मोहन प्रयोग
श्रीदुर्गा तंत्र यह दुर्गा का
सारसर्वस्व है । इस तन्त्र में देवीरहस्य कहा गया है,
इसे मन्त्रमहार्णव(देवी खण्ड) से लिया गया है। श्रीदुर्गा तंत्र इस
भाग ४ (५) में नवार्ण मंत्र से षट्कर्म प्रयोग में मोहन प्रयोग बतलाया गया है।
मोहन प्रयोगः
षट्कर्म मारण प्रयोग से आगे
(षट्प्रयोगा मोहनेप्रयोगे यथा ।)
“कर्तव्यदिवसात्पूर्व॑स्रानार्थ॑चिन्तयेदुबुध:
।
दिनानि विंशति वामे पूर्व कार्यो
विधिस्तनोः ॥ ९१ ॥
शरीरशोधनं कार्य मदिराक्षि
विनिश्चितम् ।
जगपादजलं सुभ्रु वापीसप्त सरस्त्रयः
॥ ९२॥।
सरितौ द्वे समाख्याते
तोयग्रहणकर्मणि ।
एषां जलं समानीय संक्षिपेन्मृन्मये
घटे ॥९३॥
आम्रन्पत्र फलं सुज्ञे पत्रं
चामलकपीतयोः ।
मेषीदुग्धेन संपेष्य स्रानं
कुर्याच्च साधक: ॥ ९४॥।
त्रिपुण्ड्रं धारणं कृत्वा ललाटे
पीतचन्दनैः ।
मोहने चासनं पीतपीतवस्त्रधरो बुधः ॥९५॥
कटिनम्रासने तिष्ठेन्मोहने पश्चिमे
मुखम् ।
कर्तव्यदिवस से पूर्व बुद्धिमान
साधक को स्नान के लिए चिन्तन करना चाहिये । बीस दिन पूर्व शरीर शोधन की विधि करनी
चाहिये । हे मदिराक्षि ! शरीर का शोधन निश्चित रूप से करना चाहिये। हाथी के पैर का
जल,
सात बावली का जल, तीन तालाबों का जल तया दो
नदियों का जल-जल संग्रह में कहा गया है । इनके जल लाकर मिट्टी के घड़े में रक््खे
। हे सुज्ञे ! आम के पत्ते, आम के फल, आँवले
और सत्यानाशी के पत्ते, भेड़ी के दूध के साथ पीस कर साधक
स्नान करे । पीले चन्दन से ललाट में त्रिपुण्ड धारण करे । बुद्धिमान मोहन में पीला
आसन तथा पीला वस्त्र धारण करे और कटिनम्रासन से पश्चिम ओर मुख करके बैठे ।
श्रृणुष्व चापरं कर्म
भूमिशोधनमुत्तमम् ॥ ९६॥
हरिद्राकेतकीपत्रं वंशपत्रं गुड तथा
।
धूपत्रयात्तमानीयतोयं पादोद्धृतं
शुभम् ॥९७॥
गोमयं बालवत्सस्थ मृदं सरितसङ्गमात्
।
एभिर्भूमिं विलेप्यार्द्धामर्द्धा
कुर्यादलेपनाम् ॥ ९८ ॥
संयुक्तां या त्रिकोणेन मोहनेषु
मयोदितः ।
स्ववामपादरूधिरं गृह्वीयाद्यत्र
साधकः ॥ ९९ ॥
कर्पूरशुण्ठीविजया अर्कवृक्षपयस्तथा
।
तण्डुलं चन्दनं
श्वेतमेकस्मिन्पेषयेद्रुध: ॥१००॥
निम्बकाष्ठस्य कर्तव्या
लेखनीचतुरंगुला ।
तया
लिखेन्महामायायन्त्रमोक्षप्रदायकम् ।१०१॥
