अगस्त्य संहिता अध्याय ५
इस अगस्त्य संहिता अध्याय ५ में इस
षडक्षर मन्त्र के प्रथम उपदेशक ब्रह्मा हुए। सुतीक्ष्ण के प्रश्न पर अगस्त्य ने
आगे की कथा बतलायी कि ब्रह्मा द्वारा उपदिष्ट इस मन्त्र से जब पार्वती भी उपासना
करने लगीं, तब उनके मन में ज्ञान का उदय
हुआ और पुनर्जन्म के विना भगवान् शंकर को संसार के विनाश की आशंका होने लगी। तब
उन्होंने पार्वती को गार्हस्थ धर्म का पालन करते हुए पूजा सामग्रियों से प्रतिदिन
श्रीराम की आराधना का उपदेश किया और कहा कि गृहस्थ केवल ज्ञान से इस संसार में और
परलोक में कल्याण नहीं प्राप्त कर सकता है उसे दान, होम आदि
भी करना चाहिए। आसक्त परिव्राजक और विरक्त गृहस्थ दोनों कुम्भीपाक नरक प्राप्त
करते हैं, उन्हें मुक्ति नहीं मिलती है । अतः जो गृहस्थ हैं वे
पुष्प, चन्दन, अक्षत, नैवेद्य आदि से सगुण राम की उपासना करें। किन्तु इस विधि से वानप्रस्थी और
यति को उपासना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि पूजा के साधन हिंसा
का त्याग कर प्राप्त नहीं किया जा सकता है। यदि वानप्रस्थी और यती गृहस्थों की तरह
इन साधनों से पूजा करते हैं, तो वे आरूढपतित कहलायेंगे ।
अगस्त्यसंहिता अध्याय ५
Agastya samhita chapter 5
अगस्त्य संहिता पंचम अध्याय
अगस्त्य संहिता
अगस्त्यसंहिता पांचवाँ अध्याय
अथ पञ्चमोऽध्यायः
सुतीक्ष्ण उवाच
पुरातन पुराणज्ञ
सर्वाख्यानार्थवित्तम ।
ततः किमकरोद्
विप्रश्रेष्ठागस्त्याम्बिका तदा ।।१।।
ईश्वरः केन रूपेण तामेतदवबोधयत् ।
सुतीक्ष्ण बोले- हे विप्रों में
श्रेष्ठ अगस्त्य ! आप तो प्राचीन काल से हैं, पुराणों
के ज्ञाता हैं, सभी कथाओं के प्रयोजनों को आप भलीभाँति जानते
हैं। भगवान् शंकर ने इसके बाद किस प्रकार पार्वती को समझाया, यह कहें।
अगस्त्य उवाच
तदादि हृदये रामं निधाय कमलेक्षणा ।।२।।
मुक्तये निश्चिनोति स्म
तमनन्यपरायणा ।
अगस्त्य ने कहा- इस दिन से पार्वती
श्रीराम में एकाग्रचित्त होकर अपने हृदय में बसाकर मुक्ति के लिए मन बनाने लगी।
हैरण्यगर्भसिद्धान्तरहस्यश्रवणात् परम्
।।३।।
कामादिग्रस्तता तस्याश्चिरमेव न्यवर्तत
।
पार्वती के मन में काम आदि जो घर कर
गये थे,
हिरण्यगर्भ के सिद्धान्त का रहस्य सुनने के बाद वे सब मिट गये।
ईश्वरस्तां प्रियां
सम्यज्ज्ञानमात्रेच्छया स्थिताम् ।।४।।
न्यवर्त्तत ततो ज्ञात्वा
संसारोच्छित्तिशङ्कया ।
संसार के विनाश की आशंका से भगवान्
शिव ने केवल ज्ञान की इच्छा रखनेवाली पार्वती को रोक दिया।
तामब्रवीच्च भगवानीश्वरः
सर्वरूपधृक् ।।५।।
मूलप्रकृतिरार्य्ये त्वं पुरुषोऽहं
पुरातनः ।
सभी रूपों को धारण करनेवाले भगवान्
शिव ने कहा कि हे आर्ये! मैं पुरातन पुरुष हूँ और तुम मूल प्रकृति हो ।
कारणं जगदुत्पत्तेरावान्तदऽनवेक्षणम्
।।६।।
कुर्वहे स्यात्तदुच्छित्तिर्यदि किं
तद्धितं तव ।
कल्याणि मम किं तुल्यमावयोर्न तु
