दत्तात्रेयतन्त्रम् चतुर्थ पटल

दत्तात्रेयतन्त्रम् चतुर्थ पटल

श्रीदत्तात्रेयतन्त्रम् तृतीय पटल में आपने मोहन प्रयोग पढ़ा, अब चतुर्थ पटल में स्तम्भन (स्थानस्तम्भन, बुद्धिस्तम्भन, शस्त्रस्तम्भन, सेनास्तंभन, सेनापलायन, मनुष्यस्तम्भन, गोमहिष्यादिपशुस्तम्भन, मेघस्तम्भन, निद्रास्तम्भन, नौकास्तम्भन, गर्भस्तम्भन) का वर्णन है ।

दत्तात्रेयतन्त्रम् चतुर्थ पटल

दत्तात्रेयतन्त्र पटल ४  

श्रीदत्तात्रेयतन्त्रम् चतुर्थ: पटलः

दत्तात्रेयतन्त्र चौथा पटल

श्रीदत्तात्रेयतन्त्रम्

अथ चतुर्थ पटल

स्तम्भन

ईश्वर उवाच

अथात: संप्रवक्ष्यामि प्रयोगं स्तम्भनाभिधम्‌ ।

यस्य साधनमात्रेण सिद्धि: करतले भवेत्‌ ॥ १ ॥

शिवजी बोले-दत्तात्रेयजी ! अब स्तम्भनप्रयोग कहता हूं जिसके साधन से मनुष्य की हथेली में सिद्धि हो जाती है।। १ ॥

तत्रादौ संप्रवक्ष्यामि अग्निस्तम्भनमुत्तमम्‌ ।

वसां गृहीत्वा माण्डूकी कौमारीरसपेषणम्‌ ।। २ ।॥।

मण्डूकस्य वसा ग्राह्म कर्पूरेणैव संयुता ।

लेषमात्रे शरीराणामग्निस्तम्भ: प्रजायते ।। ३ ।।

प्रथम श्रेष्ठ अग्तिस्तंभन को कहूँगा- मेढक की चर्बी को लेकर घीकुवार के रस में पीसकर अथवा मेढक की चर्बी में वच और कपूर को पीसकर शरीर में लेप करे तो शरीर अग्नि से नहीं जलेगा ॥ २-३ ।।

कुमारी रसयुक्तेन तैलेनाभ्यंगमाचरेत्‌ ।

अग्निश्च न दहेदङ्गमग्निस्तम्भः प्रजायते ।। ४ ॥

घीकुवार के रस में तेल मिलाय शरीर में लगाने से शरीर आग से नहीं जलता है ।

कदलीरसमादाय कुमारी रसपेषणम्‌ ।

अर्कदुग्धसमायुक्तमग्निस्तम्भ: प्रजायत ॥ ५ ॥

केले के रस में घीकुवार का रस और आक का दूध मिलाकर लेप करने से आग से नहीं जलता है ।। ५ ।।

कुमारी रसलेपेन किञ्चिद्वस्तु न दह्मते ।

अग्निस्तस्भनयोगोऽयं नान्यथा मम भाषितम्‌ ॥ ६ ॥।

घीकुवार के रस के लेप करने से कोई वस्तु आग से नहीं जलती है, अग्नि स्तम्भन के योग मेरे कहे सत्य जानो ।

पिप्पलीं मरिचं शुंठीं चर्वयित्वा ततः पुनः ।

दीप्तांगारं नरो भक्षेन्न ततो दह्मते क्वचित्‌ ॥ ७॥

पीपल, गोल मिर्च, और सोंठ को चाबकर जलते हुए अंगारे को मुख में रखने से मुख नहीं जलता है ॥ ७ ॥

आज्यं शर्करया पीत्वा चर्वयंस्तगरं तथा।

तप्तलोहं लिहेत्पश्चाद्वक्त्रं न दह्मयते क्वचित्‌ ॥

अग्निस्तम्भनयोगोऽयं नान्यथा मम भाषितम्‌ ॥ ८ ॥

तगर को चाबे ऊपर से घीं और शक्कर पिये तो जलते हुए लोहे को मुख में रखने से मुख नहीं जलेगा, इस अग्निस्तंभन योग को मेरा कहा सत्य जानो ॥८॥

