नारदसंहिता अध्याय १४
नारदसंहिता अध्याय १४ में मेषादि १२लग्नों और उनके शुभाशुभ फल का वर्णन किया गया है।
नारदसंहिता अध्याय १४
अथ लग्नफलम् ।
॥ मेषलग्नम् ॥
पट्टबंधनयानोग्रसंधिविग्रहभूषणम् ॥
धात्वाकराहवं कर्म मेषलग्ने
प्रसिध्यति ॥१॥
पट्टाबंधन,
सवारी, उग्रसंधि (मिलाप ) विग्रह, आभूषण, धातु खजाना, युद्ध ये
कर्म मेषलग्न में सिद्ध होते हैं । १ ॥
॥ वृषलग्नम् ॥
मंगलानि स्थिराण्येव
वेश्मकर्मप्रवर्तनम् ।
कृषिवाणिज्यपश्वादि वृषलग्ने
प्रसिध्यति ॥ २ ॥
मंगल, स्थिरकाम, घर प्रवेश आदि कर्म, खेती, वाणिज्य, पशु आदि कर्म
ये वृषलग्न में सिद्ध होते हैं ॥ २ ॥
॥ मिथुनलग्न ॥
कलाविज्ञानसिद्धिश्च
भूषणाहवसंश्रयम्॥
गजोद्वाहाभिषेकाद्यं कर्तव्यं
मिथुनोदये ॥ ३ ॥
कला, विज्ञान,सिद्धि, आभूषण,
युद्ध, आश्रय होना, हाथी
लेना देना,विवाह, अभिषेक इत्यादि कर्म
मिथुनलग्न में करने चाहियें।।३।।
॥ कर्कलग्नम् ॥
वापीकूपतडागादिवारिबंधनमोक्षणे ।
पौष्टिकं लिपिलेखादि कर्तव्यं
कर्कटोदये ॥ ४ ॥
बावड़ी,
कुँवा, तालाब पुलबांधना, नहर चलाना, पुष्टि के काम लेखक कर्म, लेखाहिसाब ये कर्म कर्कलग्न में करने शुभ हैं ।। ४ ।।
॥ सिंहलग्नम् ॥
इक्षुधान्यवणिक्पण्यकृषिसेवादि
यत्स्थिरम् ।
साहसावहभूपाढ्यं सिंहलग्ने
प्रसिध्यति ॥ ५ ॥
ईख धान्य वाणिज्य,
दूकान, खेती, सेवा आदि
स्थिर काम, साहस ( बलहठ का ) काम,युद्ध,
राजकार्य ये काम सिंहलग्न में करने शुभ हैं ।। ५॥
॥ कन्यालग्नम् ॥
विद्याशिल्पौषधकर्म भूषणं च चरं
स्थिरम् ॥
कन्यालग्नविधेयं तत्
पौष्टिकाखिलमंगलम् ॥ ६ ॥
विद्या,
शिल्प, औषध, आभूषण,
चर स्थिर काम, पौष्टिक तथा मांगालिक कर्में
कन्यालग्न में करने चाहियें । ६ ।
॥ तुलालग्नम् ॥
कृषिवाणिज्ययानाश्च
पशूद्वाहव्रतादिकम् ।
तुलायामखिलं कर्म तुलाभांडाश्रितं च
यत् ॥ ७ ॥
खेती, वाणिज्य, सवारी, पशु, विवाह, व्रतादिक, बरतन,
ताख बाट इत्यादि कर्म तुला लग्न में करने चाहियें।।७॥
॥ वृश्चिकलग्नम् ॥
स्थिरकर्माखिलं कार्यं
राजसेवाभिषेचनम् ॥
चौर्यकर्म स्थिरारंभाः कर्तव्या
वृश्चिकोदये ॥ ८॥
संपूर्ण स्थिर काम,
राजसेवा, अभिषेक, चोरी के
काम, स्थिर कार्यं प्रारंभ ये कार्य वृश्चिक लग्न में करने
चाहियें ॥ ८ ।।
॥ धनुलग्नम् ॥
व्रतोद्वाहप्रयाणञ्च
ह्यंगशिल्पकलादिकम् ।
चरं स्थिरं सशस्त्रास्त्रं कर्तव्यं
कार्मुकोदये ॥ ९ ॥
व्रत नियम लेना,
विवाह, तीर्थादिक पर मरना, अंग, शिल्प, कलाचार, स्थिरकार्य, शस्त्र, अस्त्र,
ये काम धनुर्लग्न में करने चाहियें ॥ ९ ॥
॥
मकरलग्नम् ॥
तोयबंधनमोक्षास्त्रकृष्यं
चोष्ट्रादिकर्म यत् ॥
प्रस्थानं पशुदासादिकर्तव्यं
मकरोदये ॥ १० ॥
पुल बांधना,
नहर चलाना, शस्त्रकर्म, खेती,
ऊंट आदि पशु के कार्य, गमन पशुकर्म, दासादिकर्म ये सब मकरलग्न में करने चाहियें ।। १० ।।
॥ कुंभलग्नम् ॥
कृषिवाणिज्यपश्वंबु शिल्पकर्म
कलादिकम् ।
जलयात्रास्त्रशस्त्रादि कर्तव्यं
कलशोदये ॥ ११ ॥
खेती, वाणिज्य, पशु, जलकर्म, शिल्पकर्म, कलादिकर्म जल में यात्रा, शस्त्र अस्र कर्म ये सब कुंभलग्न में करने चाहिये ।। ११ ।।
॥ मीनलग्नम् ॥
व्रतोद्वाहाभिषेकांबुस्थापनं
सन्निवेशनम् ।
भूषणं जलपात्रं च कर्म मीनोदये
शुभम् ॥ १२ ॥
व्रत, विवाह, अभिषेक, जलस्थापन,
प्रवेशकर्म, आभूषण, जल-
पात्र ये कर्म मीनलग्न में करने शुभ हैं ॥ १२ ॥
॥लग्न के शुभाशुभ फल॥
