पूजन विधि, ज्योतिष, स्तोत्र संग्रह, व्रत कथाएँ, मुहूर्त, पुजन सामाग्री आदि

माहेश्वरतन्त्र पटल ६

माहेश्वरतन्त्र पटल ६    

माहेश्वरतन्त्र के पटल ६ में अज्ञान के आवरण से सृष्टि कथन, अज्ञान के प्रकार, जीव की सृष्टि, बुद्धि की वृत्तियाँ, ब्रह्म में अज्ञान के आवरण के प्रकार, अक्षर ब्रह्म विचार, अज्ञान की शक्तियाँ और सृष्टि विचार तथा सृष्टि क्रम का विशेष वर्णन है।

माहेश्वरतन्त्र पटल ६

माहेश्वरतन्त्र पटल ६  

Maheshvar tantra Patal 6

माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल ६   

नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्

माहेश्वरतन्त्र षष्ठ पटल

अथ षष्ठं पटलम्

श्रीदेव्युवाच-

देवदेव कृपासिन्धो दीनबन्धो जगत्पते ।

आपीय भवतः सूक्ति महानन्दः प्रवर्तते ।। १ ।

श्रीदेवी पार्वती ने कहा—हे देवों के देव, कृपा के सिन्धु, हे दीनों के बन्धु, हे जगत् के स्वामी आपके मुख से निकली शुभ वाणी के श्रवण से महान् आनन्द होता है ॥१॥

अज्ञानान्निखिलं जात ब्रह्मादिस्थावरान्तकम् ।

इति यद्भवता प्रोक्तं सङ्क्षेपेण महेश्वर ! ॥ २ ॥

प्रपञ्चय पुनः सर्व सृष्टिसंहारभेदतः ।

वस्तुतः अज्ञान से ही समस्त ब्रह्मा आदि देवगण और स्थावर एवं जङ्गात्मक संसार की स्थिति होती है ।' अत: हे महेश्वर ! यह जो आपने संक्षेप से कहा है उस सभी को आप पुनः १. सृष्टि और २. संहार भेद से कहें- ॥ २-३ ॥

शिव उवाच -

शृणु पार्वति वक्ष्यामि यत्त्वं पृच्छसि तत्त्वतः ।

तस्य श्रवणमात्रेण परमात्मा प्रकाशते ॥ ३ ॥

भगवान शंकर ने कहा--हे पार्वती, सुनो-जो तुम तत्त्वतः पूछती हो उसे मैं कहूँगा । उसके श्रवण मात्र से ही परमात्मा प्रकाशित हो जाते हैं ॥ ३ ॥

अज्ञानं यन्मया प्रोक्तं न सन्नासत्तदुच्यते ।

सच्चेन्मुक्तिसमुच्छेदों ह्यसच्चेद्भासते कथम् ॥। ४ ॥

जो हमने (ब्रह्म में) अज्ञान (के आवरण से सृष्टि) को कहा है 'वह सत् नहीं होता' - इसे ही अब मैं कहता हूँ । यदि वह अज्ञान से अनावृत [केवल ब्रह्म का ज्ञान ] सत् होता है तो वह साधक को मुक्ति दिलाता है और बन्धन का समुच्छेद होता है तो फिर कैसे वह भासित होता है ॥ ४ ॥

अनिर्वाच्यमिद तस्मात् त्रिगुणोत्पादकं तथा ।

ज्ञाननाश्यं भावरूपं मूलाज्ञानं विदुः प्रिये ॥ ५ ॥

इसलिए यह अनिर्वाच्य होता है क्योंकि वह त्रिगुण [सत्व, रज एवं तम ] से उत्पन्न है और ज्ञान का नाशक एवं भाव रूप है । मूल रूप से, अव हे प्रिये ! 'अज्ञान' को जानो ।। ५ ।।

शशशृङ्गनरशृङ्गवन्ध्यापुत्रख पुष्पवत् ।

अज्ञानं कथितं सद्भिः कथं सदिति चोच्यते ॥ ६ ॥

खरगोश की सींग, मानव की सींग, बांझ स्त्री को पुत्र एवं आकाश पुष्प के समान 'अज्ञान' विद्वानों के द्वारा [असत्] कहा गया है। जब वह असत् है तो फिर वह सत् कैसे कहा जाता है ? ।। ६ ।।