भूमि के शोधन का दूसरा कर्म भी
सुनो। हल्दी, केतकी के पत्ते, बांस के पत्ते, गुड़, तीनों
धूप से पादोद्धृत जल लाकर बाछे का गोबर, नदियों के संगम की
मट्टी इनसे आधी भूमि लीप कर आधी बिना लीपी संयुक्त भूमि जो मैंने मोहन में त्रिकोण
से कही है छोड़ दे । साधक अपने वाम पैर का रक्त लेवे । कपूर, सोंठ, भाँग, मदार का दूध,
चावल, सफेद चन्दन सुधी एक में पीसे । नीम की
लकड़ी की चार अंगुल की कलम बनानी चाहिये । उसमें महामाया का मोक्षदायक मन्त्र लिखे
।
पूजनं यन्त्रराजस्य जगन्मातुश्शुभे
श्रृणु ।
कर्पूरमिक्षुदण्डस्य रस
तण्डुलचूर्णकम् ॥ १०२॥
कृष्णतिलोद्भवं तैलं कुशानि त्रीणि
बन्धिता ।
दूर्वया बन्धिता दर्भास्तै: स्नानं
कारयेब्दुध: ॥ १०३ ॥
हे शुभे ! जगन्माता तथा मन्त्रराज
का पूजन सुनो । कपूर, गन्ने का रस,
चावल का चूर्ण, काले तिल का तेल, तीन बँधे कुश, दूब से बँधे दर्भ, इनसे बुद्धिमान स्नान कराये ।
कृष्णपुष्पं तथा कृष्णकज्जलं
कृष्णतण्डुलम् ।
कृष्णसूत्रं च सिन्दूरं गवां दुग्धं
यवं तथा ॥ १०४ ॥
एभि: पूजा प्रकर्तव्या यन्त्रराजस्य
मोहने ।
विस्तृतं न मयोक्तं वै सामान्यं
कथितं शुभे १०५॥
अतः परं श्रृणुष्वाद्य विधिं धूपस्य
निर्मलम् ।
काले फूल,
काला काजल, काला चावल, काला
सूत, सिन्दूर, गाय का दूध, तथा जौ इनसे मोहन में यन्त्रराज की पूजा करनी चाहिये । पूजा का मन्त्र :
“ऊँ ज्ञानिनामपि
चेतांसि देवी भगवती हि सा ।
बालादाकृष्य मोहाय महामाया
प्रयच्छति ।”
इति मन्त्रेण पूजयेत् ।
हे शुभे ! मैंने विस्तृत नहीं केवल
सामान्य ही कहा है। इसके बाद आद्य धूप की निर्मल विधि सुनो ।
साधकाना ध्रुवं सिद्धिर्धपेनैव
प्रजायते ।१०६॥
मोहने कारणं देवि धूपमेव निगद्यते ।
धूपमाहात्म्यमतुलं डामरे कथितं मया
॥१०७॥
धूपवार्तां न जानन्ति डामरे विमुखा
नराः।
कथं सिद्धिर्भवेत्तेषां विपरीते
शुभानने ॥१०८॥
साधकों की निश्चित सिद्धि धूप से ही
होती है । हे देवि ! मोहन में कारण धूप ही कहा जाता है । मैंने डामर तन्त्र में
धूप का अतुल माहात्म्य कहा है । डामर तन्त्र से विमुख धूपवार्ता को नहीं जानते । हे
शुभानने ! विपरीत होने पर तब उन्हें कैसे सिद्ध प्राप्त हो?
