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नारदसंहिता अध्याय २५ में विवाह में शुभाशुभग्रह का वर्णन किया गया है।
नारदसंहिता अध्याय २५
तल्लग्नं जलयंत्रेण
दद्याज्जोतिषिकोत्तमः ॥
षडंगुलमितोत्सेधं द्वादशांगुलमायतम्
॥ ८६॥
कुर्यात्कपालवत्ताम्रपात्रं
तद्दशभिः पलैः ॥
पूर्णं षष्टिर्जलपलैः षष्टिर्मज्जति
वासरे ॥ ८७॥
उत्तम ज्योतिषी जलयंत्र से घटी
बनाकर लग्न का निश्चय करै छह अंगुल ऊंचा और बारह अंगुल विस्तारवाला दशपल (४० तोले)
तांबा का कपाल सरीखा पात्र बनावे जो कि साठ पल (२४० तोले) जल से भर जावे ऐसे पात्र
को जल में गेरने से अहोरात्र में ६० बार जल में डूबेगा ॥ ८६-८७ ॥
माषमात्रत्र्यंशयुतं
स्वर्णवृत्तशलाकया ॥
चतुर्भिरंगुलैरापः तथा विद्धं
परिस्फुटम् ॥ ८८ ॥
तहां सोना की शलाई से उडद प्रमाण
छिद्र का स्थान बनावे तहां बीच में छिद्र करे और चार अंगुल ऊपर तक जल भर देना ॥ ८८
॥
कार्येणाभ्यधिकः षङ्गिः
पलैस्ताम्रस्य भाजनम् ॥
द्वादशं सुखविष्कंभ उत्सेधः
षङ्भिरंगुलैः ॥ ८९॥
स्वर्णमासेन वै कृत्वा
चतुरंगुलकात्मकः ॥
मध्यभागे तथा विद्धा नाडिका घटिका
स्मृता ॥९० ॥
और छह पल प्रमाण का भी ताम्रपात्र
बनता है उसमें बारह अंगुल का विस्तार करना, छह
अंगुल ऊँचा करना, चार अंगुल प्रमाण बीच में सुवर्ण का मासा
लगावे मध्य भाग में जल की नाडी बींधे वह घटिकायंत्र जानो ॥
ताम्रपात्रे जलैः पूर्णे मृत्पात्रे
वाथ वा शुभे ।
गंधपुष्पाक्षतैः सार्द्धैरलंकृत्य
प्रयत्नतः ॥ ९१ ॥
तंदुलस्थे स्वर्णयुते वस्त्रयुग्मेन
वेष्टिते ॥
मंडलाद्धोंद्यं वीक्ष्य रवेस्तत्र
विनिक्षिपेत् ॥ ९२ ॥
फिर जल से भरे हुए तांबा के पात्र में
अथवा मिट्टी के पात्र में गंध पुष्पादिकों से पूजन कर शोभित कर तंदुल सुवर्ण से
युक्त कर दो वस्रों से आच्छादितकर (ऐसे जल के भरे हुए पात्र में) इस घटीयंत्र आधा
सूर्योदय होने के समय छोड देखे ।। ९१ - ९२ ।।
मंत्रेणानेन पूर्वोक्तलक्षणं
यंत्रमुत्तमम् ॥
मुख्यं त्वमसि यंत्राणां ब्रह्मणा
निर्मितं पुरा ॥ ९३ ॥
भाव्याभव्याय दंपत्योः कलसाधनकारणम्
।
द्वादशोंगुलकं प्रोक्तमिति शंकुप्रमाणकम्
॥ ९४ ॥
पूर्वोक्त लक्षणवाले तिस यंत्र को
इस मंत्र से छोड़ै “तुम सब यंत्रों के
बीच मुख्य हे पहले ब्रह्माजी ने ये वर कन्या के सुख दुःख के वास्ते कालसाधन के
कारण कहो " और यह यंत्र नहीं बने तो बारह अंगुल का शंकु बनाकर इष्ट का निश्चय
करना ।। ९३ - ९४ ।।
अन्ययंत्रप्रयोगा ये दुर्लभाः
कालसाधने ।
एवं सुलग्ने दंपत्योः
कारयेत्सम्यगीक्षणम् ॥ ९९ ॥
अन्य यंत्रों के प्रयोग इष्टसाधन में
दुर्लभ कहे हैं ऐसे सुंदर लग्न में वर कन्या का विवाह करना चाहिये ।। ९५ ।।
