नारदसंहिता अध्याय २०
नारदसंहिता अध्याय २० में छुरिकाबंधन
तथा समावर्त्तन का वर्णन किया गया है।
नारदसंहिता अध्याय २०
छुरिकाबंधनं वश्ये नृपाणां
प्राक्करग्रहात् ॥
विवाहोक्तेषु मासेषु
शुक्लपक्षेष्यनस्तगे ॥ १ ॥
शुक्रे जीवे च भूपुत्रे
चंद्रताराबलान्विते ।
मैौंजीबंधर्क्षतिथिषु
कुजवर्जितवासरे ॥ २ ॥
अब छुरिकाबंधन मुहूर्त को कहते हैं
। राजाओं ने विवाह से पहिले छुरिका ( कटारी ) बांधनी चाहिये सो विवाह कर्म में कहे
हुए महीनों में और शुक्लपक्ष में तथा गुरु शुक्र के उदय में और मंगल के उदय में और
चंद्रमा तथा तारा का बल होय, यज्ञोपवीत में
कहे हुए नक्षत्र तिथि वार हों, मंगल विना अन्यवार होवें॥१-२॥
तेषां लग्नोदये
कर्तुरष्टमोदयवर्जिते ॥
शुद्धेऽष्टमे विथैौ
लग्नात्षडष्टांत्यविवर्जिते ॥ ३ ॥
तिन शुभ ग्रहों की राशि का लग्न हो
और कर्त्ता की जन्मराशि से आठवें कोई ग्रह नहीं हो तथा वर्तमान लग्न से आठवें कोई
ग्रह नहीं हो लग्न से ६।८। १२ इन घरों में चंद्रमा नहीं हो। ३ ।।
धनत्रिकोणकेंद्रस्थैः
शुभैख्यायारिगैः परैः
छुरिकाबंधनं
कार्यमर्चयित्वामरान्पितृन् ॥ ४ ॥
धन, त्रिकोण (९ । ५ ) केंद्र इन स्थानों में शुभ ग्रह होवें और ३ । ११ । ६
इनमें पाप ग्रह होवे ऐसे मुहूर्त में देवता तथा पितरों का पूजन कर छुरिकाबंधन
(कटारी बांधना )शुभ है ।। ४ ॥
अर्चयेच्छुरिकां सम्यग्देवतानां च
सन्निधौ ॥
ततः सुलग्ने बध्नीयात्कट्यां लक्षणसंयुताम् ॥ ५ ॥
देवताओं की मूर्तियों के सन्मुख
छुरिका ( कटारी ) का पूजन करें फिर अच्छे लग्न में अच्छे लक्षणवाली छुरिका ( खङ्ग
) को कटि में बांधना चाहिये ॥ ५ ॥
तस्यास्तु लक्षणं वक्ष्ये यदुक्तं
ब्रह्मणा पुरा ।
संमितं छुरिकायामविस्तारेणैव
ताडयेत् ॥ ६ ॥
अब जो पहिले ब्रह्माजी ने कहा है
ऐसा खङ्ग का लक्षण कहते हैं। खङ्ग की लंबाई के बराबर के निशान को उस नवीन खङ्ग से
ताडित करे ।। ६ ।।
भाजितं गजसंख्यैश्च ह्यंगुलीः
परिकल्पयेत् ।
आयामार्द्धाग्रविस्तारप्रमाणेनैव
छेदयेत् ॥ ७ ॥
फिर उस लंबे चिह्न में आठ का भाग दे
अंगुल कल्पित करैं अर्थात् अंगुलों से नांपकर आठ से कम तक रहैं इतने चिह्न को
ग्रहण कर पीछे खङ्ग लंबाई के आधे विस्तार के अग्रभाग से उस चिह्नित वस्तु को काट
देवे ।। ७ ।।
तच्छेदखंडान्यायाः स्युर्ध्वजाये
रिपुनाशनम् ॥
धूम्राये मरणं सिंहे जयश्चाये
निरोगिता ॥
धनलाभो वृषेत्यंतं दुःखी भवाति गर्दभे
॥ ८ ॥
फिर उस कटे हुए टुकडे के आय होते हैं
अर्थात् जितनी अंगुल का होय उसका फल कहते हैं । एक अंगुल का होय तो ध्वज आय जाने
शत्रु को नष्ट करता है । और २ अंगुल धम्रआय होय तो मरण,
