ads

माहेश्वरतन्त्र पटल ५

माहेश्वरतन्त्र पटल ५   

माहेश्वरतन्त्र के पटल ५ में तत्त्व ज्ञान के उपदेश के लिए पार्वती का आग्रह, रहस्य गोपन की आवश्यकता, तर्क से परे आत्म तत्त्व का रहस्य, ब्रह्मज्ञान शब्दों से सम्भव, अनुग्रह से ही अज्ञान का नाश का वर्णन है ।

माहेश्वरतन्त्र पटल ५

माहेश्वरतन्त्र पटल ५   

Maheshvar tantra Patal 5

माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल ५  

नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्

माहेश्वरतन्त्र पञ्चम पटल

अथ पञ्चमं पटलम्

श्रीपार्वत्युवाच

भगवन् लोकनाथेश देव देवेश धूर्जटे ।

इयं कथा महापुण्या कथिता पापनाशिनी ॥ १ ॥

श्रीपार्वती ने कहा- हे भगवान्, हे लोकनाथ, हे ईश, हे देव देवेश, हे धूर्जटे ! यह महान् पुण्यों को देने वाली और पापों को नाश करने वाली कथा आप द्वारा कही गई ।। १ ॥

यद्रामायै न च प्राह भगवन् प्राणवल्लभः ।

साक्षान्मुखेन देवेशाभिनयेन वदिष्यति ॥ २ ॥

लक्ष्मी के प्राणवल्लभ भगवान् विष्णु ने जिस (रहस्य) को रमा से भी नहीं कहा, उसको आप साक्षात् अपने मुख से अभिनयपूर्वक कहें ।। २ ।।

तत्तु तत्त्व कथयसि साक्षादेव मम प्रभो ।

त्वमेव तादृशो देव दयालर्नापरः प्रभो ॥ ३ ॥

हे प्रभु ! उस तत्त्व को मुझसे आप साक्षात् रूप से कहें । हे प्रभु ! आपके समान दयालु और काई देव नहीं है ।। ३।।

तत्तत्वज्ञानसामर्थ्याद्भोगाः सर्वैवधीरिताः ।

दिग्वासा जटिलो नन्दी परस्येकोऽपि पण्डितः ॥ ४ ॥

उस तत्त्वज्ञान की सामर्थ्य से ही सभी भोगों का अवधारण होता है । दिशारूपी वस्त्र को धारण कर जटाधारी और नन्दी से युक्त ज्ञानी होकर आप अकेले विचरण करते हैं । ४ ।।

त्वं गुरुः सर्वलोकस्य तत्वमार्गोपदेशकः ।

न त्वया सदृशः कश्चित् तत्वज्ञानानुभूतिमान् ॥ ५ ॥

आप सभी लोकों के गुरु हैं और तत्व के मार्ग के उपदेशक हैं । तत्त्वज्ञान की अनुभूति करने वाला आपके सदृश और कोई नहीं है ।। ५ ।

अर्द्धाङ्गदानतो जाने तव प्राणाधिकास्म्यहम् ।

अतो वदसि भो नाय तत्वं गृह्यतमं च यत् ।। ६ ।।

अर्धाङ्गिनी होने से मैं आपको प्राणों से अधिक प्रिय हूँ । अत:, हे नाथ ! उस रहस्यमय तत्वज्ञान को मुझसे कहिये ।।६।।

न तच्चित्रं त्वयि विभो कृपासिन्धो महेश्वरे ।

अतस्त्वां प्रष्टुमिच्छामि सन्दिहाना महेश्वर ॥ ७ ॥

हे विभु, हे कृपासिन्धु, हे महेश्वर ! आपके लिए यह कोई विचित्र बात नहीं है । अतः हे महेश्वर ! इस तत्त्वज्ञान रूप ज्ञान को आपसे भ्रान्त में पूछना चाहती हूँ ॥ ७।।

यत्त्वयोक्तं पुरा मोहो जगत्कारणरूपकः ।

यथा बीजादुद्भवन्ति पत्रपुष्पफलादयः ॥ ८ ॥

आपके द्वारा पहले जगत् के कारण मोह के रूप में जो ज्ञान कहा गया है । जैसे बीज से पत्र, पुष्प, फल आदि उद्भूत होते हैं ॥ ८ ॥