मंत्र :- ॐ नमो अग्निरूपाय मम शरीरस्तंभनं कुरु कुरु स्वाहा ।

अयुतजपात्‌ सिद्धि: ॥

उपरोक्त मन्त्र अग्निस्तंभन का है १०००० जपने से यह सिद्ध हो जाता है।

स्थानस्तम्भन

नृकपाले मृदं क्षिप्त्वा श्वेतगुंजाश्च निर्वपेत्‌ ।

गोदुग्घेन तु संसिच्य कुर्य्याद्गुंजालतां शुभाम्‌ ॥ ९ ॥।

यस्यांगे तल्लता क्षिप्ता स्थानस्तंभः प्रजायते ।

यस्य नाम्ना च लवणेः श्मशानाग्नो हुनेत्तथा ॥१०॥

ओं नमो दिगम्बराय अमुकस्यासनं स्तंभय २ फट् स्वाहा ।

अस्य मंत्रस्य लक्षजपात्सिद्धिर्भवति ॥११॥

मनुष्य की खोपडी में मट्टी भरकर सफेद घुंघची के बीज बोवे और गौ के दूध से सीचे उसमें जो घुंघुची की लता उत्पन्न हो उस लता को जिसके अंग पर डाले उसका आसन स्तंभित होता है । जिसका नाम लेकर श्मशान की आग में लवण के साथ मन्त्र पढकर उस लता का हवन करे उसका आसन स्तंभित हो जाता है। मन्त्र मूल में स्पष्ट लिखा है, वह एक लक्ष जपने से सिद्ध होता है ।। ९-११॥

बुद्धिस्तम्भन

उलूकस्य कपेर्वाषि तांबूले यस्य दापयेत्‌ ।

विष्ठां प्रयत्नतस्तस्य बुद्धिस्तंभ: प्रजायते ॥ १२ ॥

भृगराजो ह्मपामार्ग: सिद्धार्थ: सहदेविका ।

कोलं वचा च श्वेतार्कस्सत्त्वमेषां समाहरेत्‌ ॥ १३ ॥।

लोहपात्रे विनिक्षिप्य त्रिदिनं मर्दयेत्सुधी: ।

ललाटे तिलकं कुर्याद्‌ दुष्टबुद्धिः प्रणश्यति ॥॥ १४ ॥

मंत्र:- ॐ नमो भगवते अमुकस्य स्तंभनं कुरु-कुरु फट्‌ स्वाहा ।

लक्षेकजपात्सिद्धि: ॥ १५ ॥

उल्लू पक्षी की और बन्दर की विष्ठा को पान में रखकर खिलाने से बुद्धि स्तंभित होती है । भांगरा, अपामार्ग, सरसों, सहदेवी, कंकोली, वच और सफेद आक के सत को लेकर लोहे के पात्र में डाल तीन दिन तक मन्त्र पढता हुआ बुद्धिमान्‌ पुरुष मर्दन करे चौथे दिन शत्रु के नाम से मस्तक पर तिलक लगाय शत्रु के आगे जाने से शत्रु की बुद्धि नष्ट हो जाती है । मन्त्र मूल में लिखा है । एक लाख जपने से सिद्ध होता है।। १२-१५ ।।

शस्त्रस्तम्भन

पुष्यार्के तु समुद्धृत्य विष्णुक्रान्तां समूलिकाम्‌ ।

वक्त्रे  शिरसि धार्य तच्छस्त्रस्तम्भ: प्रजायते ॥ १६ ॥

रविवार को पुष्य नक्षत्र होने से विष्णुक्नाता को जड समेत उखाडकर मुख में अथवा शिर में धारण करने से शस्त्र स्तंभित होता है ।। १६ ॥।

पुष्यार्के तु समादाय अपामार्गस्य मूलकम्‌ ।

घृष्ट्वा लिपेच्छरीरे स्वे शस्त्रस्तम्भः प्रजायते ॥ १७ ॥

रविवार को पुष्य नक्षत्र में आपामार्ग की जड लाकर घिसकर अपने शरीर में लगाने से शस्त्र का असर शरीर पर नहीं होता है ।। १७ ॥।

करे सौदर्शनं मूल बद्ध्वा तालस्य वै मुखै ।

केतक्या मस्तके क्षिप्तं खड्गस्तम्भः प्रजायते ।। १८ ।।

हाथ में सुदर्शन की जड, मुख में ताड की जड और मस्तक में केतकी की जड़ धारण करने से उस पर खङ्ग असर नहीं करता है।। १८ ।।

एतानि त्रीणि मूलानि चूर्णितानि घृतं पिबेत्‌ ।

आयाताऽनेकशस्त्राणां समूहं स निवारयेत्‌ ॥ १९ ॥

सुदर्शन की जड, ताड की जड और केतकी की जड का चूर्ण कर घी में मिला कर मन्त्र से अभिमंत्रित कर पीने से चलते हुए अनेक प्रकार शस्त्रों को वह निवारण करता है अर्थात्‌ कोई शस्त्र उसके शरीर में नहीं लगता है ।।

खर्जूरी मुखमध्यस्था करे बद्ध्वा च केतकी ।

भुजदण्डस्थितं चार्क सर्वशस्त्रनिवारणम्‌ ॥ २० ॥

खजूर को मुख में रख हाथ में केतकी और भुजदंड में आक को बाँधने से सब शस्त्रों का निवारण होता है ॥ २० ।।

