काली तत्व निरूपण
काली तन्त्र के इस अंक काली-तत्व
निरूपण में माँ काली के नाम,स्वरूप आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है ।
काली तत्व निरूपण
Kaali Tattva Nirupan
काली तन्त्र शास्त्र
कालीतत्व निरूपण
भगवती काली
'काली' शब्द
का अर्थ है-'काल' की पत्नी ।' 'काल' शिवजी का नाम है। अतः शिव-पत्नी को ही 'काली' की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इन्हें 'आद्या 'काली' भी कहते हैं।
मार्कण्डेय पुराण के 'दुर्गा सप्तशती खण्ड' में भगवती अम्बिका के ललाट से
जिन 'काली' की उत्पत्ति का वर्णन किया
गया है, भगवती आद्या काली उनसे भिन्न है । भगवती अम्बिका के
ललाट से उत्पन्न काली दुर्गा की त्रिमूर्तियों में से एक हैं। उनके ध्यान का
स्वरूप भी आद्या काली के ध्यान से भिन्न है ।
तन्त्र शास्त्रों में आद्या भगवती
के दस भेद कहे गए हैं- (१) काली, (२) तारा,
(३) षोडशी, (४) भुवनेश्वरी, (५) भैरवी, (६) छिन्नमस्ता, (७)
धूमावती, (८) बगला, (९) मातंगी एवं
(१०) कमलात्मिका । इन्हें सम्मिलित रूप में 'दशमहाविद्या'
के नाम से भी जाना जाता है। इनमें भगवती काली मुख्य हैं ।
भगवती काली के रूप-भेद असंख्य हैं।
तत्त्वतः सभी देवियाँ, योगिनियाँ आदि
भगवती की ही प्रतिरूपा हैं, तथापि इनके आठ भेद मुख्य माने
जाते हैं- (१) चिन्तामणि काली, (२) स्पर्शमणि काली, (३) सन्ततिप्रदा काली, (४) सिद्धि- काली (५) दक्षिणा
काली, (६) कामकला काली, (७) हंस काली
एवं (4) गुह्य काली । 'काली-क्रम-दीक्षा'
में भगवती काली के इन्हीं आठ भेदों के मन्त्र दिए जाते हैं। इनके
अतिरिक्त (१) भद्रकाली, (२) श्मशानकाली तथा (३) महाकाली- ये
तीन भेद भी विशेष प्रसिद्ध हैं तथा इनकी उपासना भी विशेष रूप से की जाती है।
दशमहाविद्याओं के मन्त्र जप ध्यान
पूजन तथा प्रयोग की विधियाँ कवच-स्तोत्र, सहस्रनाम
आदि पृथक-पृथक हैं। अतः इन सभी देवियों के सम्बन्ध में हमने पृथक-पृथक ग्रंथों का
संकलन किया है।
भगवती कालिका के स्वरूपों में 'दक्षिणा काली' मुख्य हैं। इन्हें 'दक्षिण 'कालिका' तथा दक्षिणा
कालिका आदि नामों से भी सम्बोधित किया जाता है।
काली उपासकों में सर्वाधिक लोकप्रिय
भी भगवती 'दक्षिणा काली' ही हैं। अतः प्रस्तुत ग्रंथ में उन्हीं के विविध मन्त्रों की साधन-विधियों
का विस्तृत उल्लेख किया गया है। गुह्यकाली, भद्रकाली,
श्मशान काली तथा महाकाली - ये चारों स्वरूप भी प्रकारान्तर से भगवती
दक्षिणा कालिका के ही हैं तथा इनके मन्त्रों का जप, न्यास,
पूजन, ध्यान आदि भी प्रायः भगवती दक्षिणा काली
की भांति ही किया जाता है, अतः इन चारों के मन्त्र तथा
ध्यानादि के भेदों को भी इस सङ्कलन में समाविष्ट कर लिया गया है।
भगवती काली को अनादिरूपा,
आद्या विद्या, ब्रह्मस्वरूपिणी तथा कैवल्य दात्री
माना गया है। अन्य महाविद्याएँ मोक्षदात्री कही गई हैं। दशमहाविद्याओं में भगवती