तत्परम् ।।७।।
हे कल्याणि ! जगत् की उत्पत्ति के
कारणस्वरूप हम दोनों हैं और हम दोनों अन्त में (प्रलय काल में) उसकी देखभाल छोड़
देते हैं,
जिससे वह विनष्ट हो जाता है। यदि हम इस संसार का विनाश कर देंगे
(अर्थात् सभी प्राणियों को मोक्ष मिल जाये तो संसार कैसे चलेगा) तो इससे तुम्हारा
और मेरा क्या लाभ? हम लोगों के समान या हमसे आगे भी कोई नहीं
है।
कार्यं हि करणाभावे कुत्र सम्पद्यते
वद ।
आवयोः सम्भविष्यन्ति सतोः कल्याणि
देवताः ।।८।।
आर्ये! कारण के अभाव कार्य कैसे
होगा,
यह तो कहो! हम दोनों के अस्तित्व में रहने पर ही तो देवता भी
उत्पन्न होंगे।
त्वत्प्रसादादिदं सर्वं न कदाचिद्
गमिष्यति ।
एवं च सति किं देवि सर्वं
त्यक्तुमपेक्षसे ।।९।।
न युक्तमेतत् किमपि त्यक्तुं
देव्यधुना त्वया ।
तुम्हारी ही कृपा से तो यह सब है और
कभी समाप्त भी नहीं होगा। इस प्रकार क्या तुम सब कुछ छोड़ सकती हो! इसलिए हे देवी!
इस समय सब कुछ छोड़ देना तुम्हारे लिए उचित नहीं है ।
इत्युक्ता साब्रवीद्देवी
नीलोत्पलनिरीक्षणा ।।१०।।
प्राणनाथाधुना किं मे कर्त्तव्यमिति
साब्रवीत् ।
इयं सद्वासना मत्तो नैवोच्छिन्ना
भवेत्प्रभो ।।११।।
कदाचिदपि देवेश त्वं तथानुगृहाण
माम् ।
तब इस प्रकार कही गयी पार्वती ने
कहा- हे प्राणनाथ! मुझे क्या करना चाहिए, जिससे
मेरे मन में आपके प्रति जो आसक्ति है, वह मुझसे कभी अलग न
हो। हे देवेश! यह बतलाकर मेरे ऊपर अनुग्रह करें।
तथोक्तः सोऽब्रवीदेनां महीधतनयां
पुनः ।।१२।।
श्रीरामाराधनं देवि तदर्थं प्रतिवासरम्
।
इस प्रकार कहने पर भगवान् शिव ने
हिमालय की पुत्री पार्वती से कहा- 'हे
देवि ! इसलिए प्रतिदिन श्रीराम की आराधना करो ।'
आराधयोपकरणैरन्यथा मा कृथाः प्रिये
।।१३।।
एतेनैवाभयं किञ्चिदिहामुत्र
भविष्यति ।
कलौ संकीर्त्तनेनैव सर्वाघौघं
व्यपोहति ।।१४।।
आराधनेन साङ्गेन
गन्धपुष्पाक्षतादिभिः ।
किं वक्तव्यं प्रिये सर्वं मनसा
चिन्तितं यतः ।।१५।।
सामग्रियों से ही आराधना करो,
दूसरे प्रकार से नहीं। इसी से इस संसार में और परलोक में अभय मिलेगा;
क्योंकि कलियुग में संकीर्तन और चन्दन, फूल,
अक्षत आदि से आराधना करने से ही सभी प्रकार के पाप नष्ट हो जाते
हैं। हे प्रिये! जब तुमने मन में ठान ही लिया है, तो और
क्या कहूँ ।
एवमाराधनेनैव भवत्येव च नान्यथा ।
न गृही ज्ञानमात्रेण परत्रेह च
मंगलम् ।।१६।।
प्राप्नोति चन्द्रवदने
दानहोमादिभिर्विना ।
इस प्रकार की आराधना करने से ही
मोक्ष की प्राप्ति होती है; क्योंकि जो गृहस्थ
है, वह केवल ज्ञान प्राप्त कर इस संसार में और परलोक में दान,
होम आदि के विना मंगल नहीं पाता ।
गृहस्थो यदि दानानि दद्यान्न
जुहुयादपि ।।१७।।
पूजयेद् विधिना नैव कः
कुर्यादितदन्वहम् ।
गृहस्थ यदि प्रतिदिन दान न करे,
होम नहीं करे और विधिपूर्वक पूजा नहीं करे, तो
भला कौन करेगा?