गृहीत्वा रविवारे च बिल्वपत्रं सुकोमलम्‌ ।

पिष्ट्वा विषसमं चैव शस्त्रस्तम्भनलेपनम्‌ ।। २१ ।।

रविवार के दिन कोमल बेल के पत्तों को लावे और विष मिलाकर पीस लेप करने से शस्त्र का स्तम्भन होता है ।।

पुष्पार्के श्वेतगुञ्जाया मूलमुद्धृत्य धारयेत्‌ ।

हस्ते शस्त्रभयं नास्ति संगरे च कदाचन ।। २२ ॥

मन्त्र:-ओं नमो भगवते महाबलपराक्रमाय शत्रूणां शस्त्रस्तम्भनं कुरु २ स्वाहा ।

लक्षेकजपात्सिद्धि: ।

रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र में सफेद घुंघुची की जड उखाडकर धारण करने से संग्राम में शस्त्र का भय नहीं रहता है। ओं नमो भगवते 'स्वाहा' तक स्तम्भन मन्त्र है एक लाख जपने से सिद्ध होता है ॥२२ ॥  

सेनास्तम्भन

चिताङ्गारेण विलिखेन्मन्त्रं पात्रे च मृन्मये ।

रिपुनामयुतं तच्च जलकुण्डे बिनिक्षिपेत्‌ ॥ २३ ॥

चिता के अंगारे से मट्टी के पात्र में मन्त्र पढ़कर शत्रु का नाम लिख कुंड में डालने से सेनास्तम्भन होता है । २३ ।।

मन्त्रभावे गृहीत्वा तु श्वेतगुंजां विधानतः ।

निखनेत्तु श्मशाने च पाषाणैस्तु पिधापयेत्‌ ।। २४॥

मंत्र पढकर सफेद घुंघुची को लाकर श्मशान में गाडे, ऊपर से पत्थर रख दे ॥। २४ । 

अष्टौ च योगिनीः पूज्य ऐन्द्रीं माहेश्वरीं तथा ।

वाराहीं नार्रासहीं च वैष्णबीं च कुमारिकाम्‌ ॥ २५ ॥

लक्ष्मीं ब्राह्मीं च सम्पूज्य गणेशं वटुकं तथा ।

क्षेत्रपालं तथा पूज्य सेनास्तम्भो भविष्यति ॥ २६ ॥

पृथक्‌ पृथक्‌ बलि द्यात्तस्य नामाभिभागत:।

मद्यं मांस तथा पुष्पं धूपं दीपं बलिक्रिया ॥ २७ ।

१ ऐन्द्री २ माहेश्वरी ३ वाराही ४ नारसिंही ५ वैष्णवी ६ कुमारिका ७ लक्ष्मी ८ ब्राह्मी आठों योगिनी का एवं गणेश, वटुक और क्षेत्रपाल का पूजन करके पृथक २ मद्य, मांस, पुष्प, धुप, दीप की मंत्रपूर्वक बलि दे तो सेना का स्तम्भन हो जाता है ॥ २५-२७ ।

ओं नमः कालरात्रि शूलधारिणि मम शत्रुसेना ।

स्तंभनं कुरु २ स्वाहा । लक्षजपात्सिद्धि: ॥।

उपरोक्त सेनास्तम्भन का मंत्र है, एक लाख जपने से मंत्र सिद्ध होता है ।

सेनापलायन

भौमवारे गृहीत्वा तु काकोलूकस्य पक्षकौ ।

भूर्जपत्रे लिखेन्मंत्रं तस्य नामसमन्वितम्‌ ॥ २८ ॥

गोरोचनैर्गले बद्ध्वा काकोलूकस्य पक्षकौ ।

सेनानीसम्मुखं गच्छेन्नान्यथा शंकरोदितम्‌ ॥ २९ ॥

मंगलवार के दिन कौआ और उल्लू के परों से भोजपत्र पर मंत्र लिख शत्रु के नाम से अभिमंत्रित कर कौआ और उल्लू के पर गले में बांध सेना के सम्मुख जाय तो निश्चय सेना भाग जाती है ॥ २८- २९ ॥

शब्दमात्रे सैन्यमध्ये पलायन्ते सुनिश्चितम्‌ ।

राजा प्रजा गजाद्याश्च नान्यथा शंकरोदितम्‌ ।। ३० ॥

उपरोक्त प्रयोग का अनुष्ठान करके सेना में जाय ललकारने से राजा प्रजा और हाथी आदि निश्चय भाग जाते हैं ।।