एवं मोहात्समुद्भूतं सदेवासुरमानुषम् ।

अज्ञानप्रभवो मोहो मोहाज्जातं चराचरम् ।। ९ ।।

इसी प्रकार से देवों के सहित असुर और मनुष्य मोह से उद्भुत हैं। अज्ञान से मोह उत्पन्न होता है और मोह से यह सम्पूर्ण चराचर जगत् उत्पन्न है ॥ ९ ॥

स्रजं शुक्ति समावृत्य यथाज्ञानं स्वशक्तितः ।

अहिं च रजतं चैव यथा दर्शयते स्फुटम् ॥ १० ॥

तथाक्षरं परं ब्रह्म ह्यज्ञानं मोहकारणम् ।

समावृत्यात्मशक्त्यैव विश्वं सृजति शङ्कर ! ।। ११ ।।

अपनी शक्ति ज्ञान के अनुसार सीपी में मोती का भान जैसे होता है और माला में जैसे सर्प का भान होता है वैसे ही भ्रम जगत् है और सत्य अक्षर रूप परब्रह्म है क्योंकि अज्ञान ही मोह का कारण होता है अतः हे शंकर ! वह अज्ञान अपनी शक्ति के अनुसार मोह को समावृत करके विश्व का सृजन करता है ।। १०-११ ।।

इत्युक्त यत्त्वया देव तत्र मे संशयो महान् ।

अक्षरं यत्त्वया प्रोक्तं निष्प्रपञ्चं निरामयम् ।।

निर्दोषं निर्मलं शुद्धं निरीहं सङ्गवर्जितम् ॥ १२ ॥

स्वप्रकाशं गुणातीतं ज्ञानरूपं समं शिवम् ।

निर्विकारं सदाभान्तं सदसद्भावतः परम् ।। १३ ।।

तस्मिन्नज्ञानसंसर्गः को वा वक्तु समीहिते ।

कथमज्ञानजो मोहस्तस्मिन् ज्ञानात्मनीश्वरे ॥ १४ ॥

हे देव ! यह जो आपने कहा है उसमें हमें महान् संशय है। जो अक्षर है, प्रपञ्चरहित है, निरामय है । निर्दोष, निर्मल, शुद्ध, इच्छारहित और सङ्ग से रहित है उस स्वयं प्रकाश गुणातीत, ज्ञानरूप समबुद्धि वाले निर्विकार, सदैव दीप्तिमान, सत् और असत् के भाव से परे परब्रह्म में, हे शिव ! अज्ञान का संसर्ग कैसे सम्भव है ? फिर ज्ञानस्वरूप ईश्वर में किस प्रकार अज्ञान से उत्पन्न मोह होता है ? ।। १२-१४ ।।

स्वप्रकाशे यवज्ञानमावृत्तिं कुरुते यदि ।

तमसापि कथं सूर्यो नाव्रियेत् मनागपि ।। १५ ।।

यदि उस स्वयं प्रकाश [ ईश्वर ] में अज्ञान आवृत हो जाता है तो ज्ञानरूप सूर्य उस अज्ञान के अन्धकार को क्या थोड़ा भी नहीं ढँक सकता ? ।। १५ ।।

कथं वा मोहनाशेऽपि कैवल्यमवशिष्यते ।

असत्य सत्यवद्भाति संशयोऽत्र महान्मम् ।

छेतुमर्हसि देवेश ! तत्वज्ञानासिना प्रभो ! ।। १६ ।।

और फिर मोह के नाश होने पर (केवल मोक्ष प्राप्त) आत्मा कैसे अवशिष्ट रह जाता है ? फिर असत् संसार भी सत् के समान तो प्रतीत होता ही है। इसमें हमें महान् संशय है। हे प्रभो ! हे देवेश ! तत्वज्ञानरूपी कृपाण से आप इस सन्देह का छेदन करने में समर्थ हैं ॥ १६ ॥

शिव उवाच ॥

शृणु सुन्दरि यत्नेन रहस्यं परमाद्भुतम् ।

तव स्नेहवशाद्वच्मि प्रेम्णाह प्रार्थितस्त्वया ॥ १७ ॥

भगवान् शंकर ने कहा- हे सुन्दरि ! इस परम अदभुत रहस्य को सावधान होकर सुना । तुम्हारे स्नेह के कारण मैं इसे तुमसे कहता हूँ । वस्तुतः तुमने बड़े ही प्रेम से मुझसे कहने को आग्रह किया है ॥ १७ ॥