षोडशी (जिन्हें 'त्रिपुर सुन्दरी' भी
कहा जाता है), भुवनेश्वरी तथा छिन्नमस्ता रजोगुण प्रधाना एवं
सत्वगुणात्मिका है, अतः ये गौण रूप से मुक्तिदात्री हैं।
धूमावती,
भैरवी, बगला, मातंगी तथा
कमलात्मिका- ये सब देवियाँ तमोगुण प्रधाना हैं, अतः इनकी
उपासना मुख्यतः षट्कर्मों में ही की जाती है।
शास्त्रों के अनुसार- 'पञ्चशून्ये स्थिता तारा सर्वान्ते कालिकास्थिता ।"
अर्थात् पाँचों तत्त्वों तक सत्वगुणात्मिका भगवती तारा की स्थिति है तथा सबके अन्त
में भगवती काली स्थित है अर्थात् भगवती काली आद्याशक्ति चित्तशक्ति के रूप में
विद्यमान रहती हैं। अस्तु, वह अनित्य, अनादि, अनन्त एवं सब की स्वामिनी है। वेद में 'भद्रकाली' के रूप में इन्हीं की स्तुति की गई है।
जैसाकि बारम्बार कहा गया है, भगवती काली अजन्मा तथा निराकार
है, तथापि भावुक भक्तजन अपनी भावनाओं तथा देवी के गुण
कार्यों के अनुरूप उनके काल्पनिक साकार रूप की उपासना करते हैं। भगवती चूंकि अपने
भक्तों पर स्नेह रखती हैं, उनका कल्याण करती हैं तथा उन्हें
युक्ति-मुक्ति प्रदान करती हैं, अतः वे उनके हृदयाकाश में
अभिलषित रूप में सरकार भी हो जाती है। इस प्रकार निराकार होते हुए भी वे साकार हैं,
अदृश्य होते हुए भी दृश्यमान हैं।
काली तत्व निरूपण
दक्षिणा काली
'भगवती का नाम' दक्षिणा काली' क्यों है अथवा 'दक्षिणा
काली' शब्द का भावार्थ क्या है ? इस
सम्बन्ध में शास्त्रों ने विभिन्न मत प्रस्तुत किए हैं, जो संक्षेप
में इस प्रकार हैं-
'निर्वाण तन्त्र' के अनुसार- (१) दक्षिण दिशा में रहने वाला सूर्य पुत्र यम' काली का नाम सुनते ही भयभीत होकर दूर भाग जाता है, अर्थात्
वह काली उपासकों को नरक में नहीं ले जा सकता, इसी कारण भगवती
को 'दक्षिणा काली' कहते हैं।
अन्य मतानुसार-
(२) जिस प्रकार किसी धार्मिक कर्म
की समाप्ति पर दक्षिणा फल की सिद्धि देने वाली होती है, उसी
प्रकार भगवती काली भी सभी कर्म-फलों की सिद्धि प्रदान करती है, इस कारण उनका नाम दक्षिणा है।
(३) देवी वर देने में अत्यन्त चतुर
हैं इसलिए उन्हें 'दक्षिणा' कहा जाता है।
(४) सर्वप्रथम दक्षिणामूर्ति भैरव
ने इनकी आराधना की थी, अतः भगवती को 'दक्षिणा
काली' कहते हैं।
(५) पुरुष को दक्षिण तथा शक्ति को
'वामा' कहते हैं। वही वामा दक्षिण पर
विजय प्राप्त कर, महामोक्ष प्रदायिनी बनी, इसी कारण तीनों लोकों में उन्हें 'दक्षिणा' कहा गया है ।
काली तत्व निरूपण
भगवती के स्वरूपादि का भावार्थ
भगवती काली के स्वरूप आदि से
सम्बन्धित शब्दों का भावार्थ जाने विना अर्थ का अनर्थ हो जाता है। अतः यहाँ कुछ
प्रमुख शब्दों के भावार्थं प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
वर्ण -
'महानिर्वाण' तन्त्र के अनुसार- "जिस प्रकार
श्वेत, पीत आदि सभी रंग काले रंग में समाहित हो जाते हैं,