हस्तोच्छूतां चतुर्हस्तैश्चतुरस्रां
समंततः ।
स्तंभैश्चतुर्भिः श्लक्ष्णैर्वा
वामभागे स्वसद्मनः ॥ ९६ ॥
तहाँ एक हाथ ऊँचे चौकटी चार सुंदर स्तंभों
से शोभित वेदी घर की बाँयी तर्फ बनानी चाहिये ।। ९६ ।।
समंडलं चतुर्दिक्षु सपानैरतिशोभनम्
॥
प्रागुदक्प्रवणारंभास्तंभा
हयशुकादिभिः ॥ ९७ ॥
चारों दिशाओं में मंडल परिधियों करके
शोभित बनाने चाहियें पूर्व और उत्तरी तर्फ मंडप का विस्तार करना स्तंभों पर अश्व
तोते आदि चित्राओं की शोभा करनी ॥ ९७ ॥
विचित्रितां
चित्रकुंभैर्विविधैस्तोरणांकुरैः ।
भृंगारपुष्पनिचयैर्वर्णकैः
समलंकृताम् ॥ ९८ ॥
विप्राशीर्वचनैः
पुण्यस्त्रीभिर्दीपैर्मनोरमाम् ॥
वादित्रनृत्यगीताद्यैर्त्दृदयनंदिनीं
शुभाम् ।। ९९ ।।
विचित्र कलशों करके शोभित और अनेक
प्रकार को तोरण, अंकूर,मंगलीक
पूर्णकुंभ पुष्पों के समूह तथा सुंदर रंगों करके शोभित, ब्राह्मणों
के पवित्र आशीर्वादों से युक्त, सौभाग्यवती स्त्रियों के
गीतों से शोभित,दीपकों की पंक्तियों से मनोहर बाजा नृत्य गीत
आदिको से हृदय को आनंद देनेवाली शुभ वेदी बनानी चाहिये।।९८।९९।।
एवंविधां तामारोहेन्मिथुनं
साग्निवेदकम् ।।
त्रिषडायगताः पापाः षष्ठाष्टमं विना
विधुः ॥ १०० ॥
ऐसी तिस वेदी के पास अग्नि और वेद की
साक्षी से विवाह विधि करना। विवाह समय पापग्रह ३।६।११घर में होवे चंद्रमा छठे आठवें नहीं हो तो ॥ १०० ॥
कुर्वंत्यायुर्धनारोग्यं
पुत्रपौत्रसमन्विताः ॥
त्रिकोणकेंद्रखत्र्याये शुभं
कुर्वंति खेचराः ॥ १०१ ॥
आयु, धन, आरोग्य पुत्रपौत्रों की समृद्धि करते हैं और
९।५।१ ०।३।११ इन घर में सब ग्रह शुभफल करते हैं ॥ १०१ ॥
द्यूनकेंद्रभगं शुकं हित्वा
पुत्रधनान्विताम् ।।
धनत्रिबंधुतनयधर्मखायेषु चंद्रमाः
।। १०२ ।।
और सातवें घर बिना अन्य केंद्र में
शुक्र शुभ है पुत्र धनवती कन्या होती है और २।३।४।५।९।१०। ११ इन घरों में चंद्रमा
शुभ है ॥ १०२ ॥
करोति सुतसौभाग्यभोगयुक्तां
विवाहिताम् ॥
अस्तगा नीचगाः शत्रुराशिगश्च
पराजिताः ॥१०३ ॥
विवाहिता कन्या को पुत्रवती व
सौभाग्य भोगवती करता है। और अस्त हुए नीचराशि के शत्रु की राशि में प्राप्त हुए
ग्रह पराजित (हारे हुए ) हैं ॥ १०३ ॥
नाशक्तास्ते फलं दातुं
दानमश्रोत्रिये यथा ॥
गुरुरेकोपि लग्नस्थः सकलं दोषसंचयम्
॥ १०४ ॥
विनाशयति धर्मगुरुदितस्तिमिरं यथा ॥
एकोपि लग्नगः काव्यो बुधो वा यदि
लग्नगः ॥ १०४ ॥
वे इस प्रकार फल देने को समर्थ नहीं
हैं कि जैसे मूर्ख बाह्मण को दान देने का फल नहीं है,
अकेला भी गुरु लग्न में स्थित हो तो संपूर्ण दोष को ऐसे नष्ट करता
