नारदसंहिता अध्याय १९

नारदसंहिता अध्याय १९           

नारदसंहिता अध्याय १९ में उपनयन विचार का वर्णन किया गया है। 

नारदसंहिता अध्याय १९

नारदसंहिता अध्याय १९    

आधानादष्टमे वर्षे जन्मतो वाग्रजन्मनाम् ॥

राज्ञामेकादशे मौंजीबंधनं द्वादशे विशाम् ॥ १ ॥

गर्भाधान से आठवें वर्ष में अथवा जन्म से आठवें वर्ष में ब्राह्मणों को उपनयन कर्म कराना और क्षत्रियों के ग्यारहवें वर्ष में, वैश्यों के बारहवें वर्ष में यज्ञोपवीत संस्कार कराना चाहिये ।। १ ।।

आजनेः पंचमे वर्षे वेदशास्त्रविशारदः।

उपनीतो यतः श्रीमान् कार्यं तत्रोपनायनम् ॥ २॥

जो बाह्मण वेदशास्त्र में निपुण होने की इच्छा करे वह जन्म से पांचवें ही वर्ष में उपनयन संस्कार करवावे क्योंकि, पांचवें वर्ष में संस्कार कराने वाला द्विज श्रीमान् वेदपाठी होता है । २ ।

बालस्य बलहीनोपि शांत्या जीवो बलप्रदः॥

यथोक्तवत्सरे कार्यमनुक्तेनोपनायनम् ॥ ३ ॥

बालक के बलहीन भी बृहस्पति शांति करवाने से बलदायक हो जाता है यथोक्त वर्ष में यज्ञोपवीत कराना। अनुक्त काल में यज्ञोपवीत नहीं कराना ।। ३ ।।

दृश्यमाने गुरौ शुक्रे दिनेशे चोत्तरायणे ।।

वेदानामधिपा जीवशुक्रभौमबुधाः क्रमात् ॥ ४ ॥

बृहपति तथा शुक्र का उदय हो सूर्य उत्तरायण हो तब उपनयन करावे । बृहस्पति, शुक्र, मंगल, बुध ये ग्रह क्रम से ऋग्, यजु, साम, अथर्व इनके अधिपति हैं । ४ ।

शरद्ग्रीष्मवसंतेषु व्युत्क्रमात्तु द्विजन्मनाम् ॥

मुख्यं साधारणं तेषां तपोमासादि पंचसु ॥ ५ ॥

शरद्, ग्रीष्म,वसंत इन ऋतुओं में यथाक्रम से द्विजातियों ने यज्ञोपवीत संस्कार कराना योग्य है ये ऋतु मुख्य हैं और साधारणता करके सब ही द्विजातियों को माघ आदि पांच महीनों में यज्ञोपवीत संस्कार करवाना । ५ ।।

स्वकुलाचारधर्मज्ञो माघमासे तु फाल्गुने ॥

विधिज्ञो ह्यर्थवांश्चैत्रे वेदवेदांगपारगः ॥ ६ ॥

धर्मज्ञ पुरुष अपने कुलाचार के अनुसार माघ महीने में उपनयन करवानेवाला होता है । फाल्गुन में यज्ञोपवीत संस्कार करावे तो विधि को जाननेवाला धनाढय होवे, चैत्र में वेदवेदांग को जाननेवाला पण्डित हो ॥ ६ ॥

वैशाखे धनवान्वेदशास्त्राविद्याविशारदः।

उपनीतो बलाढ्यश्च ज्येष्ठे विधिविदांवरः ॥ ७ ॥

वैशाख में धनवान् वेदशास्त्र को जाननेवाला पंडित हो, ज्येष्ठ में यज्ञोपवीत कराने बलवान् तथा सब विधियों को जाननेवाला होता है । ७ ।।

