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कर्मकाण्ड

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नारदसंहिता अध्याय २४

नारदसंहिता अध्याय २४           

नारदसंहिता अध्याय २४ में विषघटी व अन्य दुष्टमुहूर्त का वर्णन किया गया है।   

नारदसंहिता अध्याय २४

नारदसंहिता अध्याय २४     

पापद्वययुते चंद्रे दंपत्योर्मरणं भवेत् ॥

पापग्रहयुते चंद्रे नीचस्थे राहुराशिगे ॥ ५० ॥

दो पापग्रहों से युक्त चंद्रमा हो तो कन्या वर की मृत्यु हो चंद्रमा पापग्रहों से युक्त हो नीचा हो राहु की राशि पर हो तो ॥ ५० ॥

दोषायनं भवेल्लग्नं दंपत्योर्मरणप्रदम् ।

स्वक्षेत्रगः स्वोच्चगो वा मित्रग्रहगतो विधुः ॥ ५१ ।।

वह लग्न दोषों का स्थान हो जाता है स्त्री पुरुषी मृत्यु करता है और अपने क्षेत्र में चंद्रमा हो तथा अपनी उच्चराशि का अथवा अपने मित्र के घर में हो तो ॥ ५१ ॥

युतिदोषाय न भवेद्दंपत्योः श्रेयसे तदा ।

दंपत्योः षष्ठगं लग्नं त्वष्टमो राशिरेव च ॥ ५२ ॥

यदि लग्नगतः सोपि दंपत्योर्मरणप्रदः ॥

स राशिः शुभयुक्तोपि लग्नं वा शुभसंयुतम् ॥ । ५३ ॥ 

युतिदोष नहीं होता स्त्री पुरुष को शुभदायक है स्त्री पुरुष की लग्न से आठवी राशि का लग्न हो अथवा स्त्री पुरुष की राशि से आठवीं राशि का लग्न हो तो स्त्री पुरुष की मृत्यु होती है वह राशि तथा लग्न शुभ ग्रहों से युक्त हो तो भी अशुभ है ॥ ५२ - ५३ ॥

लग्न विवर्जयेद्यत्नात्तदंशांश्च तदीश्वरान्।

दंपत्योर्द्वादशं लग्नं राशिर्वै यदि लग्नगम् ।। ५४ ।।

उस लग्न को यत्न से वर्ज देवे तिसके नवांश और तिसके स्वामी भी अशुभ होते हैं स्त्री पुरुष की राशि का लग्न हो अथवा उनके जन्म लग्न से १२ राशि लग्न होवे तो ॥ ५४ ॥

अर्थहानिस्तयोर्यस्मात्तदंशस्वामिनं त्यजेत् ॥

जन्मराश्युद्गमे चैव जन्मलग्नोदये शुभा ॥ ५५ ॥

तयोरुपचयस्थाने यदा लग्नं गतं शुभम् ।

खमार्गेणा वेदपक्षाः खरामः शून्यसागराः ॥ ५६ ॥ ।

वार्द्धिचंद्रा रूपदस्राः खरामा व्योमबाहवः ।

द्विरामाः खाग्नयः शून्यदत्स्रकुंजरभूमयः ॥ ५७ ॥

द्रव्य की हानि होतीं है इसलिये तीन लग्नों के नवांशक के स्वामी ग्रहों को लग्न में त्याग देवे और जन्म की राशि पर तथा जन्मलग्न पर शुभ ग्रह होवें और तिनसे उपचय स्थान में (३।११।५) लग्न हो तो शुभ है यह राशि दोष कहा है अब विषघटी दोष कहते हैं अश्विनी नक्षत्र में ५० घडी, भरणी में २४, कृत्तिका में ३० रोहिणी में, ४० घडी, मृगशिर में १४, आर्द्रा में २१, पुनवर्सु में ३०, पुष्य में २०, आश्लेषा में ३२, मघा में ३०, पूर्वोफा ० २०, उत्तराफा ० १८ घडी ॥ ५५- ५७ ॥