न ब्रह्मचारिणो दातुमधिकारोऽस्ति
भामिनि ।।१८।।
गृभ्योऽन्यत्र सर्वेभ्यः को वा
दास्यत्यपेक्षितम् ।
नारण्यवासिनां शक्तिर्न ते सन्ति
कलौ युगे ।।१९।।
हे भामिनि ! ब्रह्मचारी को दान करने
का अधिकार नहीं है। तब गृहस्थ को छोड़कर कौन सबको दान देगा?
वन में रहनेवाले वानप्रस्थियों को तो इस कलियुग में दान करने की
शक्ति ही नहीं है ।
परिव्राज्ज्ञानमात्रेण
दानहोमादिभिर्विना ।
सर्व्वदुःखपिशाचेभ्यो मुक्तो भवति
नान्यथा ।।२०।।
परिव्राडविरक्तश्च विरक्तश्च गृही
तथा ।
कुम्भीपाके निमज्जेते तावुभौ
कमलानने ।।२१।।
संन्यासी तो केवल ज्ञान प्राप्त कर
ही दान होम आदि के विना भी सभी दुःख रूपी पिशाच से मुक्त पा लेते हैं,
दूसरे प्रकार से नहीं । यदि संन्यासी संसार में आसक्त हो और गृहस्थ
के मन में वैराग्य हो, तो दोनों कुम्भीपाक नरक में जा डूबते
हैं।
पुण्यस्त्रियो गृहस्थाश्च
मङ्गलैर्मङ्गलार्थिनः ।।२२।।
पूजोपकरणैः कुर्युर्दद्युर्दानानि
चार्हणाम् ।
चन्दनागरुकस्तूरीकर्पूरैश्चैव चम्पकैः
।।२३।।
पञ्चामृताभिषेकैश्च
पुष्पैस्तामरसैरपि ।
पुष्पमालैश्च
बहुभिर्दूर्वाभिश्चाक्षतैः सह ।।२४।।
नीलोत्पलैर्मल्लिकैश्च करवीरैश्च
चम्पकैः ।
जातीप्रसूनैर्बिल्यैश्च
पुन्नागैर्बकुलैरपि ।।२५।।
कदम्बैः केतकीपुष्यैः
करुणाशोककिंशुकैः ।
नागबाणादिपुष्पैश्च गन्धवद्भिर्मनोहरैः
।।२६।।
प्रत्ययैः कोमलैश्चैव पूजयेयुः
प्रयत्नतः ।
पल्लवैश्चैव पत्रैश्च
जलस्थलसमुद्भवैः ।।२७।।
एवमादिभिरन्यैश्च
पुष्पैर्बहुभिरन्वहम् ।
सम्यक् सम्पाद्य यत्नेन शक्त्या
भक्त्या रघूद्वहम् ।।२८।।
इसलिए पुण्यमयी स्त्रियाँ और गृहस्थ
जो मंगल चाहते हों, वे दान करें और
मांगलिक पूजा सामग्रियों चन्दन, अगरु, कस्तूरी,
कर्पूर से पूजा करें; पंचामृत से अभिषेक करें;
फूलों की माला, दूर्वा, अक्षत
से तथा चम्पा, तामरस (लालकमल), नीलकमल,
जूही, चम्पा, चमेली,
नागकेसर, करवीर, वकुल,
बेल का फूल, कदम्ब, केतकी
फूल, मल्लिका, अशोक, पलाश, नाग, बाण आदि सुन्दर,
सुगन्धित फूलों से अर्चना करें, जिनकी
पंखुरियाँ आगे की ओर हों, कोमल हों, इनसे
पूजा करें। नये पल्लव, जल एवं स्थल पर उत्पन्न पत्रों से तथा
इस प्रकार के अन्य पत्रों- पुष्पों से प्रतिदिन शक्ति के अनुसार सभी सामग्रियाँ
जुटाकर श्रीराम की पूजा करें।
त्रिकालमेककालं वा पूजयेयुरहर्निशम्
।
कक्कोलैलापूगफलैस्तथाजातिफलैरपि ।
प्रत्याहृतैर्बहुविधैः
पिष्टकैरिष्टसिद्धये ।।२९।।
दिन-रात,
प्रातःकाल, मध्याह्नकाल एवं सन्ध्याकाल अथवा
केवल प्रातःकाल में कक्कोल, इलायची, सुपारी,