नासत्तु कारणत्वेन ह्युपयुञ्जीत कर्हिचित् ।

कथं सृजति ब्रह्माण्डं ब्रह्मादिस्थावरान्तकम् ।। ७ ।।

'असत्' कभी भी किसी का कारण नहीं बन सकता । तो फिर कैसे ब्रह्मादि देव और स्थावर जङ्गमात्मक ब्रह्माण्ड का वह [ ब्रह्म-अज्ञान से आवृत होकर] सृजन करता है ? ॥ ७ ॥

न शक्यस्तदभावोऽपि यस्मात्तत्त्रिगुणात्मकम् ।

श्रुतिप्रसिद्ध व्योमादिरूपेण विततं च यत् ॥ ८ ॥

उस ब्रह्म का अभाव भी नहीं हो सकता क्योंकि वह [सत्त्व, रज, तम रूप से] त्रिगुणात्मक है और क्योंकि उन्हीं का विस्तार (पृथ्वी, जल, पावक, वायु एवं) आकाशादि रूप से श्रुतियों में प्रसिद्ध है ॥ ८ ॥

सत्यवद्भासते वापि मूलाज्ञानं गिरीन्द्रजे ।

दीपार्चिषेव तिमिरं ज्ञानेन विनिवर्त्तते ।। ९ ।।

गिरीन्द्र ! (पर्वतों के राजा हिमालय की पुत्री) सत्य के समान भासित होने वाला (त्रिगुणात्मक जगत) भी मूल रूप से अज्ञान ही है । ज्ञान रूप दीप की शिखा से ही उस आज्ञानान्धकार को हटाया जा सकता है ।। ९ ॥

स्वस्वरूपावबोधो हि ज्ञानमित्युच्यते प्रिये ।

स्वस्वरूप भ्रमो देवि विकल्पो भवसंज्ञकः ।

प्रान्तात्मनस्तु शयने विकल्पो जायते महान् ॥ १० ॥

प्राप्तात्मनः समूलोऽपि नश्यते तद्वदेव हि ।

तदज्ञानं द्विधाभूतं कार्यकारणभेदतः ॥ ११ ॥

हे प्रिये ! 'स्व' स्वरूप का अवबोध ही 'ज्ञान' रूप से कहा जाता है और 'स्व' स्वरूप का भ्रम होना (ही अज्ञान है) । हे देवि! 'संसार' नामक विकल्प है । शयन में जैसे महान् भ्रान्तात्मक विकल्प उपस्थित होता है किन्तु जग जाने पर जैसे उस भ्रमात्मकता का समूल नाश हो जाता है वैसे ही कार्य और कारण के भेद से 'अज्ञान' दो प्रकार का होता है ।। १०-११ ॥

अक्षरे परमानन्दे मूलं स्यात्कारणं परम् ।

कार्यात्मकं बुद्धिभेदात् बुद्धिराभासदीपिता ।। १२ ।।

अक्षर परमानन्द (ब्रह्म) में श्रेष्ठ मूल उपाधि कारण होता है । बुद्धिभेद के कारण वह कार्यात्मक है, जो बुद्धि-आभास से दीपित है ।। १२ ।।

सूते कार्यात्मकं पिण्डं ब्रह्माण्ड कारणात्मकम् ।

ब्रह्माण्ड पिण्डयोरैक्यं प्रवदन्ति विपश्चितः ॥ १३ ॥

प्रसूत होने पर कार्यात्मक पिण्ड होता है और कारणात्मक ब्रह्माण्ड होता है । इस प्रकार विद्वानों के द्वारा ब्रह्माण्ड एवं पिण्ड का ऐक्य कहा गया है ।। १३ ।।

सरः शरावयोर्मध्ये यथार्क: प्रतिबिम्बितः ।

अक्षरः स्वावभासेन कार्यकारणसङ्गतः ॥ १४ ॥

सर (तालाब) और शराव (कटोरा) के मध्य जैसे सूर्यं प्रतिबिम्बित होता है वैसे ही कार्य एवं कारण से सङ्गत होने से अपने आभास से वह अक्षर ब्रह्म भासित होता है ॥ १४ ॥