है कि जैसे सबेरा अंधेरे को नष्ट करता है। और लग्न में प्राप्त हुआ अकेला शुक्र
अथवा बुध ॥१०४-१०५॥
नाशयत्यखिलान्दोषांस्तूलराशिमिवानलः
॥
गुरुरेकोपि केन्द्रस्थः शुक्रो वा
यदि वा बुधः ॥१०६॥
संपूर्ण दोष को ऐसे नष्ट करता है कि
जैसे रूई की राशि को अग्नि नष्ट कर देवे अकेला बृहस्पति वा बुध तथा शुक्र केंद्र में हो तो ॥ १०६ ।।
दोषसंघान्निहंत्येव केसरीवेभसंहतिम्
॥
दोषाणां शतकं हंति बलवान् केंद्रगो
बुधः ॥ १०७ ॥
शुक्रोऽपहाय वै द्यूनं द्विगुणं
लक्षमंगिराः ॥
लग्नदोषश्च दोषा ये दोषा षडर्गजाश्च
ये ॥१०८॥
दोषों के समूहो को ऐसे नष्ट करता है
जैसे सिंह हाथियों के समूह को नष्टकर देता है तैसे ही बलवान् केंद्र में प्राप्त हुआ
बुध सैकडों दोषों को नष्ट करता है शुक्र सातवें घर के बिना अन्य केंद्र में हो तो
बुध से दूना शुभ फल करता है । और बृहस्पति लाख दोष को नष्ट करता है जो लग्न के दोष
हैं और षड्वर्ग से उत्पन्न हुए दोष हैं ।। ३ ०७ । १ ०८ ।।
हंति ताँल्लग्नगो जीवो
मेघसंघमिवानिलः ॥
केंद्रत्रिकोणगे जीवे शुक्रो वा यदि
वा बुधः ॥ १०९ ॥
तिन सब दोषों को लग्न में प्राप्त हुआ
बृहस्पति ऐसे नष्ट करता है कि जैसे बादलों के समूह को वायु खंडित कर देती है ।
बृहस्पति अथवा शुक्र तथा बुध केंद्र में तथा नवमें पांचवें घर में होवे तो ॥ १०९ ॥
दोषा विनाशमायांति पापानीव
हरिस्मृतेः ।
गुरुर्बली त्रिकोणस्थः
सर्वदोषविनाशकृत् ॥ ११० ॥
सब दोष ऐसे नष्ट हो जाते हैं कि
जैसे विष्णु के स्मरण करने से पाप नष्ट हो जाते हैं । बली गुरु नवमें पांचवें घर में
होय तो संपूर्ण दोषों को नष्ट करता है ॥ ११० ॥
निहंति निखिलं पापं प्रणाममिव
शूलिनः॥
मुहूर्तपापषट्वर्गकुनवांशग्रहोत्थिताः
॥ १११ ॥
जैसे शिवजी को प्रणाम करने से
संपूर्ण पाप नष्ट होते हैं और मुहूर्त दोष, पापषडर्ग,कुनवांशक ग्रह इनसे उत्पन्न हुए दोष ॥
ये दोषास्तान्निहंत्येव यथैकादशगः
शशी ॥
नाशयत्यखिलान्दोषान्यत्रैकादशगो
रविः ॥ ११२ ॥
तिन संपूर्ण दोषों को लग्न से
ग्यारहवें स्थान से प्राप्त हुआ चंद्रमा दूर करता है अथवा ग्यारहवें स्थान में
प्राप्त हुआ सूर्य भी संपूर्ण दोषों को नष्ट करता है । ११२ ॥
गंगायाः स्रानतो भक्त्या
सर्वपापानिवाचिरात् ॥
वायूपसूर्यनीहरमेघगर्जनसंभवाः॥ ११३
॥
दोषा नाशं ययुः सर्वे केन्द्रस्थाने
बृहस्पतौ ॥
ये दोषा
मासदग्धास्तिथिलग्नसमुद्भवाः ॥ ११४ ॥
और वायूप्रतिसूर्य, धूम,रज, मेघगर्जना इत्यादि
दोष केंद्र स्थान में बृहस्पति होने से ऐसे नष्ट हो जाते हैं कि जैसे भक्ति से
गंगाजी में स्नान करने से शीघ्र ही पाप नष्ट हो जाते और जो मासदग्ध, तिथि दग्ध तथा लग्नदग्ध आदि दोष हैं ॥ ११३ ॥ ११४ ॥
