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नारदसंहिता अध्याय २२
नारदसंहिता अध्याय २२ में विवाह प्रकरण
का वर्णन किया गया है।
नारद संहिता अध्याय २२
अथ विवाहप्रकरणम्।
युग्मेब्दे जन्मतः स्त्रीणां
प्रीतिदं पाणिपीडनम् ॥
एतत्पुंसामयुग्मेब्दे व्यत्यये
नाशनं तयोः ॥ १॥
जन्म से पूरे सम वर्ष में कन्या का
विवाह करना शुभ है और वर को अयुग्म ( ऊरा ) वर्ष होना चाहिये इससे विपरीत होवे तो उनका
नाश होता है ।। १ ।।
माघफाल्गुनवैशाखज्येष्ठमासाः
शुभप्रदाः ॥
मध्यमः कार्तिको मार्गशीर्षो वै
निंदिताः परे ।। २१ ॥
माध, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ इन महीनों में विवाह करना
शुभ है और कार्तिक, मार्गशिर मध्यम हैं अन्य महीने विवाह में अशुभ हैं ।२॥
न कदाचिद्दशर्क्षेषु
भानोरार्द्राप्रवेशनात् ॥
विवाहं देवतानां च प्रतिष्ठां
चोपनायनम् ॥ ३ ॥
आर्द्रा आदि दश नक्षत्रों पर सूर्य
प्रवेश होवे तब ( चातुर्मास में ) ही विवाह देवताओं की प्रतिष्ठा,
यज्ञोपवीत ये नहीं करने चाहिये ॥ ३ ॥
नरस्तंगते सिते जीवे न
तयोर्बालवृद्धयोः ।
न गरौ सिंहराशिस्थे सिंहांशकगतेपि
वा ॥ ४ ॥
बृहस्पति व शुक्र के अस्त होने में
तथा उनकी बाल और वृद्ध अवस्था होने के समय और सिंह के बृहस्पति विषे अथवा सिंह
राशी के नवांश में बृहस्पति होवे तत्र भी ये विवाहादिक नहीं करने चाहिये ।। ४ ।।
पश्चात् प्रागुदितः शुक्रः
पंचसप्तदितं शिशुः ।
अस्तकाले तु वृद्धत्वं
तद्वद्देवगुरोरपि ॥ ६ ॥
पूर्व में तथा पश्चिम में शुक्र उदय
हो तब सात दिन तथा पांच दिन बाल संज्ञक रहता है और अस्त काल से पांच सात दिन पहले
वृद्ध संज्ञा हो जाती है तैसे ही बृहस्पति की संज्ञा जाननी चाहिये ॥ ५ ॥
अप्रबुद्धो हृषीकेशो यावत्तावन्न
मंगलम् ।
उत्सवे वासुदेवस्य दिवसे
नान्यमंगलम् ॥ ६ ॥
जब तक देव नहीं उठे तब तक मंगल
कार्य नहीं करना और देवउठनी एकादशी को विवाहादि मंगल करना शुभदायक नही है ।६।।
न जन्ममासे जन्मर्क्षे न
जन्मदिवसेपि च ॥
नाधगर्भसुतस्याथ दुहितुर्वा
करग्रहम् ॥ ७ ॥
प्रथम संतान ( जेठी संतान ) का
विवाह जन्म मास तथा जन्म नक्षत्र तथा जन्मतिथि विषे नहीं करना चाहिये ।। ७ ॥
नैवोद्वाहो
ज्येष्ठपुत्रीपुत्रयोश्चपरस्परम् ।
ज्यैष्ठमासजयोरेकज्यैष्ठे मासे हि
नान्यथा ॥ ८ ॥
ज्येष्ठ वर और जेठी संतान की कन्या
इन दोनों तथा ज्येष्ठमास में उत्पन्न हुए वर कन्याओं का विवाह ज्येष्ठमास में नहीं
करना चाहिये ॥ ८ ।।
उत्पातग्रहणादूर्ध्वै
सप्ताहमखिलग्रहे ।
नाखिले त्रिदिनं चर्क्ष तदा
नेष्टमृतुत्रयम् ॥ ९ ॥
व्रजपात आदि उत्पात तथा सर्व ग्रहण के
अनंतर सात दिन तक विवाहादि मंगलकार्य करना शुभ नहीं है। सर्व ग्रहण नहीं हो तो तीन
दिन पीछे तक और ऋतुकाल के उत्पात में भी तीन दिन पीछे तक शुद्ध कार्यों नहीं करना
॥ ९ ॥
ग्रस्तास्ते त्रिदिनं पूर्वं
पश्चात् ग्रस्तोदये तथा ॥
संध्याकाले त्रित्रिदिनं निःशेषे
सप्तसप्त च ॥ १० ॥
ग्रस्तास्त ग्रहण से पहले तीन दिन
और ग्रस्तोदय ग्रह्ण से पीछे तीन दिन और संध्याकाल में उत्पात होय तो तीन २ दिन
बाकी सर्व दिन में सात २ दिन वर्जित जानो ॥ १० ॥ ।
मासांते पंचदिवसांस्त्यजेद्रिक्तां
तथाष्टमीम् ॥
षष्ठीं च परिघाद्यर्द्धं व्यतीपातं
सवैधृतिम् ॥ ११ ॥
मासांत मे पांच दिन,
रिक्ता तिथि, अष्टमी षष्ठी परिघ योग के आदि का
आधा भाग वैधृति, व्यतीपात संपूर्ण, इनको
विवाहदि के संपूर्ण कार्यों में वर्ज देखे ॥ ११ ॥
पौष्णभत्र्युत्तरामैत्रमरुचंद्रार्कपैतृभम्॥
समूलभं विधेर्भे च स्त्रीकरग्रह
इष्यते ॥ १२ ॥
रेवती,
तीन उत्तरा, अनुराधा, स्वाति,
मृगशिर, हस्त,मघा,
रोहिणी, मूल इन नक्षत्रों में विवाह करना
चाहिये ॥ १२ ॥
विवाहे बलमावश्यं
दंपत्योर्गुरुसूर्ययोः ।।
तत्पूज़ा यत्नतः कार्यो
दुष्फलप्रदयोस्तयोः ॥ १३ ॥
विवाह में वर कन्या को सूर्य
बृहस्पति बल अवश्य देखना चाहिये और ज़ो ये अशुभ फलदायक हों तो यत्न करके इनकी पूजा
अवश्य करनी चाहिये ॥ १३ ॥
गोचरं व वेधजं चाष्टवर्गरूपजं बलम्
।
यथोत्तरं बलाधिक्यं स्थूलं
गोचरमार्गजम् ॥ १४ ॥
गोचर बल,
वेधरहित का बल, अष्टवर्ग बल ये सब बल यथोत्तर
क्रम मे बलाधिक्य हैं और गोचर मार्ग मे स्थूल बल है । १४ ।।
चंद्रताराबलं वीक्ष्य ग्रहपश्वागजं
बलम् ।
तिथिरेकगुणा वारो द्विगुणस्त्रिगुणं
च भम् ॥ १९॥
चंद्र ताराबल,
ग्रहबल, पशु के शकुन का बल तथा अंगस्फुरण का भी
बल कहा है । तिथि एक गुणा बल करती है, वार दुगुना बल और नक्षत्र
तिगुना बल करता हैं ॥ १५ ॥
योगश्चतुर्गुणः पंचगुणं
तिथ्यर्धसंज्ञकम्॥
ततो मुहूर्त्तों बलवाँस्ततो लग्नं
बलाधिकम् ॥ १६ ॥
योग चार गुना,
तिथ्यर्द्ध (करण ) पांच गुना बल करता है, जिससे
अधिक दुघड़िया मुहूर्त, तिससे अधिक बली लग्न है ॥१६॥
ततोतिबलिनी होरा द्रेष्काणोतिबली
ततः ॥
ततो नवांशो बलवान् द्वादशांशो बली
ततः ।। १७ ।।
तिससे बली होरा,
तिससे बली द्रेष्काण है, द्रेष्काण से बली
नवांशक है, नवांशक से बली द्वादशांश है ॥ १७ ॥
त्रिंशांशो
बलवांस्तस्मांद्वीक्ष्यते तद्वलाबलम् ।
शुभयुक्तेक्षिताः शस्ता
विवाहेऽखिलराशयः ॥ १८ ॥
द्वादशांश से बली त्रिंशांश है,
ऐसे बलाबल विचारना चाहिये विवाह में संपूर्ण राशि शुभग्रहों से
युक्त और दृष्ट होने से शुभदायक होती हैं ॥ १८ ॥
चंद्रार्केज्यादयः पंच यस्य
राशेस्तु खेचराः॥
इष्टास्तच्छुभदं लग्नं चत्वारोपि
बलान्विताः ॥ १९ ॥
चंद्रमा,
सूर्य, बृहस्पति आदि पांच ग्रह जिस राशिं के
स्वामी हैं, वह लग्न शुभदायक है, और
बलान्वित हुए चार ग्रह शुभ होनें वह भी लग्न शुभ दायक है ॥ १९ ॥
जामित्रशुद्धयेकविंशन्महादोषविवर्जितम्
।
एकविंशतिदोषाणां नामरूपफलानि च ॥ २०
॥
पितामहोक्तान्यावीक्ष्य वक्ष्ये
तानि समासतः ।
पंचांगशुद्धिरहितो दोषस्त्वाद्यः
प्रकीर्तितः ॥ २१ ॥
यामित्र दोष की शुद्धि करना और
इक्कीस महादोषों को वर्ज इक्कीस दोषों के नाम रूप फल को ब्रह्माजी से कहे हुए को यहाँ
संक्षेपमात्र से कहते हैं। पँचांगशुद्धि नहीं होना यह प्रथम दोष है ॥ २ ० – २१ ॥
उद्यास्तशुद्धिहीनो द्वितीयः
सूर्यसंक्रमः ।
तृतीयः पापषड्वर्गो भृगुः षष्ठे
कुजोष्टमे ॥ २२ ॥
गंडांतकर्तरीरिःफषडष्टेंदुश्च
संग्रहः ॥
दंपत्योरष्टमं लग्नं
राशिर्विषघटीभवः ॥ २३ ॥
दुर्मुहूर्तों वारदोषः खार्जुरीकः
समांघ्रिजः ॥
ग्रहणोत्पातभं क्रूरविद्धर्क्ष
क्रूरसंयुतम् ॥ २४ ॥
कुनवांशो महापातो
वैधृतिश्चैकविंशतिः ॥
तिथिवारर्क्षयोगानां करणस्य च
मेलनम् ॥ २५॥
पंचांगमस्य संशुद्धिः पंचांगं
समुदाहृतम् ।
यस्मिन्पंचांगदोषोस्ति तस्मिल्लग्नं
निरर्थकम् ॥ २६ ॥
उदयास्त शुद्धिहीन यह दूसरा दोष है
सूर्यसंक्रम ३, पाप षड्वर्ग ४, छठे घर शुक्र हो यह ५दोष है। आठवें मंगल हो यह ६ दोष है गंडांत दोष ७ कर्त्तरी
योग ८, और १२/६।८ इन घरों में चंद्रमा हो यह ९, दोष है और स्त्रीपुरुष का अष्टमलग्न १०, संग्रह दोष
११, राशिदोष १२ विषघट १३, दुष्ट
मुहूर्त १४, वारदोष१५ खार्जुरीक समांघ्रिज अर्थात् एकार्गल
दोष १६, ग्रहणनक्षत्र तथा उत्पातका नक्षत्र १७पापग्रहवेध१८,पापग्रहयुक्त१९, दुष्टनवांशक २०वैधृति तथा व्यतीपात
ये२१ इक्कीस महादोष कहे हैं तहां तिथी १ वार २ नक्षत्र ३ योग ४ करण ५ इनका मेल
करना इनकी शुद्धि देखना यह पंचांग कहता है। जिसमें पंचांगदोष हो उस दिन विवाह लग्न
करना निरर्थक है। यह एक पंचांग दोष का लक्षण कहा और बाकी रहे २० दोष के भी लक्षण
कहते हैं ॥ २२ - २६ ।।
लग्नलग्नांशके स्वस्वपतिना वीक्षितौ
शुभौ ॥
न चेद्रान्योन्यपतिना शुभामित्रेण
वा तथा॥ २७॥
वरस्य मृत्युः परमो
लग्नद्यूननवांशकौ ॥
नैवं तैर्वीक्षितयुतौ
मृत्युर्वध्वाः करग्रहे ॥ २८ ॥
लग्न और लग्न का नवांशक ये दोनों
अपने २ स्वामी से दृष्ट होवैं तथा युक्त होवें तो शुभ है अथवा आपस में परस्पर पति से
तथा शुभ मित्र ग्रह से दृष्ट युक्त होवें तो भी शुभ है,
और लग्न तथा लग्न में सप्तम घर तथा इन घरों के नवांशकों के स्वामी
लग्न तथा सप्तम घर को देखते नहीं हो और दृष्टि भी नहीं करते हों तथा इनके शुभ
मित्र भी दृष्टि नहीं करते होवें तो उस लग्न में विवाह किया जाय तो वर की तथा
कन्या की मृत्यु होती है। लग्न की शुद्धि नहीं होने से वर की मृत्यु और सप्तम की
शुद्धि नहीं होने से कन्या की मृत्यु होती है ऐसे यह उदयास्त शुद्धि रहित दोष का
लक्षण है।।२७-२८।।
त्याज्या सूर्यस्य संक्रांतिः
पूर्वतः परतः सदा ॥
विवाहादिषु कार्येषु नाड्यः
षोडशषोडश ॥ २९॥
सूर्य की संक्रांति अर्के उससे १६
घड़ी पहली और १६ घडी पीछे की त्याग देनी चाहिये यह विवाहादिकों में अशुभ कही हैं
यह संक्रांति दोष का लक्षण है ।। २९ ।।
इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां विवाहप्रकरणम् द्वाविंशतितमः ॥ २२ ॥
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