नारदसंहिता अध्याय २९

नारदसंहिता अध्याय २९               

नारदसंहिता अध्याय २९ में वास्तुविधान का वर्णन किया गया है। 

नारदसंहिता अध्याय २९

नारद संहिता अध्याय २९         

अथ वास्तुप्रकरणम् ।

निर्माणे पत्तनग्रामगृहादीनां समासतः।

क्षेत्रमादौ परीक्षेत गंधवर्णरसप्लवैः ॥ १ ॥

शहर, ग्राम, घर इनके रचने (चिनने) के समय के संक्षेपमात्र से पहिले गंध, वर्ण, रसप्लुव (ढुलाई ) इन्हे करके क्षेत्र की अर्थात् भूमिस्थल की शुद्धि करनी चाहियें ॥ १ ॥

मधुपुष्पाम्लपिशितगंधान् विप्रानुपूर्वकम् ॥

सितरक्तेशहरितकृष्णवर्णं यथाक्रमात् ॥ २ ॥

ब्राह्मण के वास्ते मधु (शहद) समान सुगंधिवाली, क्षत्रियों को पुष्प समान सुगंधिवाली, वैश्य को खट्टी (काँजी) समान सुगंधिवाली, शूद्र को मांस समान सुगंधिवाली भूमि शुभ है और श्वेत, लाल, हरा, काला ये भूमि के रंग ब्राह्मणादिकों को यथा क्रम से शुभ हैं। २ ॥

मधुरं कटुकं तिक्तं कषायश्च रसः क्रमात् ।

अत्यंतं वृद्धिदं नृणामीशानप्रागुदक्प्लवम् ॥ ३ ॥

और मधुर, चर्चरा, कडुवा, कसैला ये भूमि के स्वाद ब्राह्मण आदिकों को शुभ हैं और जिस पृथ्वी की ढुलाई ईशान कोण तथा पूर्व व उत्तरी की तर्फ हो तो सब जातियों को अत्यंत वृद्धिदायक जाननी ।। ३ ।।

अन्यदिक्षु प्लवं तेषां शश्वदत्यंतहानिदम् ॥

तत्र कृत इस्तमात्रं खनित्वा तत्र पूरयेत् ॥ ४ ॥

अन्य दिशाओं में ढुलान रहे तो निरंतर तिन सब जातियों को अशुभ है । पृथ्वी की अन्य परीक्षा कहते हैं कि, कर्त्ता पुरुष अपने हाथ प्रमाण भूमि को खोदकर फिर उसी मिट्टी से उस खड्ढे को भरै ।। ४ ।।

अत्यंतवृद्धिरधिके हीने हानिः समे समम् ।

तथा निशादौ कृत्वा तु पानीयेन प्रपूरयेत् ॥ ५॥

प्रातर्दृष्टे चले वृद्धिः समं पंके व्रणे क्षयः ।

एवं लक्षणसंयुक्ते क्षेत्रे सम्यक्समीकृते ॥ ६ ॥

जो मिट्टी बढ जाय तो घर चिननेवाले की अत्यंत वृद्धि रहे हीन मृत्तिका रहे अर्थात् वह खड्ढा नहीं भरे तो हानि हों, समान मृत्तिका रहे तो समान फल जानना और एक हाथ खडा खोदकर रात्रि में पानी से भर देवे प्रातःकाल देखे तब जल से वह गर्त्त कुछ ऊँचा बढा दीखे तो वृद्धि जानना और समान कीच रहे तो समान फल जानना कीच में छिद्र दीखे तो क्षयकारक भूमि जानना ऐसे लक्षण से देखे हुए भूमि स्थल को समान बना लेवे ॥ ५ ॥ ६ ॥

दिक्साधनाय तन्मध्ये समे मंडलमालिखेत् ॥

पूर्वोक्तक्षणसंयुक्ते तन्मध्ये स्थापयेत्ततः ॥ ७॥

फिर दिक्साधन करने के वास्ते तिस भूमि के मध्य में समान भाग में मंडळ लिखना चाहिये । पूर्वोक्त लग्न में तहां यंत्र को स्थापित करै ॥ ७ ॥

ततश्छायाँ स्पृशेद्यत्र वृत्ते पूर्वापराह्नयोः ॥

तत्र कार्यावुभौ बिंदू वृत्ते पूर्वापराविधौ ॥ ८॥

फिर जहां दुपहर पहले और दुपहर पीछे की छाया आती हो तहां छाया की पिछान के वास्ते पूर्व पश्चिम में दो बिंदु कर देनी ॥ ८ ॥

रेखा या सोत्तरा साध्या तन्मध्येतिमिना स्फुटा ॥

तन्मध्येतिमिना रेखा कर्तव्या पूर्वपश्चिमा ॥ ९॥

इस प्रकार रेखा करके उत्तर दिशा का साधन करना। उत्तर दिशा दिक्साधन करके तिसके बीच मत्स्य समान तिरछी से। पूर्व पश्चिमी तर्फ रेखा खींचनी चाहिये ।। ९ ॥

तन्मध्यमत्स्यैर्विदिशः साध्या सूचीमुखास्तदा ।

मध्याद्विनिर्गतैः सूत्रैश्चतुरस्रं लिखेद्वहिः ॥ १० ॥

फिर मध्य में मत्स्याकार सूई के मुख सदृश बारीक रेखा खींच कर विदिशा (कोणों का ) साधन करना चाहिये, मध्यभाग से निकले हुए सूत्रों करके बाहिर चतुरस्र चौंकूटा स्थल बनावे ।

चतुरस्त्रीकृते क्षेत्रे षट्सर्गपरिशोधिते ।

रेखामार्गे च कर्तव्यं प्राकारं सुमनोहरम् ॥ ११ ॥

फिर चतुरस्त्र स्थल विषे षट्वर्ग विधि से शोधन कर रेखामार्ग विषे चौगिर्द एक गोलाकार रेखा खींच लेवे॥११॥

आयामेषु चतुर्दिक्षु प्रागादिषु च सत्स्वपि ।

अष्टाष्टौ च प्रतिदिशं द्वाराणि स्युर्यथाक्रमात् ।। १२ ।।

प्रदक्षिणक्रमात्तेषाममूनि च फलानि वै ।।

हानिर्नैःस्वं धनप्राप्तिर्नृपपूजामहद्धनम् ।। १३ ।।

उस विस्तार में चारों दिशाओं के विभाग कर लेना, फिर पूर्व आदि दिशाओं में आठ २ बार यथाक्रम से बनाने चाहियें । पूर्व दिशा में प्रदक्षिण क्रम से आठ ८ द्वार लगते हैं, तिनके फल कहते हैं (ईशान के समीप ही पूर्व के प्रथमभाग में हानि, दूसरे भाग में दरिद्रता, फिर ३ धन प्राप्ति, ४ राज्य से लाभ, ५ में बड़ा भारी धन लाभ ) ।। १२ ॥ १३ ॥

अतिचौर्यमतिक्रोधो भीतिर्दिशि शचीपतेः ।

निधनं बंधनं भीतिरर्थाप्तिर्धनवर्द्धनम् ॥ १४ ॥

फिर ६ भाग में अत्यंत चोरी, ७ में अत्यंत क्रोध८ में भय ये पूर्व दिशा में ८ द्वारों के फल हैं । और दक्षिण दिशा में यथाक्रम से मृत्यु १, बंधन २, भय ३, द्रव्यप्राप्ति ४ द्रव्यवृद्धि ५ ॥ १४ ।।

अनातंकं व्याधिभयं निःसत्त्वं दक्षिणादिशि ।

पुत्रहानिः शत्रुवृद्धिर्लक्ष्मीप्राप्तिर्धनागमः । १५॥

आरोग्य ६, व्याधिभय ७, दारिद्रता ८ ये फल दक्षिणदिशा में आठ द्वारों के हैं। और पुत्रहानि १, शत्रुवृद्धि २, लक्ष्मीप्राप्ति है, धनागम ४ ॥ १५ ॥

सौभाग्यमतिदौर्भाग्यं दुःखं शोकश्च पश्चिमे ।।

कलघहानिर्निःसत्त्वं हानिर्धान्यं धनागमः ॥ १६ ॥

सौभाग्य ५, अतिदौर्भाग्य ६, दुःख ७, शोक ८ ये फल पश्चिमदिशा में ८ द्वारों के हैं। और स्त्रीहानि १, दरिद्रता २, हानि ३, धान्य ४, धनागम ५, ॥ १६ ॥

संपद्बृद्धिर्महाभीतिरामयो दिशि शीतगोः ।

एवं गृहादिषु द्वारं विस्ताराद्विगुणोच्छ्रितम् ॥ । १७ ॥

संपत्ति की वृद्धि ६, महाभय ७, रोग ८ ये फल उत्तर दिशा में आठ बार करने के हैं, ऐसे घर आदिकों में द्वार करने चाहियें द्वार की चौडाई से दूनी उंचाई करनी शुभ है ॥ १७ ॥

इति प्रदक्षिणं द्वारं फलमीशानकोणतः ॥

मूलद्वारस्य चोक्तानि नान्यत्रैवं वियोजयेत् ॥ १८ ॥

ऐसे ईशानकोण से दाहिने क्रम से दूर करने के सब दिशाओं के फ़ल कहे हैं । मूलद्वार अर्थात मुख्य द्वार का यह फल है खिड़की आदि का फल नहीं है ॥ १८ ॥

पश्चिमे दक्षिणे वापि कपाटं स्थापयेद्वहे ।

प्राकारतां क्षितिं कुर्यादेकाशीतिपदं यथा ॥ १९ ॥

घर से पश्चिमी तर्फ अथवा दक्षिण की तर्फ किवाड़ स्थापन करने और घर में ८१ पद का वास्तु होता है अर्थात् वास्तु में ८१ देवता स्थित कहे हैं ॥ १९ ॥

मध्ये नवपदं ब्रह्मस्थानं तदतिनिंदितम् ।

द्वात्रिंशदंशाः प्राकाराः समीपांशाः समंत : । २० ॥

तर्हां मध्य मे ९ पद ( ९ कोष्ट ) ब्रह्म स्थान कहा है वह जगह प्रतिनिंदित जानो और चारों तर्फ किला की तरह भाग करके बत्तीस अंश ( भाग ) हैं ।। २० ।।

पिशाचांशा गृहारंभे दुःखशोकभयप्रदाः ॥

शेषः स्युर्गृहनिर्माणे पुत्रपौत्रधनप्रदाः॥ २१ ॥

वे गृहारंभ में पिशाचों के अंश हैं तिस जगह में पहिले घर चिनना आरंभ करे तो दुःख, शोक, भय हो अन्य जगह किसी ठौर से घर चिनना प्रारंभ किया जावे तो पुत्र, पौत्र, धन की प्राप्ति होय ।।२१।।

शिरस्यर्वाक्तना रेखा दिग्विदिङ्गध्यसंभवाः ।

ब्रह्मभागपिशाचांशाः शिशूनां यत्र संहतिः ॥ २२॥

मध्य में चली हुई रेखा दिशा और कोणों में प्राप्त है तहां वास्तु पुरुष के शिर से उरली तर्फ रेखा होती है तहाँ ब्रह्मभाग और पिशाचांश के शिशुओं के समूह की स्थिति है ॥ २२ ॥

तत्र तत्र विजानीयाद्वसतो मर्मसंधयः ॥

मर्माणि संधयो नेष्टास्तेष्वेव विनिवेशने ॥ २३ ॥

तहाँ २ निवास करे तो वास्तु के मर्म और संधि जानना तहां प्रथम निवास करना अशुभ है ॥ २३ ॥

सौम्यफाल्गुनवैशाखमाघश्रावणकार्तिकाः॥

मासाः स्युर्गृहनिर्माणे पुत्रारोग्यधनप्रदाः ॥ २५ ॥

मार्गशिर, फाल्गुन, वैशाख, माघ, श्रावण, कार्त्तिक इन महीनों में घर चिनवाना प्रारंभ करे तो पुत्र, आरोग्य, धन की प्राप्ति हो ॥ २४ ॥

अकारादिषु वर्णेषु दिक्षु प्रागादिषु क्रमात् ॥

खगेशौ तु हरीशाख्यसर्पाखुगजसूकराः ॥ २६॥

वर्गेशाः क्रमतो ज्ञेयाः स्ववर्गात्पंचमो रिपुः ॥

स्ववर्गे परमा प्रीतिः कथ्यते गणकोत्तमैः ॥ २६ ॥

पूर्व आदि दिशाओं में क्रम से अकारादि वर्गो विषे गरुड़ १, बिलाव २, सिंह ३, श्वान ४, सर्प ५, मूषक ६, गज ७, सूकर ८ ये आठ वर्ग पूर्व आदि दिशाओं के जानने तहां अपने वर्ग से पांचवें वर्ग को शत्रु जाने ऐसे ज्योतिषी जन ने कहा है ॥ २५ - २६ ॥

अथान्यप्रकारः ।

स्ववर्गं द्विगुणं कृत्वा परवर्गेण योजयेत् ।

अष्टभिस्तु हरेद्भागं योऽधिकः स ऋणी भवेत् ॥ २७॥

और दूसरा प्रकार यह है कि अपने वर्ग को दूना कर प्ररवर्ग में मिलादेवे फिर आठ का भाग देना तहां जो अंक बाकी रहे उसको फलरूप जाने इसी प्रकार पराये वर्ग को भी दूना कर अपने वर्ग में मिला ८ का भाग देना अंक बँचे सो देखना इन बचे हुए अंकों में जिस का अंक अधिक बच जाय वह ऋणी जानना यहां घर के वर्ग का अंक ऋणी होना ठीक है । २७ ।। ७ है ।

नारदसंहिता अध्याय २९

क्षेत्रफलम्

विस्तारगुणितं दैर्घ्यं गृहक्षेत्रफलं भवेत् ॥

तत्पृथक् वसुभिर्भक्तं शेषमायो ध्वजादिकः ॥ २८॥

घर की चौडाई को लंबाई से गुणा कर देना वह क्षेत्रफल होता है फिर आठ का भाग देना बाकी रहा ध्वज आदिक आय जानना।

ध्वजो धूमोऽथ सिंहः श्वा सौरभेयः खरो गजः ॥

ध्वांक्षश्चैव क्रमेणैतदायाष्टकमुदीरितम् ॥ २९ ।।

ध्वज १, धूम २, सिंह ३, श्वान ४, वृष ५, खर ६, गज७, ध्वांक्ष ८ ऐसे क्रमसे ये ८ आय कहे हैं ।। २९ ॥

ब्राह्मणस्य ध्वजो ज्ञेयः सिंहो वै क्षत्रियस्य च ॥

वृषभश्चैव वैश्यस्य सर्वेषां तु गजः स्मृतः ॥ ३० ॥

तहां ब्राह्मण को ध्वज आय शुभ है, क्षत्रिय को सिंह शुभ है, वैश्य को वृष शुभ है, गज आय सब वर्णों को शुभ है।। ३० ।।

कीर्तिः शोको जयो वैरं धनं निर्धनता सुखम् ॥

रोगश्चैते गृहारंभे ध्वजादीनां फलं क्रमात् ॥ ३१ ॥

और ध्वज १ आय आवे तो कीर्ति, फिर धूम २ हो तो शोक, फिर ३ जय, ४ वैर, ५ धन, ६ निर्धनता, ७ सुख, ८ रोग ऐसे इन आठ ध्वज आदिकों का फल जानना ।। ३१ ।।

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां वास्तुविधानऽध्याय एकोनत्रिंशत्तमः ॥ २९ ॥

आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय ३० ॥  

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