दत्तात्रेयतन्त्र पटल ११
श्रीदत्तात्रेयतन्त्रम् पटल १० में आपने आकर्षण प्रयोग पढ़ा, अब पटल ११ में इन्द्रजाल प्रयोग बतलाया गया है ।
श्रीदत्तात्रेयतन्त्रम् एकादश: पटलः
दत्तात्रेयतन्त्र ग्यारहवां पटल
दत्तात्रेयतन्त्र पटल ११
दत्तात्रेयतन्त्र
एकादश पटल
इन्द्रजाल
ईश्वर उवाच
इन्द्रजाल बिना रक्षा जायते न सुनिश्चितम्
।
रक्षामंत्रों महामन्त्र:
सर्वसिद्धिप्रदायकः ।। १ !।
शिवजी बोले-(हे दत्तात्रेयजी ! )
विना इन्द्रजाल के जाने निश्चित रुप से रक्षा नहीं होती है अतएव अब इन्द्राजाल और
रक्षा के मन्त्र (कहता हूं ) जो सब सिद्धियों को देनेवाले हैं । १ ॥।
ॐ नमो नारायणाय विश्वम्भराय
इन्द्रजालकौ-
तुकानि दर्शयदर्शय सिद्धि कुरुकुरु
स्वाहा ॥।
(एकलक्षजपान्मन्त्रसिद्धि:)
उपरोक्त इन्द्राजाल का कौतुकादि
दिखाने का मन्त्र है यह एक लक्ष जपने से सिद्ध होता है ।॥
ॐ नमः परब्रह्मपरमात्मने मम
शरीररक्षां कुरु
कुरु स्वाहा
(अयुतजपान्मन्त्रसिद्धिभंवति । )
उपरोक्त शरीर की रक्षा का मन्त्र है
यह दश हजार जपने से सिद्ध होता है ।
बेष्टितं घुणतालस्य पञ्चाङ्गै: कनक
तथा ।
दृष्टिमात्रादृष्टिबन्धं नान्यथा मम
भाषितम् ।। २ ।॥।
घुणाताल वृक्ष के पञ्चांग का और घतूरे
के पञ्चांग को मिलाय (गले में बांघे) तो दृष्टि मात्र से दृष्टिबन्ध होता है यह
मेरा सत्य वचन है ॥ २ ॥
कार्पासबीजं सर्पास्यें भौमवारे च
रोपयेत् ।
उद्भूतं बीज कार्पासे बालेरण्डस्थ तैलके
।
तद्वर्ति ज्वालयेद्रात्रौ
सर्पवद्दृश्यते ध्रुवम् ॥। ३ ॥
मंगल के दिन सर्प के मुख में कपास के
बीच बोवे उससे जो कपास उत्पन्न हो उसकी बत्ती बनाय अंडी के तेल में डाल रात्रि में
दीपक जलाबे तो सर्प ही सर्प दिखाई दें ।। ३ ॥।
वृश्चिकस्य मुखे बीजं क्षिपेंट्काषसिकं
तथा ।
तद्वर्ति ज्वालयेद्रात्रौ वृश्चिको
भवति ध्रुवम् ॥।
वतिशान्ति: प्रकर्तव्या महाकौतुकशामिका
॥। ४ ॥।
बीछू के मुख में कपास के बीज बोदे,
जब कपास उत्पन्न हो तब उसकी बत्ती बनाय रात्रि के समय दीपक जलाबे तो
बीछी हीं वीछी दृष्टि आवें बत्ती के निकालने पर महाकौतुक शान्त हो जाते हैं ।। ४
।।
भौमे कापसिबीजानि नकुलरूस्य मुखे
क्षिपेत् ।
सन्ध्यायां ज्वालयेद्वर्ति नकुलो
दृश्यते ध्रुवम् ॥। ५ ॥।
मंगल के दिन कपास के बीजों को नौले के
मुख में छोडे फिर कपास होने पर उसकी बत्ती बनाय संध्या समय दीपक में जलाने से नौले
ही नौले दीख पडते है ॥ ५॥
उलूकस्य कपाले तु घृतदीपेन कज्जलम्
।
पारयित्वांजयेन्नेत्रे रात्रौ पठति
पुस्तकम् ।। ६ ।।
उल्ल पक्षी की खोपडी में घी का दीपक
जलाय काजल पारे फिर उस काजल को नेत्रों में लगाने से रात्रि में पुस्तक पढ़ सकता
