे सदाचार सम्पन्न ! थोड़े
सन्देशवाली उनकी वाणी मुझमें स्थित है अर्थात उन्होंने थोड़े शब्दों में मेरे
द्वारा सन्देश भेजा है, हे प्रसिद्ध
पराक्रमवाले अज ! उसे आप सुनें और हृदय में रखें॥ ७७॥
पुरुषस्य पदेष्वजन्मनः समतीतं च
भवच्च भावि च ।
स हि निष्प्रतिघेन चक्षुषा त्रितयं
ज्ञानमयेन पश्यति ॥ ८-७८॥
अजन्मा पुराणपुरुष (वामन भगवान्)के
परगों में अर्थात् त्रेलोक्य में स्थित भूत, वर्तमान
तथा भविष्य इन तीनों को वे (वसिष्ठजी) प्रतिबन्धरहित ज्ञानमय नेत्र से देखते हैं,
(अतएव उनके भेजे हुए सदेश में आपको सन्देह दूरकर पू्र्ण विश्वास
करना चाहिये )? ॥ ७८ ॥
चरतः किल दुश्चरं तपस्तृणबिन्दोः
परिशङ्कितः पुरा ।
प्रजिघाय समाधिभेदिनीं हरिरस्मै
हरिणीं सुराङ्गनाम् ॥ ८-७९॥
(शिष्य अब यहां से मुनि वसिष्ठजी का
संदेश कहता है--) “पहले अतिकठीन तपस्या करते हुए तृणबिन्दु
मुनि से डरे हुए इन्द्र ने समाधि को भङ्ग करनेवाली हरिणी (नामकी) देवाङ्गना को
भेजा ॥ ७९ ॥
स तपःप्रतिबन्धमन्युना
प्रमुखाविष्कृतचारुविभ्रमम् ।
अशपद्भव मानुषीति तां
शमवेलाप्रलयोर्मिणा भुवि ॥ ८-८०॥
उस मुनि ने शान्तिरूपी किनारा
(पक्षा०-मर्यादा) के प्रलयकालिक तरङ्ग के समान तपस्या के बाधक होने के कारण क्रोध से,
सामने सुन्दर विलास (श्रृंगारमय हाव-भाव) दिखानेवाली उस (हरिणी) को “मानुषी हो जावो” ऐसा शाप दिया ॥ ८० ॥
भगवन्परवानयं जनः प्रतिकूलाचरितं
क्षमस्व मे ।
इति चोपनतां क्षितिस्पृशं कृतवाना
सुरपुष्पदर्शनात् ॥ ८-८१॥
हे भगवन् ! यह जन अर्थात मैं (इन्द्र
के) पराधीन है, अतः (मेरे) विपरीत ब्यवहार को क्षमा
कीजिये” इस प्रकार (कहती हुईं) शरणागत उसको देव-पुष्प के दर्शन
तक पृथ्वी-पर रहनेवाली अर्थात मानुषी बना दिया अर्थात् “देव-पुष्प
देखने के बाद तुम मानुषी- शरीर का त्यागकर फिर स्वर्ग में आ जाबोगी” ऐसी शाप की अवधि मुनि ने कर दी ॥ ८१॥
क्रथकैशिकवंशसंभवा तव भूत्वा महिषी
चिराय सा ।
उपलब्धवती दिवश्च्युतं विवशा
शापनिवृत्तिकारणम् ॥ ८-८२॥
क्रथकौशिक वंश की कन्या वह (हरिणी
नामकी तृणविन्दु मुनि से शाप पायी हुई देवाङ्गना) बहुत दिनों तक तुम्हारी पटरानी होकर
स्वर्ग से गिरे हुए, शाप की निवृत्ति के
कारण (पुष्पमाला) को प्राप्त करने पर विवश हुई अर्थात् मर
गयी॥ ८२ ॥
तदलं तदपायचिन्तया
विपदुत्पत्तिमतामुपस्थिता ।
वसुधेयमवेक्ष्यतां त्वया वसुमत्या
हि नृपाः कलत्रिणः ॥ ८-८३॥
इस कारण उसके मरण की चिन्ता करना
व्यर्थ है, प्राणियों की विपत्ति निश्चित है,