शुक्लपक्षे द्वितीया च तृतीया पंचमी तथा ॥

त्रयोदशी च दशमी सप्तमी व्रतबंधने ॥ ८ ॥

श्रेष्ठा त्वेकादशी षष्ठी द्वादश्येतास्तु मध्यमाः ॥

एका चतुर्थी संत्याज्या कृष्णपक्षे च मध्यमा ॥ ९ ॥

आपंचम्यास्तु तिथयेः पराः स्युरतिर्निंदिताः ।

श्रेष्ठान्यर्कत्रयांत्येज्यरुद्रादित्युत्तराणि च ॥ १० ॥

शुक्लपक्ष में द्वितीया, तृतीया, पंचमी, त्रयोदशी, दशमी, सप्तमी ये तिथि यज्ञोपवीत कराने में शुभ कही हैं और एकादशी षष्ठी, द्वादशी, ये मध्यमातिथि कही हैं। कृष्णपक्ष में एक चतुर्थी तो त्याज्य है और तिथि पंचमी तक मध्यम हैं । पंचमी से आगे अन्य तिथि अत्यंत निंदित जाननी । हस्त आदि तीन नक्षत्र रेवती, पुष्य, आर्द्रा, पुनर्वसु तीनों उत्तरा ॥ ८ - १० ॥

विष्णुत्रयाश्वमित्राजयोनिभान्युपनायने ।

जन्मभाद्दशमं कर्म संघातीर्क्षं च षोडशम् ॥ ११ ॥

श्रवण आदि तीन नक्षत्र, अश्विनी, अनुराधा, पूर्वाभाद्रपदा ये नक्षत्र उपनयन संस्कार में शुभ कहे हैं। जन्म नक्षत्र दशवाँ व सोलहवाँ नक्षत्र कर्म संघात ऋक्ष कहा है ।

अष्टादशं सामुदायं त्रयोविंशं विनाशनम् ॥

मानसं पंचविंशर्क्षे नाचरेच्छुभमेव तु ॥ १२ ॥

अठारहवाँ नक्षत्र सामुदाय है, तेईसवाँ विनाशन है, पचीसवाँ नक्षत्र मानस संज्ञक है इन नक्षत्रों में किंचित् भी शुभकर्म नहीं करना चाहिये ॥ १२ ॥

आचार्यसौम्यकाव्यानां वाराः शस्ताः शशीनयोः ॥

वारौ तौ मध्यफलदावितरौ निंदितौ व्रते ॥ १३ ॥

गुरु, बुध, शुक्र ये वार शुभदायक हैं, चंद्र, रविवार मध्यम हैं अन्य चार उपनयन संस्कार में निंदित कहे हैं ॥१३॥

त्रिधा विभज्य दिवसं तत्रादौ कर्म दैविकम् ॥

द्वितीये मानुषं कार्यं तृतीयांशे च पैतृकम् ॥ १४ ॥

दिनमान के तीन विभाग करके तहां पहिले भाग में देवकर्मं, दूसरे विभाग में मानुषकर्म,तीसरे विभाग में पितृकर्म करना योग्य है।

स्वनीचगे तदंशे वा स्वारिभे वा तदंशके । 

गुरौ भृगौ च शाखेशे कुलशीलविवर्जितः ॥ १५ ॥

स्वाधिशत्रुगृहस्थे वा तदंशस्थेथवा व्रती ।

शाखेशे वा गुरौ शुक्रे महाघातककृद्भवेत् ।। १६ ॥

बृहस्पति, व शुक्र तथा शाखेश अर्थात् ऋग्वेद आदिकों के अधिपति बृहस्पति आदि ४ वार कहे हैं उनमें से जिस वेद का मत हो वही शाखेश है जैसे ऋग्वेदियों का गुरु, यजुर्वेदियों का शुक्र सामवेदियों का मंगल, अथर्ववेदियों का बुध जानना ऐसे इन ग्रहों में से यथाक्रम से अपनी नीचराशि पर हो वा नीचांश अथवा शत्रु के घर में वा शत्रुराशि के नवांशक में हो तब उपयन संस्कार करावे तो अपने पूर्ण शत्रु के घर में स्थित अथवा शत्रु की राशि के नवांशक में स्थित शाखेश तथा गुरु, शुक्र होय तब उपनयन कराये तो महाघात पुरुष हो ॥ १५ -१६ ।।

स्वोच्चसंस्थे तदंशे वा स्वराशौ राशिगे गणे ।

शाखेशे वा गुरौ शुक्रे केंद्रगे वा त्रिकोणगे ॥ १७ ॥

अपनी उच्चराशि में स्थित अथवा उच्चराशि के नवांशक में अथवा अपनी राशि में स्थित शाखेश होवे तथा बृहस्पति, शुक्र भी इसी प्रकार स्थित होवे अथवा लग्न से केंद्र में तथा त्रिकोण में (९ । १ ) गुरु शुक्र होवे तब उपनयन संस्कार करावे तो ॥ १७ ॥