३ सिंह होय तो जय (जीत) हो, चौथा धन आय होय तो
आरोग्यता हो फिर ५ वृष आय हो, तो धन का लाभ ६ गर्दभआय में
अत्यंत दुःखी होवे ॥ ८ ॥
गजायेऽत्यंतसंप्रीतिर्ध्वाक्षे
वित्तविनाशनम् ॥
खङ्गपुत्रिकयोर्मानं
गणयेत्स्वांगुलेन तु ॥ ९ ॥
मानांगुले तु
पर्यायानेकादशमितांस्त्यजेत् ॥
शेषाणामंगुलानां च फलानि
स्युर्यथाक्रमात् ॥ १० ॥
पुत्रलाभः शत्रुवृद्धिः स्त्रीलाभो
गमनं शुभम् ।
अर्थहानिश्चार्थवृद्धिः प्रीतिः
सिद्धिर्जयः स्तुतिः ॥ ११ ॥
स।तवाँ गजआय में सम्यक् प्रीति हो
और आठवाँ ध्वांक्ष आय में धन का नाश हो खङ्ग के मानक और छुरिका के मान को अपनी
अंगुलों से नापकर फिर उनमें ११ अगुंल प्रमाण त्याग देवे अर्थात् ग्यारह का भाग देकर
बाकी रख लेवे तल चार की अंगुल और मात में जितने अंगुल तक घात भया हो उनको अंगुल
करके जोडकर ११ का भाग देना फिर १ बँचे तो पुत्रलाभ २ बँचे तो शत्रुवृद्धि,
३बँचे तो स्त्रीलाभ,४ बँचे तो गमन,५ बँचे तो शुभ फल, ६ बँचे तो द्रव्यहानि, ७ बँचे तो द्रव्यवृद्धि, ८ बँचे तो स्तुति, ९ बॅचे तो सिद्धि, १० बँचे तो विजय, ११ बँचे तो स्तुति ( यश ) ऐसा फल जानना ॥९-११ ॥
इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां
छुरिकाबंधनाध्यायः ॥
नारदसंहिता अध्याय २०
अथोत्तरायणे
शुक्रजीवयोर्द्देश्यमानयोः ॥
द्विजातीनां गुरोर्गेहान्निवृत्तानां
यतात्मनाम् ॥ १ ॥
उत्तरायण सूर्य हो,
बृहस्पति तथा शुक्र का उदय हो तव नियम रखने वाले अर्थात् ब्रह्मचर्य
में रहनेवाले द्विजातियों ने गुरु के घर से निवृत्त होना चाहिये ॥ १ ॥
चित्रोत्तरादितीज्यांत्यहरिमैत्रैंदुभात्रिषु
॥
भेष्वर्कॅद्विज्यशुक्रज्ञवारलग्नांशकेषु
च ॥ २॥
अथवावस्थानक्षत्रवारलग्नांशकेष्वपि
।
प्रतिपत्सर्वरिक्तामा सप्तमीतो
दिनत्रयम् ।। ३ ।।
हित्वान्यदिवसे कार्यं
समावर्तनमंडनम् ॥ ४ ॥
चित्रा, तीनों उत्तरा, पुनर्वसु, पुष्य, रेवती, श्रवण, अनुराधा, मृगशिर आदि तीन नक्षत्र, रवि, चंद्र, बृहस्पति, शुक्र, बुध इन वारों विषे और इनही की राशियों के लग्न तथा नवांशको विषे अथवा यात्रा के नक्षत्र वार लग्न नवांशकों विषे समावर्तन कम करना चाहिये और प्रतिपदा, संपूण रिक्तातिथि, अमावस्या, सप्तमी आदि तीन दिन इनको त्यागकर समावर्तन कर्म करना चाहिये ( गृहस्थाश्रम में प्राप्त होना चाहिये) ॥ २ - ४॥
इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां
समावर्त्तना ध्यायः विंशतितमः॥ २०॥
आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय २१ ॥
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