यथोपाधिद्वयाभावे सूर्य एकः प्रतीयते ।

तथोपाधिद्वयाभावे विशुद्धः केवलोऽक्षरः ॥ १५ ॥

जैसे उपाधि-द्वय के अभाव में सूर्य एक ही प्रतीत होता है वैसे ही उपाधिद्वय [ब्रह्म और त्रिगुणात्मक जगत्] के अभाव में विशुद्ध रूप से मात्र अक्षरब्रह्म (हमें साक्षात्कार होता है) ।। १५ ।।

मूलोपाधिविशुद्धश्व सत्व प्राधान्यतः प्रिये ।

क्षुद्रोपाधिर्हि मलिनस्तमःप्राधान्यतो भवेत् ॥ १६ ॥

हे प्रिये ! सत्व गुण की प्रधानता से मूल उपाधि विशुद्ध होती है और तमोगुण की प्रधानता से क्षुद्रोपाधि मलिन होती है ।। १६ ।।

उत्कृष्टत्वाद्विशुद्धत्वात् सत्वप्राधान्यतस्तथा ।

नारायणादिकान् सूते सर्वज्ञानोपबृंहितान् ॥ १७ ॥

उत्कृष्ट एवं विशुद्ध होने से सत्व को प्रधानता के कारण सर्वज्ञ एवं उपिबृंहित नारायणादिक देवों की सृष्टि होती है।।१७।।

कार्योपाधिर्निकृष्टत्वादशुद्धत्वाच्च तामसः ।

जीवसृष्टि वितनुते सर्वेशगुणवर्जिताम् ।। १८ ।।

कार्य रूप उपाधि के निकृष्ट एवं अशुद्ध होने से तम की प्रधानता के कारण समस्त ईश (विशुद्ध) गुण से रहित जीव की सृष्टि होती है ।। १८ ।।

नारायणादिजीवन्ता सृष्टिर्मोहावधिस्थिता ।

एकमेवाद्वितीयं च ब्रह्मेति श्रुतयो जगुः ।। १९ ।।

नारायणादि देव सृष्टि से लेकर जीव सृष्टिपर्यन्त सृष्टि मोह की अवधि तक रहती है। मोहावधि के बाद 'एक ही अद्वितीय ब्रह्म की प्रतीति होती है'- जिसे श्रुतियों ने कहा है ॥ १९ ॥

बुद्धिवृत्तिस्त्रिधा यद्वज्जाग्रत्स्वप्न सुषुप्तिकाः ।

आभासात्मनि जीवाख्ये वर्तन्ते ताः पुनः पुनः ॥ २० ॥

जैसे जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति ये तीन बुद्धि की वृत्तियाँ होती हैं वैसे ही उन्हीं वृत्तियों का पुनः पुनः जीव नामक (सृष्टि) आत्मा में आभास होता है ।। २० ।।

तद्वद्ब्रह्मणि चाज्ञानं त्रिधैव परिवर्तते ।

मूलाज्ञानं लयस्थानं सुषुप्तिः परिकीर्तिता ॥ २१ ॥

वैसे ही ब्रह्म में अज्ञान तीन प्रकार से परिवर्तित होता है जो मूल-अज्ञान, लयस्थान और सुषुप्ति नाम से जाना जाता है ॥ २१ ॥

नारायणोपाधिकं यत्स्वप्नं तत्परिचक्षते ।

विष्णुपाधिमयाज्ञानं जाग्रदित्यभिधीयते ॥ २२ ॥

जो नारायणोपाधि है विद्वानों के द्वारा वह 'स्वप्न' कही गई है और जो विष्णु- उपाधि रूप अज्ञान है वह 'जाग्रत्' कहा गया है ।। २२ ।।

आदिजीवो महाजीवो विष्ण्वाख्यः परिकीर्त्तितः ।

स एव सर्वजीवाख्यः आभासात्मा परस्य तु ।। २३ ।।

आदिजीव और महाजीव विष्णु नाम से वही परब्रह्म है, जो सब जीव नाम से उसकी आत्मा में आभासित होता है॥२३॥

जाग्रत्स्थानगताज्ञानं नानारूपविजृम्भितम् ।

देवासुरमनुष्याद्यैर्गन्धर्वोरग किन्नरैः ।। २४ ।।

पशुकीटपतङ्गाद्यै विचित्रे: कर्मनिर्मितः ।

तानेतान्वासनारूढान्नानाभेदव्यवस्थितान् ॥ २५ ॥

जाग्रत स्थान गत अज्ञान नाना रूपों में जगत् में सृष्टि को प्राप्त करता है । देव, असुर, मनुष्य आदि और गन्धर्व, उरग [सर्प, नाग], किन्नर, पशु, कीड़े, पतङ्गों आदि विचित्र रूपों में वह कर्म के अनुसार निर्मित होते हैं । वे सभी (ब्रह्म की) वासना से निर्मित होने से नाना भेदों में व्यवस्थित होते हैं ।। २४-२५ ।।