तुम इस पृथ्वी को देखो अर्थात् राज्य का कार्य सम्हालो, क्योंकि राजा लोग प्रथ्वी से पत्नीवाले होते हैं ॥ ८३ ॥
उदये मदवाच्यमुज्झता
श्रुतमाविष्कृतमात्मवत्त्वया ।
मनसस्तदुपस्थिते ज्वरे पुनरक्लीबतया
प्रकाश्यताम् ॥ ८-८४॥
अभ्युदय मैं मदजन्य निन््दा का
त्याग करते हुए तुमने जो शास्त्र (शास्रजन्य ज्ञान) को प्रकाशित (प्राप्त) किया है,
उसे मानसिक सन््ताप होने पर पुरुषार्थभाव से (या धैर्य से) प्रकाशित
करो । (ऐश्वयवान् होते हुए भी अभिमान को त्यागकर प्राप्त किये हुए ज्ञान को
आपक्तिकाल में भी धैर्यपूर्वक प्रकाशित कर उससे काम लो अर्थात् शोक का त्याग करो) ॥८४॥
रुदता कुत एव सा पुनर्भवता
नानुमृतापि लभ्यते ।
परलोकजुषां स्वकर्मभिर्गतयो
भिन्नपथा हि देहिनाम् ॥ ८-८५॥
रोते हुए तुम उसे कहां से पावोगे ?,
उसके पीछे मरकर भी उसे नहीं पा सकोगे, क्योंकि
मरे हुए जीवों की गति अपने कर्मो के अनुसार भिन्न २ होती है ॥ ८५॥
अपशोकमनाः कुटुम्बिनीमनुगृह्णीष्व
निवापदत्तिभिः ।
स्वजनाश्रु किलातिसंततं दहति
प्रेतमिति प्रचक्षते ॥ ८-८६॥
मन को शोकरहितकर पत्नी (इन्दुमती) को
पिण्डदान आदि से तृप्त करो, क्योंकि (निरन्तर बहनेवाली स्वजनों की आँसू प्रेत (मृतात्मा) को जलाती है? ऐसा ( मनु आदि महर्षि) कहते हैं ॥ ८६ ॥
मरणं प्रकृतिः शरीरिणां
विकृतिर्जीवितमुच्यते बुधैः ।
क्षणमप्यवतिष्ठते श्वसन्यदि
जन्तुर्ननु लाभवानसौ ॥ ८-८७॥
शरीरधारियों का मरना स्वभाव और जीना
विकार कहा जाता है, (अत:) यदि जीव
क्षणमात्र भी श्वास लेता हुआ ठहरता अर्थात् जीता है तो वह लाभवान् है ॥ ८७॥
अवगच्छति मूढचेतनः प्रियनाशं हृदि
शल्यमर्पितम् ।
स्थिरधीस्तु तदेव मन्यते
कुशलद्वारतया समुद्धृतम् ॥ ८-८८॥
मूढबुद्धि व्यक्ति इष्ट के नाश को
हृदय में चुभा हुआ काँटा समझता है और धैर्यवान् व्यक्ति तो (मोक्षपाय साधक)
श्रेष्ठ मार्गद्वारा उस काँटे को निकाला हुआ समझता है ।(मूर्खलोग विषयलाभ को उत्तम लाभ तथा मरण को हानि और विद्धानलोग इसके विपरीत
समझते हैं )॥ ८८ ॥
स्वशरीरशरीरिणावपि
श्रुतसंयोगविपर्ययौ यदा ।
विरहः किमिवानुतापयेद्वद
बाह्यैर्विषयैर्विपश्चितम् ॥ ८-८९॥
जब अपने शरीर और आत्मा का भी संयोग
और वियोग सुना (एवं देखा) गया है, तब वाहरी विषयों
से वियोग होना विद्वान् को क्यों सन्तप्त करे ?, कहो। बाहरी
विषयों के बियोग से विद्वान को कदापि शोक नहीं करना चाहिये ॥ ८९ ॥
न पृथग्जनवच्छुचो वशं वशिनामुत्तम
गन्तुमर्हसि ।
द्रुमसानुमतां किमन्तरं यदि वायौ
द्वितयेऽपि ते चलाः ॥ ८-९०॥
हे जितेन्द्रियों में श्रेष्ठ अज !