रूपपक्षा व्योमदस्रा वेदचंद्राश्चतुर्दश ।

शून्यचंद्रा वेदचंद्राः षट्पंच वेदबाहवः ॥ ५८॥

शून्यदस्राः शून्यचंद्राश्शून्यचंद्रा गजेंदवः ॥

तर्कचंदा वेदपक्षाः खरामाश्चाश्विनीक्रमात् ॥ ५९ ॥

हस्त में २१, चित्रा २०, स्वाति १४, विशाखा में १४, अनुराधा १०, ज्येष्ठा १४, मूल ५६, पूर्वाषाढ में २४, उत्तराषाढ में २०, श्रवण ० १०धनिष्ठा में १०, शतभिषा ० १८, पूर्वाभाद्र०१६, उत्तराभा० २४, रेवती में ३० घड़ी ऐसे अश्विनी आदि नक्षत्रों की ये घड़ी कही हैं ।। ५८ - ५९ ॥

आभ्यः पराःस्युश्चतस्रो नाडिका विषसंज्ञिकाः॥

विवाहादिषु कार्येषु वर्ज्यास्ता विषनाडिकाः॥ ६० ॥

सो इन घड़ियों से परली चार घड़ी विषसंज्ञक हैं जैसे रेवती की ३० घड़ी की तो तीस से आगे ३४ तक चार घड़ी विषघटी जाने ऐसे ही सब नक्षत्रों में जान लेना ये विषघटी विवाहादिक कार्यों में वर्जित हैं ॥ ६० ॥

ऋक्षाद्यंतघटिमितं विषमानेन ताडितः।।

षष्टिभिर्हरते लब्धं पूर्वऋक्षेण योजयेत् ॥ ६१ ॥

जो नक्षत्र परी साठ ६०घड़ी का नहीं हो तहां ऐसे करना कि नक्षत्र के ध्रुवांक की घड़ियों को नक्षत्र के भोग की घड़ियों से गुन लेवे फिर साठ ६०का भाग देवे फिर जितनी घड़ी लब्ध हों उतनी के ही उपरांत विषघटी प्राप्त हुई जाननी ॥ ६१ ॥

इति विषघटी ॥

भास्करादिषु वार्ज्या मुहूतश्च निंदिताः ।

विवाहादिशुभे वर्ज्य अपि लग्नगुणैर्युताः ॥ ६२ ॥

सूर्यादिकवारों में जो निंदित मुहूर्त कहे हैं वे लग्न के गुणों से युक्त होवें तो भी विवाहादिक शुभ कार्यों में वर्ज देने चाहियें ॥ ६२ ।।

ते वर्ज्या यदि तल्लग्नगुणैर्युक्ताश्च निंदिताः ॥ ६३ ॥

वे वारों के दुष्टमुहूर्त वर्ज ने ही योग्य हैं जो वह उन गुणों से युक्त हो तो भी वे दुष्ट मुहूर्त तो निंदित ही कहे हैं ।

वारमध्ये तु ये दोषाः सूर्यवारादिषु क्रमात् ॥

अपि सर्वगुणोपेतास्ते वर्ज्याः सर्वमंगले ॥ ६४ ॥

और सूर्यवारादिको में क्रम से जो वार दोष कहे हैं वे संपूर्ण गुणों से युक्त हों तो भी सब मंगलकर्मों में वर्ज देने चाहिये।। ६४ ।।

एकार्गलः समांघ्रिश्चेत्तत्र लग्नं विवर्जयेत् ॥ ६८॥

और खार्जूरिक योग एकार्गल दोष को कहते हैं वह समांघ्रीज होवे अर्थात् सूर्य चंद्रमा के योग से सम अंक में देखना कहा है उसमें एकार्गल दोष आता होवे तो उस नक्षत्र में विवाह लग्न नहीं करना ।। ६५ ।।

अपि शुक्रेज्यसंयुक्ता विषसंयुक्तदुग्धवत् ॥

ग्रहणोत्पातभं त्याज्यं मंगलेषु त्रिधाऽशुभम् ॥ ६६ ॥

तहां शुक्र बृहस्पति से युक्त लग्न हो तो भी विष से मिला हुआ दूध की तरह त्याज्य हो जाता है और ग्रहण का नक्षत्र तथा आकाश भूकंप अदि तीन प्रकार के उत्पात के नक्षत्र को भी त्याग देवे ॥ ६६ ॥

यावच्चरणकं भुक्तं शेषं च दग्धकाष्ठवत् ॥

मंगलेषु त्यजेत्क्रूरं विद्धं भं क्रूरसंयुतम् ॥ ६७॥

और विवाह आदि मंगल में क्रूर ग्रह से विद्ध हुए तथा कूर ग्रह से युक्त हुए नक्षत्र को त्याग देवे एक चरण भोगा तो भी शेष को भी दग्धुकाष्ठ की समान जानना ॥ ६७ ॥