नारायणेन रूपेण स्वयं पश्यति चाक्षरः ।

जाग्रत्स्वप्ने विलीयेत स्वप्नस्तु शयनं व्रजेत् ।

तत्तुरीयं लयं याते स्मृतिरत्रावशिष्यते ॥ २६ ॥

यथा जागरणे स्वप्नः स्वप्ने जागरण यथा ।

तथा वृत्तमिदं देवि यो जानाति स मुच्यते ॥ २७ ॥

वह अक्षर ब्रह्म ही स्वयं अपने को नारायण रूप से देखते हैं। जो जाग्रतस्वप्नावस्था में विलीन हो जाते हैं और स्वप्न तो शयन में परिणत हो जाता है । उस तुरीयावस्था के विलीन हो जाने पर मात्र उसकी स्मृति ही अवशिष्ट रह जाती है । जैसे जागरण की अवस्था में स्वप्न और जैसे स्वप्नावस्था में जगे रहना दृष्टिगोचर होता है (वास्तव में वह कुछ भी नहीं होता है) वैसे ही इस (जगत्) की वृत्ति को, हे देवि ! जो साधक जानता है वही मोक्ष को प्राप्त करता है ।। २६-२७ ।।

अक्षरः परमात्मायं जाग्रत्स्वप्नं प्रपश्यति ।

जीवो जाग्रति वे स्वप्ने चित् क्षरस्य परात्मनः ।

स्वप्न तज्जागरश्चापि द्वयमेतद्गतार्थकम् ॥ २८ ॥

यह अक्षर परमात्मा जाग्रत्स्वप्न को प्रकृष्ट रूप से देखते रहते हैं और परमात्माक्षर का चित् जीव स्वप्न में जागता रहता है। इस तरह स्वप्न और उसका जागरण दोनों ही इसमें गतार्थ हो जाते हैं ॥ २८ ॥

स्थूलार्थोपासत्तिकालो जागरः परिकीर्तितः ।

स्थूलं त्यक्त्वा तु सूक्ष्मार्थोपासत्तिः स्वाप्तिकी मता ।। २९ ।।

स्थूला में उपासत्ति का काल 'जागरण' कहा गया है और स्थूल जगत् को त्याग कर सूक्ष्मार्थ में उपासत्ति विद्वानों के मतानुसार 'स्वप्न' कहा गया है ।। २९ ॥

सूक्ष्मार्थानामप्यभावोपासत्तिः शयनात्यिका ।

शयनं तत्त चाज्ञानं मोहरूपं वरानने ॥ ३० ॥

सूक्ष्म अर्थों में भी अभाव उपासत्ति का काल 'शयनात्मिका' रूप से जानी जाती है। हे वरानने ! वह मोह रूप अज्ञान ही शयन है ।। ३० ।।

कारणं तद्विजानीयात् महाकारणनिर्मितम् ।

कार्यरूपेण विततं क्रमात्स्थूल विभेदतः ।। ३१ ।।

महाकारण से निर्मित उसे 'कारण' जानना चाहिए। कार्यरूप से स्थूल भेद से वही क्रम से विस्तृत हो जाता है ॥३१॥

तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणुष्वैकाप्रचेतसा ।

अज्ञानं प्रकृतिर्माया मोहोव्यक्त प्रधानकम् ।

अदृष्टं चेति बहुधा वादिनस्तत्प्रचक्षते ॥ ३२ ॥

उसी [कारण] को मैं अब कहता हूँ । अतः सावधान मन से सुनो। प्रकृति अज्ञान है जो माया एवं मोह से व्यक्त तथा प्रधान है और दार्शनिक लोग 'अदृष्ट' आदि रूप से उसी को कहते हैं ।। ३२