गोयुग्मकर्ककन्यांत्यतुलाचापधराः
शुभाः ।
शुभग्रहास्पदवात्स्युरितरे पापराशयः
॥ १३ ॥
और वृष,
मिथुन, कर्क, कन्या,
मीन, तुला, धनु ये लग्न
शुभदायक हैं, क्योंकि ये शुभग्रहों के स्थान हैं और अन्य
लग्न पापग्रहों की राशि हैं ॥ १३ ॥
क्षीणेंद्वर्कार्किभूपुत्राः पापाः
स्युः संयुतो बुधः ॥
पूर्णचंद्रबुधाचार्यशुक्रस्तेस्युः
शुभग्रहाः ॥ १४ ॥
क्षीणचंद्रमा,
सूर्य, शनि, मंगल ये
पापग्रह हैं और इनके साथ होने से बुध भी अशुभ है और पूर्ण चंद्र, बुध, बृहस्पति, शुक्र ये
शुभग्रह हैं ।। १४ ॥
सौम्योग्रं तेषां राशीनां
प्रकृत्येव फलं भवेत् ॥
योगेन सौम्यपापैश्च खचरैर्वीक्षितेन
वा ॥ १५ ॥
तिन राशियों का योग होने से शुभ
अशुभ फल स्वभाव से ही हो जाता है और शुभ अशुभ ग्रहों की दृष्टिहाने से भी शुभाऽशुभ
फल होता है। १५ ॥
सौम्याश्रितत्वात्क्रूरो वा स राशिः
शोभनः स्मृतः ॥
सौम्योपि राशिः क्रूरः
स्यात्क्रूरग्रहयुतो यदि ॥ १६ ॥
जिस पर शुभग्रह स्थित होय वह
क्रूरराशि होय तो भी शुभदायक जाननी और क्रूरग्रह से युक्त होय तो शुभराशि भी क्रूर
जाननी ॥ १६ ॥
ग्रहयोगावलोकाभ्यां शशी धत्ते ग्रहोद्भवम्
।
फलं ताभ्यां विहीनोसौ स्वं
भावमुपसर्पति ॥ १७ ॥
ग्रह का योग तथा दृष्टि करके
चंद्रमा उस ग्रह के शुभ अशुभ फल को धारण करता है और उन दोनों से हीन होय तब
चंद्रमा केवल अपना ही फल करता है । १७ ॥
आदौ संपूर्णफलदं मध्ये मध्यफलप्रदम्
।
अन्ते तुच्छफलं लग्नं
सर्वास्मिन्नेवमेव हि ॥ १८ ॥
लग्न, आदि में संपूर्ण फल करता है मध्य में मध्यफल और अंत में लग्ल बहुत थोड़ा
फल करता है ।। १८ ।।
सर्वत्र प्रथमं लग्नं
कर्तुश्चंद्रबलं ततः ।।
कन्यान्य इंदौ बलिनि संत्यन्ये
बलिनो ग्रहाः ॥१९॥
सब जगह पहले लग्नबल देखना फिर कर्त्ता
को चंद्रबल देखना कन्या के विना अन्य राशि का चंद्रमा बलवान् होय तो सभी ग्रहबलवान
जानने ।। १९ ।।
चंद्रस्य बलमाधारआधेयं चान्यखेटजम्
॥
आधरभूतेनाधेयं दीयते पारिनिष्ठितम्
।। २० ।।
चंद्रमा का बल आधार है और अन्य ग्रह
का बल आधेय है । अर्थात् चंद्रमा के बल के आश्रय है आधाररूप चंद्रबल से आधेय की
रक्षा की जाती है । २० ॥
स चेंदुः शुभदः सर्वग्रहाः
शुभफलप्रदाः ॥
अशुभश्चेदशुभदः वर्जयित्वा
दिनाधिपम् ॥ २१ ॥
चंद्रमा शुभदायक हो तो सब ग्रह
शुभफल दायक जानने और अशुभ हो तो अशुभ ही परंतु सूर्य की यह व्यवस्था नहीं है ॥ २१
॥
लग्नभ्युदयो येषां तेष्वंशेषु
स्थिता ग्रहाः॥
लग्नोद्भवं फलं धत्ते चैवमेवं
प्रकल्पयेत् ॥ २२ ॥
जिन ग्रहों का लगनों में शुभफल है
वे ग्रह उन लग्नों के नवांशक में भी लग्न के अनुसार शुभफल देते हैं ऐसे जानना ॥ २२
॥
लग्नं सर्वगुणोपेतं लभ्यते यदि तेन
हि ॥
दोषारुपत्वं गुणाधिक्यं
बहुसंततमिष्यते ॥ २३ ॥
जो सबगुणों से संयुक्त लग्न मिल जाय
तो दोष का योग थोड़ा रहता है और गुण (शुभ) बहुत विस्तृत होता है ॥ २३ ॥
दोषदुष्टोहि कालः स परिहार्यः
पितामह ॥
अथ शक्त्या गुणाधिक्यं दोषाल्पत्वं
ततो हितम् ॥२४॥
दोष से दुष्ट हुआ वह काल सबसे बड़ा है इसलिये त्याग देना चाहिये और जो शक्ति करके लग्न में अधिक गुण होय तो अन्य दोष थोड़े रहते हैं ॥ २४ ॥
इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां
सर्वलग्नाध्यायश्चतुर्दर्शः ॥१४॥
आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय १५॥
0 Comments