नारदसंहिता अध्याय २३
नारदसंहिता अध्याय २३ में होराचक्र, द्रेष्कोणचक्र, त्रिशांशचक्र का वर्णन किया गया है।
नारदसंहिता अध्याय २३
त्रिंशद्भागात्मकं लग्नं होरा
तस्यार्धमुच्यते ॥
लग्नत्रिभागो द्रेष्काणो नवमांशे
नवांशकः॥ ३० ॥
लग्न तीस अंश का होता है तिसका आधा
भाग (१५ अंश) को होरा कहते हैं । लग्न के तीसरे भाग की द्रेष्काण संज्ञा है लग्न के
नवमांश को नवांशक कहते हैं ।। ३० ।।
द्वादशांशो द्वादशांशः
त्रिंशांशस्त्रिंशदंशकः ॥
सिंहस्याधिपतिर्भानुश्चंद्र
कर्कटकेश्वरः॥ ३१ ॥
बारहवें अंश करलेने को द्वादशांश,
त्रिंशांश तीसवे ही अंश का होता है इनके देखने की विधि आगे चक्र में
स्पष्ट लिखते हैं । सिंह का स्वामी सूर्य और कर्क का स्वामी चंद्रमा है । ३१ ।।
मेषवृश्चिकयोर्भौमः
कन्यामिथुनयोर्बुधः ।
धनुर्मीनद्वयोर्मैत्री शुक्रो
वृषतुलेश्वरः ॥ ३२ ॥
मेष और वृश्चिक का मालिक मंगल है,
कन्या और मिथुन का स्वामी बुध, धनु और मीन का
स्वामी बृहस्पति, वृष और तुला का स्वामी शुक्र है ।। ३२ ।।
शनिर्मकरकुंभेश इत्येते राशिनायकाः॥
होरेनविध्वोरोजराशौ समभे
चंद्रसूर्ययोः ॥ ३३ ॥
मकर कुंभ का स्वामी शनि है ऐसे ये
राशियों के स्वामी कहे हैं तहाँ विषम राशि में पहले १५ अंश तक सूर्य की होरा,
पीछे चंद्रमा की होरा और समराशि में पहले चंद्रमा की पीछे सूर्य की
होरा होती है ॥३३॥
होराचक्रम् ।
विषमराशि: |
मेष
|
मिथुन
|
सिंह
|
तुला
|
धनु
|
कुम्भ
|
|
१५
र. ३०
चं.
|
१५
र. ३०
चं.
|
१५
र. ३०
चं.
|
१५
र. ३०
चं.
|
१५
र. ३०
चं.
|
१५
र. ३०
चं.
|
समराशिः |
वृष |
कर्क
|
कन्या
|
वृश्चिक
|
मकर
|
मीन |
|
१५
चं. ३० सु. |
१५
चं. ३० सु. |
१५
चं. ३० सु. |
१५
चं. ३० सु. |
१५
चं. ३० सु. |
१५
चं. ३० सु. |
स्युर्द्रेष्काणे लग्नपंचनंदराशीश्वराः क्रमात् ।
आरभ्य लग्नराशेस्तु द्वादशाशेश्वराः
क्रमात् ॥ ३४।।
राशि के १० अंश तक लग्न स्वामी फिर
२० अंश तक लग्न से ४ घर का स्वामी फिर ३० अंश तक लग्न से ९ घर के स्वामी का
द्रेष्काण होता है ऐसा क्रम जानना और लग्न राशि से लेकर द्वादशांश् अर्थात् २॥ अंश
का पति ग्रह यथाक्रम से जानना जैसे मेष में २॥ अंश तक मंगल का फिर५अंश तक शुक्र का
द्वादशांश है ।।३४।।
द्रेष्काण
अंश
|
मेष
|
वृष |
मिथुन
|
कर्क
|
सिंह
|
कन्या
|
०-१०
११-२० २१-३०
|
१
५
९
|
२ ६ १० |
३ ७ ११ |
४
८ १२
|
५
९ १
|
६
१० २
|
अंश
|
तुला |
वृश्चिक
|
धनु |
मकर |
कुम्भ |
मीन
|
०-१०
११-२० २१-३०
|
७ ११ ३ |
८
१२
४ |
९
१
५ |
१० २
६ |
११ ३
७ |
१२ ४
८ |
कुजार्कीज्यज्ञशुक्राणां
बाणेष्वष्टाद्रिमार्गणाः ।
भागाः स्युर्विषमे ते तु समराशौ