एकार्थमेव तत्सर्व गुणस्तत्वाविरोधतः ।

नाममात्रेण कलहो नाथं दृष्ट्वा कदाचन ।

प्रकृतिश्चापि पुरुषो यतस्तत्सृष्टिसम्भवो ॥ ३३ ॥

वही सब कुछ एक अर्थ ही है, वहीं अविरोधतः गुण है । अतः कभी भी अर्थ को विना देखे ही नाम मात्र से मिथ्यापन (?) होता है । क्योंकि प्रकृति और पुरुष तो इसी की सृष्टि से सम्भावित हैं ॥ ३३ ॥

कार्यकारणयोर्भेदः अभेदाख्यः प्रकीर्तितः ।

मृत्सुवर्णादिकानां च घटादेर्वलयस्य च ॥ ३४ ॥

कार्य और करण के भेद से वही अभेद कहकर वर्णित है । जैसे घर के प्रति मिट्टी और कुण्डल के प्रति सुवर्ण कारण है ।। ३४ ।।

भेदोऽथाभेद एव स्यात् तद्वदेतत्प्रकीर्त्यते ॥ ३५ ॥

वैसे ही इस परमात्म तत्व के भेद एवं अभेद को कहा गया है ।। ३५ ।।

तदज्ञानस्य शक्ती द्वे विक्षेपावरणात्मिके ।

ब्रह्मावृणोति सहसा शक्त्यावरणसंज्ञया ।। ३६ ।।

इस अज्ञान की दो शक्तियां- (१) विक्षेप एवं (२) आवरणात्मिका हैं। आवरणात्मिका शक्ति के द्वारा ब्रह्म को अज्ञान ढक लेता है ।। ३६ ।

यथाच्छादयति स्वल्पो मेघो भानुं सहस्रगुम् ।

तथाच्छादयते मिथ्या ब्रह्मानन्तमखण्डकम् ॥ ३७ ॥

जैसे सहस्रों किरणों वाले सूर्य को थोड़े से मेघ ही ढक लेते हैं, वैसे ही अनन्त एवं अखण्ड ब्रह्म को मिथ्या रूप से अज्ञानावरण ढक लेता है ॥ ३७ ॥

अनावृतोऽपि पूर्णात्मा निःसङ्गो निर्विकल्पकः ।

तद्वासनानुवशमस्तिभितात्मा चिदक्षरः ।। ३८ ।।

जब कि वह ब्रह्म वास्तव में आवरणरहित है, पूर्णात्म है, निःसङ्ग तथा निर्विकल्पक है । वही चिदक्षर ब्रह्म वासना के वशीभूत होकर छिप जाता है ।। ३८ ।।

अथ विक्षेपशक्तिः सा यथा बहिरिवान्तरे ।

दर्शयामास विततं प्रपञ्चं सकुतूहलम् ।। ३९ ।।

इसके बाद वह विक्षेपशक्ति, जैसे बाह्य में थी, वैसे ही अन्तरतम में कुतूहल युक्त प्रपंच का विस्तार दिखलाती है ।। ३९ ॥

ददर्शासौ तदात्मानं नारायणमिति स्थितम् ।

वेदानां वेदमार्गाणां लोकानां च परायणम् ॥ ४० ॥

नारायणेन रूपेण स्वयं पश्यति चाक्षरः ।

स वेदात्मोप देवोऽपि बहु स्यामित्यमन्यत ।

अहङ्कारस्ततो जातो विकुर्वन्समभूत्त्रिधा । ४१ ।।

वही अपने को 'यह नारायण हैं' ऐसा उपस्थित करके दिखलाती है। स्वयं वह अक्षर रूप परब्रह्म नारायण रूप से अपने को देखते हैं। वेदों के एवं वेदमार्गानुयायी लोकों के परायण वह नारायण हैं। उस वेदात्म श्रेष्ठ देव ने 'मैं बहुत हो जाऊँ' – इस प्रकार से सोंचा। तब उनसे अहङ्कार पैदा हुआ जो तीन प्रकार का हुआ ।। ४०-४१ ॥

सात्विको राजसश्चैव तामसश्चेति वे त्रिधा ।

तामसादप्यहङ्काराज्जडमासीन्नभः प्रिये ॥ ४२ ॥

वह तीन प्रकार का अहङ्कार सात्विक, राजस एवं तामस हुआ। हे प्रिये ! उस तामस अहङ्कार से जड़ रूप 'नभ' पैदा हुआ ॥ ४२ ॥

