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कर्मकाण्ड

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नारदसंहिता अध्याय २७

नारदसंहिता अध्याय २७              

नारदसंहिता अध्याय २७ में विवाह में योनि, वर्ण विचार तथा गडान्तजन्मविचार और लग्न का सूक्ष्मकाल का वर्णन किया गया है।   

नारदसंहिता अध्याय २७

नारदसंहिता अध्याय २७        

अथ योनिः।

अश्वेभंमेषसर्पाहिश्चोतुमेषोतुमूषकाः ।।

आखुर्गोमहिषव्याघ्रः श्वद्विड् व्याघ्रो मृगद्वयम् ॥१३७॥

श्वानोःकपिर्बभ्रुयुग्भं कपिसिंहतुरंगमाः ॥

सिंहगोहस्तिनो भानामेषां योनिर्यथाक्रमात् ॥ १३८ ॥

अश्व १ हस्ती २ मेष ३ सर्प ४ सर्प ५ श्वान ६ मार्जार ७ मेष ८ मार्जार ९ मेष १० मूषक मूषक ११ गौ १२ महिष १३ व्याघ्र १४ महिष १५ व्याघ्र १६ मृग १७ मृग १८ श्वान १९ वानर २० नकुल २१ नकुल २२ वानर २३ सिंह २४ अश्व २५ सिंह २६ गौ २७ हस्ती २८ ऐसे ये अश्विनी आदि नक्षत्रों की योनि यथाक्रम से जननी ।। १३७ - १ ३८ ॥

वैरं बभ्रूरंगमेषवानरं सिंहदंतिनम् ॥

गोब्य।घ्रमाखुमार्जारं महिषाश्वं च शात्रवम् ॥ १३९ ॥

तहां नकुल सर्प का बैर है, और मेष वानर का वैर है, सिंह हस्ती का वैर है, गौ व्याघ्र का और मूषक मार्जार तथा महिष अश्व का वैर है ॥ १३९ ॥ 

अथ वर्णविचारः।।

मीनालिकर्कटा विप्राः क्षत्री मेद्यो हरिर्धनुः ।

शूद्रो युग्मं तुलाकुंभौ वैश्यः कन्या वृषो मृगः।।१४० ॥

मीन वृश्चिक कर्क ये बाह्मण वर्ण हैं, मेष सिंह धनु क्षत्रीय वर्ण हैं, मिथुन तुला कुंभ, शूद्रवर्ण हैं कन्या, वृष, मकर वैश्यवर्ण हैं॥

( नोत्तमामुद्वहेत्कन्यां हीनवर्णो वरः सदा ॥

आद्यमध्यान्त्यचरममध्याद्या ह्यश्विनीमात् ।। )

गणयेत्संख्यया चैकनाड्यां मृत्युर्न पार्श्वयोः ।

प्राजापत्यब्राह्मदैवा विवाहार्षकसंयुताः॥ १४१ ॥

उत्तमवर्ण कन्या से हीनवर्ण वाले वर को विवाह नहीं करना चाहिये। और अश्विनी आदि नक्षत्रों की क्रम से आद्य मध्य अंत्य, अंत्य मध्य आद्य, आद्य मध्य अंत्य, ऐसे नाड़ी होती हैं तहां एक नाड़ी में विवाह करे तो मृत्यु हो । पृथक् नाड़ी रहने में कुछ दोष नहीं है और प्राजापत्य, बल, दैव, आर्ष ये विवाह श्रेष्ठ कहे हैं ।।

उक्तकाले तु कर्तव्याश्चत्वारः फलदायकाः ॥

आसुरो द्रविणादानात्पैशाचः कन्यकाछलात् ॥१४२॥

ये चार प्रकार के विवाह उक्तकाल में (शुभ मुहूर्त में ) करने से अच्छा फल प्राप्त होता है जो द्रव्य लेकर कन्या का पिता विवाह करै वह आसुर विवाह है। जो वर छल से कन्या को हर ले जाय वह पैशाच विवाह है ॥ १४२ ॥

राक्षस युद्धहरणाद्गांधर्वः समयान्मिथः ॥

गांधर्वासुरपैशाचराक्षसाख्यास्तु नोत्तमाः ॥ १४३ ॥

युद्ध में जीतकर कन्या को ले जाय वह राक्षस विवाह, वर कन्या आपस में बतलाकर विवाह कर लें वह गांधर्व विवाह है, गांधर्व, आसुर पैशाच, राक्षस ये विवाह पहलों के समान उत्तम नहीं हैं३४३॥