उसी प्रकार सब जीवों का लय काली में ही होता है, अतः कालशक्ति, निगुर्णा, निराकार
भगवती काली का वर्ण भी 'काला' ही
निरूपित किया गया है।
कुछ तन्त्रों में भगवती का वर्णं 'काला' तथा 'लाल'-- दोनों ही बताये गए हैं, परन्तु साथ ही यह भी स्पष्ट
कर दिया गया है कि भगवती 'दक्षिणा काली' का रंग काला तथा भगवती त्रिपुर सुन्दरी अर्थात् तारा का रंग लाल है। यथा-
"कालिका
द्विविधा प्रोक्ता कृष्णा रक्त प्रभेदतः ।
कृष्णातु दक्षिणा प्रोक्ता रक्तातु
सुन्दरी मता ॥
इयं नारायणी काली तारा स्यात्
शून्यवाहिनी ।
सुन्दरी रक्त काली ततु भैरवी नादिनी
तथा ।।'
अस्तु,
भगवती के दक्षिण काली अथवा भद्रकाली, गुह्यकाली
श्मशानकाली तथा महाकाली आदि रूपों के उपासक भक्तों को देवी के 'श्यामवर्ण' अथात् काले रंग के शरीर की ही भावना करनी
चाहिए।
निवास -
भगवती काली को 'श्मशान वासिनी' कहा गया है। श्मशान का लौकिक अर्थ है--'जहाँ मृत
प्राणियों के शरीर जलाये जाते हो ।' परन्तु देवी के
निवास-स्थल के सम्बन्ध में 'श्मशान' शब्द
का यह अर्थ लागू नहीं होता है।
पन्च महाभूतों का 'चिद्ब्रह्म' में लय होता है। भगवती आद्याकाली 'चिद्-ब्रह्म स्वरूपा' है । अस्तु, जिस स्थान पर पंचमहाभूत लय हों, वही श्मशान है और वहीं
भगवती का निवास है—यह समझना चाहिए।
संसारिक विषयों काम-क्रोध रागादि के
भस्म होने का मुख्य स्थान 'हृदय' है। चूंकि जिस स्थान पर कोई वस्तु भस्म हो, वह स्थान
'श्मशान' कहलाता है।, अतः काम क्रोध रागादि से रहित श्मशान रूपी हृदय में ही भगवती काली निवास
करती है । अस्तु भक्तजनों को चाहिए के वे अपने हृदय में भगवती काली को स्थापित
करने हेतु उसे 'श्मशान' बना लें
अर्थात् सांसारिक राग-द्वेषादि से पूर्णतःरहित करलें ।
चिता-
श्मशान में चिता के प्रज्ज्वलित होने का तात्पर्य है-राग-द्वेषादि विकार रहित
हृदयरूपी श्मशान में 'ज्ञानाग्नि' का निरन्तर प्रज्ज्वलित बने रहना ।
शिवा, कङ्काल, अस्थि, शवमुण्ड-
श्मशान में शिवा ( गीदड़ी, सियारिन), कङ्काल,
अस्थि (हड्डी) तथा शवमुण्ड की उपस्थिति का तात्पर्य है-शिवा,
शव- मुण्ड आदि अपञ्चीकृत महाभूत हैं तथा अस्थि-कङ्काल आदि उज्ज्वल
वर्णं सत्व- गुण के बोधक है अर्थात् हृदयरूपी श्मशान में अपञ्चीकृत महाभूत शिवा,
शवमुण्ड आदि के रूप में तथा अस्थि-कङ्काल आदि सत्वगुण के रूप में
उपस्थित रहते हैं।
आसन-
'शिव' से जब शक्ति पृथक हो जाती है, तो वह 'शव' मात्र रह जाता है
अर्थात् जिस प्रकार शिव का अंश स्वरूप जीव शरीर प्राण रूपी शक्तिं के हट जाने पर
मृत्यु को प्राप्त होकर 'शव' हो जाता
है, उसी प्रकार उपासक जब अपनी प्राणशक्ति को चित् शक्ति में
समाहित कर देता है, तब उसका पच्च- भौतिक शरीर 'शव' की भाँति निर्जीव हो जाता है। उस स्थिति में
भगवती आद्या शक्ति उसके ऊपर अपना आसन बनाती है अर्थात् उस पर अपनी कृपा बरसाती हैं