अतीव बलवांश्चैव वेदवेदांगपारगः ॥

परमोच्चमते जीवे शाखेशेवाथवा सिते ॥ १८ ॥

व्रती शिशुर्धनाढ्यश्च वेदशास्त्रविशारदः ।

मित्रराशिगते जीवे तदंशे वा स्वराशिगे ॥ १९॥

अत्यंत बलवान् वेदवेदांग के पार को जाननेवाला पुरुष हो बृहस्पति, शुक्र, शाखेश इनमे से कोई परम उच्च अंशों में प्राप्त होवे तो व्रती बालक धनाढ्य तथा वेदपाठी होवे बृहस्पति मित्र राशि पर हो अथवा तिस राशि के नवांशक में हो अथवा अपनी राशि पर होय ॥१८-१९ ॥

शुक्रे वाचार्यसंयुक्ते तदा तत्र व्रती शिशुः ॥

स्वस्वमित्रगृहस्थे वा तस्योच्चस्थे तदंशके ।। २०॥

शुक्र, बृहस्पति एक राशि पर स्थित होवें तब उपनयन कराना शुभ है बृहस्पति शुक्र शाखेश ये ग्रह अपने २ मित्रों के घर में स्थित हों अथवा मित्रग्रह की उच्चराशि पर स्थित होवें अथवा उच्चराशि के नवांशक में स्थित होवें तव उपनयन करवावे तो विद्या धन धान्य से संयुक्त होवे ॥ २० ॥

गुरौ भृगौ वा शाखेशे विद्याधनसमन्वितः ।

शाखाधिपतिवारश्च शाखाधिपबलं शिशोः ॥

शाखाधिपतिलग्नं च दुर्लभं त्रितयं व्रते ।। २१ ॥

शाखाधिपति ग्रह का वार, बालक को शाखाधिपति का बल और शाखाधिपति के राशि का लग्न ये तीन वस्तु उपनयन कर्म में दुर्लभ हैं अर्थात् बड़ी उत्तम हैं ।। २१ ।।

तस्माच्छुभांशगे चंद्रे व्रती विद्याविशारदः।    

पापोऽष्टगे स्वांशगे वा दरिद्रो नित्यदुखितः ॥ २२ ॥

इसीलिये शुभराशि के नवांशक में चंद्रमा हो तो व्रतीजन विद्या में निपुण हो और पापग्रह अष्टम स्थान में हो तथा अपनी राशि के नवांशक में हो तो दरिद्री नित्य दुःखी होवे ।। २२ ।।

श्रवणादितिनक्षत्रे कर्क्यशस्थे निशाकरे ।

सदा व्रती वेदशास्त्रधनधान्यसमृद्धिमान् ॥ २३ ॥

श्रवण तथा पुष्य नक्षत्र हो, कर्क राशि के नवांशक पर चंद्रमा स्थित हो तब उपनयन संस्कार करानेवाला बालक वेदशास्त्र धनधान्य की समृद्धिवाला होता है ।। २३ ।।

शुभलग्ने शुभांशे च नैधने शुद्धिसंयुते ॥

लग्ने त्वनैधने सौम्यैः संयुक्ते वा निरीक्षिते ॥ २४ ॥

शुभलग्न शुभराशि का नवांशक हो आठवें घर कोई लग्न में शुभग्रह स्थित हो अथवा शुभग्रहों की दृष्टि हो ।। २४ ।।

दृष्टैर्जीवार्कचंद्रद्यैः पंचभिर्बलिभिर्ग्रहैः ।

स्थानादिबलसंपूर्णैश्चतुर्भिर्वा समन्वितैः ॥ २५ ॥    

बृहस्पति, सूर्य, चंद्रमा इत्यादि पांच ग्रहों से दृष्ट शुभस्थान होवें अथवा पंचम आदि स्थानों में चार बली शुभ ग्रह स्थित होवें।२५।

ईक्षिते वा चैकविंशन्महादोषविवर्जिते ।

राशयः सकलाः श्रेष्ठाः शुभग्रहयुतेक्षिताः ॥ २६ ॥

अथवा शुभ चार ग्रहों से दृष्ट लग्न होवे और २१ इक्कीस महा दोष जो ग्रंथांतरों में तथा इसी ग्रंथ में आगे कहे हैं । पंचागशुद्धिका अभाव १ उदयास्त शुद्धि का अभाव २ सूर्य संक्रांति ३ पाप षड्वर्ग ४ गंडांत ५ कर्त्तरीयोग ६ इत्यादि हैं ये नहीं होने चाहियें और शुभग्रहों से युक्त तथा दृष्ट संपूर्ण राशि श्रेष्ठ कही हैं ।। २६ ।।