ते सर्वे विलयं यांति केंद्रस्थाने
बृहस्पतौ ॥
बलवान् केंद्रगो जीवः
परिवेषोत्थदोषहा ॥ ११४ ॥
वे संपूर्ण केंद्र स्थान में
बृहस्पति प्राप्त होने से नष्ट होते हैं और केंद्र में प्राप्त हुआ बृहस्पति सूर्य
मंडल आदि उत्पात दोष को नष्ट करता है ॥ ११५॥
एकादशस्थः शुक्रो वा
बलवाञ्छुभवीक्षितः ।
त्रिविधोत्पातजान् दोषान् हंति
केंद्रगतो गुरुः॥ ११६ ॥
ग्यारहवें स्थान में प्राप्त हुआ
शुभग्रह से दृष्ट बलवान् शुक्र वा केंद्र बृहस्पति तीन प्रकार के उत्पात से
उत्पन्न हुए दोषों को नष्ट करता है ॥ ११६ ॥
स्थानादिबलसंपूर्णः पिनाकी त्रिपुरं
यथा ॥
लग्नलग्नांशसंभूतान् बलवान्केंद्रगो
गुरुः ॥ ११७ ॥
स्थानादि बल से पूर्ण हुआ बलवान्
तथा केंद्र में प्राप्त हुआ बृहस्पति लग्न और लग्न के नवांशक से उत्पन्न हुए दोषों
को ऐसे नष्ट करता है कि जैसे शिवजी ने त्रिपुर भस्म किया था ॥ ११७ ।।
भस्मीकरोति तान्दोषानिंधनानीव पावकः
॥
अब्दायनर्तुमासोत्था ये दोषा
लग्नसंभवाः ॥
सर्वे ते विलयं यांति केंद्रस्थाने
बृहस्पतौ ॥ ११८ ॥
और केंद्र स्थान में बृहस्पति होवे
तो वर्ष,
अयन, ऋतु, मास, लग्न इनसे उत्पन्न हुए दोष ऐसे नष्ट हो जाते हैं कि जैसे अग्नि इंधन को
भस्म कर देती है ।। ११८॥
उक्तानुक्ताश्च ये दोषास्तान्निहंति
बली गुरुः ।
केंद्रसंस्थः सितो वापि भुजंगं
गरुडो यथा ।। ११९॥
केंद्र में स्थित हुआ बली गुरु अथवा
शुक्र कहे हुए अथवा विना कहे हुए छोटे मोटे दोष को ऐसे नष्ट कर देता है कि जैसे
गरुड सर्प को नष्ट करता है । ११९ ।।
वर्गोत्तमगते लग्ने सर्वे दोषा लयं
ययुः ॥
परमाक्षरविज्ञाने कर्माणीव न संशयः
॥ १२० ॥
लग्न वर्गोत्तम में प्राप्त होवे तो
सब दोष ऐसे नष्ट हो जावें कि जैसे बलज्ञान से कर्मवासना नष्ट हो जाती है । । २२०
।।
दुःस्थानस्थग्रहकृताः
पापखेटसमुद्भवा।
ते सर्वे लयमायांति केन्द्रस्थाने
बृहस्पतौ ॥ १२१॥
दुष्ट स्थांन में स्थित हुए ग्रहों के
किये हुए दोष तथा पापग्रहों के किये हुए सब दोष केंद्र स्थान में बृहस्पति स्थित
होने से नष्ट हो जाते हैं ॥ १२१ ॥
उच्चस्थो गुरुरेकोपि लग्नगो
दोषसंचयम् ॥
हंति दोषान् हरिदिने चोपवासव्रतं
यथा ॥ १२२ ॥
उच्चराशि पर स्थित हुआ बृहस्पति
अकेला ही जो लग्न में प्राप्त होय तो दोषों के समुह को ऐसे नष्ट करता है कि जैसे
एकादशी का व्रत करने से पाप नष्ट होते हैं ।। १२२ ।।
इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां शुभाशुभग्रह
पञ्चविंशतितमः ॥ २५ ॥
आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय २६ ॥
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