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कर्मकाण्ड

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नारदसंहिता अध्याय १७

नारदसंहिता अध्याय १७          

नारदसंहिता अध्याय १७ में जातकर्म, नामकरण, नवान्नप्राशन का वर्णन किया गया है।  

नारदसंहिता अध्याय १७

नारदसंहिता अध्याय १७    

अथ जातकर्म ।

तस्मिञ्जन्ममुहूर्तेपि सूतकांतेपि वा शिशोः ॥  

जातकर्म प्रकर्तव्यं पितृपूजनपूर्वकम् ॥ १॥

बालक का जन्म हो उसी घडी अथवा सूतक के अंत में पितरों का पूजन कर (नांदीमुखश्राद्ध कर ) जातकर्म करना चाहिये ॥ १ ॥

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषा ०जातकर्माध्याय: ॥  

नारदसंहिता अध्याय १७    

सूतकांते नामकर्म विधेयं स्वकुलोचितम् ॥

नामपूर्वं प्रशस्तं स्यान्मंगलैश्च शुभाक्षरैः ॥ १ ॥

सूतक के अंत में अपने कुल के योग्य नाम कर्म करना चाहिये और नाम के आदि में शुभ मंगलीक अक्षर हो वह नाम श्रेष्ठ कहा है।

देशकालोपयाताद्यैः कालातिक्रमणं यादि॥

अनस्तगे भृगावीज्ये तत्कार्यं चोत्तरायणे ॥ २ ॥

देशकाल की व्यवस्था के अतिक्रमण से सूतक के अंत में बारहवें दिन नामकरण नहीं हो सके तो गुरु शुक्र का अस्त नहीं हो और उत्तरायण सूर्ये हो । २ ।

चरस्थिरमृदुक्षिप्रनक्षत्रे शुभवासरे ॥

चंद्रताराबलोपेते दिवसे च शिशोः पिता ॥ ३ ॥

चर, स्थिर, मृदु, क्षिप्रसंज्ञक नक्षत्र हो शुभ बार होवे और चंद्रमा तथा तारा बल से युक्त दिन हो तब बाळक का पिता ।।३।।

शुभलग्ने शुभांशे च नैधने शुद्धिसंयुते ॥

लग्नेंत्यनैधने सौम्ये संयुते वा निरीक्षिते ॥ ४ ॥

शुभ लग्न में शुभ राशी के नवांशक में अष्टम स्थान शुद्ध होय और लग्न, द्वादश, अष्टम स्थान में शुभ ग्रह स्थित हों अथवा शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तब नामकरण कर्म करना योग्य है ।। ४ ॥

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषा०नामकरणाध्यायो: ॥  

नारदसंहिता अध्याय १७    

अथ नवान्नप्राशनम् ।

षष्ठमास्यष्टमे वापि पुंसां स्त्रीणां तु पंचमे ।

सप्तमे मासि वा कार्यं नवान्नप्राशनं शुभम् ॥ १ ॥    

छठे महीने में अथवा आठवें महीने में पुरुष को ( पुत्रों को ) प्रथम अन्न खिलाना प्रारंभ करें और कन्याओं को प्रथम, पांचवें तथा सातवें महीने में अन्न खिलाना चाहिये ।। १ ॥

रिक्तां दिनक्षयं नंदां द्वादशीमष्टमीममाम् ।

त्यक्त्वान्यतिथयः श्रेष्ठाः प्राशने शुभवासरे ॥ २॥

रिक्तातिथि, तिथिक्षय, नंदातिथि, द्वादशी, अष्टमी, अमावस्या इनको त्यागकर अन्यतिथि और शुभवार अन्न प्राशन में शुभ दायक हैं ।। २ ।।

चरस्थिरमृदुक्षिप्रनक्षत्रे शुभनैधने ॥

दशमे शुद्धिसंयुक्ते शुभलग्ने शुभांशके ॥ ३ ॥

चर, स्थिर, मृदु, क्षिप्रसंज्ञक नक्षत्रों में और लग्न से अष्टम स्थान तथा दशम स्थान की शुद्धि होने मे शुभलग्न और शुभ राशि का नवांशक होने में । ३ ॥

पूर्वाह्ने सौम्यखेटेन संयुक्ते वीक्षितेपि वा ।

त्रिषष्टलाभगैः क्रूरैः केंद्रधीधर्मगैः शुभैः ॥ ४ ॥

पूर्वाह्न ( दुपहरा पहिला ) लग्न शुभग्रह से दृष्ट हो अथवा युक्त ५ ।३।६। ११ इन स्थानों में क्रूरग्रह होवें और केंद्र, पाँचव, नवमें स्थान में शुभग्रह होंवे तब॥ ४ ॥

व्ययारिनिधनस्थेन चंद्रेण प्राशनं शुभम् ।

अन्नप्राशनलग्नस्थे क्षीणेंदौ वास्तनीचगे ॥ ५ ॥

और १२ । ६ । ८ इन स्थानों में चंद्रमा नहीं होवे तब अन्नप्राशन शुभ है और उनमें क्षीण चंद्रमा नहीं हो चंद्रमा अस्त नहीं हो तथा नीच का नहीं हो ॥ ५॥

नित्यं भोक्तुश्च दारिद्यं रिष्फषष्ठाष्टगोप वा ॥ ६ ॥

जो १२ । ६ । ८ इन स्थानों में चंद्रमा हो एसे लग्न में अन्नप्राशन कराया जाय तो भोजन करनेवाला जन दरिद्री हो ॥ ६ ॥

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायामन्नप्राशनाध्याय सप्तदशः ॥१७॥

आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय १८ ॥ 

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