न वाच्यं यस्य कस्यापि मातृजारसमं रहः ।

गोपयेत्सर्वतो भद्रे विवदेन्न कथञ्चन ॥ १८ ॥

यह रहस्य जिस किसी को भी कहने योग्य नहीं है । जैसे माता अपने जारज पुत्र का गोपन करती है उसी प्रकार यह छिपाने योग्य है। सभी ओर से इसे, छिपाना चाहिए। कभी भी इसके बारे में विवाद न करे ।। १८ ।।

न वादितर्कविषयं परं ब्रह्म सनातनम् ।

तर्के कर्कशधियो वादिनो मूढबुद्धयः ।। १९ ।।

सूर्यस्यावरणे शक्तं तिमिरं न कथञ्चन ।

स्वप्रकाशे तथाज्ञानं कदाचित्प्रभवेन्नहि ॥ २० ॥

वस्तुतः यह सनातन परब्रह्म वाद एवं विवाद का विषय नहीं है [वह शाश्वत तो है ही ] । वस्तुतः तर्क से ही सिद्ध करने वाले वादी लोग कठोर बुद्धि के और मूर्ख बुद्धि के होते हैं । सूर्य के उदित हो जाने पर कभी भी अन्धकार का अस्तित्व जिस प्रकार नहीं रहता, उसी प्रकार आत्मज्ञान से प्रकाशित हो जोने पर कभी भी व्यक्ति मोह से अभिभूत नहीं होता ।। १९-२० ॥

इति प्रामाणिकैस्तर्कैर्विरुद्धमिव भासते ।

मोहसृष्टिसमुद्भूता ये प्रमाणविदो जनाः । २१ ।।

यहाँ बात प्रमाणवादियों के द्वारा तर्क से सिद्ध करने पर विरुद्ध की भाँति भासित होती है क्योंकि जो प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं वे जन मोहसृष्टि से समुद्भुत होते हैं ॥ २१ ॥

कथं ते वेदितुं शक्ताः प्रमाणैरपि पण्डिताः ।

यथा स्वप्नजनो देवि ! स्वप्नदृष्टारमेकलम् ॥ २२ ॥

फिर उन [प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने वाले] पण्डितजनों के द्वारा प्रमाणों से भी वह परमतत्त्व कैसे जाना जा सकता है ? जैसे हे देवि ! स्वप्न देखता हुआ मनुष्य मात्र स्वप्न ही देखता रहता है ।। २२ ।।

न जानाति तथा देवि ! प्रमाणान्यपि कृत्स्नशः ।

परे ब्रह्मण्यक्षरेऽस्मिन् आज्ञानावेशमाहितम् ॥ २३ ॥

उसी प्रकार सभी प्रमाणों से सिद्ध करने पर भी, हे देवि ! वह उस 'तत्वज्ञान' को नहीं जान पाता। इस परब्रह्म अक्षर में वह अज्ञान रूप मोह के कारण आवेशित हो जाता है ।। २३ ।।

तस्माद्युक्तिर्नं कर्त्तव्या श्रुतिभिर्या विरुध्यते ।

अनुकूला श्रुतिगिरां युक्तिः सा विदुषां मता ॥ २४ ॥

इसलिए ईश्वर को सिद्ध करने के लिए युक्ति नहीं करनी चाहिए क्योंकि वे युक्तियाँ श्रुतियों के विरुद्ध हैं । वस्तुतः वही युक्ति विद्वानों के मतानुसार अनुकूल है जो श्रुति वाक्यों से मिलती हों ॥ २४ ॥

यथा न सत्यादनृतात्केवलाद् व्यावहारिकम् ।

तथा सत्यानृताभ्यां तु व्यवहारः प्रवर्तितः ।। २५ ।।

जिस प्रकार मात्र सत्य एवं अनृत (झूठ) से अलग रहना अव्यावहारिक है उसी प्रकार सत्य और अनृत से व्यवहार प्रवर्तित है ॥ २५ ॥