विपर्ययात् ॥ ३५ ॥
राशि के ५ अंशो तक मंगल,
फिर ५ अंशो तक शनि, फिर ८ अंशो तक बृहस्पति, फिर ७ अंश तक बुध फिर ५
अंशो तक शुक्र ये विषमराशि में त्रिंशांशपति होते हैं और समराशि में इतने ही अंशो
के क्रम से विपर्यय होते हैं अर्थात् शुक्र, बुध, गुरु, शनि, मंगल ये
त्रिंशांशपति होते हैं ।।
विषमराशि
त्रिंशांश चक्र
अंश
|
मेष
|
मिथुन
|
सिंह
|
तुला
|
धनु
|
कुम्भ
|
५
१०
१८
२५ ३०
|
१
मं. ११
श. ९
ब्रृ. ३
बु. ७
शु. |
१
मं. ११
श. ९
ब्रृ. ३
बु. ७
शु. |
१
मं. ११
श. ९
ब्रृ. ३
बु. ७
शु. |
१
मं. ११
श. ९
ब्रृ. ३
बु. ७
शु. |
१
मं. ११
श. ९
ब्रृ. ३
बु. ७
शु. |
१
मं. ११
श. ९
ब्रृ. ३
बु. ७
शु. |
समराशि त्रिंशांश चक्र
अंश
|
वृष |
कर्क
|
कन्या
|
वृश्चिक
|
मकर
|
मीन |
५ १२ २० २५ ३०
|
२
शु. ६
बु. १२
ब्रृ. १०
श. ८
मं. |
२
शु. ६
बु. १२
ब्रृ. १०
श. ८
मं. |
२
शु. ६
बु. १२
ब्रृ. १०
श. ८
मं. |
२
शु. ६
बु. १२
ब्रृ. १०
श. ८
मं. |
२
शु. ६
बु. १२
ब्रृ. १०
श. ८
मं. |
२
शु. ६
बु. १२
ब्रृ. १०
श. ८
मं. |
भृगुः षष्ठाह्वयो दोषो लग्नात्षष्ठगते सिते ॥
उच्चगे शुभसंयुक्ते तल्लग्नं सर्वदा
त्यजेत् ॥ ३६ ॥
लग्न से छठे स्थान राहु होवे वह
भृगु षष्ठाह्वयनामक दोष होता है वह लग्न उच्चग्रह से युक्त तथा शुभग्रह से युक्त
हो तो भी सर्वथा त्याग देना चाहिये ॥ ३६ ।।
कुजाष्टमे महादोषो लग्नादष्टमग कुजे
॥
शुभत्रययुतं लग्नं त्यजेत्तुंगगते
यदि ॥३७॥
लग्न से आठवें स्थान मंगल हो वह भी
महादोष कहा है वह लग्न तीन शुभग्रहों से युक्त तथा उच्चग्रह से युक्त हो तो भी
त्याग देना चाहिये ॥ ३७ ॥
पूर्णानंदाख्ययोस्तिथ्योः
संधिर्नाडीद्वयं सदा ॥
गंडांतं मृत्युदं जन्म यात्रोद्वाहव्रतादिषु
॥ ३८ ॥
पूर्णा नंदा इन तिथियों की संधि में
दो घड़ी अर्थात् पूर्णिमा के अंत की एक घडी और प्रतिपदा की आदि की १ घडी गंडांत
कही है वह जन्म, यात्रा विवाह आदिको में
मृत्युदायक जाननी पंचमी आदि सब पूर्णा और संपूर्ण नंदा तिथियो की घटी जान लेनी॥
कुलीरसिंहयोः कीटचापयोर्मीनमेषयोः ।
गंडान्तमंतरालं स्याद्धटिकार्धं
मृतिप्रदम्।। ३९ ।।
और कर्क,
सिंह, वृश्चिक, धनू,
मीन, मेष इन लग्नों की संधि की गंडांत संज्ञक
जाननी वह भी मृत्युकारक हैं ॥ ३९ ॥
सार्पेन्द्रपौष्णभेष्वंत्यं
नाडीयुग्मं तथैव च ॥
तदग्रभेष्वाद्यपादभानां
गंडांतसंज्ञिकाः४० ॥
और आश्लेषा,
ज्येष्ठा, रेवती इनके अंत की दो घडी और इन से
अगले नक्षत्रों के प्रथम चरणों की दो घडी ऐसे ये नक्षत्रों की ४ घडी गंडांत संज्ञक
हैं ।। ४० ।।
उग्रं च संवित्रितयं गंडांतद्वितयं
महत् ।
मृत्युप्रदं
जन्मयानविवाहस्थापनादिषु ॥ ११ ॥
