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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
अन्नपूर्णाकवच
यह परम पुण्य ऐश्वर्यदायक
त्रैलोक्यरक्षण नामक अन्नपूर्णाकवच है। इस कवच को पढ़ने से मनुष्य पूजा का फल
प्राप्त करता है। उसके मुख में वाणी का निवास होता है। इसके पढ़ने और धारण करने से
मनुष्य तीनों लोकों के ऐश्वर्य का भागी हो जाता है।
त्रैलोक्यरक्षण अन्नपूर्णाकवचम्
देव्युवाच ।
भवता त्वन्नपूर्णाया याया विद्या:
सुदुर्ल्लभाः।
कृपया कथिता: सर्वा: श्रुताश्चाधिगता
मया ॥१॥
सांप्रतं श्रोतुमिच्छामि कवचं
मन्त्रविग्रहम् ।
देवी बोली : अन्नपूर्णा की जो जो
विद्यायें अत्यन्त दुर्लभ हैं उन्हें आपने मुझे बतला दिया। मैंने भी उन्हें ग्रहण
कर लिया। इस समय मैं कवच के मन्त्र को सुनना चाहती हूँ।
ईश्वर उवाच ।।
श्रृणु पार्वति वक्ष्यामि
सावधानावधारय ॥२ ॥
ब्रह्मविद्यास्वरूपं च
महदैश्वर्यदायकम् ।
पठनाद्धारणान्मर्त्यस्त्रैलोक्यैश्वर्यभाग्भवेत्
॥३ ॥
ईश्वर बोले : हे पार्वति,
तुम सावधान होकर सुनो ! ब्रह्मविद्या का स्वरूप बड़ा ही ऐश्वर्यदायक
है। इसके पढ़ने और धारण करने से मनुष्य तीनों लोकों के ऐश्वर्य का भागी हो जाता
है।
त्रैलोक्यरक्षणस्यास्य कवचस्य ऋषि:
शिवः।
छन्दो विराट देवता स्यादन्नपूर्णा
समृद्धिदा ॥४ ॥
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोग:
प्रकीर्तितः ।
ह्रीं नमो भगवत्यन्ते माहेश्वरिपदं
ततः ॥ ५ ॥
अन्नपूर्णे ततः स्वाहा चैषा
सप्तदशाक्षरी ।
पातु मामन्नपूर्णा सा या ख्याता
भुवनत्रये ॥ ६ ॥
विमायाप्रणवाद्यैषा तथा
सप्तदशाक्षरी ।
यात्वन्नपूर्णा सर्वाङ्गे रत्नकुम्भान्नपात्रदा
॥ ७ ॥
श्रीबीजाद्या तथैवैषा
द्विरन्ध्रार्णा तथा मुखम् ।
प्रणवाद्या भ्रुवौ पातु कण्ठं
वाग्बीजपूर्विका ॥ ८ ॥
कामबीजादिका चैषा हृदयं तु महेश्वरी
।
ऐं श्रीं ह्रीं च नमोन्ते च भगवतीपदं
ततः ॥ ९॥
माहेश्वरी पदं चान्नपूर्णे स्वाहेति
पातु मे ।
नाभिमेकार्णविंशर्णा
पायान्माहेश्वरी सदा ॥१०।।
तारं माया रमा कामः षोडशार्णा ततः
परम् ।
शिरःस्था सर्वदा पातु
विंशत्यर्णात्मिका परा ॥११॥
अन्नपूर्णा महाविद्या ह्रीं पातु
भुवनेश्वरी ।
शिर: श्रीं ह्रीं तथा क्लीं च
त्रिपुटा पातु मे गुदम् ॥ १२ ॥
षट्दीर्घभाजा बीजेन षडङ्गानि
पुनन्तु माम् ।
इन्द्रो मां पातु पूर्वे च वह्निकोणेऽनलोऽवतु
॥१३॥
यमो मां दक्षिणे पातु नैर्ऋत्यां निर्ऋतिश्च
माम् ।
पश्चिमें वरुण: पातु वायव्यां पवनोऽवतु
॥ १४ ॥
कुबेरश्चोत्तरे पातु चैशान्यां शङ्करोऽवतु
।
ऊर्ध्वाधः पातु सततं ब्रह्मानन्तो
यथाक्रमात् ॥१५॥
पान्तु वज्राद्यायुधानि दशदिक्षु
यथाक्रमात् ।
इति ते कथितं पुण्यं
त्रैलोक्यरक्षणं परम् ॥१६॥
यद्धृत्वा पठनाददेवा:
सर्वैश्वर्यमवाप्नुयु: ।
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च धारणात्पठनादयतः
॥१७ ॥
सृजत्यवति हन्त्येव कल्पेकल्पे
पृथक्पृथक ।
पुष्पाञ्जल्यष्टकं देव्यै मूलेनैव
समर्पयेत् ॥१८ ॥
अन्नपूर्णा कवच फलश्रुति
कवचस्यास्य पठनात्पूजाया:
फलमाप्नुयात् ।
वाणी वक्त्रे वसेत्तस्य सत्यं सत्यं
न संशय: ॥१६ ॥
मैंने यह परम पुण्य त्रैलोक्यरक्षण
नामक कवच तुमको बताया है। इस कवच को पढ़ने से मनुष्य पूजा का फल प्राप्त करता है।
उसके मुख में वाणी का निवास होता है। मैं सत्य कहता हूँ इसमें तनिक भी संशय नहीं
है।
अष्टोत्तरशतं चास्य पुरश्चर्याविधि:
स्मृत: ।
भूर्जे विलिख्य गुटिकां स्वर्णस्थां
धारयेद्यदि ॥२० ॥
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोपि
पुण्यवतां वर: ।
ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि
तद्गात्रं प्राप्य पार्वति ।
माल्यानि कुसुमान्येव सुखदानि
भवन्ति हि ॥२१॥
एक सौ आठ इसकी पुरश्चरणविधि है। यदि
मनुष्य भोजपत्र पर इसे लिखकर सोने की तावीज में रख कर कण्ठ या बायें हाथ में धारण
करें तो ब्रह्मास्र आदि अस्र उसके शरीर का स्पर्श करके माला के फूलों की तरह
सुखदायी हो जाते हैं।
इति भैरवतन्त्रेदन्नपूर्णाकवर्च समाप्तम् ॥
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