अगस्त्य संहिता अध्याय ७
अगस्त्य संहिता के इस अध्याय ७ में यहाँ
अगस्त्य मुनि एक कथा कहते है कि एक बार भगवान् शंकर देवी पार्वती के साथ वाराणसी
में निवास करने लगे तो सभी देवता वहीं आकर जम गये। अब भगवान् शिव को चिन्ता हुई कि
ये देवगण तो मेरी उपासना करते हैं, इन्हें
मैं मुक्ति कैसे प्रदान करूँ। इसी समय ब्रह्माजी वहाँ पधारे तो भगवान् ने यही
जिज्ञासा उनसे की। तब ब्रह्मा ने उन्हें भी षडक्षर मन्त्रराज का उपदेश दिया ।
भगवान् शिव सौ मन्वन्तर तक इस मन्त्र का जप करते रहे। तब श्रीराम प्रसन्न होकर
प्रकट हुए। भगवान् शिव ने अपनी चिन्ता उनके सामने रखी तो श्रीराम की कृपा से वहाँ
बसनेवाले सभी लोग मुक्त होकर श्रीराम स्वरूप विष्णु में विलीन हो गये । पुनः
भक्तवत्सल भगवान् शिव ने कहा कि इस संसार में कहीं भी किसी प्रकार जो मृत्यु को
प्राप्त करते हैं, उन्हें कैसे मुक्ति मिलेगी ? इस पर भगवान् श्रीराम ने इस षडक्षर मन्त्र का माहात्म्य कहा कि ब्रह्मा से
या आपसे (शिव से) इस मन्त्र को जो ग्रहण कर जप करेंगे या मुमूर्षु के दक्षिण कर्ण
में यदि मन्त्र का उपदेश करेंगे तो, मुक्ति मिल जाएगी। उसी
दिन से वारणसी मुक्तिक्षेत्र कहलाने लगी ।
अगस्त्यसंहिता अध्याय ७
Agastya samhita chapter 7
अगस्त्य संहिता सप्तम अध्याय
अगस्त्य संहिता
अगस्त्यसंहिता सातवाँ अध्याय
अथ सप्तमोऽध्यायः
अगस्त्य वद त्वं श्रेष्ठ रामस्य
मुनिसत्तम ।
मन्त्रराजस्य माहात्म्यं यदुक्तं
ब्रह्मणा पुरा ।।१।।
सुतीक्ष्ण बोले- हे श्रेष्ठ महामुनि
अगस्त्य! श्रीराम के मन्त्रराज का माहात्म्य जो प्राचीन काल में ब्रह्माजी ने कहा
था,
वह सुनाइए ।
अगस्त्य उवाच
सर्वं तवाभिधास्यामि पुरारेः पुरतः
पुरा ।
ब्रह्मा यदब्रवीत् तत् त्वं
शृणुष्वावहितो महत् ।। २ ।।
अगस्त्य बोले - प्राचीन काल में
ब्रह्माजी ने भगवान् शंकर के समक्ष जो कुछ कहा था, वह सब माहात्म्य सुनाऊँगा, उसे ध्यान से सुनो।
अस्ति वाराणसी नाम पुरी शिवमनोहरा ।
सर्वदासौ शिवस्तत्र पार्वत्या सह
तिष्ठति ।।३।।
वाराणसी नाम की वह नगरी है,
जो भगवान् शिव के वास करने से मन मोह लेती है। वहाँ भगवान् शिव
हमेशा पार्वती के साथ वास करते हैं।
तस्याप्युपासकाः सर्वे भक्त्या तं
प्रतिपेदिरे ।
मुमुक्षवः परित्यज्य सर्वं तत्रैव
संस्थिताः ।। ४ ।।
सदा शिव शिवेत्येवं वदन्तः
शिवतत्पराः ।