ऐसे यह तीन प्रकार का गंडांत दारुण
खराब है जन्म, यात्रा, विवाह
इनमें अशुभ कहा है । । ४१ ।।
“लग्नस्य
पृष्ठाग्रगयोरसध्वोः सा कर्तरी स्याः दृजुवक्रगत्योः ।
तावेव शीघ्रं यदि वक्रचारौ नो
कर्तरीति न्यगदन्मुनींद्रः ॥ ४२ ॥
लग्न से बारहवें स्थान मार्गी कोई
क्रूर ग्रह होवे और दूसरे स्थान में वक्रगति वाला कोई क्रूर ग्रह होय तो कर्त्तरी
नामक अशुभ योग होता है यदि वे दोनों ग्रह शीघ्र गतिवाले तथा वक्रगति ही होवें तो
कर्त्तरी योग नहीं होता ऐसा यह वसिष्ठ जी मुनि का मत है ।। ४२ ।। ।
लग्नाभिमुखयोः
पार्श्वग्रहयोरुभयस्थयोः ।
सा कर्त्तरीति विज्ञेया
दंपत्योर्मुतिकर्त्तरी ॥ ४३ ॥
लग्न से आगे पीछे दोनों बराबरों में
पापग्रह होवें वह कर्त्तरीयोग है स्त्रीपुरुष की मृत्यु करता है । ४३ ॥
अपि सौम्यग्रहैर्युक्तं गुणैः
सर्वैः समन्वितम् ।
व्ययाष्टरिपुगे चंद्रे लग्नदोषः स
संज्ञितः ॥ ४४ ॥
और सौम्य ग्रहों से युक्त तथा सब
गुणों से युक्त लग्न हो भी कर्त्तरी योग में विवाह नहीं करना और १२।८।६ चंद्रमा हो
तो भी लग्न में दोष कहा है ।। ४४ ।।
तल्लग्गं
वर्जयेद्यत्नाज्जीवशुक्रसमन्वितम् ।
उच्चगे नीचगे वापि मित्रगे
शत्रुराशिगे ॥ ४५॥
वह लग्न बृहस्पति शुक्र से युक्त
होय तो भी यत्न से वर्ज देना चाहिये उच्च का हो अथवा नीच ग्रह से युक्त मित्रराशी का
अथवा शत्रुराशि का कैसा ही चंद्र हो परंतु इन स्थानों में वर्ज "देना चहिये ॥
४५
अपि सर्वगुणोपेतं
दंपत्योर्निधनप्रदम् ।
शशांके पापसंयुक्ते दोषः
संग्रहसंज्ञकः ॥ ४६ ॥
जो सब गुणों से युक्त लग्न हो तो भी
स्त्री पुरुषों की मृत्यु करता है और चंद्रमा पापग्रहों से युक्त हो वह संग्रह दोष
कहा है। ४६ ॥
तस्मिन्संग्रहदोषे तद्विवाहं नैव
कारयेत् ॥
सूर्येण संयुते चंद्रे दारिद्यं
भवति ध्रुवम् ॥ ४७ ॥
तिस संग्रह दोष में विवाह नहीं करना
सूर्य के साथ चंद्रमा हो तो निश्चय दारिद्र हो ॥ ४७ ।।।
कुजेन मरणं व्याधिर्बुधेन
त्वनपत्यता ॥
दौर्भाग्यं गुरुणा चैव सापत्न्यं
भार्गवेन तु ॥ ४८॥
मंगळ का साथ हो तो मरण वा रोग,बुध साथ हो तो संतान नहीं हो,बृहस्पति का साथ हो ते
दुर्भाग्य, शुक्र का साथ हो तो शत्रु का दुःख हो ॥ ४८ ॥
प्रव्रज्या रविपुत्रेण राहुणा कलहः
सदा ॥
केतुना संयुते चंद्रे नित्यं कष्टं
दरिद्रता ॥ ४९ ॥
शनि के साथ हो तो संन्यास धारण हो,
राहु का साथ हो तो कलह, केतु के साथ चंद्रमा
हो तो सदा कष्ट दारिद्रता होवे ।। ४९ ।।
इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां होराद्रेष्कोणत्रिशांशचक्रं नामाध्यायस्रयोविंशतितमः ॥ २३ ॥
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