अनृतं तु तदज्ञानं सत्यं ब्रह्मदेव केवलम् ।

न तुषादङ्कुरोत्पत्तिः केवलात्तण्डुलादपि ॥ २६ ॥

वस्तुतः असत्य का ज्ञान उसका अज्ञान है क्योंकि ब्रह्म ही केवल सत्य है । भूसी से अङकुर की उत्पत्ति या मात्र चावल से ही अङ्कुर की उत्पत्ति नहीं होता ॥ २६ ॥

तुषतण्डुल योगेन जायतेऽङ्कुर विस्तृतिः ।

ब्रह्मण्यज्ञानयोगेन जायते विश्वसम्भवः ॥ २७ ॥

भूसी और चावल दोनों से युक्त [बीज] से ही अङकुर का उत्पन्न होना और बढ़ना जैसे सम्भावित है उसी प्रकार परब्रह्म में अज्ञान के योग से विश्व का विस्तार सम्भावित होता है ॥२७ ॥

तस्मान्न संशय: कार्यों ब्रह्मण्यज्ञानसम्भवे ।

नापनेया मतिस्तर्कैर्भावा ये चाप्यलौकिकाः ॥ २८ ॥

इसलिए ब्रह्म में अज्ञान के होने में किसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति को संशय नहीं करना चाहिए । अतः जो अलौकिक भाव मन में आते हैं उन्हें तर्कों के द्वारा बुद्धि से नहीं हटाना चाहिए ॥ २८ ॥

न तांस्तर्केण युञ्जीतेत्याहुश्चोपनिषद्गिरः ।

ब्रह्मण्यज्ञानसद्भावो लोकसिद्धो न विद्यते ।। २९ ।।

'उन्हें तर्क से युक्त नहीं करना चाहिए - इस प्रकार उपनिषदों की भी वाणी हैं। ब्रह्म में अज्ञान का रहना लोकसिद्ध नहीं है ।। २९ ।।

विद्यते वेदसिद्धोऽयं तस्माद्वंदः प्रमाणकम् ।

अलौकिकं न सिध्येत विरुद्ध यच्छ्रूतेः सह ॥ ३० ॥

यह तो वेदसिद्ध है । अतः वेद ही प्रमाण है । अलौकिक सिद्ध नहीं है क्योंकि वह तो श्रुति के विरुद्ध है ॥ ३० ॥

अपरोक्षं लौकिकं च परोक्षं चाप्यलौकिकम् ।

कथं सिध्येदप्रमाणं परोक्षं लौकिकोक्तिभिः ।। ३१ ।।

वस्तुत: लौकिक और अलौकिक में यह भेद है कि लौकिक प्रत्यक्ष है किन्तु अलौकिक परोक्ष है । अतः लौकिक उक्तियों से जो कि प्रमाण नहीं है उनसे कैसे परोक्ष (अलौकिक) की सिद्धि होगी ? ।। ३१ ।।

प्रमाण राजो यद्यादृक, निरूपयति केवलम् ।

तत्तादृगेव मन्तव्यमन्यथा स बहिर्मुखः ।। ३२ ।।

यदि मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण के ही आधार पर जैसा निरूपण हो वह वैसा ही मन्तव्य है और अन्य सभी उससे बहिर्मुख हैं अर्थात् छोड़ देने योग्य है यह ठीक नहीं है ।। ३२ ।।

अलौकिकं लौकिकं च तस्यैतदुभयं गतम् ।

स चाण्डालमयी योनि प्रविशेत्तद्बहिर्मुखः ॥ ३३ ॥

इस प्रकार लौकिक और अलौकिक उस ज्ञान के उभयात्मक रूप हैं। उन दोनों से भिन्न होकर जो अन्य बहिर्मुख [अज्ञान] में जाता है वह चाण्डालमयी योनि में मरने के बाद जन्म लेता है ।। ३३ ।।

ब्रह्मक्षत्रिय विट्शूद्राश्चैते वेदानुवर्तिनः ।

वेदेस्त्यक्तास्त्यजन्तस्ते यान्ति नीचपरम्पराम् ॥ ३४ ॥

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र- ये तो वेद के अनुसार चलने वाले होते हैं । अतः वेदों को त्याग करके जो चलते हैं वे अधोगति की नीच परम्परा में चले जाते हैं ।। ३४ ।

प्रत्यक्षं चानुमानं च शब्दः सादृश्यमेव च ।

चत्वार्येतानि देवेशि ! प्रमाणानि न संशयः ।। ३५ ।

हे देवेशि ! प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और उपमान --- निःसन्देह रूप से ये ही चार प्रमाण हैं ।। ३५ ।।