चतुर्थमभिजिल्लग्नमुदयर्क्षात्तु सप्तमम् ।।

गोधूलिकं तदुभयं विवाहे पुत्रपौत्रदम् ॥ १४४ ॥

सूर्य के उदय लग्न से चौथा लग्न अभिजित् संज्ञक है और सातवां लग्न गोधूलिक संज्ञक है ये दोनों लग्न विवाह में पुत्र पौत्रदायक हैं ॥ १४४॥

प्राच्यानां च कलिंगानां मुख्यं गोधूलिकं स्मृतम् ॥

अभिजित्सर्वदेशेषु मुख्यं दोषविनाशकृत् ॥ १४५॥

पूर्ववासी तथा कलिंगदेश निवासी जनों को गोधूलिक लग्न शुभ कहा है अभिजित् उन सब देशों में मुख्य है सब दोषों को नष्ट करने वाला है ॥ १४५ ॥

मध्यंदिनगते भानौ मुहूर्तोभिजिताह्वयः ॥

नाशयत्यखिलान्दोषान्पिनाकी त्रिपुरं यथा ॥ १४६ ॥

मध्याह्न समय में अभिजित् नामक मुहूर्त आता है वह संपूर्ण दोषों को ऐसे नष्ट करता है कि जैसे महादेवजी ने त्रिपुर दग्ध किया था ॥ १४६ ॥

मध्यंदिनगते भानौ सकलं दोषसंचयम् ॥

करोति दोषमभिजितूलराशिमिवानलः ॥ १४७ ॥

मध्याह्न समय में प्राप्त हुआ अभिजित् संपूर्ण दोषों को ऐसे नष्ट करता है कि जैसे रुई की राशि को अग्नि नष्ट कर देता है । । १४७ ।।

हंत्येकश्च महादोषो गुणलक्षमपीह सः ॥

पावने पंचगव्यं तु पूर्णकुंभं सुरालयम् ॥ १४८॥

और जो एक भी कोई महान् दोष हो तो वह लाखों गुणों को ऐसे नष्ट करता है कि जैसे पवित्र पंचगव्य के कलश को मदिरा का कण अशुद्ध कर देवे ॥ १४८ ॥

पुत्रोद्वाहात्परं पुत्रीविवाहो न ऋतुत्रये ॥

न तयोर्व्रतमुद्वाहान्मंगले नान्यमंगलम् ॥ १४९॥

पुत्र विवाह से पीछे छह महिने तक पुत्री का विवाह नहीं करना तीन पुत्र पुत्रियों के विवाह पीछे छह महीनों तक कोई व्रत तथा अन्य मंगल भी नहीं करना चाहिये ।। १४९ ।।

विवाहश्चैकजन्यानां षण्मासाभ्यंतरे यदि ।

असंशयं त्रिभिवर्षैस्तत्रैका विधवा भवेत् ॥ १५० ॥

एक उदरवाली बहनों का विवाह छह महीनो के भीतर होय तो तीन वर्षो भीतर एकजनी विधवा होये ॥ १५० ॥

प्रत्युद्वाहो नैष कार्यो नैकस्मै दुहितुर्द्वयम्॥

न चैकजन्मनोः पुंसोरेकजन्ये तु कन्यके ॥ १५१ ॥

विवाह में दूसरा विवाह नहीं करना एक वर के वास्ते दो कन्या साथ ही नहीं विवाहनी और एक उदर के दो भाइयों को एक उदर की दो बहनें नहीं विवाहनी ।। १५१ ॥

नैवं कदाचिदुद्वाहो नैकदा मुंडनद्वयम् ।

दिवाजातस्तु पितरं रात्रौ तु जननीं तथा ॥ १५२॥

आत्मानं संध्योर्हति नास्ति गंडे विपर्ययः ॥

सुतः सुता वा नियतं श्वशुरं हंति मूलजाः ॥ १५३ ॥

एकवार दो विवाह, एकवार दों का मुंडन, नहीं कराना अब गंडांत जन्मक विचार कहते हैं। दिन में जन्म होय तो पिता को नष्ट करे रात्रि में जन्म होय तो माता को नष्ट करे संधियों में जन्म हो तो आत्मा को [आपको) नष्ट करै गंडांत नक्षत्र में अन्य विपर्यय नहीं है मूलनक्षत्र में उत्पन्न पुत्री अथवा पुत्र अपने श्वशुर को नष्ट करते हैं।१५२-१५३।