(तुम्हें) साधारण जनके समान शोक के वश में होना (इन्दुमती के लिये शोक करना) उचित नहीं है, क्योंकि
हवा के बहने पर पेड़ तथा पर्बत दोनो चञ्चल हों तो उन दोनों में अन्तर ही क्या रह जायेगा
? अर्थात् कुछ नहीं। अतएव तुम्हें शोककारण उपस्थित होने पर
भी वायु के बहने पर पर्वत के समान स्थिर रहना चाहिये )”? ॥
९० ॥
स तथेति विनेतुरुदारमतेः प्रतिगॄह्य
वचो विससर्ज मुनिम् ।
तदलब्धपदं हृदि शोकघने
प्रतियातमिवान्तिकमस्य गुरोः ॥ ८-९१॥
बह अज श्रेष्ठ बुद्धिवाले उपदेशक
(वसिष्ठजी) के वचन को 'वैसा ही करूंगा?
इस प्रकार ग्रहणकर मुनि (वसिष्ठजी के शिष्य) को विदा किये, किन्तु अत्यन्त “शोकयुक्त इस (अज) के हृदय में स्थान
को नहीं पानेवाला वह वचन इन (अज) के गुरु (वसिष्ठजी) के पास लौट गया क्या? ॥ ९१॥
तेनाष्टौ परिगमिताः समाः
कथंचिद्बालत्वादवितथसूनृतेन सूनोः ।
सादृश्यप्रतिकृतिदर्शनैः प्रियायाः
स्वप्नेषु क्षणिकसमागमोत्सवैश्च ॥ ८-९२॥
सत्यवक्ता उस (अज) ने पुत्र के बालक
(अबोध) होने के कारण प्रिया (इन्दुमती) के समान चित्र आदि देखने तथा स्वप्नो में क्षणिक
समागम के आनन्दों से किसी प्रकार आठ वर्ष बिताया ॥ ९२ ॥
तस्य प्रसह्य हृदयं किल शोकशङ्कुः
प्लक्षप्ररोह इव सौधतलं बिभेद ।
प्राणान्तहेतुमपि तं भिषजामसाध्यं
लाभं प्रियानुगमने त्वरया स मेने ॥ ८-९३॥
शोकरूप काँटे ने उस अज के हृदय को,
मकान के छत को पीपल के अङ्कुर के समान बलात् विदीर्ण कर दिया,
वह (अज) प्राणान्त करनेवाले तथा वैद्यों के असाध्य उस (शोकरूप शङ्कु)
को शीघ्रता से या उत्सुकता से प्रिया के अनुगमन को लाभकारक माना ॥ ९३ ॥
सम्यग्विनीतमथ वर्महरं कुमार -
मादिश्य रक्षणविधौ विधिवत्प्रजानाम् ।
रोगोपसृष्टतनुदुर्वसतिं मुमुक्षुः
प्रायोपवेशनमतिर्नृपतिर्बभूव ॥ ८-९४॥
इसके बाद राजा (अज) अच्छी तरह शिक्षित
कवचधारी कुमार (पुत्र दशरथ) को प्रजओं की रक्षा के कार्यमें विधिपूर्वक आदेश देकर
रोगग्रस्त शरीर की कष्टप्रद स्थिति को छुड़ाने का इच्छुक हो प्रायोपवेश (अन्न-जलका
त्याग) कर दिये ॥ ९४ ॥
तीर्थे तोयव्यतिकरभवे
जह्नुकन्यासरय्वो - र्देहत्यागादमरगणनालेख्यमासाद्य सद्यः ।
पूर्वाकाराधिकतररुचा संगतः
कान्तयासौ लीलागारेष्वरमत पुनर्नन्दनाभ्यन्तरेषु ॥ ८-९५॥
(वे अज) गङ्गा तथा सरयू नदियों के
जल के मिश्रण से बने हुए तीर्थ में अर्थात् गङ्गा सरयु के संगम में देहत्याग करने
से तत्काल देवत्व को प्राप्त किये और पहले की आाकृति से अधिक सुन्दरी प्रिया (देवाङ्गना)
के साथ नन्दन वन के भीतर लीलामन्दिरों में रमण करने लगे ॥९५॥
॥ इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये कविश्रीकालिदास
- कृतावजविलापो नामाष्टमः सर्गः ॥
