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कर्मकाण्ड

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नारदसंहिता अध्याय २१

नारदसंहिता अध्याय २१   

नारदसंहिता अध्याय २१ में विवाह प्रश्न का शुभाशुभ विचार तथा कन्या वरण विचार का वर्णन किया गया है।  

नारदसंहिता अध्याय २१

नारद संहिता अध्याय २१   

सर्वाश्रमाणामाश्रेयो गृहस्थाश्रम उत्तमः ।।

यतःसोऽपि च योषायां शीलवत्यां स्थितस्ततः ॥ १॥

संपूर्ण आश्रमों का आश्रयरूप गृहस्थाश्रम कहा है वह गृहस्थाश्रम भी अच्छी शीलविती स्त्री के आश्रयास्थित रहता है ।। १ ।।

तस्यास्तच्छीललब्धिस्तु सुलग्नवशतः खलु ।

पितामहोक्तां संवीक्ष्य लग्नशुद्धिं प्रवच्म्यहम् ॥ २॥

और तिस स्री के शील स्वभाव की प्राप्ति अच्छे लग्न के प्रभाव से होती है इसलिये मैं ब्रह्माजी से कही हुई लग्नशुद्धि को कहता हूं ।२।।

पुण्येह्नि लक्षणोपेतं सुखासीनं सुचेतसम् ॥

प्रणम्य देववत्पृच्छेदैवज्ञं भक्तिपूर्वकम् ॥ ३ ॥

पवित्र शुभदिन विषे सुंदर लक्षणों से युक्त सुखपूर्वक स्वस्थ चित्त से बैठे हुए ज्योतिषी को भक्तिपूर्वक प्रणाम कर देवता की तरह सत्कार करके पूंछे. ॥ ३ ॥

तांबूलफलपुष्पाद्यैः पूर्णाजलिरुपाग्रतः ॥

कर्ता निवेद्य दंपत्योर्जन्मराशिं स जन्मभम् ॥ ४ ॥

तांबूल, फल, पुष्प आदिकों से हाथों को पूर्णकर (भेंट चढ़ाकर) वह पृच्छक वरकन्याओं के जन्म के नक्षत्र को और जन्म की राशि को उस ज्योतिषी के आगे बतला देवे ॥ ३- ४ ॥

पृच्छकस्य भवेल्लग्नादिंदुः षष्टाष्टकोपि वा ॥

दंपत्योर्मरणं वाच्यमष्टमक्षौतरे यदि ॥ ९॥

तहां प्रश्न समय के लग्न से छठे आठवें स्थान पर चंद्रमा हो अथवा उनके नक्षत्र से आठवें नक्षत्र पर होय तो स्त्रीपुरुषों का (वर कन्याओं का ) मरण होगा ऐसा कहना चाहिये ॥ ५ ॥

यदि लग्नगतञ्चंद्रस्तस्मात्सप्तमगः कुजः ॥

विज्ञेयं भर्तृमरणं त्वष्टमेब्दे न संशयः॥ ६॥

जो चंद्रमा प्रश्नलग्न में हो और तिस चंद्रमा से सातवें स्थान पर मंगल हो तो आठवें वर्ष में निश्चय पति का मरण होता है ॥ ६ ।।

लग्नात्पंचमगः पापः शत्रुदृष्टः स्वनीचगः ॥

मृतपुत्रा तु सा कन्या कुलटा न तु संशयः ॥ ७ ॥

लाभ से पांचवें स्थान पापग्रह शत्रुग्रह से दृष्ट तथा अपनी नीचराशि पर स्थित हो तो वह कन्या मृतवत्सा हो और व्यभिचारिणी हो इसमें संदेह नहीं ।। ७ ।।

तृतीयपंचसप्तायकर्मगश्च निशाकरः॥

लग्नात्करोति संबंधं दंपत्योर्गुरुवीक्षितः ॥  ८ ॥

तीसरे, पांचवें, सातवें, ग्यारहवें तथ दशवें स्थान पर चंद्रमा हो और बृहस्पति करके दृष्ट हो तो स्त्री पुरुष का संबंध ( मेल ) करता है । ८॥ ।

तुलागो कर्कटे लग्ने संस्थाः शुक्रेंदुसंयुताः ॥

वीक्षिताः स्त्रीग्रहा नृणां कन्यालाभो भवेत्तदा ।। ९ ॥

प्रश्न समय तुला, वृष, कर्क, लग्न में स्त्रीग्रह स्थित होवें और शुक्र चंद्रमा से युक्त होवें तो तथा दृष्ट होवें तो मनुष्यों को कन्या का लाभ जरूर कहना ॥  ९ ॥

शुक्रेंदू युग्मराशिस्थौ युग्मांशकगतौ तदा ॥

बलिनौ पश्यतो लग्नं कन्यालाभो भवेत्तदा ॥ १० ॥

प्रश्न समय शुक्र और चंद्रमा युग्मराशि पर स्थित होवें अथवा युग्मराशी के नवांशक पर स्थित बली होकर लग्न को देखते होवें तो वर को कन्या का लाभ कहना ।। १० । ।