शिवार्पितमन: कायवाचः शिवपरायणाः ।।५।।
भगवान् शिव की आराधना करनेवाले सभी भक्ति
भाव से अनुगमन करने लगे। उस प्रकार मोक्ष की इच्छा करनेवाले सभी अन्य स्थलों को
छोड़कर वाराणसी में ही हमेशा 'शिव! शिव'
का उच्चारण करते हुए, शिव मे मन, शरीर एवं वाणी को अर्पित कर शिवभक्त होकर रहने लगे।
शिवस्तु तान् मुहुः पश्यन्नास्ते
चिन्तासमाकुलः।
कथमेभ्यः प्रदास्यामि
मुक्तिमित्यतिदुःखितः ।।६।।
तत्रैवास्ते गणैः सार्द्धमृषिभिश्च
सुरासुरैः ।
भगवान् शिव उन्हें बार-बार देखते
हुए चिन्तित हो गये कि इन्हें मुक्ति किस प्रकार दूँगा । इस प्रकार वे अत्यधिक
दुःखी थे। फिर भी भगवान् शिव सभी गण, ऋषि,
देवता एवं असुरों के साथ वहीं रहे।
एवं वसति भूर्ल्लोकमाजगाम चतुर्मुखः
।।७।।
तमीश्वरो निरीक्ष्यैव
सम्भ्रमेणाकरोत् प्रियम् ।
बहु संभावयामास यद्धितं
तन्न्यवेदयत् ।।८।।
इस प्रकार जब शिव वहाँ रहे थे,
तब एक दिन ब्रह्मा पृथ्वी पर आये। उन्हें देखकर भगवान् शिव ने
उत्साह से उन्हें प्रसन्न किया और अनेक प्रकार से अभ्यर्थना कर अपना अभीष्ट
निवेदित किया ।
ततः स प्राह भगवानीश्वरस्तं
चतुर्मुखम् ।
कुशलं ननु ते ब्रह्मन् चिराय
त्वमिहागतः ।।९।।
श्रीमदागमनेनाहं
लोकपूज्योऽप्युपासकैः ।
समाराध्य हि मां भक्तिं
प्रार्थयन्ति मुमुक्षवः ।।१०।।
केनोपायेन तेषां तत्फलं दास्यामि
तद् वद ।
इसके बाद भगवान् शिव ने ब्रह्मा से
कहा- 'हे ब्रह्मा, आप कुशल तो हैं न! बहुत दिनों के बाद
यहाँ आये हैं! श्रीमान् के आगमन से आज मैं उपासकों के साथ तीनों लोकों में पूज्य
हूँ। मोक्ष चाहनेवाले मेरी आराधना कर भक्ति की प्रार्थना करते हैं, अतः उस भक्ति का फल मोक्ष उन्हें किस प्रकार दूँ, यह
बतलाइए।
ईश्वरेणैवमुक्तः सन् द्रुहिणोऽपि
बभाण ह ।।११।।
अस्त्युपायो गोपनीयः प्रादाद् यं मे
रघूद्वहः ।
तपः कृत्वा चिरायाहं तं परं
लब्धवान् वरम् ।।१२।।
ततोऽन्यो मदभिज्ञातो नास्त्युपायो
महेश्वर ।
मह्यमन्वग्रहीद् रामो न
सन्देहोऽस्ति तत्र वै ।।१३।।
भगवान् शंकर के ऐसा कहने पर ब्रह्मा
भी बोले- “एक ऐसा उपाय है, जो सभी को बतलाया नहीं जा सकता। यह मुझे स्वयं श्रीराम ने बतलाया था,
जब मैंने चिरकाल तक तपस्या कर उनसे वर प्राप्त किया था । हे महेश्वर
! इससे भिन्न उपाय मेरी जानकारी में नहीं है। मेरे ऊपर श्रीराम ने कृपा की थी,
इसमें सन्देह नहीं ।
ईश्वर उवाच
अथ किं मे वदस्वेदं त्वं मां
