नारदसंहिता अध्याय २६
नारदसंहिता अध्याय २६ में विवाह में गणविचार का वर्णन किया गया है।
नारदसंहिता अध्याय २६
अष्टधा राशिकूटं च स्त्रीदूरगणराशयः
॥
राशीशयोनिवर्णाख्यशुद्धश्चेत्
पुत्रपौत्रदाः ॥ १२३ ॥
आठ प्रकार का राशिकूट स्त्रिदूर,
गणराशि, राशिस्वामी, योनि,
वर्ण ये शुद्ध होवें तो पुत्र पौत्रदायक कहे हैं ॥ १२३ ॥
एकराशौ पृथग् धिष्ण्ये दंपत्योः
पाणिपीडनम् ॥
उत्तमं मध्यमं
भिन्नराश्यैकर्क्षजयोस्तयोः ॥ १२४ ॥
एकराशी हों और जुदा २ नक्षत्र हो तो
कन्या वर का विवाह करना ( योग्य है) उत्तम है और राशि जुदी २ हो नक्षत्र एक ही हो
तो मध्यम जानना ॥ १२४ ॥
एकर्क्षे त्वेकराशौ च विवाहः
प्राणहानिदः ॥
स्त्रधिष्ण्यादाद्यनवके
स्त्रीदूरमतिनिंदितम् ॥ १२६ ॥
और एक ही नक्षत्र तथा एक ही राशि हो
तो विवाह करने में प्राणहानि होती है स्त्री के नक्षत्र से नव नक्षत्रों के भीतर
ही पुरुष का नक्षत्र होय तो वह स्त्री दूर, अति
निंदित है ॥ १२५ ॥
द्वितीय मध्यमं श्रेष्ठं तृतीये
नवके भृशम् ।
तिस्रः पूर्वोत्तरा
धातृयाम्यमाहेशतारकाः॥ १२६॥
और उसमें आगे के नव ९ नक्षत्रों में
द्वितीय नवक में पुरुष का नक्षत्र हो तो मध्यम फल जानना। तिसके आगे के नव
नक्षत्रों में हो तो अत्यंत शुभफल जानना । और तीनों पूर्वा,तीनों उत्तरा,रोहिणी भरणी ॥ १२६ ॥
इति मर्त्यगणो ज्ञेयः
स्यादमर्त्यगणः परः ॥
हयादित्यर्कवाय्विज्यमित्रेन्दुविष्णु
चान्त्यभम्॥१२७॥
ये मनुष्यगण जानने और आश्विनी,
पुनर्वसु, हस्त, स्वाति,
पुष्य, अनुराधा, मृगशिर,
श्रवण, रेवती देवतागण है॥१२७॥
रक्षोगणः
पितृत्वाष्ट्रद्विदैवानींद्रतारकाः॥
वसुतोयेशमूलाहितारकाभिर्युतोऽनलः ॥
१२८॥
मघा, चित्रा, बिशाखा, ज्येष्ठा,
धनिष्ठा, शतभिषा, मूल,
आश्लेषा, कृतिका ये राक्षसगण है ॥ १२८ ॥
॥ गणचक्रम्॥
आश्विनी
|
पुनर्वसु
|
हस्त
|
स्वाति |
पुष्य |
अनुराधा |
मृगशिर |
श्रवण |
रेवती
|
देवतागण |
पू.फा. |
पू.षा.
|
पू. भा. |
उ. फा. |
उ.
षा.
|
उ.
भा.
|
आर्द्रा |
रोहिणी
|
भरणी |
मनुष्यगण |
मघा |
चित्रा |
बिशाखा |
ज्येष्ठा |
धनिष्ठा |
शतभिषा |
मूल |
आश्लेषा |
कृतिका |
राक्षसगण |
दंपत्योर्जन्मभमेकगणे प्रीतिरनेकधा ।
मध्यमा देवमर्त्यानां राक्षसानां
तयोर्मृतिः ॥ १२९ ॥
स्त्री पुरुष को एक गण होय तो अनेक
प्रकार उत्तम प्रीति रहै । देवता तथा मनुष्य की मध्यम प्रीति रहे । राक्षस तथा
देवगण का कलह रहे । राक्षस और मनुष्यगण होय तो दोनों की मृत्यु हो।। १२९॥
मृत्युः षष्टाष्टके पंच नवमे
त्वनपत्यता ॥
नेष्टं द्विर्द्वादशेन्येषु
दंपत्योः प्रीतिरुत्तमा ॥ १३० ॥
स्त्री पुरुष की राशि परस्पर छठे
आठवें हो तो मृत्यु हो, पांचवें नवमें
स्थान पर हो तो संतान नहीं हो और परस्पर दूसरे बारहवें राशि होय तो भी शुभ नहीं है
अन्य राशि शुभ है। अन्य राशियों में स्त्री पुरुष की उत्तम प्रीति रहती है ॥ १३० ॥
एकाधिपे मित्रभावे शुभदं पाणिपीडनम्
॥
द्विर्द्वदशे त्रिकोणे च न कदाचित्
षडष्टके ।। १३१ ॥
शत्रुषष्ठाष्टके
कुंभकन्ययोर्घटमीनयोः ॥
वामोक्षयोर्युयुक्कीटभयोः
कुंभकुलीरयोः॥ १३२ ॥
पंचास्यमृगयोश्चैव निंदितं तदतीव तु
॥
सितार्कज्येंदुभौमसो रिपुमित्रसमा
रखेः ।। १३३ ॥
शत्रु षडाष्टक में प्राप्त तथा अशुभ
राशियों को कहते हैं। कुंभ कन्या, कुंभ मीन,
कन्या वृष, मिथुन वृश्चिक, कुंभ कर्क, सिंह मकर, ये राशि
कन्या वर की परस्पर होवें तो अत्यंत निंदित हैं और शुक्र शनि सूर्य के शत्रु हैं ।
बृहस्पति, चंद्रमा, मंगल मित्र हैं तथा
बुध सम है ॥ १३१- १३३ ॥
इन्दोर्न शत्रुरर्कज्ञौ
कुजेज्यभृगुसूर्यजाः ॥
कुजस्य ज्ञोर्कचंद्रज्याः
शुक्रसूर्यसुतौ क्रमात् ।। १३ ।।
चंद्रमा के शत्रु कोई नहीं है सूर्य
बुध मित्र हैं। और मंगल, गुरु शुक्र सूर्य
ये सम हैं । मंगल का बुध शत्रु है । सूर्य, चंद्र, गुरु ये मित्र हैं। शुक्र शनि सम हैं। १ ३४॥
ज्ञस्येंदुरर्कौ च कुजजीवशनैश्चराः
॥
गुरोर्ज्ञशुक्रौ सूर्येन्दुकुजाः
स्युर्भास्करात्मजः ॥ १३५ ॥
बुध का चंद्रमा शत्रु है,
सूर्य शुक्र मित्र और मंगल गुरु शनि ये सम हैं। बृहस्पति का बुध तथा
शुक्र शत्रु हैं । सूर्य, चंद्रभा, मंगल,
ये मित्र हैं शनि सम है । १३५ ॥
शुक्रस्येंदुरवी ज्ञार्की
कुजदेवेशपूजितौ ॥
शनेरर्केन्दुभूपत्रा ज्ञशुक्रौ
देवपूजितः॥१३६ ।।
शुक्र के चंद्रमा सूर्यं शत्रु हैं,
बुध शनि मित्र और मंगल बृहस्पति सम हैं । शनि के सूर्य, चंद्रमा ये शत्रु हैं, बुध शुभ मित्र हैं, बृहस्पति सम है ॥ १३६ ॥
ग्रह |
सूर्य
|
चन्द्र
|
मंगल
|
बुध
|
गुरु
|
शुक्र
|
शनि
|
मित्र
|
चं.मं.गु. |
सु.बु. |
चं.सु,गु. |
सु.शु. |
सु.
मं.च. |
बु.श. |
बु.शु. |
सम |
बुध
|
श.शु.मं.गु. |
श.शु. |
मं.गु.श. |
शनि
|
मं.गु. |
गुरु |
शत्रु
|
श.
शु. |
.
. |
बुध
|
चन्द्र
|
बु.शु. |
सु.च. |
सु.च.
मं. |
इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां गणविचार: षड्विंशतितमः ॥ २६ ॥
आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय २७ ॥
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