और उसे स्वयं में सन्निहित कर, भौतिक प्रपच्चों से मुक्त कर
देती हैं। यही भगवती का शवासन है और इसीलिए 'शव' को भगवती का 'आसन' कल्पित किया
गया है।
शशि शेखरः-
भगवती के ललाट पर चन्द्रमा की स्थिति बताकर उन्हें "शशि शेखरा'
कहा गया है, इसका भावार्थ यह है कि वे चिदानन्दमयी
है तथा अमृतत्व रूपी चन्द्रमा को धारण किए हैं अर्थात् उनकी शरण में पहुँचने वाले
साधक को अमृतत्व की उपलब्धि होती है।
मुक्त केशी-
'भगवती के बाल बिखरे हैं, इसका तात्पर्य है कि भगवती
केश विन्यासादि विकारों से रहित त्रिगुणातीता हैं।
त्रिनेत्रा -
'भगवती के तीन नेत्र हैं यह कहने का आशय है कि सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि ये तीनों ही भगवती के नेत्र रूप हैं। दूसरे शब्दों में
भगवती तीनों लोकों को, तीनों कालों को देख पाने में सक्षम
हैं।
महाघोरा-
भगवती उच्चस्वर वाली है, इसका भावार्थ है
भगवती का नाम सुनते ही पाप-समूह उसी प्रकार पलायन कर जाते हैं, जिस प्रकार सिंह की दहाड़ सुनकर वन के पशु दूर भाग जाते हैं।
बालावतंसा-भगवती
अपने कानों में बालकों के शव पहने हैं। इस कथन का अशय यह है कि वे पूर्वोक्त शव
तुल्य निर्विकार हृदय वाले बाल-स्वभाव जैसे भक्तों की ओर कान लगाये रखती हैं।
अर्थात् उनकी प्रत्येक प्रार्थना को ध्यान से सुनती हैं।
सृक्कद्वयगलद्रक्त धारा-
'भगवती के दोनों होठो के कोनों से रक्त की धारा बह रही है”—यह कहने का आशय है कि भगवती शुद्ध सत्वात्मिका हैं और वे रजोगुण एवं
तमोगुण को निःस्रत कर रही हैं।
प्रकटित रदना -
'भगवती के दाँत बाहर की ओर निकले हैं, जिनसे वे जीभ
को दबाये हुए हैं' इस कथन का आशय यह है कि भगवती तमोगुण एवं
रजोगुण रूपी जीभ को अपने सतोगुण रूपी उज्ज्वल दांतों से दबाये हुए हैं।
स्मितमुखी -
'भगवती के मुख पर मुस्कान बनी रहती है'- इसका
तात्पर्य है कि वे नित्यानन्द स्वरूपा है।
पीनोन्नत पयोधरा-
"भगवती के स्तन बड़े तथा उन्नत हैं"-यह कहने का आशय है कि वे तीनों
लोकों को आहार देकर उनका पालन करती है तथा स्वभक्तों को अमरत्व अथवा मोक्षरूपी
दुग्ध पान कराती हैं।
कण्ठावसक्तमुण्डालीगलद्रुधिरचर्चिता-
इस कथन का आशय है-मुण्ड- माला के पचास मुण्ड अर्थात् पचास 'मातृकावर्णों' को धारण करने के कारण भगवती शब्द
ब्रह्म स्वरूपा है। उस शब्द गुण से रजोगुण का टपकना अर्थात् सृष्टि का उत्पन्न
होना ही, रक्त स्राव है। भगवती उसी स्राव से आप्लावित है
अर्थात् निरन्तर नवीन सृष्टि करती रहती है।
दिगम्बरा-
'भगवती दिगम्बरा है- इसका आशय यह है कि वे मायारूपी आवरण से आच्छादित नहीं
हैं अर्थात् उन्हें माया अपनी लपेट में नहीं ले पाती ।
शवानांक संघातै
कृतकाञ्ची- 'भगवती शवों के हाथ की करधनी पहने हैं' - इस कथन का
तात्पर्य यह है कि कल्पान्त में सभी जीव स्थूल शरीर त्यागकर सूक्ष्म शरीर के रूप
में (कल्पारम्भ पर्यन्त, जब तक कि उनका मोक्ष नहीं हो जाता