प्रत्यक्षं लौकिके सिद्धं न चैवालौकिके हि तत् ।

पर्वतो वह्निमान् धूमादित्येवमनुमीयते ॥ ३६ ॥

जिसमें प्रत्यक्ष प्रमाण लौकिक वस्तुओं में सिद्ध है और अलौकिक तथ्यों वह तो असिद्ध ही है । 'पर्वत पर वह्नि है क्योंकि वहाँ धुआँ दिखाई पड़ रहा है' -- इस प्रकार का ज्ञान अनुमान प्रमाण से होता है ।। ३६ ।।

ब्रह्म केनात्र संसाध्यं सदसत्परमव्ययम् ।

तस्माद्ब्रह्मण्यनुमितिर्न सिध्येत कदाचन ॥ ३७ ॥

फिर उन दोनों प्रमाणों में से 'ब्रह्म', जो कि सत्-असत् से परे और अव्यय स्वरूप है, किस प्रमाण से सिद्ध करने योग्य है । अतः जिसका रूप ही नहीं है वह प्रत्यक्ष प्रमाण अथवा अनुमान से कभी भी नहीं सिद्ध किया जा सकता है ॥३७॥

सादृशाभावतो लोके सादृश्यं नापि सिध्यति ।

अनादिः शब्दब्रह्माख्यो ब्रह्मवक्तीह यादृशम् |

तादृशं तद्विजीनायात् पाखण्डी चान्यथा हि सः ॥ ३८ ॥

लोक में उसके सदृश कोई और न होने से वह सादृश्य प्रमाण से भी नहीं सिद्ध होता है। 'शब्दब्रह्मा' नामक अनादि ब्रह्म जैसा कहा गया है वैसा ही जानना चाहिए। वह तो पाखण्डी है जो शब्द ब्रह्म से अन्यथा उस ब्रह्म का निरूपण करते हैं ॥ ३८ ॥

ब्रह्माभासमया जीवा ब्रह्मवैति विनिश्वयः ।

अहं मनुष्य इत्याद्या अहं बुद्धिर्हिदेहिनाम् ।। ३९ ।।

जीव [ आत्मा ] ब्रह्म के आभासक हैं । वे निश्चय रूप से ब्रह्म ही हैं। 'मैं मनुष्य हूँ' - इस प्रकार शरीरधारी व्यक्तियों को 'अहं' बुद्धि हो जाती है ।। ३९ ।

आत्मत्वेनैव गृह्णाति देहं चैनमचेतनम् ।

विपरीतमिदं भद्रे सन्दिग्धमिदमेव हि ॥ ४० ॥

इस अचेतन देह को आत्मत्व रूप से ही वह ग्रहण करता है। हे भद्र ! यह दोनों बात विपरीत सी जान पड़ती है क्योंकि यह सन्दिग्ध ही है ॥ ४० ॥

अलौकिकं हि सन्दिग्धं वेदेनैव निवर्त्तते ।

ननिश्वयं विना क्वापि मुक्तिर्भवति शाश्वती ॥ ४१ ॥

वस्तुतः अलौकिक तथ्यों के सन्देह का निवारण वेद से ही होता है। किसी एक के निश्चय के बिना शाश्वत मुक्ति नहीं होती है ॥ ४१ ॥

तस्माद्वेदान्तवाक्यैश्च सहायैः सर्वतोधिकैः ।

विचारयेत् परं ब्रह्मस्वात्मानं लभते हि सः ।। ४२ ।।

इसलिए वेदान्त वाक्यों की सहायता से सभी ओर से विचार करे । वह विचार करने वाला परब्रह्म को स्वात्मा में ही प्राप्त करता है ।। ४२ ॥

शब्दातीतं परं ब्रह्म शब्दगोचरमित्यपि ।

तथाप्यनादिशब्दैस्तत् ज्ञायते नान्यथा प्रिये ॥ ४३ ॥

वह परब्रह्म शब्द से अतीत भी है और वही परब्रह्म (श्रुति प्रमाण से ) शब्दगोचर भी है। तथापि हे प्रिये ! वह ब्रह्म अनादि शब्दों से ही जाना जा सकता है अन्यथा नहीं जाना जाता है ॥ ४३ ॥