यह “'मणिप्रभा! टीका में 'रघुवंश' महाकाव्य
का “अजविलाप! नामक अष्टम सर्ग समाप्त हुआ ॥ ८ ॥
रघुवंशम् आठवां सर्ग भावार्थ
रघु ने अज की कलाई पर विवाह- सूत्र
बंधने के साथ ही उसके हाथ में पृथ्वी का राजदण्ड भी सौंप दिया । जिस राज्यलक्ष्मी
को पाने के लिए राजपुत्र भयानक दुष्कर्म करने में भी संकोच नहीं करते,
उसे अज ने पिता का आदेश समझकर ही ग्रहण किया, भोग
की तृष्णा से प्रेरित होकर नहीं। जब वसिष्ठ मुनि ने राजतिलक के अवसर पर, जल से अज और वसुधा का साथ ही साथ अभिषेक किया, तब
वसुधा भी मानो खुली सांस लेकर उत्तम पति प्राप्त होने से उत्पन्न हुए आनन्द को
सूचित करने लगी। अथर्ववेद में विहित विधि -विधान के वेत्ता वसिष्ठ मुनि द्वारा
अभिषेक किए जाने पर अज शत्रुओं की पहुंच से बाहर हो गया । जब ब्राह्मण का ज्ञानबल
और क्षत्रिय का अस्त्रबल परस्पर मिल जाते हैं, तब दोनों एक -
दूसरे के सहायक बने हुए अग्नि और पवन के समान असह्य हो जाते हैं । अज अपने पिता के
समान ही गुणवान था । प्रजा को उसे पाकर ऐसा भान होने लगा मानो रघु ही फिर से युवा
हो गया है। जनता में अज इतना लोकप्रिय था कि राज्य का हर एक व्यक्ति अपने को राजा
का विशेष कृपापात्र समझता था । जैसे समुद्र सभी नदियों को समानरूप से मान-पूर्वक
ग्रहण कर लेता है, वैसे ही रघु के लिए भी सारी प्रजा समान थी
। जैसे वायु वृक्षों को झुका देती है, परन्तु जड़ से उखाड़कर
नहीं फेंक देती वैसे ही अज शत्रुओं के लिए न तो अत्यन्त कठोर था, और न अत्यन्त नर्म ही । वह मध्यमार्ग का अनुयायी था । सदा अन्य शक्तियों
को दबाकर रखता था, परन्तु सर्वथा नष्ट नहीं करता था ।
रघु ने जब देखा कि अज को प्रजाजनों
ने प्रेम से अपना लिया है तो वह इस लोक के तो क्या,
स्वर्गलोक के सुखों की ओर से भी उदासीन हो गया । उसने मुनियों के
योग्य बाना पहन लिया । जब अज ने यह सुना तो तपोवन में जाकर अपने मुकुट -सुशोभित
सिर को पिता के चरणों में झुका दिया, और यह प्रार्थना की कि
मेरा परित्याग न कीजिए। श्रद्धा से की गई पुत्र की उस प्रार्थना को रघु ने स्वीकार
कर लिया, और यह संसार का त्याग न किया, परन्तु राजकाज में भाग लेने से इन्कार कर दिया । जैसे सांप उतारी केंचुली
को फिर से नहीं पहनता, वैसे ही तपस्वी रघु ने भी छोड़े हुए
राज्य को ग्रहण नहीं किया । नगर के बाहर, एकान्त स्थान में
रहकर वह योग साधना में लीन हो गया, और कुछ समय पश्चात् समाधि
द्वारा शरीर त्याग कर परमपद को प्राप्त हो गया । अज ने जब पिता के प्रयाण का
समाचार सुना तो चिरकाल तक आंसू बहाकर मृत शरीर की अन्तिम क्रिया भिक्षुओं के समान
अग्निरहित पद्धति से की ।