है ।। ६ ॥।
चन्द्रे कार्पासबीजानि मार्जारस्य
मुखे क्षिपेत् ।
तद्वर्ति ज्वालयेद्रात्रौ मार्जारों
दृश्यते ध्रुवम् ।। ७ ।॥
सोमवार को बिल्ली के मुख में कपास के
बीज डाले फिर बत्ती बनाकर रात्रि में दीपक जलाने से बिल्ली ही बिल्ली दीखती हैं ।।
७ ॥।
एवं यस्य मुखे क्षिप्तं तदुद्भवसुवतिकम्
।
दीपं प्रज्वालयेद्रात्रौ दृष्यते हि
सुनिश्चितम् ॥ ८ ॥
इस प्रकार जिसके मुख में कपास के
बीज बोवे फिर उसकी बत्ती बनाकर रात्रि में जलावे तो वह निश्चय दृष्टि आता है ॥। ८
॥।
ये च केचन जीवाश्च बर्तन्ते जगतीतले
।
क्षिप्त्वा मुखेऽकोलबीजं
निक्षिपेत्पृथिबीतले ॥। ९ ॥।
तद्वीजं मुर्खेंमध्यस्थं त्रिलोहं
बेष्टितं कुरु ।
तद्रुपी च भवेत्सद्यो नान्यथा मग
भाषितम् ॥। १० ॥
पृथिवी में जितने जीव हैं उनमें से
किसी के मुख में अंकोल के बीजों को भर पृथ्वी में गाड दे । उन बीजों से वृक्ष
उत्पन्न हो उसके बीजो को लोहे के त्रिकोण यन्त्र में लपेटकर मुख में रक्खे तो
मनुष्य उसी जीव के समान अन्य पुरुषों के दृष्टि आवे ॥। ९१० ॥।
खञ्जरीटं सजीवन्तु गृहीत्वा
फाल्गुने क्षिपेत् ।
पिञ्जरे रक्षयेत्ताबद्यावद्भाद्रपदो
भवेत् ॥ ११॥
अदृश्या जायते सत्यं नेत्रेणापि न
दुष्यते ।
करेण तु शिखा ग्राह्या रूप्ययन्त्रे
च निक्षिपेत् ॥ १२ ॥।
गटिका मुखमध्यस्था अदृश्यो भवति ध्रुवम्
।। १३ ॥
जीवित खंजन पक्षी को फाल्गुन के
महीने में लेकर पिंजरे में बन्द करे और भादों तक उसे रहने दे । भादों के महीने में
वह खंजन निश्चय नेत्रों से नहीं दीखेगा तब उसको हाथ से पकड़कर उसकी चोटी उखाड़ ले
और उस चोटी को चांदी में मढाकर गुटका बनाय मुख में रक्खे निश्चय अदृश्य होजाता है
अर्थात् दूसरों को नहीं दीखता है ॥११- १३ ॥
अंकोलस्य तु बोजानि निक्षिप्य
तेलमध्यतः ।
धूपं दत्त्वा तु तत्तैल सर्वसिद्धिप्रदायकम्
।। १४ ॥।
तडागे निक्षिपेत्पाद्मं बीजं तत्तैलसंयुतम्
।
तत्क्षणाज्जायते योगिस्तडागात्कमलोद्भव
: ॥ १५ ॥
तत्तैलमाम्रबीजे तु
निक्षिपेद्विन्दुमात्रतः ।
आम्रवृक्षस्तदुत्पन्नः
क्षणमात्रात्फलान्वित: ॥ १६ ।।
अंकोल के बीजों को तेल में डाल दे फिर
घूप दे तो वह तेल सिद्धिदायक हो जाता है । कमल के बीजों को तेल में भिगोकर तलाव में
डाल तो उसी समय कमल के फूल उत्पन्न होते हैं । यदि उस तेल को बून्द भर भी आम की
गुठली पर डाल दिया जाय तो उसी समय फल सहित आम का वृक्ष उत्पन्न हो जाता है । १४-१६
॥
धूकविष्ठां गृहीत्वा त्वैरण्डतैलेन
पेषयेत् ।
यस्यांगे निक्षिपेद्विन्दमदृश्यो
जायते नर: ॥॥ १७ ॥
उल्लूपक्षी की वीट को अंडी के तेल में
मिलाय जिसके अंग पर बून्द भर डाल दिया जाय तो वह अदृश्य हो जाता है ॥। १७ ॥।
मातुलुङ्गस्य बीजानां तैल ग्राह्यां
प्रयत्ततः ।
लेपयेत्ताम्रपात्रे तन्मध्याह्ने च
विलोकयेत् ।। १८ ॥
बिजौरे नींबू के बीजों का तेल यत्न से
निकाल ताम्रपत्र पर लगाय मध्याह्न काल के सूर्य के सामने रखकर देखे ॥ १८ ॥।
रथेन सह चाकाशे दृश्यते भास्करो ध्रुवम्
।
बिना मंत्रेण सिद्धि:
स्यात्सिद्धयोग उदाहृतः ॥ १९ ॥।
तो रथ सहित सूर्य भगवान् आकाश में दिखाई
पड़ेंगे । यह सिद्ध योग बिना ही मन्त्र के सिद्धि देता है ।। १९ ॥
वाराहीक्रान्तिकामूलं
सिद्धार्थस्नेहलेपितम् ।
मुखे प्रक्षिप्य लोकानां
दृष्टिबन्धं करोत्यलम् ॥ २० ॥
बाराहीकंद और कटेली की जड़ को सरसों
के तेल में मिलाय जिसके मुख पर फेंके तो उसकी दृष्टि बंध जाती है ।। २० ॥।
भौमवारे गृहीत्वा तु मृत्तिकां
रिपुमूत्रतः ।
कृकलासंमुखे क्षिप्त्वा कंकवृक्षं च
बंधयेत् ॥॥ २१ ॥।
मूत्रबंधो भवेत्तस्य उद्धृते च पुनः
सुखी ।
बिनामंत्रेण सिद्धि: स्थात्सिद्योग
उदाहृतः ॥ २२ ॥
मंगल के दिन शत्रु के मूत्रस्थान की
मट्टी लेकर गिरगिट के मुख में भर घतूरे के वृक्ष से वांध दे तो उस शत्रु का मूत्र
बन्द हो जाता है जब गिरगिट को खोल उसके मुख से मिट्टी निकाले तब सुखी हो जाता है,
यह सिद्ध योग विना ही मन्त्र से सिद्धि देता है ॥ २१ - २२ ॥
रविवारे सकृद्धन्याद्दीर्घतुंडी तदा
निशि ।
ततः सोमे गृहीत्वा तु मृत्तिकां
रिपुमुत्रत: ॥। २३ ॥
तच्चर्म्मणि क्षिपेच्छत्रुमृत्रबन्धनकारिका
।
उद्धते च सुखी चैब सिद्धयोग उदाहृत:
॥ २४ ॥
रविवार के दिन रात्रि समय एक ही बार
में छछून्दर को मारे सोमवार को शत्रु के मूत्रस्थान की मिट्टी लाकर उस मारी हुई
छछूंदर की खाल में भरे तो शत्रु का मूत्र बन्द हो जाता है (यदि उस खाल में मट्टी
भरी हुई छछून्दर के लकडी मारे तो शत्रु को पीड़ा होने लगती है,
मूत्र बन्द होने से कष्ट पाकर शत्रु मर जाता है) जब छछुन्दर की खाल से
मिट्टी निकाल ली जाय तब सुखी हो जाता है ॥ २३ - २४ ॥
सिन्दूरं गंधक तालं समं पिष्ट्वा
मनःशिलाम् ।
धृते तल्लिप्तबस्त्रे तु
ध्रुवमग्निन्च जायते ॥ २५ ॥
सिंदूर,
गन्धक, हरताल और मनशिल को समान ले पीस वस्त्र पर
लेप करे तो वह वस्त्र निश्चय अग्नि के समान दिखाई देगा॥ २५।॥
श्वेताञ्जनं समादाय पुष्यागस्त्यरसेन
च ।
पिष्टुवा सप्तदिनं यावदष्टमेऽह्नि
यथाविधि ।। २६ ॥।
अञ्जनं चाञ्जयेन्नेत्रे दृश्यन्ते
चाह्नि तारका: ।। २७ ।।
कुक्कुटस्याण्डमादाय तच्छिद्रे पारदं
क्षिपेत् ।
सन्मुखे भास्करं कृत्वा आकाशं
गच्छति ध्रुवम् ।। २८ ॥।
विना मंत्रेण सिद्धिश्च सिद्धियोग
उदाहृत: ॥। २९ ॥।
सफेद सुरमे को अगस्त्य के रस में
सात दिन तक घोटे आठवें दिन विधान-पूर्वक उस अञ्जन को आंखों में लगाने से दिन में
तारे दृष्टि आते हैं। मुरगी के अंडे में पारा भर सूर्य के सामने धरने से वह अंडा
निश्चय आकाश को उड जाता है । यह सिद्धि योग बिना ही मन्त्र से सिद्धि देता है।॥
२६-२९ ॥
अर्कक्षीरं वटक्षीरं क्षीरमौदुम्बरं
तथा ।
गृहीत्वा पात्रके क्षिप्तं जलपूर्ण
करोति च ।
दुग्धं सञ्जायते तत्र महाकोतुककौतुकम्
।। ३० ॥
आक का दूध,
बरगद का दूध और गूलर का दूध लेकर पात्र में डाले पीछे उस पात्र को
जल से भर दे तो उस जल का दूध ही दूध विहित होगा यह महाकौतुक है ।। ३० ॥।
गृहीत्वा विजयाबीजं तत्तैलं तु
समाहरेत् ।
तत्तैलमहिफेनञ्च विषं जातीफलं तथा ॥
३१ ॥
धत्तूरबीजचूर्णन्तु गृहीत्वा च सम॑
समम् ।
नवनीतेन तेलेन सर्वमौषधपेषणम् ।।
३२ ॥
अष्टयामकृते तंत्रे महाकौतुककौतुकम्
।
तत्तैलबिन्दुमात्रेण लिगलेपं च
कारयेत् ।। ३३ ।।
भोगेच्छा सर्वदा तस्य दृढं दीर्घ
भविष्यति ॥॥ ३४ ।॥
भांग के बीजों का तेल निकाले उस तेल
में अफीम,
विष, जायफल और धत्तूरे के बीजों का चूर्ण समान
भाग मिलाय मक्खन वा तेल से सब औषघियों को आठ पहर तक खरल करे तो वह महाकौतुकरूप हो जाता
है उस तेल की बूंद भी कामध्वजा पर लगाई जाय तो भोग की इच्छा सदा रहे एवं लिंग दुढ
और दीर्घ हो जायगा ॥। ३१-३४ ॥
षण्मुखं मृत्तिकाभाण्डं गृहीत्वा
रविवासरे ।
तस्य मध्ये स्थापयेत्तदर्ककील
नवांगुलम् ।। ३५ ।॥
श्वेतदूर्वासंयुतं हि चाश्वगन्धा
मनःशिला ।
ताम्बूलसंयुतं कृत्वा तुलसीदलमेव च
॥। ३६ ।।
अपामार्गस्य पत्रन्तु धात्रीपत्रं
तथेव च ।
बटपत्रं तथा मध्ये घृतं मिष्टान्नदुग्धके
।। ३७ ।।
मुखं वस्त्रेण संबेष्टय
निखनेत्सस्यमध्यके ।॥
तस्योपरि भूर्जपत्रे यंत्रं पंचदशं
लिखेत् ।। ३८ ॥।
शलभाखुमृगाणां च श्रृंगालानां तथैव
हि ।
पशुपक्षिनराणाञ्च चौराणां कीलनं
भवेत् ॥ ३९ ॥
वसुंधरा सस्यपूर्णा न विघ्नै:
परिभूयते ।
यस्मै कस्मै न दातव्यं नान्यथा मम
भाषितम् ॥ ४० ॥
रविवार के दिन छःमुख की मट्टी की
हांडी लाकर उसमें नौ अंगुल की आक के वृक्ष की कील रक्खे और उसमें सफेद दूब,
असगन्ध, मनशिल, पान,
तुलसी का दल, अपामार्ग के पत्ते, ऑमले के पत्ते, बरगद के पत्ते,
घी, मीठा दूध डाले पीछे उस हांडी के मुख में वस्त्र से लपेट
धान्ययुक्त क्षेत्र (हरे भरे खेत) में जाकर गाड दे उसके उपर भोजपत्र पर परद्रह का
यंत्र लिख कर स्थापित करे तो टीडी, मृग, मूषक, सियार तथा बनैले जीव जन्तु, पशु, पक्षी, मनुष्य, चोर आदि का कीलन उसी समय हो जाता है और वह भूमि (जिसमें हांडी गाड़ी है)
धान्य से परिपूर्ण होती है किसी प्रकार विध्न नहीं होता यह प्रयोग प्रत्येक मनुष्य
को नहीं देना चाहिये ॥३५-४०॥
पुष्यार्के तु समानीय मूलं श्वेतार्कसम्भवम्
।
अंगुष्ठ प्रमितां तस्य प्रतिमां तु
प्रपूजयेत् ॥। ४१ ।।
गणनाथस्वरूपन्तु भकत्या रक्ताश्वमारजे:
।
कुसुमैश्चापिगन्धाद्यैर्हविष्याशी
जितेन्द्रय: ॥ ४२ ॥।
पुजयेन्नाममंत्रैश्च तद्वीजानि नमोऽन्तक:
।
यान्यान्प्रार्थयते कामानेकमासेन
तॉल्लभेत् ॥। ४३ ॥
प्रत्येककामसिद्धयर्थं मासमेकं
प्रपूजयेत् ।
गणेशबीजमाह-ओं अन्तरिक्षाय स्वाहा ।
अनेन मंत्रेण पूजयेत । ओं ह्रीं पूर्वदयां
ओं
ह्रीं फट्स्वाहा ॥। रक्ताश्वमारजपुष्पाणि
क्षौद्रयुतानि जुहुयात् । बांछितं
ददाति ।
ॐ ह्रीं श्रीं मानसंसिद्धिकरीं ह्रीं
नमः ।।
अनेन मनरक्तकुसुममेकं जप्त्वा नित्यं
क्षिपेत् ।
ततो भगवती वरदा अष्टगुणानामेकं गुणं
द्वदाति ।। ४४ ॥।
पुष्य नक्षत्रयुक्त रविवार को सफेद
आक की जड़ को अंगूठे के बराबर लाय उसकी प्रतिमा बनाय पूजन करे। फिर हविष्यान्न
(खीर) खाय इंद्रियों को जीत श्रीगणेशजी के स्वरूप का भक्ति के साथ लाल कनेर के फूल
और चन्दनादि से उनके (गणेशजी के) बीजमंत्र के अन्त “नमः शब्द युक्त करके पूजन करे और जिस कामना से करे वह कामना मास में पूर्ण
हो जायगी । प्रत्येक मनोरथ की सिद्धि के निमित्त एक मास पूजन करना चाहिये 'ओं अंतरिक्षाय स्वाहा' यह गणेशजी का बीजमंत्र
है। ओं ह्रीं पूर्वदयां ओं ह्रीं फट् स्वाहा इनको पढ़ लाल कनेर के फुलों की
हवन में आहुति दे इस भांति से करने पर देवता मनोरथ पूर्ण करते हैं । इसके अतिरिक्त
“ह्रीं श्री मानसंसिद्धिकरीं ह्रीं नमः” इस मन्त्र कों पढ़कर प्रतिदिन हाथ में लाल फूल लेकर चढावे तो वर देनेवाली
भगवती आठ गुणों में से एक गुण देती है ॥ ४२-४४ ।॥
कृत्तिकायां स्नुहीवृक्षबन्दाक
धारयेत्करे ।
वाक्यसिद्धिर्भवेत्तस्य महाश्चर्यमिदं
स्मृतम् ।। ४५ ॥
कत्तिका नक्षत्र में थूहर के बान्दे
को हाथ में बांधने से वाक्यसिद्धि होती है महा आश्चर्यंयुक्त प्रयोग है ।॥ ४५ ।॥।
अनेन ग्राहयेत्स्वातीनक्षत्रे
बदरीभवम् ।
बन्दाकं तत्करे धुत्वा यद्वस्तु
प्रार्थ्यते जनै: ।। ४६ ।।
तत्क्षणात्प्राप्यते सर्वमत्र मन्त्रस्तु
कथ्यते ।
ओं अन्तरिक्षाय स्वाहा ॥।
अनेनग्राहयेत् ।। ४७ ॥
स्वाती नक्षत्र में पूर्वोक्त मन्त्र
से बेर के बंदे को लाकर हाथ में बांघ जिस वस्तु को चाहे वह वस्तु उसको उसी समय
प्राप्त हो जाती है ओं अंतरिक्षाय स्वाहा'
इसी मंत्र से वंदे को अभिमंत्रित करकें बांघे ।॥।
इति श्रीदत्तात्रेयतन्त्रे श्रीदत्तात्रेयेश्वरसंवादे
इन्द्र जालकौतुकदर्शनं नामकादश: पटल: ११ ॥
आगे जारी........ श्रीदत्तात्रेयतन्त्रम् पटल १२ यक्षिणीसाधन ॥
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