भगवती के कारण शरीर के संलग्न रहते हैं ।
शव की भुजाओं से आशय जीवों के कर्म
की प्रधानता का है।
'वे भुजाऐं देवी के गुप्ताङ्ग को
ढाँके हुए हैं- इस कथन का आशय यह है कि नवीनकल्प के आरम्भ होने तक देवी द्वारा
सृष्टि-निर्माण का कार्य स्थगित बना रहता है।
वामहस्ते कृपाण -
'देवी के ऊपर वाले बांये हाथ में कृपाण है'- इसका आशय
यह है कि भगवती हानिरूपी तलवार से मोहरूपी मायापाश को नष्ट करती है। तलवार के
बाँये हाथ में होने का तात्पर्य यह है कि भगवती वाम मार्ग अर्थात् शिवजी (शिवजी का
एक नाम 'वामदेव' भी है) के बताये हुए
मार्ग पर चलने वाले निष्काम भक्तों के अज्ञान को नष्ट कर, उन्हें
मुक्ति प्रदान करती हैं ।
छिन्नमुण्डं तथाध:-
'देवी के नीचे वाले वाँये हाथ में कटा हुआ सिर हैं— यह
कहने का तात्पर्य है कि देवी अपने निचले बाँये हाथ में अर्थात् वाम मार्ग की निम्नतम
माने जाने वाली क्रियाओं में भी, रजोगुण-रहित तत्वज्ञान के
आधार मस्तक (शुद्धज्ञान) को धारण किये रहती हैं।
सव्येचाभोवरच -
'देवी के दाई ओर के हाथों में अभय तथा वर मुद्रा हैं- इस कंथन का तात्पर्य
है कि देवी दक्षिणमार्गी सकाम-साधकों को 'अभय' (निर्भयता) तथा 'वर' (मनोभिलाषाओं
की पूर्ति) प्रदान करती हैं।
महाकाल सुरता -
'देवी महाकाल के साथ सुरत (सहवास) में संलग्न हैं'- अर्थात्
भगवती महाकाल को शक्ति प्रदान करती हैं। जब वे निर्गुणा होती है। तो महाकाल उन्हीं
में सन्निविष्ट हो जाता है और जब सगुणा होती हैं तो महाकाल से मुक्त रहते हैं ।
अस्तु, वे स्थिति-क्रम में महाकाल के साथ 'सुरता' एवं सृष्टिक्रम में 'विपरीत
रता' रहती हैं।
नित्य यौवनवती-
'देवी नित्य यौवनवती है- यह कहने का आशय है कि भगवती में अवस्था सम्बन्धी
कोई परिवर्तन नहीं होता। वे नित्य चित् स्वरूपा युवती जैसी बनी रहती है।
करालवदना-
इसका तात्पर्य है कि भगवती के विराट स्वरूप को देखकर दुष्टजन भयभीत हो जाते हैं।
काली तत्व निरूपण
अन्य शब्दों के भावार्थ
मातृ योनि -
इसका अर्थ है-मूलाधार स्थित त्रिकोण । जयमाला के सुमेरु को भी 'मातृ योनि' कहा जाता है।
लिङ्ग -
इसका अर्थ है- जीवात्मा ।
भगिनी -
'कुण्डलिनी' को जीवात्मा की भगिनी कहा गया हैं।
योनि -
'सुमेरु' के अतिरिक्त माला के अन्य दानों को 'योनि' कहा जाता है।
मद्यपान -
इसका आशय है- कुण्डलिनी को जगाकर ऊपर उठायें तथा षट् चक्र का भेदन करते हुए सहस्त्रार
में लेजाकर, शिव-शक्ति की समरसता के
आनन्दामृत का बारम्बार पान करना ।
कुण्डलिनी को मूलाधार चक्र अर्थात्
पृथ्वी तत्व से उठाकर सहस्रार में ले जाने से जिस आनन्द रूपी अमृत की उपलब्धि होती
है,
वही 'मद्यपान' है और ऐसे
अमृत रूपी मद्य का पान करने से पुनर्जन्म नहीं होता ।
आगे जारी- काली तन्त्र मन्त्र दीक्षा-क्रम
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