कर्पूरं विजयापत्रमर्कपुष्पमजाधृतम्
।
गोधृतं महिषीदुग्धमष्टगन्धं सिता
मधु ॥१०९॥
गुग्गुलं लौह वाणं च ऐएरण्डं बीजकं
तथा ।
एतान्सर्वानेकत्र सम्पेष्य
मिश्रयेदुबुध: ॥ ११० ॥
प्रमाणं माषधान्यस्य मत्स्यमांसं
क्षिपेद्बुधः ।
धूपं दद्याद्यन्त्रराजे धूपमन्त्रेण
साधकः ॥१११॥
दशवारं पठेन्मन्त्र साधको
गद्गदाकृतिः ।
एकचित्तं समाधाय धूपं
कुर्याद्विचक्षण: ॥ ११२ ॥
कांत्यदीपः प्रकर्तव्यस्तैलं श्वेत तिलस्य
च ।
कृष्णतैलं श्रीफलस्य तैलं श्वेता
सिता मधु ॥ ११३ ॥
रक्तवस्त्रं पथिभ्रष्टं समानीय च
साधक: ।
तेनैव वर्तिका कार्या
सप्तांगुलसमन्विता ॥ ११४ ॥
लेपयेत्पृथिवीं विद्वान्
चतुष्कोणां च द्वयंगुलाम् ।
यन्त्रराजं लिखेत्तस्मिन्मध्ये
प्रीत्या च साधकः ११५ ॥
दुर्वाया लेखनी कार्या
सप्तांगुलयुता प्रिये ।
कर्पुरेण हरिद्राभ्यां लिखेद्यन्त्रं शुभानने ॥ ११६॥
स्थापयेद्यन्त्रराजस्य ऊध्वैभागेंऽगुलत्रये
।
पूजयेत्केसरं पीततण्डुलाभ्यां
विचक्षण: ॥ ११७ ॥
अस्मिन्दीपे महामायां देवीं
कात्यायनीं शुभाम् ।
प्रसन्नवदनां ध्यायेत्सदा
संक्लेशनाशिनीम् ॥११८॥
इति कात्यायनीं ध्यात्वा पूजयेत्पीत
चन्दनैः ।
इत्येतत्कथितं वीर इति मन्त्रे
निवेदयेत् ॥११९ ॥
एवं दीपो मया प्रोक्तो मालायाश्व
विधि श्रुणु।
कपूर, भाँग के पत्ते, सफेद मदार के फूल, बकरी का घी, गाय का घी, भैंस का
दूध, अष्टगन्ध, चीनी, मधु, गुग्गुल, लोहे का बाण,
रेण के बीज, इन सब को पीस कर बुद्धिमान्
मिलाये । उड़द के बराबर सुधी मछली का मांस उसमें डाले। इससे धूप मन्त्र के द्वारा
मन्त्रराज पर धूप देवे । (धूपमन्त्र: शक्रादयस्सुरगणा निहितेतिवीर्ये
तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या तां तुष्टुवु: प्रणतिनम्रशिरोधरांसा वाग्भि:
प्रहर्षपुलकोद्गमचारुदेहा: फट्) । साधक गद्गद आकृति होकर दश बार इस मन्त्र का पाठ
करे । एकचित्त होकर मन को एकाग्र करके विलक्षण साधक धूप देवे । कांसे का दीपक
बनाना चाहिये, तेल सफेद तिल का होना चाहिये । काला तेल,
श्रीफल का तेल, सफेद चीनी, मधु, लाल वस्त्र जो मार्ग में गिरा हो उसे लाकर सात
अंगुल उसी से बत्ती बनाकर विद्वान् चौकोर दो अंगुल भूमि को लीपे । उसमें प्रेम से
मध्य में साधक यन्त्रराज को लिखे । हे प्रिये ! दूब सात अंगुल लम्बी कलम बनानी
चाहिये । हे शुभानने! कपूर और हल्दी से यन्त्र को लिखे। उसे यन्त्रराज के तीन
अंगुल ऊपर स्थापित करे । बुद्धिमान पीली सरसों तथा चावल से केसर की पूजा करे । इस
दीप में शुभ प्रसन्नवदना महामाया क्लेशनाशिनी कात्यायनी देवी का ध्यान करे । इस
प्रकार कात्यायनी का ध्यान करके पीले चन्दन से पूजा करे । हे वीर! यह सब मैंने
बताया है, इसे मन्त्र में निवेदन करे। इस प्रकार मैंने दीप
बतलाया है, अब माला की विधि सुनो ।