शरीर की अनित्यता का विचार करके वीर
अज ने शीघ्र ही शोक का परित्याग कर दिया और अपना सारा ध्यान प्रजा के पालन में लगा
दिया । योग्य पति के प्राप्त होने से पृथ्वी रत्नों की और महारानी इन्दुमती पुत्र
की जननी हो गई । अज का पुत्र सहस्त्र किरणों वाले सूर्य के समान तेजस्वी था । उसका
यश दशों दिशाओं में व्याप्त होने वाला है, यह विचार करके पिता ने उसका नाम दशरथ रखा । वह विद्या द्वारा ऋषिऋण,
यज्ञों द्वारा देवऋण और सन्तान द्वारा पितृऋण को चुकाकर उऋण हो गया
। मानो सूर्य ग्रहण - मण्डल से मुक्त हो गया हो । अज का वैभव और गुण दोनों ही
अन्यों के लिए थे। शक्ति द्वारा वह दु:खियों के दु: ख का निवारण करता था तो उसकी
विद्या विद्वानों के सत्कार के काम में आती थी ।
एक बार प्रजा की सुख- समृद्धि और
उत्तम सन्तान की प्राप्ति से निश्चिन्त होकर वह नगर के समीप,
नन्दन के समान एक सुन्दर उपवन में, शची- सहित
इन्द्र के सदृश आनन्द विहार कर रहा था । उसी समय नारद मुनि दक्षिण- समुद्र के
तटवर्ती गोकर्ण नामक स्थान की ओर महादेव की आराधना के लिए जाते हुए आकाश -मार्ग से
गुजरे । अकस्मात् वेगवान वायु ने वीणा के अग्रभाग पर टंगी हुई दिव्यपुष्पों की
माला का संभवतः उसकी सुगन्ध के लोभ से अपहरण कर लिया । उस माला की सुगन्ध के लोभ
से जो भ्रमरों की पंक्ति उसके पीछे-पीछे चली, वह मानो पवन
द्वारा अपमानित मुनि - वीणा की आंखों के अंजन से काली अश्रु -माला थी ।
दिव्यपुष्पों की माला पार्थिव पुष्पों की ऋतुजन्य विभूति को परास्त करती हुई नीचे
आई और ठीक रानी इन्दुमती की छाती के मध्य भाग पर गिरी ।
उर: स्थल पर गिरी हुई माला को क्षण-
भर तो इन्दुमती ने देखा, फिर आंखें
बन्द कर लीं । उस आघात को वह सह न सकी । वह अचेत होकर गिर गई, और जैसे दीपक का गिरता हुआ तेल उसकी लौ को भी साथ ले जाता है, वैसे ही पृथ्वी पर गिरती हुई इन्दुमती ने पति को भी भूतल पर गिरा दिया ।
उनके गिरने पर समीपवर्ती सरोवर के पक्षी मानो सहानुभूति से शोर मचाने लगे । इस पर
परिजन लोग वहां पहुंच गए, और अज तथा इन्दुमती को होश में
लाने का यत्न करने लगे । अज को तो होश आ गया, पर इन्दुमती
सचेत न हुई । उपाय भी तभी सफल होते हैं जब आयु शेष हो । तार - रहित बीणा के समान
नि: शब्द और निर्जीव इन्दुमती को गोद में उठाकर जब अज वहां से चला, तब ऐसे प्रतीत होता था मानो प्रभातकाल में मलिन मृगलेखा को धारण किए
चन्द्रमा आकाशमार्ग से जा रहा हो ।
इन्दुमती के वियोग में अज की
स्वाभाविक धीरता जाती रही, और वह साधारण
मनुष्य की तरह विलाप करने लगा । ठीक भी है, अधिक गर्मी मिलने
पर लोहा भी कोमल हो जाता है, शरीर का तो कहना ही क्या ?