शुभा नवांशाश्च तथा गृह्यास्ते शुभराशयः ।

पापग्रहस्य लग्नांशः शुभेक्षितयुतोपि वा ॥ २७ ॥

और जिनमें शुभराशि के नवांशक आ गये हों वे राशी ग्रहण करने योग्य शुभ हैं और पाप ग्रह के लग्न का नवांशक शुभग्रह से दृष्ट तथा युक्त होय तो शुभ है । । २७ ॥

तस्माद्रोमिथुनांत्याश्च तुलाकन्यांशकाः शुभाः ।

एवंविधे लग्नगते नवांशे व्रतमीरितम् ॥ २८ ॥

इसलिये वृष, मिथुन, मीन तुला, कन्या इन राशियों के नवांशक शुभ हैं ऐसे उनमें अथवा नवांशक में यज्ञोपवीत कराना शुभ है॥ २८ ॥

त्रिषडायगतैः पापैः षडष्टांत्यविवर्जितैः ।

शुभैः षष्ठाष्टलग्नत्यवर्जितेन हिमांशुना ॥ २९॥

पापग्रह ३ । ६ । ११ घर में हों और शुभग्रह ६।८ । १२ इन घरों में नहीं हों और ६ । ८ लग्न में चंद्रमा नहीं हो ॥

स्वोच्चसंस्थोपि शीतांशुव्रतिनो यदि लग्नगः ।।

तं करोति शिशुं निःस्वं सततं क्षयरोगिणम् ॥ ३० ॥

उच्चराशि का भी चंद्रमा लग्न में होय तो उपनयन संस्कारवाले बालक को निरंतर दरिद्री और क्षयी रोगयुक्त करता है ।। ३० ॥

स्फूर्जितं केंद्रगे भानौ व्रतिनो वंशनाशनम् ॥

कूजितं केंद्रगे भौमे शिष्याचार्यविनाशनम् ॥ ३१ ॥

केंद्र में सूर्य होवे तब उपनयन संस्कार होने समय मेघगर्ज पडे तो वंश का नाश होता है और मंगल केंद्र में होय ऐसे लग्न में उपनयन समय पक्षियों के कूजने का शब्द होय तो शिष्य और आचार्य का नाश हो ॥ ३१ ॥

करोति रुदितं केंद्रसंस्थे मंदेऽतुलान् गदान् ॥

लग्नात्केंद्रगते राहौ रंध्रे मातृविनाशनम् ॥ ३२ ॥

उग्रकेंद्रगते केतौ तातवित्तविनाशनम् ॥

पंचदोषैर्युतं लग्नं शुभदं नोपनायने ॥ ३३ ॥

और केंद्र में शनि होवे ऐसे समय में रोने को शब्द सुन जाय तो अत्यंत रोग हो । लग्न से केंद्र में विशेष करके ७ में राहु होय तो माता को नष्ट करै, उग्र केंद्र में केतु होय तो पिता को और धन को नष्ट करै इन पांच दोषों से युक्त लग्न उपनयन संस्कार में शुभ नहीं है । ३२ - ३३ ॥

विना वसंतऋतुना कृष्णपक्षे गलग्रहे ।

अनाध्यायोपनीतश्च पुनः संस्कारमर्हति ॥ ३४ ॥

वसंतऋतु के विना कृष्णपक्ष में तथा गलग्रह योग में उपनयन् किया जाय तो फिर संस्कार करने के योग्य है अर्थात इन योग में संस्कार नहीं कराना ॥ ३४ ॥

त्रयोदश्यादिचत्वारि सप्तम्यादिदिनत्रयम् ।

चतुर्थी चैकतः प्रोक्ता ह्यष्टावेते गलग्रहाः ॥ ३५ ॥

त्रयोदशी आदि चार तिथि और सप्तमी आदि ३ दिन एक चतुर्थी ऐसे ये ८ तिथि गलग्रह योगसंज्ञक हैं । ३६ ॥

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायामुपनयनाध्याय- एकोनविंशतितमः ॥ १९ ॥ 

आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय २० ॥  

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