प्रमाणराजो निगमादनुभूतिर्गरीयसी ।

तथाप्यनुभवी साक्षात् शब्दैरेवोपदिश्यति ॥ ४४ ॥

यद्यपि प्रमाणों के राजा प्रत्यक्ष की, श्रुति रूप शब्द प्रमाण से अत्यधिक अनुभूति होती है, तथापि वह शब्दब्रह्म का अनुभवी व्यक्ति साक्षात् शब्दों से ही उपदिष्ट होता ।। ४४ ।।

गुरूक्तं चापि वेदोक्तमेकार्थं यदि भासते ।

तदा कृतार्थः पुरुषो मुक्तो भवति संशयात् ।। ४५ ।।

यदि एक अर्थ (शब्द ब्रह्म) का आभास गुरु बचन से होता है तो वह भी वेदोक्त वचन है । ऐसा होने से ही कृतार्थ होकर पुरुष संशय से मुक्त होता है ।। ४५ ।।

निवृत्ते संशये देवि जाते स्वानुभवोदये ।

ब्रह्माण्यज्ञानमित्येषः सन्देहो नाशमेष्यति ।। ४६ ।।

हे देवि ! संशय के निवृत्त हो जाने पर और (ब्रह्म की स्वानुभूति हो जाने पर 'ब्रह्म' में अज्ञान के होने का यह सन्देह नष्ट हो जाता है ।। ४६ ।।

यदि युक्त्या प्रमाणैश्च विरुद्धं श्रुतिसम्मतम् ।

नायं विरुद्धो विदुषां अनुभूतिमतामपि ॥ ४७ ॥

यदि युक्ति एवं प्रमाणों के विरुद्ध भी श्रुति सम्मत बात हो तो यह विरुद्ध नहीं होती क्योंकि यह अनुभूतियुक्त विद्वानों को अवगत होती है ॥ ४७ ॥

जाग्रत्येतत्प्रतीयेत स्वप्ने तत्प्रातिभासिकम् ।

सुषुप्तौ तन्निरासेऽपि मूलाज्ञानं हि तिष्ठति ॥ ४८ ॥

वस्तुतः जगने पर ही यह प्रतीत होता है कि यह तो स्वप्न में प्रतिभासित हो रहा था । सुषुप्ति की अवस्था में उसके निराकरण होने पर भी मूलरूप से अज्ञान रहता ही है ।। ४८ ।।

आभासस्तदवच्छिन्नो जीवत्वेन प्रतीयते ।

आभासो ज्ञानरूपो हि बहिरन्तः प्रकाशकः ।। ४९ ।।

उसका आभास होने पर वह उससे युक्त जीव रूप से प्रतीत होता है। क्योंकि ब्रह्मज्ञान का आभास होना ही बाह्यजगत् और अन्तःकरण का प्रकाशक- है ।। ४९ ।।

तदज्ञानं तु देहादिरूपै: परिणतं प्रिये ।

तत्र व्याप्तश्चिदाभास एवं स्याद्व्यावहारिकम् ।। ५० ।।

हे प्रिये ! उस जीव का अज्ञान ही देहादि रूप से परिणत होता है । इस प्रकार उस चिदाभास का व्याप्त होना ही व्यावहारिक प्रतीत होता है ॥ ५० ॥

मूलाज्ञानमिदं देवि यदात्मनि चधिष्ठितम् ।

तन्निरासं विना देवि जीवा आभासरूपिणः ।। ५१ ।।

हे देवि ! मूलरूप से यही अज्ञान है जो अपने में प्रतिष्ठित है अज्ञान के निराकरण के बिना जीव उसके अभास रूप हैं ।। ५१ ।।

न मुच्यन्ते कदाचिद्वा कथचिद्वा सुरेश्वरि ।

व्रतोपवासनियमैस्तपोभिर्विविधैरपि ।। ५२ ।।

हे सुरेश्वरि ! वे कभी भी किसी प्रकार से व्रत, उपवास, नियम और विविध प्रकार के तप से -भी वन्धनमुक्त नहीं होते हैं ।। ५२ ।।