अयुग्मशशिरौ चेतौ शुक्रेंदू बलिनौ तथा ॥

पश्यतो लग्नमेतौ चेद्वरलाभो भवेत्तदा ॥ ११ ॥

जो वे दोनों चद्रमा शुक्र बली होकर लग्न को देखते हों और विषम राशि पर स्थित होवें तो कन्या को अच्छे वर का लाभ कहना ।। ११ ।।

एवं स्त्रीणां भर्तृलब्धिः पुंग्रहैरवलोकिते ॥

कृष्णपक्षे प्रश्नलग्नाद्युग्मराशौ शशी यदि ।

पापदृष्टेथ वा रंध्रे न संबंधो भवेत्तदा ॥ १२॥

ऐसे ही पुरुष ग्रहों करके लग्न ईष्ट होय तो भी कन्याओं को वर की प्राप्ति कहना कृष्णपक्ष में प्रश्र लग्न से युग्मराशि पर चंद्रमा स्थित है पापग्रहों से दृष्ट अथवा सातवें स्थान होवे तो संबंध नहीं हो अर्थात् विवाह नहीं होगा ॥१२॥

पुण्यैर्निमित्तशकुनैः प्रश्नकाले तु मंगलम् ।

दंपत्योरशुभैरेतैरशुभं सर्वतो भवेत् ।। १३ ॥

प्रश्न समय शुभ शकुन होवे तो मंगल जानना और अशुभशकुन होवे तो वरकन्याओं को अशुभ फल होगा ऐसा कहना ।। १३ ।।

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां विवाहप्रश्नलग्नाध्यायः ॥

नारदसंहिता अध्याय २१   

अथ कन्यावरणविचार

पंचांगशुद्धिदिवसे चंद्रताराबलान्विते ।

विवाहभस्योदये वा कल्यावरणमिष्यते ॥ १ ॥

पंचांगशुद्धि के दिन चंद्रतारा का बल होने के दिन विवाह के नक्षत्र और लग्नविषे कन्यावरण ( संबंध ) करना चाहिये ।। १ ।।।

भूषणैः पुष्पतांबूलैः फलगंधाक्षतादिभिः॥

शुक्लांबरैर्गीतवाद्यैर्विप्राशीर्वचनैः सह ॥ २॥

कारयेत्कन्यकागेहे वरणं प्रीतिपूर्वकम् ॥

तदा कुर्यात् पिता तस्याः प्रधानं प्रीतिपूर्वकम् ॥ ३ ॥

आभूषण, पुष्प, तांबूल, फल, गंध, अक्षत, श्वेतवस्त्र इनसे युक्त हो गीत वाजा आदि मंगळ तथा ब्राह्मणों के आशीर्वादों से युक्त कन्या के घर में उत्सव कर कन्या का पिता वरण करें तब पीछे तिस कन्या का पिता प्रीतिपूर्वकं कन्या का प्रदान (वाग्दान ) करें ॥ २ - ३ ॥

कुलशीलवयोरूपवित्तविद्ययायुताय च॥

वराय रूपसंपन्नां कन्यां दद्याद्यवीयसीम् ॥ ४ ॥

कुल, शील, अवस्था, रूप, धन, विद्या इनसे युक्त वर के वास्ते वर से छोटी उमरवाली सुरूपवती कन्या को देवे ।। ४ ॥

संपूज्य प्रार्थयित्वा तां शचीं देवीं गुणाश्रयाम् ॥

त्रैलोक्यसुंदरीं दिव्यां गंधमाल्यांबरावृताम् ॥

गुणों की आधाररूप, इंद्राणी देवी को पूजा कर तिसकी प्रार्थना कर त्रैलोक्य सुंदरी, दिव्य गंध मालाओंवाली सुंदरवस्त्रों को धारण किये हुए ॥ ५ ॥

सर्वलक्षणसंयुक्तां सर्वाभरणभूषिताम् ॥

अनर्घ्यमणिमालाभिर्भासयंतीं दिगंतरान् ॥ ६ ॥

संपूर्ण लक्षणों से युक्त, संपूर्ण आभूषणों से विभूषित, बहुत उत्तम मणियों की मालओं से दिशाओं को प्रकाशित करती हुईं । ६ ॥

विलासिनीसहस्राद्येः सेव्यमानामहर्निशम् ॥

एवंविधां कुमारीं तां पूजांते प्रार्थयेदिति ॥ ७ ॥

हजारों स्त्रियों से सेवित ऐसी कुमारी इंद्राणी देवी को पूजिके अंत में ऐसी प्रार्थना करें । ७ ॥

देवींद्राणि नमस्तुभ्यं देवेंद्रप्रियभाषिणि ॥

विवाहं भाग्यमारोग्यं पुत्रलाभं च देहि मे ॥ ८ ॥

हे देवि! हे इंद्राणि ! हे देवेंद्रप्रियभाषिणी तुमको नमस्कार है विवाह सौभाग्य, आरोग्य, पुत्रलाभ ये मुझको देवो ।। ८ ।।

इति श्रीनारदसंहिताभाषाटीकायां कन्यावरणाध्यायो एकविंशतितमः ॥ २१ ।।

आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय २२ ॥   

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