अखिलर्क्षं, पंचगव्यं सुराबिंदुयुतं तथा ॥

पादमेव शुभैर्विद्धमशुभं नैव कृत्स्नभम् ॥ ६८ ॥

मंगलीक कामों में एक चरणगत विद्ध होने से संपूर्ण नक्षत्र ऐसे त्याज्य होते हैं कि जैसे मदिरा की बूंद लगने से पंचगव्य अशुद्ध हो जाता है और शुभग्रह का वेध चरणगत ही अशुद्ध होता है संपूर्ण नक्षत्र का वेध नहीं हो सकता ॥ ६८ ॥

क्रूरविद्धयुतं धिष्ण्यं निखिलं चैव पादतः॥

तुलामिथुनकन्यांशं धनुरंशैश्च संयुताः ॥ ६९ ॥

एते नवांशाः संग्राह्या अन्ये तु कुनवांशकाः ॥

कुनवांशकलग्नं यत्त्याज्यं सर्वगुणान्वितम् ॥ ७० ॥

क्रूर नक्षत्र का चरण गत वेध तथा क्रूर ग्रह योग से संपूर्ण ही नक्षत्र अर्थ होता है और तुला मिथुन, कन्या, धनु इनके नवांशक शुभ कहे हैं और अन्य कुनवांशक हैं । कुनवांशक का लग्न सब गुणों से युक्त हो तो भी त्याग देना चाहिये ॥ ६९- ७० ॥

अस्मिन्दिने महापातस्तद्दिनं वर्जयेहुधः ॥

अपि सर्वगुणोपेतं दंपत्योर्मृत्युदं यतः ॥ ७१ ॥

जिस दिन व्यतीपात योग हो वह दिन त्याग देना चाहिये वह दिन गुणों से युक्त हो तो भी स्त्री पुरुष की मृत्यु करनेवाला है ॥७१॥

अनुक्ताः स्वल्पदोषाः स्युर्विद्युन्नीहारवृष्टयः ।

प्रत्यर्कपरिवेषेंद्रचापांबुघनगर्जनम् ॥ ७२ ॥

और बिजली पडना, बर्फ ओले पडना इत्यादिक विना कहे हुए स्वल्प दोष हैं तथा सूर्य के सन्मुख बादल में दूसरा सूर्य देखना, मंडळ, मेघ गर्जना, इंद्रधनुष ॥ ७२ ।।

एवमाद्यस्ततस्तेषां व्यवस्था क्रियतेऽधुना॥

अकाले संभवंत्येते विद्युन्नीहारवृष्टयः ॥ ७३ ॥

प्रत्यर्कपरिवेषेंद्रचापाभ्रघनयोर्यदि ।

दोषाय मंगले नूनमदोषायैव कालजाः ॥ ७४ ॥

इत्यादि दोष हैं उनकी व्यवस्था करते हैं ये बिजली आदि उत्पात, धमर पडना, दूसरा सूर्य तथा सूर्य के मंडळ दीखना इंद्र धनुष दीखना, मेघ गर्जना ये उत्पात वर्षाकाल के विना अकाल में होवें तो विवाहादिक मंगल में निश्चय दोष है और काल में होवें तो कुछ दोष नहीं है ॥ ७३ - ७४ ॥

बृहस्पातिः केंद्रगतः शुक्रो वा यदि वा बुधः ॥

एकोपि दोषविलयं करोत्येवं सुशोभनम् ॥ ७६ ॥

बृहस्पति अथवा शुक्र, बुध, एक भी कोई केंद्र में होय तो अनेक दोषों को नष्ट करता है शुभ फल होता है ॥ ७५ ॥

तिर्येंक्पंचोर्द्धगाः पंच रेखे द्वेद्वे च कोणयोः ॥

द्वितीयं शंभुकोणेग्निभचक्रं तत्र विन्यसेत् ॥ ७६ ॥

पाँच रेखा तिरछी और पांच रेखा ऊपर को खींचे दो दो रेखा कोणों में खींचनी फिर ईशानकोण में जो दो रेखा हैं तहां कृत्तिका नक्षत्र धरना और सभी नक्षत्र यथा क्रम से लिखने ।। ७६ ।।