स्वाध्यायाध्ययनैर्दानैस्तीर्थैवा चान्यसाधनै: ।

ब्रह्मचर्यवानप्रस्थसन्नायासाचरणैरपि ।

अगाधाज्ञानपाथोधौ दुरन्ते पारवर्जिते ।। ५३ ।।

वे स्वाध्यायों, अध्ययनों, दानों, तीर्थों अथवा अन्य साधनों से भी तथा ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ या सन्यासाश्रम के आचरणों से भी अगाध अज्ञान के समुद्र को नहीं पार कर पाते ।। ५३ ।।

उन्मज्जन्ते निमज्जन्ते देवत्व जडतादिभिः ।

नैव पारं गताः केचिन्नं यास्यन्ति केचन ॥ ५४ ॥

वे देवत्व और जड़ होकर भी उस अज्ञान समुद्र में डूबते उतराते रहते हैं । न कोई उसका पार पाते हैं और न कोई उसमें से निकल ही पाते हैं ॥ ५४ ॥

अहोsत्र परमानन्दः पुरुषोत्तम ईश्वरः ।

यानीक्षते नुग्रहदृशा ते यास्यन्ति गिरीन्द्रजे ।। ५५ ।

हे गिरिराज हिमालय की पुत्रि ! वही उसको पार कर पाते हैं जिसको भगवान् परमानन्द पुरुषोत्तम ईश्वर अनुग्रह दृष्टि से देखते हैं ॥ ५५ ॥

अस्मिन्नज्ञानपथोधौ वयं ब्रह्मादयोऽपि च ।

बुबुदाकारतां प्राप्तास्तदिच्छावायुजम्भिताः ॥ ५६ ॥

इस अज्ञान रूप समुद्र में हम और ब्रह्म उस परब्रह्म को इच्छारूप वायु की जमुहाई से उठे बुलबुले के रूप में ही हैं॥५६॥

वायुपशमने देवि बुदबुदा नीरतां गताः ।

तथा यास्यति ब्रह्माण्डमस्माभिरविशेषितम् ।। ५७ ।।

हे देवि ! वायु के उपशम होने पर जैसे बुलबुले पानी को ही प्राप्त हो जाते हैं उसी प्रकार यह ब्रह्माण्ड भी हमलोगों के सहित (उसी विराट् रूप में) विलीन हो जाता है ॥ ५७ ॥

अप्रबोधो यथा स्वप्ने चित्रं सृजति कौतुकम् ।

तथैवात्माऽप्रबोधेन जातं सर्वं चराचरम् ॥ ५८ ॥

जिस प्रकार स्वप्न के समाप्त न होने पर अनेक प्रकार के चित्र 'विचित्र कौतुक होते हैं उसी प्रकार आत्मा के अप्रबुद्ध होने पर सभी चराचर जगत् की सृष्टि होती है ॥ ५८ ॥

प्रबोधाद्विलयं याति परं ब्रह्मावशिष्यते ।

स्रजि सर्पलये यद्वत् स्रगेव परिशिष्यते ।। ५९ ।।

उसी आत्मा के (अज्ञान रूप आवरण के हटने पर) प्रबुद्ध होने से सभी का विलय हो जाता है और अन्ततः मात्र ब्रह्म ही अवशिष्ट रहता है । जैसे माला में सर्प का सन्देह होने पर (ज्ञान हो जाने पर) मात्र माला ही अवशिष्ट रहती है सर्प नहीं। उसी प्रकार अज्ञान की समाप्ति पर 'ब्रह्म' ही बचा रहता है ।। ५९ ।।

अध्यारोपापवादेन परं ब्रह्मैव शिष्यते ।

इति ते सर्वमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं त्वया प्रिये ।। ६० ।।

इस प्रकार अध्यारोप के हट जाने पर ब्रह्म ही अवशिष्ट रहता है । इस प्रकार हे प्रिये ! तुमने जो कुछ पूछा उसे हमने संक्षिप्त रूप से कहा ।। ६० ।।

समासेन महेशानि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ? ॥ ६१ ॥

अब हे महेश की शक्ति! तुम पुनः क्या पूछना चाहती हो ॥ ६१ ॥

॥ इति श्रीनारदपाश्चरात्रे माहेश्वरतन्त्र उत्तरखण्डे (ज्ञानखण्डे) शिवोमासंवादे पञ्चमं पटलम् ॥ ५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीनारद पंचरात्र आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड ( ज्ञान खण्ड ) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के पञ्चम पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ५ ॥

आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 2

About कर्मकाण्ड

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.

0 $type={blogger} :

Post a Comment