नारदसंहिता अध्याय ३०
नारदसंहिता अध्याय ३० में वास्तुविधान अंतर्गत् राशिफल का वर्णन किया गया है।
नारदसंहिता अध्याय ३०
अथ राशिफलम्।
द्विर्द्वादशं निर्धनाय त्रिकोणं
कलहाय च ।
षडष्टकं मृत्यवे स्याच्छुभदा राशयः
परे ॥ ३२ ॥
चर की राशि व स्वामी की राशि परस्पर
दूसरे बारहवें स्थान हो तो निर्धनता फल कहना, नवमें
पांचवें हो तो कलह कहना, छठे आठवें हो तो मृत्यु कहना,अन्यराशि शुभदायक जानना३२॥
सूर्यागारकवारांशा वैश्वानरभयप्रदाः
॥
इतरे ग्रहवारांशाः
सर्वकामार्थसिद्धये ॥ ३३ ॥
सूर्य तथा मंगल की राशि के नवांशक में
घर चिनना प्रारंभ करे तो अग्नि का भय हो और अन्यवारों के नवांशक में करे तो सब
कामना सिद्ध होये ।। ३३ ।।
नभस्यादिषु मासेषु त्रिषु त्रिषु
यथक्रमात् ॥
यद्दिङ्मुखं वास्तु
पुमान्कुर्यात्तद्दिङ्मुखं गृहम् ॥ ३४ ॥
भाद्रपद आदि तीन २ महीनों में
पूर्वादि दिशाओं में वास्तु का मुख रहता है जिस दिशा में वास्तु का मुख हो तिसही
दिशा में घर का द्वार करना शुभ है ॥ ३४ ॥
प्रतिकूलमुखो गेहे रोगशोकभयप्रदः ॥
सर्वतोमुखगेहानामेष दोषो न विद्यते
॥ ३५ ॥
तिससे विपरीत द्वार लगावे तो रोग
शोक भय हो और जिन घरों के चारो तर्फ चौखट लगाई जाती हैं उन घरों में यह दोष नहीं
होता है ॥ ३५ ॥
मृत्पेटिका
स्वर्णरत्नधान्यशैवालसंयुता ॥
गृहमध्ये हस्तमात्रे गर्त्ते
न्यासाय विन्यसेत् ॥ ३६ ॥
वास्त्वायामदलं
नाभिस्तस्मादब्ध्यंगुलत्रयम् ।
कुक्षिस्तस्मिन्यसेच्छंकुं
पुत्रपौत्रप्रवर्द्धनम् ॥ ३७ ॥
मृत्तिका की पिटारी, सुवर्ण, रत्न, धान्य,शिवाळ इन सबों को - इकठ्ठे कर घर के बीच एक हाथ खढा खोदकर तिनमें रखदेवे
वास्तु के विस्तारदल में नाभि है तिस नाभि से ७ अंगुलक कुक्षि जानना तह शंकु रोपै
तो पुत्र, पौत्र, धन की प्राप्ति हो ॥
३६ - ३७ ॥
चतुर्विंशत्रयोविंशत्षोडशद्वादशांगुलैः
।
विप्रादीनां शंकुमानं
स्वर्णवस्त्रावलंकृतम् ॥ ३८ ॥
चौंवीस अंगुल,
तेईस अंगुल, सोलह अंगुल, बारह अंगुल ऐसे ब्राह्मण आदि वर्णो के क्रम का प्रमाण करना चाहिये। सुवर्ण
तथा वस्त्रादिक से शंकु को विभूषित करे ॥ ३८ ॥
खदिरार्जुनशालोत्थं
पूगपत्रतरूद्भवम् ॥
रक्तचंदनपालाशरक्तशालविशालजम् ॥३९
।।
खैर, अर्जुन वृक्ष, शाल, सुपारी वृक्ष,
तेजपातवृक्ष, लाल चंदन , ढाक, लाक सुंदर शाल ॥ ३९ ॥
नीयकारं च कुटजं वैषावं
बिल्ववृक्षजम् ।