जायफल आदि अनेक प्रकार के संगृहीत साधनों से तथा चावल के पीठा से
कामना की सिद्धि के लिए पूजा करें।
क्षीरनीराज्यपक्वैश्च फेनापूपवटादिभिः
।
दध्यौदनान्यपानीयैः सूपादिव्यञ्जनैरपि
।।३०।।
वटीवटोपदंशादिपदार्थेर्बहुविस्तरैः ।
दूध, जल और घी में पकाये हुए फेना, फेन की तरह बनने बाला
खाद्य पदार्थ बतासा, घेबर आदि, बड़ी
तथा दही, भात, अन्य पेय पदार्थ और दाल, तरकारी, रोटी, गोलाकार खाद्य
पदार्थ, चटनी या आचार आदि विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों
से पूजा करें।
आरार्तिकैर्धूपदीपैः षडावृत्त्योपकल्पितैः
।।३१।।
शङ्खक्रगदापद्मगरुडान्तोपकल्पितैः ।
बहुभिर्दीपमालाभिरर्चयेयुरहर्निशम् ।।३२।।
धूप, दीप, आरती से छह बार शङ्ख, चक्र
गदा, कमल, तथा गरुड़ की प्रतिकृति
बनाते हुए अनेक दीप मालाओं से दिन-रात पूजा करनी चाहिए।
कंकोलैलापूगफलैस्तथा जातीफलैरपि ।
कर्पूरचूर्णसहितैस्ताम्बूलैश्च सुवासितैः।।३३।।
कंकोल,
इलायची, सुपारी, जायफल,
कर्पूर के चूर्ण से सुगन्धित पान का बीड़ा समर्पित कर पूजा करें ।
महार्हैरर्हणां चक्रुः कल्याणार्थं
तथान्वहम् ।
स्वस्वशक्त्यनुसारेण सर्वं सम्पाद्य
यत्नतः ।।३४।।
कल्याण के लिए प्राचीन काल में
सन्तों ने इन श्रेष्ठ वस्तुओं से अपनी शक्ति के अनुसार सब एकत्रित कर प्रतिदिन
अर्चना की थी ।
गृहस्थानां विधिरयं नैतरेषां
शुभानने ।
दद्युर्दानानि जुहुयुरर्चितेग्नौ
सुखार्थिनः ।।३५।।
यह विधि केवल गृहस्थों के लिए है,
अन्य के लिए नहीं । वे गृहस्थ सुख की कामना से दान करें और पूजित
अग्नि में हवन भी करें।
कल्याणं च वरारोहे
रामार्पणधियान्वहम् ।
हे पार्वती! श्रीराम को समर्पित
करने की बुद्धि से इस प्रकार अर्चना कल्याण होगा।
एवं गृहस्थनियमस्तथैव
ब्रह्मचारिणाम् ।।३६।।
विधिमप्यनतिक्रम्य यथाशक्त्यनुसारतः।
यदि कुर्युः प्रयत्नेन पूजा
तत्साधनैरिह ।।३७।।
सर्वं सम्पद्यते तेषां देवानां
दुर्लभं च यत् ।
यह गृहस्थों के लिए नियम है,
किन्तु इस प्रकार ब्रह्मचारी भी किसी विधान को छोड़े विना अपनी
शक्ति के अनुसार यत्नपूर्वक यदि उन सामग्रियों से इस संसार में पूजा करते हैं,
तो उनकी भी सभी कामनाओं की सिद्धि होती है, जो
देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।
कल्याणि शृणु मद्वाक्यं यदि
कल्याणमिच्छसि ।।३८।।
राममाराधयाद्यादेर्यावज्जीवं
यथाविधि ।
एतेनैव वरारोहे कल्याणं तव सर्वदा ।।३९।।
हे कल्याणी पार्वती ! यदि अपना
कल्याण चाहती हो, तो मेरी बात सुनो