वह इस प्रकार विलाप करने लगा - यदि
पुष्पों का सम्पर्क भी मनुष्य के प्राण ले सकता है तो और कौन - सी वस्तु है जिसे
प्रहार की इच्छा होने पर विधाता अपना साधन नहीं बना सकता। अथवा विधाता का ढंग ही
ऐसा है, वह कोमल वस्तु का संहार कोमल
शस्त्र से ही करता है । वह कमल की कोमल पत्तियों को मारने के लिए ओस की शीत बूंद
को काम में लाता है । परन्तु आश्चर्य है कि मैं इस माला को अपने हृदय पर रखता हुं
तो यह मुझे नहीं मारती । यह भी ईश्वरेच्छा है। जो वस्तु एक के लिए विष है, वही दूसरे के लिए अमृत हो जाती है । यह मेरे भाग्य का ही दोष था कि जब
बिजली गिरी तो वृक्ष बच गया, और उस पर आश्रित लता नष्ट हो गई
। प्रिये, यदि मुझसे कोई बड़ा अपराध हो गया, तो भी तूने मेरा कभी अपमान नहीं किया । इस समय तो मुझसे कोई अपराध भी नहीं
हुआ। फिर बोलना क्यों छोड़ दिया ? परन्तु यह क्या, पवन से तेरे पुष्प - सुगन्धित धुंघराले केश हिल रहे हैं । मुझे ऐसा प्रतीत
होता है कि तु जाग पड़ेगी । हे प्रिये, जाग, उठ, और जैसे रात के समय गुफा में फैले हुए अन्धकार
को तृणज्योति नाम की औषधि नष्ट कर देती है, वैसे तू मेरे
हृदय के विषाद को नष्ट कर दे। हे दयिते , प्रभात के समय अलग
होकर सांझ के पश्चात् रात्रि चन्द्रमा को मिल जाती है और चकवी रात - भर अलग रहकर
प्रभात - काल चकवे के पास आ जाती है । इन दोनों के विरह का अन्त हो जाता है,
परन्तु तेरा वियोग तो अनन्त है क्या वह मुझे न जलायेगा ? जीवन - काल में ही मेरे लिए तूने अपने गुण अर्थों में सन्निहित कर दिए थे
।
जैसे,
कोकिल में मधुर कण्ठस्वर, कलहंसी में मस्त चाल
हरिणियों में चंचल दृष्टि, पवन से हिलती लताओं में सुंदर हाव
- भाव परन्तु सब तेरे समान ही अच्छे लगते थे। अब तेरे अभाव में ये केवल दु: ख को
बढ़ाने के कारण होंगे । वाटिका में तूने आम के वृक्ष और प्रियंगु लता को इस संकल्प
से बड़ा किया था कि उनको विवाह के बन्धन में बांधेगी । अभी वे दोनों ही कुंआरे हैं
। आज मैं बिल्कुल लुट गया । धैर्य का बांध टूट गया, हंसी -
खेल विदा हो गए, संगीत शांत हो गया, ऋतुओं
में कोई आनंद न रहा, ये सुंदर अलंकार व्यर्थ हो गए, और मेरी सेज खाली हो गई । मुझे तुमसे पृथक् करके विधाता ने सभी कुछ तो हर
लिया - तू मेरी गृहिणी थी, पत्नी थी, अतरंग
सहेली थी, और संगीतादि ललित कलाओं में मेरी प्रिय शिष्या थी
।
बस,
प्रिये ! सब ऐश्वर्य होते हुए भी मेरे आमोद -प्रमोद तो तेरे साथ
समाप्त हो गए। अब तो केवल सांस लेते हुए जीना ही शेष है।
अपनी प्रिया के वियोग में कोसल देश
के स्वामी का यह विलाप इतना करुणाजनक था कि शाखाओं के द्रवित होने से रस बहने लगा,
जिससे वृक्ष भी आर्द्र हो गए। परिजन लोगों ने किसी प्रकार इन्दुमती
के शव को अज की गोद से लेकर उसकी चन्दन, अगर आदि सुगन्धित
वस्तुओं द्वारा अन्त्येष्टि क्रिया कर दी । राजा ने प्रिया के साथ ही चिता में