ओं नमो भयंकराय खड्गधारिणे मम शत्रुसैन्य-

पलायन कुरु २ स्वाहा । लक्षेकजपात्सिद्धि: ॥।

उपरोक्त सेनापलायन का मंत्र एक लाख जपने से सिद्ध होता है ॥

मनुष्यस्तभन

ऋतुमत्या योनिवस्त्रे लिखेद्गोरोचनैनर्रम्‌ ।

तन्नाम्ना प्रक्षिपेत्कुंभ नरस्तंभः प्रजायते ॥। ३१ ॥

रजस्वला स्त्री के योनि के वस्त्र पर गोरोचन से मनुष्य का चित्र बनाय उसके नाम से अभिमंत्रित कर घडे में बंद कर देने से मनुष्य का स्तंभन हो जाता है ।। ३१ ॥

गोमहिष्यादिपशुस्तम्भन

उष्ट्रस्यास्थि चतुर्द्दिक्षु निखनेद्‌ भूतले ध्रुवम्‌ ।

तदा धेनुमहिष्यादिपशुस्तम्भः प्रजायतें ॥ ३२ ।॥।

ऊंट की हड्डी को जिस पशु के स्थान में चारों ओर गाड दे तो भैंस आदि पशु का स्तंभन हो जाता है ।। ३२ ॥

मेघस्तंभन

इष्टकासम्पुटं कृत्वा तस्मिन्मेघं समालिखेत्‌ ।

श्मशानभस्सना स्थाप्यं भूमौ स्तम्भ प्रजायते ॥ ३३ ॥

दो ईंटों को संपुट बनाय बीच में चिता की भस्म से मेघ लिखकर भूमि में गाड देने से मेघ स्तम्भित होता है ॥

निद्रास्तम्भन

मधुना बृहतीमूलैरञ्जयेल्लोचनद्वयम्‌ ।

निद्रास्तम्भो भवेत्तस्य नान्यथा मम भाषितम्‌ ॥ ३४ ॥।

कटेरी की जड को शहद में घिसकर दोनों नेत्रों में लगाने से निद्रा स्तम्भित हो जाती है ।। ३४ ॥

नौकास्तम्भन

भरण्यां क्षीरकाष्ठस्य कील पञ्चाङ्गुल खनेत्‌ ।

नौकामध्ये तदा नौकास्तम्भनं जायते ध्रुवम्‌ ॥ ३५ ।।

भरणी नक्षत्र में गूलर की लकडी की पांच अंगुल की कील बनाय नौका की पेंदी में गाडने से नौका स्तम्भित हो जाती है । ३५ ॥

गर्भस्तम्भन

पुष्यार्कण तु गृह्ह्लीयात्कृष्णधत्तूरमूलकम्‌ ।

कट्यां बद्ध्वा गर्भिणीनां गर्भस्तम्भ: प्रजायते ॥ ३६ ॥।

रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र में काले धतूरे की जड को लाय कमर में बांधने से गर्भिणी स्त्री का गर्भ नहीं गिरता है ।। ३६ ।।

तन्दुलीमूलक चैव देयं तंदुलवारिणा ।

धत्तुरमूलचर्णन्तु योनिस्थं गर्भधारणम्‌ ।। ३७ ॥।

चौलाई की जड को चावलों के पानी के साथ पीने से तथा घतूरे की जड़ का चूर्ण पोटली में रख योनि में धरने से गर्भ नहीं गिरता है ।। ३७ ।।

ललना शार्करा पाठा कुन्दश्च मधुनान्वितः ।

भक्षितो वारयत्थेव पतन्तं गर्भमञ्जसा ।। ३८ ।।

केशर, मिश्री, पाठा और कुंद को शहद के साथ खाने से गिरता हुआ गर्भ रुक जाता है ॥ ३८ ॥

कुलाल पाणिसंलग्नः पंकः क्षौद्रसमन्वित: ।

अजाक्षीरेण संपीतो गर्भस्तम्भं॑ करोत्यलम्‌ ।। ३९ ॥।

कुम्हार के हाथ में लगी हुई मट्टी में शहद  मिलाय बकरी के दूध के साथ पीने से गर्भ नहीं गिरता है ॥ ३९ ।।

ओं नमो भगवते महारौद्राय गर्भस्तम्भनं कुरु

कुरु स्वाहा । लक्षजपात्सिद्धि: ।

उपरोक्त मन्त्र गर्भस्तंभन का है, एक लाख जपने से सिद्ध होता है । इस मन्त्र से अभिमंत्रित करके जल पिलाने से भी गर्भ नहीं गिरता है ।

इति श्रीदत्तात्रेयतन्त्रे श्रीदत्तात्रेयेश्वरसंवादे स्तंभतकथनं नाम चतुर्थ: पटल: ॥

आगे जारी........ श्रीदत्तात्रेयतन्त्रम् पटल ५ ॥

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