ग्रन्थिता वाजिकेशेन कथिता
निम्बबीजिका ॥ १२०॥
मोहनेषु विधिश्चायं मालायाः
प्राणवल्लभे ।
चण्डिकाया यन्त्रराजे अर्पयित्वा च वीटकम्
॥ १२१ ॥
पश्चादेकैकमुद्धृत्य चर्वयेच्छनकै:
सुधीः ।
यावज्जपसमाप्तिः
स्यात्तावत्ताम्बूलचर्वणम् ॥ १२२ ॥
कार्य विचक्षणेनैव चण्डिकार्किकरेण वै ।
जपेत्तु द्वादशं लक्षं वैश्येष्वर्ध
निगद्यते ॥१२३ ॥
ब्राह्मणे द्विगुणं देवि
शूद्राणामर्द्धार्द्धकम् ।
स्त्रीणां च द्विगुणं प्रोक्तं यतः
सा शक्ति रूपिणी ॥ १२४ ॥
नित्यमेवं जपान्ते च दशांशे
होममाचरेत् ।
नीम के बीजों को घोड़े के बाल से
गूंथना चाहिये । हे प्राणवल्लभे ! मोहन कर्म में माला की यह विधि है । चण्डिका के
मन्त्रराज में पान के बीड़े चढ़ाकर बाद में एक-एक उठा कर सुधी धीरे-धीरे चबाते हुए
जब तक जप समाप्त न हो तब तक बुद्धिमान चण्डिका सेवक को चबाना चाहिये । बारह लाख जप
करे । वैश्यों में आधा कहा जाता है । हे देवि ! ब्राह्मण में दूना,
शूद्रों में चौथाई तथा स्त्रियों में दूना कहा गया है क्योंकि वह
शक्तिरूपिणी है। नित्य जप के बाद दशांश से हवन करना चाहिये ।
अजामेष्योर्धृतं देवि गोदुग्घं
तण्डुलं यवम् ॥ १२५॥
कर्पुरं च तजं
यावमेलाशर्करयान्वितम् ।
आम्रकाष्ठं समानीय पश्चकोणं च
कुण्डलम् ॥ १२६॥
मन्त्रं नवाक्षरं प्रोक्तं मोहने
कथितं मया ॥ १२७॥
मारणे मोहने वश्ये भोजनं
त्वेकमुच्यते ।
तृतीयप्रहरे देवि भोजन
क्षारवर्जितम् ॥ १२८॥
माषस्य द्विदलं सुभ्रु तण्डुलं
मिलितद्वयम् ।
गोघृतं मधुसंयुक्तं मिश्रितं पयसा
प्रिये ॥ १२९॥
अभावे भोजनं देव्या यत्तप्राप्तं
तदेव हि ।
भोजने क्लेशसंकर्तु: प्रयोगोऽफलदो भवेत्
॥ १३० ॥
हे देवि! बकरी तथा भेड़ का घी,
गाय का दूध, चावल, जव,
कपूर, तज, जव का भात
इलाइची तथा शक्कर से युक्त आम की समिधा लाकर पाँच कोनों वाला कुण्ड बनाये। सात
अंगुल लम्बी समिधाएँ काट कर साधक सदा होम करे । मैंने मोहन में नवाक्षर मन्त्र
बतलाया है। मारण, मोहन और वशीकरण में एक बार भोजन कहा जाता
है। हे देवि ! तीसरे पहर क्षार से वर्जित भोजन, उड़द की दाल,
चावल मिलाकर गाय के घी तथा मधु से युक्त दूध से खाना चाहिये । देवी
के भोजन के अभाव में जो प्राप्त हो वही खाना चाहिये। भोजन में क्लेश करने वाले का प्रयोग
असफल होता है ।
विधिर्वै मन्त्रराजस्य कथितः
प्राणवल्लभे ।
शैवेन शक्तिविप्रेण कर्तव्यं
निश्चितं प्रिये ॥ १३१ ॥
हे प्राणवल्लभे ! मैंने मन्त्रराज
की यह विधि बतला दी । शैव तथा शाक्त विप्र को हे प्रिये ! इसे निश्चित रूप से करना
चाहिये ।
इति मोहन कर्म समाप्त ।
आगे जारी.....
शेष आगे जारी.....श्रीदुर्गा तंत्र नवार्णमंत्र षट्कर्म में उच्चाटनप्रयोग भाग ४ (६) ।
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