प्रवेश नहीं किया । इसका यह कारण नहीं था कि उसे अधिक जीने की इच्छा थी, अपितु यह था कि संसार यह कहेगा कि कर्तव्य छोड़कर स्त्री के पीछे चला गया
।
जिस समय अन्त्येष्टि के पश्चात् की
सब क्रियाओं को उपवन में ही पूरा करके दस दिन के पश्चात् रात्रि व्यतीत हो जाने पर
निस्तेज चन्द्रमा के सदृश अज ने राजधानी में प्रवेश किया,
उस समय उसे नगर की स्त्रियों के आंसुओं में मानो सीमा का अतिक्रमण
किए हुए अपने दु: ख के अवशेष दिखाई दिए ।
जब यज्ञ के लिए दीक्षित वसिष्ठ मुनि
को अज की विकलता के समाचार मिले, तब
उन्होंने अपने शिष्य द्वारा उसे सान्त्वना- सन्देश भेजा । वसिष्ठ के शिष्य ने अज
से कहा यज्ञ आरम्भ हो चुका है। उसकी समाप्ति से पहले मुनि आश्रम से नहीं हट सकते ।
इस कारण उन्होंने अपना सन्देश देकर मुझे आपके पास भेजा है । उसे सुनो, और हृदय में धारण करो। मुनि समाधि द्वारा भूत, भविष्य
और वर्तमान, तीनों कालों को जानते हैं । कुछ समय पूर्व,
तृणबिन्दु नाम के एक ऋषि घोर तपस्या कर रहे थे। उनकी परीक्षा करने
के लिए देवराज ने हरिणी नाम की अप्सरा को उनके पास भेजा । हरिणी ने आश्रम में जाकर
जब तप के विरोधी हाव - भाव दिखाए, तब ऋषि की शांति का बांध
टूट गया । और उन्होंने क्रोध में आकर शाप दे दिया कि तू मनुष्य - लोक में जन्म ले
। बेचारी हरिणी ने ऋषि के चरणों में गिरकर निवेदन किया कि मैंने जो कुछ किया है,
स्वामी की आज्ञा से किया है, और क्षमा मांगी
तो ऋषि को दया आ गई, उन्होंने शाप को नर्म कर दिया ।
उन्होंने कहा कि जब तुम्हें स्वर्गीय पुष्प के दर्शन होंगे, तब
तुम शाप से छूट जाओगी। वह अप्सरा क्रथकैशिक राजाओं के वंश में इन्दुमती नाम से
उत्पन्न हुई, और तुम्हारी पत्नी बनी । आकाश से गिरे हुए
स्वर्गीय पुष्पों के हार ने उसे शाप से मुक्त कर दिया । इससे तुम्हें दु: खी न
होना चाहिए, और न इस चिन्ता में अपने को घुला देना चाहिए। जो
जन्म लेते हैं उन पर आपत्तियां तो आती ही हैं ।
तुम्हें पृथ्वी की पालना में लगना
चाहिए, क्योंकि पृथ्वी ही राजाओं की
असली पत्नी है । अपने अभ्युदय के समय में अभिमान का त्याग करके तुमने जिस धीरता का
परिचय दिया था, आपत्ति के समय में साहस को न छोड़कर उसका पुन
: परिचय देना चाहिए । रोकर भी तुम उसे कहां पा सकोगे? परलोक
गए हुए जीव अपने कर्मों के अनुसार भिन्न -भिन्न योनियों में जन्म ले लेते हैं । हे
राजन्, यह स्मरण रखो कि मरना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है,
और जीना कृत्रिम है । मनुष्य यदि क्षण- भर भी जी लेता है, तो यह लाभ की बात है, यह भी सोचने की बात है कि जब
मनुष्य के जीव और देह का मेल ही टूट जानेवाला है, तो बन्धु
बान्धवों का मेल अटूट कैसे हो सकता है? फिर उनके वियोग में
दु: ख कैसा? हे भूमिपाल, तुम्हें
साधारण व्यक्तियों की भांति शोक से ग्रस्त होना शोभा नहीं देता । पेड़ और पर्वत
में फिर भेद ही क्या है, यदि दोनों ही वायु के झोंके से
कम्पित होने लगें ?
