कार्यपरत्व नवार्ण मंत्र
श्रीदुर्गा तंत्र यह दुर्गा का
सारसर्वस्व है । इस तन्त्र में देवीरहस्य कहा गया है,
इसे मन्त्रमहार्णव(देवी खण्ड) से लिया गया है। श्रीदुर्गा तंत्र इस
भाग ४ (३) में कार्यपरत्व नवार्ण मंत्र बतलाया गया है।
कार्यपरत्व नवार्ण मंत्र
नवार्णमंत्ररहस्यम् से आगे
(कार्यपरत्वेन नवार्णे दुर्गापाठे
वा पल्लवनिर्णयः हरगौरीतन्त्रे ) ।
ततः सप्तततीं चैव रहस्यं पल्लवं
तथा ।
चण्डीपीठे तथा होमे क्रम उक्तो
मनीषिभिः ॥२२॥
मन्त्राणां पल्लवो वासो मन्त्राणां
प्रणवः शिरः ।
शिरः पल्लवसंयुक्तो मन्त्रः कामदुघो
भवेत् ॥२३॥
वश्याकर्षणहोमेषु स्वाहान्तः
सिद्धिदायक: ।
वौषट्पल्लवसंयुक्तो मन्त्रः
पुष्ट्यादिसाधक: ॥ २४॥
हुंकारपल्लवोपेतो मारणे ब्राह्मणं
विना ।
यन्त्रभञ्जनकार्येषु सद्घोरभयनाशने.
॥२५॥
वषडंतः प्रकल्प्यस्तु
ग्रहबाधाविनाशकः ।
उच्चाटने तु सम्प्रोक्तो मन्त्र:
फट्पल्लवान्वितः ॥
नमोंतः शान्तिके पुष्टी प्रणिपाते च
कीर्तितः ॥ २६॥
(मनुमते) वषड् वश्ये फडुच्चाटे हुं
स्तम्भे खे च मारणे ।
स्वाहा तुष्ट्यै ठ: ठः पुष्ट्यै नमः
सर्वार्थसाधने ॥ २७॥
(तन्त्रान्तरे) वषड् वश्ये फडुच्चाटे
हुं द्वेषे खे च मारणे ।
ठ: स्तम्भे वौषडाकर्षे नमः
सम्पतिहेतवे ॥ २८॥
स्वाहा पुष्टिस्तथा तुष्टिरित्येते
मन्त्रपललवाः ॥ २९॥
हरगौरी तन्त्र में कार्यपकर नवार्ण
दुर्गा पाठ में पल्लवनिर्णय :
इसके बाद सप्तशती,
रहस्य तथा पल्लव चण्डी पाठ में तथा होम में क्रम विद्वानों ने कहा
है ।
मन्त्रों का पल्लव वस्त्र है तथा
प्रणव शिर है । शिर पल्लव से संयुक्त मन्त्र अभीष्ट देने वाला होता है। वश्य,
आकर्षण तथा होम में 'स्वाहा' अन्त वाला मन्त्र सिद्धिदायक होता है । वौषट् पल्लव युक्त मन्त्र
पुष्ट्यादि साधक है । हुंकार पल्लव युक्त मन्त्र ब्राह्मण के अतिरिक्त मारण में
साधक होता है । यन्त्रभञ्जन कार्यों में तथा भारी भय के नाश करने में वषड् अन्त
वाले मन्त्र का प्रयोग करना चाहिये; यह ग्रह बाधा का भी
विनाशक है । उच्चारण में फट् पल्लवान्वित मन्त्र कहा गया है । नमः अन्त वाला
मन्त्र शान्ति, पुष्टि तथा प्रणिपात में कहा गया है। (मनु के मत से) 'वषड्” वश करने
में, 'फट्” उच्चाटन में, 'हूँ! स्तम्भन में, आकर्षण में तथा मारण में;
“स्वाहा' तुष्टि में, ठ:
ठ: पुष्टि में तथा नमः सभी कार्यों के सिद्ध करने में समर्थ है । (दूसरे तन्त्र
में) वषड् वश करने में, 'फट्' उच्चाटन
में, हुँ द्वेषण तथा मारण में, ठ:
स्तम्भन में, वौषट् आकर्षण में, नमः
सम्पत्ति हेतु, तथा स्वाहा पुष्टि और तुष्टि में मन्त्रपल्लव
कहे गये हैं।
(कार्यपरत्वेन
नवार्णस्वरूपम)
वौषडाकर्षणे चादौ मन्त्रान्ते