तस्य शब्दो गुणश्चासीदेक एव सुलोचने ।

सत्वानुविद्धान्नभसो जातं श्रोत्रमथेन्द्रियम् ।

शब्दस्तु विषयस्तस्य सात्विकी दिक् च देवता ।। ४३ ।।

हे सुलोचने ! उस आकाश का गुण शब्द मात्र हुआ । सत्व से अनुविद्ध होने से नभ से श्रोत्रेन्द्रिय का जन्म हुआ। उस आकाश का विषय 'शब्द' हुआ और सात्त्विकी दिक उसके देवता हुए ॥ ४३ ॥

रजो गुणप्रधानात्तु वागासीद्वचनग्रहा ।

अग्निस्तत्राभवद्देवः सात्विकः सुरवन्दिते ॥ ४४ ॥

रजोगुण की प्रधानता से वाणी बोलने वाली वागिन्द्रिय की उत्पत्ति हुई । हे सुरवन्दिते ! सात्त्विक अग्नि उन वागिन्द्रिय के वहाँ देवता हुए ॥ ४४ ॥

यथाकाशादभूद्वायुः शब्दस्पर्शौ च तद्गुणो ।

सत्वानुविद्धात्पवनात् त्वगासीदिन्द्रिय प्रिये ।। ४५ ।

तब आकाश से 'वायु' की उत्पत्ति हुई और शब्द एवं स्पर्श उनके गुण हुए। हे प्रिये ! सत्त्व से अनुविद्ध होने से पवन से 'त्वक्' इन्द्रिय की उत्पत्ति हुई ॥ ४५ ॥

रजोनुविद्धात्पवनादासीत्पाणीन्द्रियं प्रिये ।

आदान तस्य विषये इन्द्रस्तस्याधिदेवता ।। ४६ ।।

रजो गुण के अनुविद्ध होने से उन पवन से, हे प्रिये ! 'पाणि' इन्द्रिय की उत्पत्ति हुई। आदान-प्रदान उस पाणि इन्द्रिय के विषय हुए और उसके अधिष्ठातृदेव इन्द्र हुए ॥ ४६ ॥

अथ वायोरभूदग्निः शब्दस्पर्शस्वरूपवान् ।

तेजसः सत्वविद्धाद्वै चक्ष रूपग्रहं सति ॥ ४७ ॥

तब 'वायु' से 'अग्नि' का जन्म हुआ। जो अग्नि शब्द एवं स्पर्श रूपवान् हैं । तेज के सत्व - अनुविद्ध होने से दोनों आंखों की उत्पत्ति हुई जो रूप की ग्राहक हुई ॥ ४७ ॥

रजोगुण प्रधानात्त पादेन्द्रियमभूत्प्रिये ।

उपेन्द्रः सात्विको देवो गमनं विषयो भवेत् ॥ ४८ ॥

रजो गुण की प्रधानता से हे प्रिये ! पाद इन्द्रिय की उत्पत्ति हुई। इसका विषय 'गमन व्यापार' हुआ और इसके सात्विक देवता 'उपेन्द्र' हुए ॥ ४८ ॥

आपस्तेजः समुद्भूता रसाधिकगुणास्त्रयः ।

सत्त्वानुविद्धात्सलिलाद्रसनं तदरसग्रहम् ।। ४९ ।।

तेज से जल समुद्भूत हुआ जो रस एवं तीनों गुणों से युक्त था । सलिल के सत्त्व से अनुविद्ध होने के कारण उस रस का ग्रहण करने वाली 'रसना' इन्द्रिय का जन्म हुआ ।। ४९ ।।

वरुणः सात्विको देवो बभूव सुरवन्दिते ।

रजः प्रधानात्सलिलात् पाय्वासीच्च विसर्गकृत् ॥ ५० ॥

हे देवताओं से वन्दित देवि ! उन जल के अभिमानी सात्विक देव वरुण हुए । रज की प्रधानता होने से सलिल से मलत्याग करने वाली 'पायु' इन्द्रिय हुई ॥ ५० ॥

यमोधिदेवता तत्र सात्विकः सम्बभूव ह ।

अद्द्भ्योऽभवद्वसुमती शब्दादिगुणपञ्चका ।

पृथिव्याः सत्वविद्धायाः घ्राण गन्धग्रहं शिवे ॥ ५१ ॥

उस (पायु -इन्द्रिय) के अधिष्ठाता सात्त्विक देवता यम हुए। जल से शब्द आदि पाँच गुण वाली पृथ्वी का जन्म हुआ । हे शिवे ! सत्त्व से आविद्ध होने से पृथिवी से गन्ध का ग्रहण करने वाली घ्राणेन्द्रिय का जन्म हुआ ।। ५१ ।।

१. शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गन्धये पाँच साङ्ख्य दर्शन के मत से पृथ्वी के गुण हैं ।

नासत्यौ देवता तत्र सात्विकी सम्बभूव हा ।

रजोनुविद्धया चासीदिन्द्रियं गुह्यसंज्ञकम ॥ ५२ ॥

वहीं सात्त्विक नासत्या (जो असत्य नहीं हैं) देवता हुए और रजोगुण से अनुविद्ध होने से 'गुह्य' नामक इन्द्रिय की उत्पत्ति हुई ।। ५२ ।

आनन्दानुभवस्तेन जायते सुरवन्दिते ।

देव: प्रजापतिस्तत्र सात्विकः परिकीर्तितः ।। ५३ ।।

हे सुरवन्दिते ! उस (गुह्येन्द्रिय) से हमें आनन्दानुभव होता है । वहाँ सात्विक देव प्रजापति कहे गए हैं ।। ५३ ।।

रजः प्रधानभूतेभ्यो मिलितेभ्यः सुरेश्वरि ।

क्रियाशक्त्यात्मकं प्राणपञ्चकं जायते शिवे ॥ ५४ ॥

हे सुरेश्वरि ! रजप्रधान पञ्चमहाभूत के साथ मिलकर, हे शिवे ! क्रिया-शक्त्यात्मक प्राणपञ्चकों की उत्पत्ति होती है॥५४॥

१. प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान - ये पञ्च प्राण कहे गए हैं ।

सत्वप्रधानभूतेभ्यो मिलितेभ्यः सुरेश्वरि ।

ज्ञानशक्तिप्रधानं तु ह्यन्तःकरणमुच्यते ।। ५५ ।।

हे सुरेश्वरि ! सत्त्वप्रधान पञ्चमहाभूतों से मिलकर ज्ञानशक्तिप्रधान 'अन्तःकरण' कहा गया है ।। ५५ ।।

मनोबुद्धिरहङ्कारश्चित्तमित्यन्तरात्मकम् ।

त्वचक्षूरसभा घ्राणं श्रोत्र ज्ञानेन्द्रियाणि च ॥ ५६ ॥

मन, बुद्धि, अलङ्कार, और चित्त ये चार अन्तरात्मक तथा त्वक्, चक्षु, रसना घ्राण एवं श्रोत्र - ये पांच (कुल नौ) ज्ञानेन्द्रियाँ कही गई हैं ।। ५६ ।।

वाक् पाणिपादपायूपस्थानि कर्मेन्द्रियणि च ॥ ५७ ॥

वाक, पाणि, पाद, पायु (गुदा) और उपस्थ (लिङ्ग) - ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ कही गई हैं ।। ५७ ।।

दिक् वाताप्रचेतोऽश्विवह्रींद्रोपेन्द्र मित्रकाः।

दशेन्द्रियाधिदेवाश्च मया ते परिकीर्तिताः ॥ ५८ ॥

दिक, वात, सूर्य, प्रचेता (वरुण), अश्विनद्वय, वह्नि, इन्द्र, उपेन्द्र और मित्र (आदित्य) - ये दस इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता मेरे द्वारा कहे गए हैं ।। ५८ ॥

पृथिव्यधिपतिर्ब्रह्मा विष्णुः सलिलनायकः ।

तेजसोऽधिपतिः शम्भुर्वायोरीश्वर एव च ।। ५९ ।।

व्योम्नः सदाशिवः प्रोक्त इत्येता भूतदेवताः ।

दशेन्द्रियाणि बुद्धिश्व मनःप्राणादिपञ्चकम् ।

एतल्लिङ्गं समाख्यातं जीवोपाधिरिति स्फुटम् ।। ६० ।।

पृथ्वी के अधिपति ब्रह्मा हैं और सलिल के नायक विष्णु हैं। तेजस के अधिपति शम्भु हैं और वायु के ईश्वर तथा आकाश के देवता सदाशिव कहे गए हैं। ये ही पञ्च महाभूतों के देवता हैं । दस इन्द्रियाँ, बुद्धि, मन और पञ्च प्राण-ये 'लिङ्ग' (शरीर) समाख्यात हुए और जीव-उपाधि तो स्फुट रूप से कही गई है ।। ५९-६० ।।