नारदसंहिता अध्याय २४

भान्यतः साभिजित्येकरेखा खेटेन विद्धभम् ।

पुरतः पृष्ठतोर्काद्या दिनर्क्षे लत्तयंति च ॥ ७७ ॥

अभिजित सहित संपूर्ण नक्षत्र लिखने पीछे एक रेखा पर दो ग्रहों के नक्षत्र आ जायें वह वैध होता है ऐसा यह वेधदोष कहा है । और सूर्य आदि ग्रह आगे के तथा पीछे के नक्षत्र को ताडित करते हैं वह लत्तादोष होता है उसका क्रम कहते हैं ।। ७७ ।।

ज्ञराहुपूर्णेन्दुसिताः स्वपृष्ठे भं सप्तगोजातिशरैर्मितं हि ॥

संलत्तयन्तेर्कशनीज्यभौमा सूर्याष्टतर्काग्नि मितं पुरस्तात् ॥ ७८ ॥

बुध, राहु, पूर्ण चंद्रमा, शुक्र ये अपने पीछे के नक्षत्रों को यथाक्रम से सातवां, नवमां, बाईसवाँ, पांचवां नक्षत्र को ताडित करते हैं जैसे अश्विनी पर राहु हो तो आश्लेषा को ताडित करेगा और सूर्य शनि बृहस्पति मंगल ये आगे के नक्षत्र को यथाक्रम से १२।८।६ ।३ इनको ताडित करेंगे । जैसे सूर्य अश्विनी पर हो तो अपने आगे के बारहवें नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी को ताडित करेगा शनि ८ को ताडित करेगा ऐसे यथाक्रम जानो ॥ ७८॥

सौराष्ट्रशाल्वदेशेषु लत्तितं भं विवर्जयेत् ।

कलिंगवंगदेशेषु पातितं भमुपग्रहम् ॥ ७९ ॥

सौराष्ट्र व शाल्वदेश में लत्ता दोषवर्जित है और कलिंग तथा बंगालादेश में पातदोष वर्जित है और उपग्रह दोष ।। ७९ ॥

बाह्विके कुरुदेशे च यस्मिन्देशे न दूषणम् ॥

तिथयो मासदग्धाख्या दग्धलग्नानि तान्यपि ॥ ८० ॥

बाह्विक तथा कुरुदेश में वर्जित है तहां ही दोष है और मास दग्धा तिथि, तथा दग्धलग्न ॥ ८० ॥

मध्यदेशे विवर्ज्याणि न दूष्याणीतरेषु च ।

पंग्वंधकाणलग्नानि मासशून्याश्च राशयः ॥ ८१ ॥

इनको मध्यदेश में वर्ज्य देवे अन्य जगह दोष नहीं है और पंगु, अंधा, काणा, लग्न मासशून्य, राशि ॥ ८१ ॥

गौडमालवयोस्त्याज्याश्वन्यदेशे न गर्हिताः ॥

दोषदुष्टः सदा काले वर्जनीयः प्रयत्नतः ॥ ८२॥

ये गौड तथा मालवा देश में त्याज्य हैं अन्य जगह दोष नहीं है। दोष से दूषित हुआ समय सदा यत्न से वर्ज देना चाहिये ॥ ८२ ॥

अपि भूरिगुणोऽन्यार्थे दोषाल्पत्वं गुणोदयः॥

परित्यज्य महादोषाञ्छेषयोर्गुणदोषयोः ॥ ८३ ॥

और कहीं बहुत गुण होवे तथा दोष थोडा होवे तहाँ गुण दोषों के महान दोष को त्याग कर ।। ८३ ।।

गुणाधिकः स्वल्पदोषः सकलो मंगलप्रदः ।

दोषो न प्रभवत्येको गुणानां परिसंचये ॥ ८४ ॥

गुण अधिक रहैं और दोष थोडे रह जायें तो वह मुहूर्त संपूर्ण मंगलदायक है बहुत गणों के बीच एक दोष अपना बल नहीं कर सकता है। ॥ ८४ ॥

एको यथा तोयबिंदुरुदचिर्षि हुताशने ।

एवं संचिंत्य गणितशास्त्रोक्तं लग्नमानयेत् ॥ ८४ ॥

जैसे एक ही जल की बूंद बहुत बढी हुई अग्नि को नहीं बुझा सकती तैसे ही गणितशास्त्र को लग्न का बलाबल देख के विचार करना चाहिये ।। ८५ ।।

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकाया विषघट्यादि दुष्टमुहूर्त: श्चतुर्विंशतितमः ॥ २४ ॥    

आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय २५ ॥   

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