साध्यनामकः ।
तदन्ते वौषडन्ते च जपे द्विजाय
मन्त्रवित् ॥३० ॥
मन्त्रादौ स्तम्भनं बीज मन्त्रान्ते
साध्यनाम् च ।
नामान्ते च पुनर्बीजमिति ज्ञात्वा
मर्नु जपेत् ॥ ३१ ॥
वषड् द्वन्द्वं तु वश्यादौ
न्यसेन्मन्त्रान्त एव हि ।
साध्यनाम तदन्ते च वषडन्ते
जपेत्सुधीः ॥ ३२ ॥
मारणे बीजमादौ च साध्यनाम ततः परम्
।
तदन्ते च मनुं जप्त्वा नामबीजं
क्रमात्पठेत् ॥ ३३॥
मन्त्रान्ते बीजमुच्चार्यं तदन्ते
साध्यनाम च ।
नामान्ते च पुनर्बीजं द्वन्द्वमुच्चाटने
स्मृतम् ॥३४ ॥
मन्वन्तरं तथा बीजं मन्त्रान्नामानि
निर्दिशेत् ।
स्वाहा नमः स्वधा चेति मन्त्रान्ते
च पठेत्सुधीः।
एवं ज्ञात्वा प्रयोगांश्च
सर्वक़र्माणि साधयेत् ॥ ३५॥
कार्यपरत्व नवार्ण मन्त्रस्वरूप;
मन्त्र को जानने वाला आकर्षण में प्रथम वौषट्
तदनन्तर मन्त्र उसके बाद साध्य नाम तथा अन्त में पुनः वौषट् रखकर जप करे । मन्त्र
के आदि में स्तम्भनार्थक बीज, मन्त्र के
अन्त में साध्य का नाम, नाम के अन्त में पुनः बीज इसे जानकर
मन्त्र का जप करना चाहिये । वश्यादि कर्म में दो “वषट्'
मन्त्र के आदि तथा मन्त्र के अन्त में रखना चाहिये। उसके अन्त में
साध्य का नाम अन्त में 'वषट्' इस
प्रकार मन्त्र का जप करे । मारण के आदि में बीज, उसके बाद
साध्य नाम उसके अन्त में मन्त्र का जप कर नाम बीज को क्रम से पढ़े । मन्त्र के
अन्त में बीज का उच्चारण करके उसके अन्त में साध्य का नाम, नाम
के अन्त में पुनः दो बीज उच्चाटन में कहा गया है । मन्त्र के बाद बीजमन्त्र से
नामों का निर्देश करे । स्वाहा, नमः, स्वधा
इन्हें मन्त्र के अन्त में सुधी पढ़े । इस प्रकार प्रयोगों को जानकर सब कर्मों को
सिद्ध करे ।
उपरोक्त मन्त्रों के स्वरूप :
“वषट् ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै
विच्चे अमुकनामानं वषट् में वश्यं कुरुकुरु स्वाहा” इति
वश्यम् । “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदत्तं फट्
उच्चाटनं कुरुकुरु स्वाहा”! इत्युच्चाटनम् । “क्लीं क्लीं ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदत्तं क्लीं कलीं
मोहनं कुरुकुरु क्लीं क्लीं स्वाहा” इति मोहनम् । “ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदत्तं रं रं खेखे मारयमारय रं रं
शीघ्र भस्मी कुरुकुरु स्वाहा” इति मारणम् । “ॐ ठं ठं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदत्तं ह्रीं वाचं मुखं पदं
स्तंभय स्तंभय ह्रीं जिह्वांकीलयकीलय ह्रीं बुद्धि विनाशय विनाशय ह्रीं ॐ ठं ठं
स्वाहा” इति स्तम्भनम् । “ॐ ऐं ह्रीं
क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदत्तं यं यं शीघ्रमाकर्षयाकर्षय स्वाहा” इत्याकर्षणम् ।