तदंत्यपादजो नैव तथाश्लेषाद्यपादजः ॥

ज्येष्ठांत्यपादजो ज्येष्ठं हंति बालो न बालिका॥१५४ ॥

मूलनक्षत्र के अंत्य चरण में जन्मे तो दोष नहीं है और आश्लेषा के आद्य चरण में दोष नहीं हैं, ज्येष्ठा नक्षत्र को अंत्य चरण में जन्मा हुआ पुत्र बडे भाई को नष्ट करता है और कन्या जन्में तो यह दोष नहीं है१५४

बालिका मूलऋक्षे तु मातरं पितरं तथा ।

ऐन्द्री धवाग्रजं हंति देवरं तु द्विदैवजा ॥ १५५ ॥

मूळ नक्षत्र में कन्या जन्में तो माता पिता को नष्ट करती है और ज्येष्ठा नक्षत्र में जन्में तो अपने ज्येष्ठ को नष्ट करती है बिशाखा में जन्में तो देवर को नष्ट करे ॥ १५५ ॥

स्वस्थे नरे सुखासीने यावत्स्पंदति लोचनम् ।

तस्य त्रिंशत्तमो भागस्तत्परः परिकीर्तितः ॥ १५६ ॥

स्वस्थ सुख से बैठे हुए मनुष्य की आंखिझिपैं ऐसा पल संज्ञक काल है तिसका तीसवाँ हिस्सा तत्परसंज्ञक कहा है॥१५६॥

तपराच्छतगो भागस्त्रटिरित्यभिधीयते ॥

त्रुटेः सहस्रगो योंशो लग्नकालः स उच्यते ॥ १५७ ॥

देवोपि तन्न जानाति किं पुनः प्राकृतो जनः॥

स कालोथान्यकालो वा पूर्वकर्मवशाद्भवेत् ॥ १५८ ॥

तत्पर से सौमाँ हिस्सा त्रुटि है, त्रुटि से हजारवाँ हिस्सा लग्नकाल कहा है उसको देवता भी नहीं जाने फिर प्राकृत मनुष्य तो क्या जान सके वह लुप्तकाल अथवा अन्यकाल पूर्वकर्म वश से आपही प्राप्त हो जाता है ॥ १५७ ॥ १५८ ॥

निमित्तमात्रं दैवज्ञस्तद्वशान्न शुभाशुभम् ।

न्यग्रोधखदिराश्वत्थरक्तचंदनवृक्षजाः ॥ १५९ ॥

श्रीखंडागरुदंतोत्थं शुभशंकुमकल्मषम् ॥

द्वादशांगुलमुत्सेधं परिणाहे षडंगुलम् ॥ १६० ॥

तहां ज्योतिषी तो निमित्तमात्र है तिसके वश से कुछ शुभ अशुभ फल नहीं होता तहां बड, खैर, पीपल, लालचंदन, नारियल, अगर इन वृक्षों का अथवा हस्तीदंत का शुभ पवित्र शंकु बारह अंगुल का ऊंचा और छह अंगुल मोटाई का बनावे १५९- १६०॥

एवं लक्षणसंयुक्तं कल्पयेत्कालसाधने ।

आरभ्योद्वाहदिवसात्षष्ठे वाप्यष्टमे दिने ॥ १६१ ॥

ऐसे लक्षणयुक्त शंकु को कालसाधन में बनावे विवाह दिन से छठे दिन वा आठवें दिन ॥ १६१ ।।

वधूप्रवेशः संपत्यै दशमेथ समे दिने ॥

व्द्ययनं द्वितयं जन्ममासा दिवसानपि ॥

संत्यज्य प्रतिशुक्रोषि यात्रा वैवाहिकी शुभा॥ १६२ ॥

वधू प्रवेश करना दशवें दिन अथवा सम दिन में शुभ है और दोनों अयन वर कन्या के जन्म का मास व दिन सन्मुख शुक्र इनको त्यागकर विवाह कर बहू लाने की यात्रा शुभ कही है ॥ १६२ ॥

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां विवाहाध्याय सप्तविंशतिमः ॥ २७ ॥

आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय २८ ॥  

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