शंकुं त्रिधा विभज्याथ चतुरस्रं ततः
परः ॥ ४० ॥
कटजवृक्ष,
कदंब वृक्ष, बाँस, बेलवृक्ष
इन्होंने शंकु बनना चाहिये । शंकु में तीन विभाग कर लेवे अथवा चौंकूटा शंकु करना ॥
४० ॥
अष्टांशं च
तृतीयांशमनस्रभुजुमव्रणम् ।
एवं लक्षणसंयुक्तं परिकल्प्य शुभे
दिने ॥ ४१ ॥
आठ दल का अथवा तीन दल का करना अथवा
दलरहित साफ़ गोल करना ऐसे लक्षण से युक्त शंकु बनाय शुभदिन में इष्ट साधन कर
गृहारंभ करना ॥ ४१ ॥
व्यर्क़ारवारलग्नेषु चापे
चाष्टमवर्जिते ।
नैधने शुद्धिसंयुक्ते शुभलग्ने
शुभांशके ॥ ४२ ॥
तहां रवि मंगल के लग्न नहीं हों,
अष्टमस्थान में धनु लग्न नहीं हो, अष्टम घर में
कोई ग्रह नहीं हो, शुभलग्न तथा शुभराशी का नवांशक होवे तब ॥
४२ ॥
शुभेक्षितेऽथ वा युक्ते लग्ने शंकुं
विनिक्षिपेत् ॥
पुण्याहवाचैर्वादित्रैः पुण्यैः
पुण्यांगनादिभिः ॥ ४३ ॥
शुभग्रहों की दृष्टि हो, शुभग्रहयुक्त हो, ऐसे लग्न में शंकु को स्थापित करै
पुण्याहवाचन बाजा, गीत, स्त्री मंगलगीत
इनसे मंगल कराना ।। ४३ ।।
स्वकेंद्रस्थैस्त्रिकोणस्थैः
शुभैरत्र्यायारिगैः परैः ।
लग्नात्षष्ठायचंद्रेण
दैवज्ञार्चनपूर्वकम् ।। ४४ ।।
शुभग्रह धनस्थान तथा केंद्र में
होवे अथवा ९।५ घर में हो और पापग्रह ३।११।६ घर में हो,
चंद्रमा ६ तथा ११ होवे ऐसे लग्न में ज्योतिषी के पूजन पूर्वक घर
चिनवाना प्रारंभ करे ।। ४४ ।।
एकद्वित्रिचतुःशालाः सप्तशालाह्वयाः
स्मृताः ।
ताः पुनः षड्विधाः शालाः प्रत्येकं
दशषद्विधाः ।। ४५ ।।
एक शाला से युक्त घर,
दो शाला वा तीन, चार, सात
शाला का घर होता है जिनके भी छह भेद हैं सोलह प्रकार के घर होते हैं तिनके नाम ॥
४५ ।।
ध्रुवं धान्यं जयं नंदं खरं कांतं
मनोरमम् ॥
सुमुखं दुर्मुखं क्रूरं
शत्रुस्वर्णप्रदं क्षयम् ॥ ४६ ॥
आक्रदं
विपुलाख्यं च विजयं षोडशं गृहम् ॥
गृहाणि षण्णवत्येव तेषां
प्रस्तारभेदतः ॥ ४७ ॥
ध्रुव १ धान्य २ जय ३ नंद ४ खर ५
कांत ६ मनोरम ७ सुमुख ८ दुर्मुख ९ क्रूर १० शत्रुप्रद ११ स्वर्णप्रद १२ क्षयप्रद
३३ आक्रंद १४ विपुल १५ विजय १६ ऐसे ये सोलह प्रकार के घर होते हैं इनके प्रस्तार का
भेद ९६ प्रकार के भेद होते हैं।४६-४७
गुरोरधो लघुः स्थाप्यः
पुरस्तादूर्घ्ववन्न्यसेत् ॥
गुरुभिः
पूजयेत्पश्चात्सर्वलब्धविधिर्विधिः ॥ ४८ ॥
गुरु स्थान के नीचे लघु स्थापित
करना तिसके आगे ऊपर के क्रम से लिखै फिर बडे छोटे स्थानों का भेद करना ऐसे एक घर के
छह २ भेद होने से ९६ भेद होवेंगे ॥ ४८ ॥
दिक्षु पूर्वादितः शालाध्रुवा
भूर्द्वौ । कृता गजाः॥
शालाध्रुवांकसंयोगः सैको वेश्म
ध्रुवादिकम् ॥ ४ ९॥
अव सोलह नामवाले इन घरों के भेद
कहते हैं। पूर्वद्वारवाले मकान का ध्रुवांक १ है । दक्षिणद्वारवाले मकान का
ध्रुवांक २ पश्चिमद्वारवाले मकान का ध्रुवांक८ है। उत्तरद्वारवाले मकान का
ध्रुवांक ८ है इस ध्रुवांक में ३ मिलाकर जितनी संख्या हो वह ध्रुव धान्यआदि संज्ञा
का मकान जानना जैसे पूर्व पश्चिम दो द्वारोंवाला मकान हो तो पूर्व का ध्रुवांक १
पश्चिम का ४ जोड ५ हुआ १ मिळा ६ हुआ तो यह कांतंनामक स्थान जानना ॥ ४९ ॥
स्नानागारं दिशि
प्राच्यामाग्नेय्यां पचनालयम् ॥
याम्यायां शयनागारं नैर्ऋत्यां
शस्त्रमंदिरम् ॥ ५० ॥
मकान की पूर्वदिशा में स्नान करने का
स्थान अग्निकोण में रसोई पकाने स्थान, दक्षिण
में सोने का मकान, नैर्ऋत में शस्त्र स्थान करना ।। ५० ।।
एवं कुर्यादिदं स्थानं
क्षीरपानाज्यशालिकाः ॥
शय्यासूत्रास्त्रतद्विद्याभोजनामंगलाश्रयाः
॥ ५१॥
और दूध,
जलपान, घृत इनके स्थान ईशानकोण में शय्या,
मूत्र, शस्त्र, भोजन
इनके स्थान अग्निकोण में,।। ५१ ।।
धान्यस्त्रीभोगवित्तं च
श्रृंगारायतनानि च ।
ईशान्याद्विक्रमस्तेषां
गृहनिर्माणकं शुभम् ॥ ५२ ॥
धान्य,
स्त्रीभोग, धन ये स्थान नैऋत में, श्रृंगारादिक के स्थान वायव्य कोण में ऐसे ईशानादिक कोणों में ये भी स्थान
कहे हैं ॥ ५२ ॥
एते स्वस्थानशस्तानि
स्वस्व।यस्वस्वदिश्यपि ।
प्लक्षोदुंबरचूताख्या
निंबस्नुहीविभीतकाः ॥ ५३ ॥
ये अपने २ कर्म विस्तार के योग्य
स्थान अपनी २ कोण में होने से शुभ हैं जैसे अग्निस्थान अग्निकोण में होना शुभ है
और मकान के आगे पिलखन, गूलर, आम, नींबू, थोहर, बहेडा ॥ ५३ ॥
ये कंटका दग्धवृक्षा
वदाश्वत्थकपित्थकाः ॥
अगस्त्यशिग्रुतालाख्यतिंतिणीकाश्च
निंदिताः ॥५४॥
ये वृक्ष तथा कांटेवाले वृक्ष,
जले हुए वृक्ष, बड,पीपल;
कैथ, अगस्तिवृक्ष, सहौंजना
वृक्ष, ताडवृक्ष, अमलीवृक्ष ये वृक्ष
अत्यंत निंदित कहे हैं घर के आगे नहीं लाने चाहिये ॥ ५४ ॥
पितृवत्स्वाग्रजं गेहं पश्चिमे
दक्षिणेऽपिवा ॥
गृह्यपादा गृहस्तंभाः समाः शस्ताश्च
न समाः ॥ ५५॥
पिता का तथा बडे भाई का घर अपने घर से
पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में कराना योग्य है घर के पाद और स्तंभ समान होने चाहियें
ऊँचे नीचे नहीं होने चाहियें ॥ ५५॥
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं
कुड्योत्सेधं यथारुचि ।
गृहोपरि गृहदीनामेवं सर्वत्र
चिंतयेत् ॥ ५६ ॥
भीतों की उंचाई ज्यादै ऊँची नहीं और
ज्यादै नीची नहीं करनी सुंदर करनी और घर के ऊपर उतनी ही ऊंची भीति उसी जगह द्वार
आदि नहीं करने ।। ५६ ।।
गृहादीनां गृहे स्राव्यं क्रमशो
विविधं स्मृतम् ।
पंचालमानं वैदेहं कौरवं चैव
कन्यकाम् ॥ ५७ ॥
घर आदिकों में जल गिरने के पतनाल
अनेक विधि से करने शुभ हैं और पंचाल, वैदेह,
कुरु, कान्यकुब्ज़ इन देशों का मान हस्तादिक
कहा हुआ परिमाण ठीक है ॥ ५७ ॥
मागधं शूरसेनं च वंगमेवं क्रमः
स्मृतः ॥
तं चतुर्भागविस्तारं संशोधय
तदुच्यते ॥ ५८ ॥
मागध, शूरसेन, बंगाला इनके मान से अपने (मध्यदेश का) मान विस्तार
चौगुना शुभ है ।। ५८ ।।
पंचालमानमतुलमुत्तरोत्तरवृद्धितः ॥
वैदेहादीनि शेषाणि मानानि
स्युर्यथाक्रमात् ॥ ५९ ॥
पंचाल देश ( पंजाब ) का मान ठीक
अन्य देशों के मान से उत्तरोत्तर बढाकर मान ( तोलादिक ) लना चाहिये ।। ५९ ।।
पंचालमानं सर्वेषाँ साधारणमतः परम्
॥
अवंतिमानं विप्राणां गांधारं
क्षत्रियस्य च ॥ ६० ॥
पांचालदेश का मान साधारणता से सभी
देशों में मानना योग्य है और अवंती (उज्जैन ) का मान ब्राह्मणों को शुभ है
क्षत्रिय को गांधार देश का ॥ । ६० ॥ ।
कौजन्यमानं वैश्यानां विप्रादीनां
यथोत्तरम् ॥
यथोदितजलस्राव्यं
द्वित्रिभूमिवेश्मनः ॥ ६१ ॥
वैश्यों को कौजन्यदेश का मान ग्रहण
करना । ब्राह्मण आदिकों ने यथोत्तर वृद्धिभाग से परिमाण लेना जिस मकान में दो तीन
शाला होनें उसमें जल पडने का स्थान यथा योग्य करना चाहिये ।। ६१॥
उष्ट्रकुंजरशालानां ध्वजायोऽप्यथवा गजे
॥
पशुशालाश्वशालानां ध्वजायोऽप्यथवा
वृषे ॥
द्वारे शय्यासना मंत्रे ध्वजसिंह
वृषाः शुभाः॥ ६२ ॥
ऊंट हाथि आदिकों की शाला में पूर्वोक्तध्वज
आय अथवा गज- संज्ञक आय रहना शुभ है और गौआदि पशुओं की शाला तथा अश्वों की शाला में
ध्वज अथवा वृष आय शुभ है और शय्या, आसन,
मंत्र इनकी शाला के द्वार में ध्वज, सिंह, वृष ये आय शुभ कहे हैं॥
इति श्रीनारदीयसं० भाषा०
वास्तुविधानाराशिफलम् अध्यायत्रिंशत्तमः ।। ३० ।।
आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय ३१ ॥
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