(कार्यपरत्वेन जपसंख्या)
मारणे दशलक्षं च मोहने द्वाद्वशं
तथा ।
उच्चाटने चतुर्विशद्वश्ये कोटि जपेद्
बुध: ॥ ३६॥
स्तम्भने षोडशं प्रोक्तं विद्वेषे च
त्रयोदशम् ।
एतद्राज्ञां प्रकर्तव्यं वैश्येष्वर्द्धं
निगद्यते ॥ ३७॥
ब्राह्मणे द्विगुणं देवि
शुद्राणामर्द्धकार्द्धकम् ।
स्त्रीणां हि द्विगुणं प्रोक्तं यतः
सा शक्तिरूपिणीं ॥ ३८॥
बुद्धिमान मनुष्य मारण में दश लाख,
मोहन में बारह लाख, उच्चाटन में चौबीस लाख,
वशीकरण में एक करोड़ जप करे । क्षत्रियों के स्तम्भन में सोलह लाख,
विद्वेषण में तेरह लाख जप करना चाहिये; वैश्य
के लिये इसका आधा जप कहा गया है । ब्राह्मण में इसका दूना तथा शूद्रों में एक
चौथाई तथा स्त्रियों में दूना क्योंकि वह शक्तिरूपिणी हैं ।
मारणं वर्जितं स्त्रीषु यतश्चा यानि
कारयेत् ।
स्त्रीषु च मारणं मोहात्कर्तुर्मृत्युर्न्न
संशयः ॥ ३९ ॥
स्त्रियों में मारण वर्जित है इसलिए
उनमें अन्य कर्म कराये । जो मोह वश स्त्रियों में मारण करता है उसकी निःसंशय
मृत्यु होती है ।
(कार्यपरत्वेन दिङ्निर्णयः)
मारणे स्तम्भने वश्ये उच्चाटनविधी
तथा ।
दक्षिणस्यां दिशि मुखं मोहने
पश्चिमे मुखम् ॥ ४० ॥
विद्वेषे चोत्तरमुखमासनं श्रृणु वल्लभे
।
मारण, स्तम्भन, वशीकरण तथा उच्चाटन विधि में दक्षिण दिशा
की ओर मुख, मोहन में पश्चिम दिशा की ओर मुख, विद्वेषण में उत्तर मुख करना चाहिये ।
(कार्यपरत्वेनासननिर्णय:)
मारणे कम्बलं कृष्णं कृष्णाम्बरधरः
स्वयम् ॥ ४१ ॥
मोहने चासनं पीतं पीतवस्त्रधरो
बुधः।
रक्त चोच्चाटने प्रोक्त
रक्तवस्त्रविभूषित: ॥ ४२ ॥
वश्ये श्वेतं पूर्ववच्च कर्बुरं
स्तम्भने तया ।
विद्वेषे चासनं धूम्रं श्रृणु
बद्धासनं प्रिये ॥ ४३ ।।
मारण में काला कम्बल तथा काला
परिधान,
मोहन में पीला आसन तथा पीला परिधान, उच्चाटन
में लाल आसन तथा लाल परिधान, वशीकरण में सफेद आसन तथा सफेद
परिधान, स्तम्भन में चितकबरा आसन तथा चितकबरा परिधान,
विद्वेषण में धूमिल आसन तथा धूमिल परिधान होना चाहिये ।
(कार्यपरत्वेन बद्धासनर्निर्णय:)
मारणे वीरवत्तिष्ठेन्मोहने
कटिनम्रकम् ।
उच्चाटने त्रिकोणं वै वश्ये
चैकोर्धपादकः ॥ ४४ ॥
कमलं स्तम्भने तिष्ठेद्विद्देषे पृष्ठपातकः
।
एतद्वद्धासनं प्रोक्तं प्रयोगाणां
विधिं श्रुणु ॥४५॥
मारण में वीरासन,
मोहन में कमर को झुकाकर, उच्चाटन में त्रिकोण
तथा वशीकरण में एकोर्धपादक, स्तंभन में कमल, विद्वेषण में पृष्ठपातक आसन सिद्धिदायक होते हैं । ये बद्धासन कहे गये हैं
। अब प्रयोगों की विधि सुनो ।
आगे जारी.....
शेष आगे जारी.....श्रीदुर्गा तंत्र नवार्णमंत्र षट्कर्म भाग ४ (४) ।
0 Comments