विशेषं तत्र देवेशि ! वर्णयामि शृणुष्व तत् ।

प्राणादिपञ्चकं देवि ! कर्मेन्द्रियसमन्वितम् ।। ६१ ।।

प्राणकोश इति ख्यातः क्षुत्पिपासादिधर्मवान् ।

मनोज्ञानेन्द्रियैर्युक्तं मनःकोश उदीरितः ॥ ६२ ॥

हे देवेशि ! उस (सृष्टि क्रम) में विशेष वर्णन मैं करता हूँ; उसे आप सुनिए। हे देवि ! कर्मेन्द्रियों से समन्वित पञ्चप्राण को भूख और प्यासादि धर्म से युक्त 'प्राणकोश' कहा जाता है । (वही प्राणादि पञ्चक) मन एवं ज्ञानेन्द्रियों से युक्त होने पर 'मनःकोश' कहा गया है । ६१-६२ ॥

बुद्धिज्ञानेन्द्रियैर्युक्तो विज्ञानाख्यः प्रकीर्तितः ।

इदं कोशत्रयं देवि ! व्यष्ट्या लिङ्गमुदाहृतम् ।। ६३ ।।

वह (प्राण) बुद्धि एवं ज्ञानेन्द्रियों से संयुक्त होने पर 'विज्ञान कोश' नाम से जाना जाता है । ये तीनों कोश, हे देवि! व्यष्टि ( अलग-अलग ) क्रम से 'लिङ्ग' कहे गए हैं ॥ ६३ ॥

तत्राभासमयो जीवो याति चायाति सुन्दरि ! ।  

जडं कोशत्रयं देवि ! ब्रह्माभासेन चेष्टते ।। ६४ ।।

हे सुन्दरि ! उन (कोशों के लिङ्गों) में भासमान जीव आवागमन के चक्कर में फँसा रहता है। हे देवि ! ये जडकोशत्रय ब्रह्माभास से कर्म की चेष्टा करने में समर्थ होते हैं ॥ ६४ ॥

यथायस्कान्त सान्निध्ये यथा लोहं सुरेश्वरि ! ।

यज्जडं तदसद्देवि यत्सत्तत्सदिति प्रिये ! ॥ ६५ ॥

हे सुरेश्वरि ! जैसे अयस्क [ कच्ची धातु] के सान्निध्य से लोहा बन जाता है वैसे ही, देवि ! जो जड़ है वह असत् पदार्थ है और हे प्रिये ! जो सत् है वह-सत्य पदार्थ है ।। ६५ ॥

तस्मात्तच्चेतनं ब्रह्म सत्यमित्येव सुन्दरि ! ।

समुदायस्तु लिङ्गानां तत्राभासस्तु यः प्रिये ॥ ६६ ॥

इसलिए, हे सुन्दरि ! वह चेतन ब्रह्म ही सत्य है' ऐसा कहा गया है। प्रिये ! जो शरीरों का समुदाय है, वह उन ब्रह्म का आभासमात्र है ।। ६६ ॥

हिरण्यगर्भ तं प्राहुः सूत्रात्मानं पुनस्तथा ।। ६७ ॥

उसे ही (वेदों में) हिरण्यगर्भ' कहा गया है जो सूत्र रूप से अपने को ही पुनः विस्तृत कर देते हैं ॥ ६७ ॥

इति ते कथितं देवि ! यत्पृष्टोऽहं त्वया शुभे ।

समासेन महेशानि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ६८ ॥

हे देवि ! जो आपने मुझसे पूछा था उसे, हे शुभे ! मैने संक्षिप्त रूप से कह दिया है । हे महेशानि ! अब पुनः आप क्या सुनना चाहती हैं ॥ ६८ ॥

॥ इति श्रीनारदपाञ्चरात्रे माहेश्वरतन्त्र उत्तरखण्डे (ज्ञानखण्डे) शिवोमासंवादे षष्ठं पटलम् ॥६॥

॥इस प्रकार श्रीनारद पाश्चरात्र आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड (ज्ञान खण्ड) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के षष्ठपटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ६ ॥

आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 7

Post a Comment

Previous Post Next Post