ऐसा ही होगा यह कहकर अज ने गुरु के
शिष्य को विदा कर दिया, परन्तु गुरु
का सन्देश उसके शोकपूर्ण हृदय में घर न कर सका, इस कारण वह
भी शिष्य के साथ ही मानो गुरु के पास चला गया । बालक की आयु अभी कम थी, इस कारण इन्दुमती के चित्रों और स्वप्न -दर्शनों द्वारा किसी तरह दिल
बहलाकर अज ने आठ वर्ष काटे । उसके पश्चात् जैसे ठुका हुआ कील भवन के फर्श को तोड़
देता है, शोक ने उसके हृदय को बींध दिया, और प्रिया के पास शीघ्र जाने का साधन मानकर वह मृत्यु का भी स्वागत करने
लगा । भली प्रकार सुशिक्षित और संस्कारयुक्त कुमार को राज्य का भार सौंपकर,
रोगी शरीर का परित्याग करने के लिए उसने आमरण अमशन का आश्रय लिया,
और गंगा तथा सरयू के संगम पर शरीर का त्यागकर स्वर्गलोक के नन्दन - वनों
में प्रिया के साथ विचरण का अधिकार प्राप्त कर लिया ।
कालिदासकृत् रघुवंशमहाकाव्यम् आठवाँ सर्ग भावार्थ सहित समाप्त हुआ।
शेष जारी..............आगे रघुवंशमहाकाव्यम् नवम सर्ग।
Related posts
vehicles
business
health
Featured Posts
Labels
- Astrology (7)
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड (10)
- Hymn collection (38)
- Worship Method (32)
- अष्टक (54)
- उपनिषद (30)
- कथायें (127)
- कवच (61)
- कीलक (1)
- गणेश (25)
- गायत्री (1)
- गीतगोविन्द (27)
- गीता (34)
- चालीसा (7)
- ज्योतिष (32)
- ज्योतिषशास्त्र (86)
- तंत्र (182)
- दशकम (3)
- दसमहाविद्या (51)
- देवी (190)
- नामस्तोत्र (55)
- नीतिशास्त्र (21)
- पञ्चकम (10)
- पञ्जर (7)
- पूजन विधि (80)
- पूजन सामाग्री (12)
- मनुस्मृति (17)
- मन्त्रमहोदधि (26)
- मुहूर्त (6)
- रघुवंश (11)
- रहस्यम् (120)
- रामायण (48)
- रुद्रयामल तंत्र (117)
- लक्ष्मी (10)
- वनस्पतिशास्त्र (19)
- वास्तुशास्त्र (24)
- विष्णु (41)
- वेद-पुराण (691)
- व्याकरण (6)
- व्रत (23)
- शाबर मंत्र (1)
- शिव (54)
- श्राद्ध-प्रकरण (14)
- श्रीकृष्ण (22)
- श्रीराधा (2)
- श्रीराम (71)
- सप्तशती (22)
- साधना (10)
- सूक्त (30)
- सूत्रम् (4)
- स्तवन (109)
- स्तोत्र संग्रह (711)
- स्तोत्र संग्रह (6)
- हृदयस्तोत्र (10)
No comments: