नारदसंहिता अध्याय २८
नारदसंहिता अध्याय २८ में देवप्रतिष्ठा का वर्णन किया गया है।
नारदसंहिता अध्याय २८
श्रीप्रदं सर्वगीर्वाणस्थापनं
चोत्तरायणे ।
गीर्वाणपूर्वगीर्वाणमंत्रिणोर्दृश्यमानयोः
॥ १ ॥
उत्तरायण सूर्यं में संपूर्ण
देवताओं का स्थापन करना शुभ है गुरु शुक्र का उदय होना शुभ है ।। १ ।।
विचेंत्रेष्वेवमासेषु माघादिषु च
पंचसु ।
शुक्लपक्षेषु कृष्णेषु तदादि पंचसु
स्मृतम् ॥ २ ॥
चैत्र बिना माघ आदि पांच महीनों
देवप्रतिष्ठा करनी शुभ है शुक्ल पक्ष में अथवा कृष्णपक्ष में पंचमी तक देवप्रतिष्ठा
करनी शुभ है ॥ २
दिनेषु यस्य देवस्य या तिथिस्तत्र
तस्य च ।
द्वितीयादिद्वयोः
पंचम्यादितस्तिसृषु क्रमात् ॥ ३ ॥
जिस देव की जो तिथी है उसी तिथि को
प्रतिष्ठा करनी भी शुभ है और द्वितीया आदि दो तिथि पंचमी आदि तीन तिथि क्रम से शुभ
हैं। ।। ३ ।।
दशम्यादेश्चतसृषु पौर्णमास्यां
विशेषतः ।
त्रिरुत्तरादितिश्चांत्यहस्तत्रयगुरूडुषु
॥ ४ ॥
दशमी आदि चार तिथि पौर्णमासी
विशेषता से शुभ है तीनों उत्तरा, पुनर्वसु,
रेवती, हस्त आदि तीन, पुष्य इन नक्षत्रों में।।
साश्विधातृजलाधीशहरिमित्रवसुष्वपि ।
कुजवर्जितवारेषु कर्तुः
सूर्यबलप्रदे ॥ ५ ॥
तथा अश्विनी,
रोहिणी, शतभिषा, श्रवण,
अनुराधा, धनिष्ठा इन नक्षत्रों में तथा मंगल
बिना अन्य वार कर्ता को सूर्य बलदायक होने में ॥ ५ ॥
चंद्रताराबलोपेते पूर्वोक्ते शोभने
दिने ।
शुभलग्ने शुभांशे च कर्तुर्न
निधनोदये ॥ ६ ॥
चंद्र ताराबल युक्त दुपहर पहिले शुभदिन,
शुभलग्न में, शुभ नवांशक में कर्त्ता को अष्टम
राशि अष्टम लग्न शुद्ध होने समय ।। ६ ।।
राशयः सकलाः श्रेष्ठाः
शुभग्रहयुतेक्षिताः ।
शुभग्रहयुते लग्ने
शुभग्रहयुतेक्षिते ॥ ७ ॥
सब ही राशि शुभग्रहों की दृष्टि
होने से शुभ कही हैं। शुभ ग्रह से युक्त तथा लग्न होना चाहिये ॥ ७ ॥ ।
राशिः स्वभावजं हित्वा फलं
ग्रहजमाश्रयेत् ।
अनिष्टफलदः सोपि प्रशस्तफलदः शशी ॥
८ ॥
सौम्यर्क्षगोधिमित्रेण गुरुणा व
विलोकितः ॥
पंचेष्टिके शुभे लग्ने नैधने
शुद्धिसंयुते ॥ ९ ॥
लग्न राशि स्वभाव फल को त्यागकर
ग्रहों से उत्पन्न हुआ फल करती है और अशुभ चंद्रमा भी शुक्र ग्रह के घर में हो,
मित्र से वा गुरु से दृष्ट होय तो शुभदायक है और पंचांग शुद्धियुक्त
लग्न अष्टम स्थान शुद्ध होने के समय प्रतिष्ठा करनी शुभ है।८-९॥
लग्नस्थाः
सूर्यचंद्ररराहुकेत्वर्कसूनवः ।
कर्तृर्मृत्युप्रदाश्चान्ये
धनधान्यसुखप्रदाः ॥ १० ॥
लग्न में स्थित सूर्य,
चंद्रमा, राहु, केतु,
शनि ये कर्ता की मृत्यु करते हैं अन्य ग्रह धन धान्य सुखदायक हैं ।।
१० ।।
द्वितीये नेष्टदाः पापाः
शुभाश्चंद्रश्च वित्तदाः ॥
तृतीये निखिलाः खेटाः
पुत्रपौत्रसुखप्रदाः ॥ ११ ॥
दूसरे घर पाप ग्रह शुभ नहीं हैं और
शुभग्रह तथा चंद्रमा धन दायक है तीसरे घर संपूर्ण ग्रह पुत्र पौत्र सुखदायक हैं ।।
११ ।।
चतुर्थे सुखदाः सौम्याः
क्रूराश्चंद्रश्च दुःखदाः ॥
हानिदाः पंचमे क्रूराः सौम्याः पुत्रसुखप्रदाः
॥ १२ ॥
चौथे घर सौम्यग्रह शुभदायक हैं,
क्रूर ग्रह और चंद्रमा दुःख दायक हैं, पांचवें
क्रूरग्रह हानिदायक हैं शुभ ग्रह पुत्र सुख दायक हैं ।। १२ ॥
पूर्णः क्षीणः शशी तत्र पुत्रः
पुत्रनाशनः ।।
षष्ठे शुभाः शत्रुदाः स्युः पापाः
शत्रुक्षयप्रदाः ॥ १३ ॥
पूर्ण चंद्रमा ५ हो तो पुत्रदायक,
क्षीण हो तो पुत्रनाशक है, छठे घर शुभ ग्रह
शत्रु उत्पन्न करते हैं और पापग्रह शत्रु को नष्ट करते हैं । १३ ॥
पूर्णः क्षीणोपि वा चंद्रः
षष्ठेखिलरिपुक्षयम् ।
करोति कर्तुरचिरादायुपुत्रधनप्रदः ॥
१४ ॥
छठे घर चंद्रमा प्रतिष्ठा करनेवाले के
शत्रुओं को शीघ्र ही नष्ट करता है और आयु, पुत्र,
धनदायक है ।। १४ ।।
व्याधिदाः सप्तमे पापाः सौम्याः
सौम्यफलप्रदाः ।।
अष्टमस्थानगाः सर्वे
कर्तृर्मृत्युप्रदा ग्रहाः ॥ १५ ॥
सातवें घर पापग्रह व्याधिदायक है और
शुभग्रह शुभफल दायक है प्रतिष्ठा लग्न से अष्टम स्थान में प्राप्त हुए सब ग्रह
कर्त्ता की मृत्यु करते हैं ॥ १५ ॥
धर्मे पापा ध्नंति सौम्याः शुभदाः
शुभदः शशी ॥
भंगदा कर्मगाः पापाः
सौम्याश्चंद्रश्च कीर्तिदाः। १६ ॥
नवमें घर पापग्रह अशुभ हैं शुभ ग्रह
और चंद्रमा शुभदायक हैं । दशम पापग्रह और चंद्रमा अशुभ हैं शुभग्रह कीर्तिदायक हैं
१६
लाभस्थानगताः सर्वे भूरिलाभप्रदा
ग्रहाः ।।
व्ययस्थानगताः शश्वद्वहुव्ययकरा
ग्रहाः ॥ १७ ॥
लाभ स्थान में प्राप्त हुए सभी यह
बहुत लाभदायक हैं बारहवें घर सभी ग्रह निरंतर बहुत खर्च करवाते हैं ।
गुणाधिकतरे लग्ने दोषाल्वत्वतरे यदि
।
सुराणां स्थापनं तत्र
कर्तुरिष्टार्थसिद्धिदम् ॥ १८ ।।
जिस लग्न में गुण अधिक हों दोष थोडे
होवें तिसमें देवता की प्रतिष्ठा करनेवाले मनुष्य के मनोरथ सिद्ध होते हैं ।। १८
।।
हंत्यर्थहीना कर्तारं मंत्रहीना तु
ऋत्विजम् ॥
श्रियं लक्षणहीना तु न प्रतिष्ठासमो
रिपुः ॥ १९ ॥
द्रव्यहीन प्रतिष्ठा यजमान को नष्ट
करती है,
मंत्रहनि प्रतिष्ठा आचार्य को नष्ट करती है, लक्षणहीन
प्रतिष्ठा लक्ष्मी को नष्ट करती है। इसलिये हीन रही प्रतिष्ठा के समान कोई शत्रु
नहीं है ।। १९ ।।
इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां
सुर प्रतिष्ठाध्याय अष्टविंशतितम: ॥ २८ ॥
आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय २९ ॥
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