और इन साधनों से विधानपूर्वक आज से लेकर जीवन पर्यन्त श्रीराम की आराधना करो। इसी
से हमेशा तुम्हारा कल्याण होगा ।
पुण्यस्त्रियो गृहस्थाश्च तथैव
ब्रह्मचारिणः ।
सगुणं राममाराध्य पूर्वोक्तैः
साधनैरपि ।।४०।।
शक्त्या सम्पादितैः
कैश्चित्पूजयेयुर्दिवानिशम् ।
तेषां भुक्तिश्च मुक्तिश्च भवत्येव
न चान्यथा ।।४१।।
पुण्य करनेवाली स्त्रियाँ,
गृहस्थ पुरुष तथा ब्रह्मचारी शक्ति के अनुसार एकत्रित पूर्वोक्त
सामग्रियों से भी सगुण राम की पूजा दिन-रात करें, तो उन्हें
भोग और मोक्ष होगा ही, इसमें सन्देह नहीं ।
वानप्रस्थाश्च यतयो यद्येवं
कुर्य्युरन्वहम् ।
संसारान्न निवर्तन्ते
विध्यतिक्रमदोषतः ।।४२।।
आरूढपतिता ह्येते भवेयुर्दुःखभाजनाः
।
वन में रहनेवाले तथा संन्यासी यदि
उपर्युक्त विधान से प्रतिदिन पूजा करते हैं, तो
उन्हें विधान का अतिक्रमण करने के दोष से संसार से मुक्ति नहीं मिलेगी और वे
आरुढपतित कहलायेंगे और दुःख के भागी होंगें ।
अहिंसा परमो धर्मस्तेषामेषा न
पद्धतिः ।।४३।।
न हिंसाव्यतिरेकेण लभ्यन्ते तानि
तानि वै ।
भावनाकल्पितैः पूजासाधनैरेव युज्यते
।।४४।।
उनके लिए अहिंसा परम धर्म हैं और
हिंसा के बिना ये सामग्रियाँ उपलब्ध नहीं हो सकतीं; यह पद्धति उनके लिए नहीं है। मन में पूजा सामग्रियों की भावना कर उनके
लिए मानस पूजन विहित है।
न बहिर्योगयुक्तानां मनस्तेषां
प्रशस्यते ।
एतच्छान्तधियामेव सेव्यसेवकरूपतः।।४५।।
किन्तु बहिर्योग से युक्त जो गृहस्थ
और ब्रह्मचारी है, उनके लिए यह
प्रशस्त है। यह शान्त बुद्धिवालों के लिए ही है, जो भगवान्
को सेव्य और स्वयं को सेवक मानते हैं।
ध्यानमप्यर्च्चनाद् भद्रैर्भद्रार्थफलदं
यतः ।
आत्मनस्तत्त्वचिन्ता तु तस्याप्यात्म
चिन्तनम् ।।४६।।
उभयोरैक्यचिन्ता पुनरावर्तयेन्न तु
।
सुन्दर साधनों से अर्चना करने से
आत्मा के तत्त्व का चिन्तन और तत्त्वों की आत्मा का चिन्तन स्वरूप ध्यान श्रेष्ठ
है,
क्योंकि यह सुन्दर फल प्रदान करता है। साथ ही, आत्मा का तत्त्व और तत्त्व की आत्मा इन दोनों की एकता का चिन्तन करने से
पुनर्जन्म नहीं होता है ।
आत्मानं सततं रामं संभाव्य विहरन्ति
ये ।
न तेषां दुःकरं किंचिद् दुःकृतोत्था
न चापदः ।।४७।।
जो हमेशा अपने को श्रीराम समझकर
विहार करते हैं उनके लिए कोई दुष्कर कार्य नहीं है और उस दुष्कर कार्य के कारण
उत्पन्न होनेवाली विपत्ति नहीं होती है।
इत्यगस्त्यसंहितायां परमरहस्ये
सगुणोपासनम् नाम पंचमोऽध्यायः ।।
आगे जारी- अगस्त्य संहिता अध्याय 6
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