यद्यनुकम्पसे ।
स तेनाभिहितो दध्यौ क्व कदा
युक्तमित्यपि ।।१४।।
ईश्वर (शिव) बोले- “यदि मेरे ऊपर कृपा हो तो बतलाइए कि ऐसा कौन - सा उपाय है। " ऐसा कहने
पर ब्रह्मा ने सबका बखान किया कि यह मन्त्र कहाँ और किस समय देना चाहिए।
पुण्यतीर्थे च गंगायां लोलार्के
सूर्यपर्वणि ।
तस्मै मन्त्रवरं प्रादान्मन्त्रराजं
षडक्षरम् ।।१५।।
गंगा के पावन तट पर सूर्यग्रहण के
समय जब सूर्य चंचल रहते हैं ऐसे स्थान और समय में ब्रह्मा ने शिव को यह षडक्षर
मन्त्र दिया ।
नियतः सोऽपि तत्रैव जजाप वृषभध्वजः
।
मन्वन्तरशतं भक्त्या
ध्यानहोमार्चनादिभिः ।।१६।।
वृषभध्वज शिव ने भी वहीं नियमपूर्वक
भक्तिभाव से ध्यान, होम और अर्चना करते
हुए सौ मन्वन्तर तक मन्त्र का जप किया।
ततः प्रसन्नो भगवान् रामः प्राह
त्रिलोचनम् ।
वृणीष्व पदमिष्टं ते देवानामपि
दुर्लभम् ।।१७।।
तदेवाहं प्रदास्यामि मा चिरं
वृषभध्वज ।
इसके बाद प्रसन्न होकर भगवान्
श्रीराम ने भगवान् शंकर से कहा- “हे वृषभध्वज !
आप जो स्थान चाहें वह माँग लें। देवताओं के लिए भी जो दुर्लभ है, वही मैं दूँगा! देर न करें।"
ततस्तमब्रवीद् विष्णुमीश्वरः परया
मुदा ।।१८।।
दर्शनेनैव ते धन्याः कृतार्थाः वै
ममेप्सितम् ।
एते मदीयाः सर्वेऽपि मां परं
पर्य्युपासते ।।१९।।
मुक्त्यर्थं तत्कुरुष्वैषां
तदेवाभिमतं मम ।
नातः परतरं किञ्चित् प्रार्थितं मम
विद्यते ।।२०।।
इसके बाद परम प्रसन्न होकर भगवान्
शिव ने विष्णु से कहा- "आपके दर्शन से ही हम धन्य हो गये;
मेरी इच्छा सफल हो गयी। किन्तु मेरे ये भक्त जो मुझे परम देव मानकर
मेरी उपासना करते हैं, इनकी मुक्ति के लिए उपाय करें;
यही मेरी इच्छा है। इससे बढ़कर मेरी कोई प्रार्थना नहीं है।
एवं वदति तत्रैव तदानीं तदुपासकाः ।
सर्वे ज्योतिर्मयाः सन्तो विष्णावेव
लयं गताः ।।२१।।
ऐसा कहने पर उस समय वहीं पर भगवान्
शिव के सभी उपासक ज्योतिःस्वरूप होकर विष्णु में ही लीन हो गये।
ततः प्रोवाच रामस्तं पुनरिष्टं
यदस्ति ते ।
ब्रूहीश्वरात्र तद् दास्ये
प्रार्थनादुर्लभं च यत् ।।२२।।
इसके बाद श्रीराम ने शिव से कहा-
"हे ईश्वर! यदि और भी कोई आपकी ईच्छा हो तो यहाँ कहें। प्रार्थना के द्वारा
जो दुर्लभ है वह में दूँगा । "
इत्युक्तः स पुनर्वहितं तद्
भक्तवत्सलः ।
सर्वलोकोपकाराय सर्वेषामपि दुर्लभम्
।।२३।।
ये स्वतो वान्यतो वापि यत्र
कुत्रापि वा प्रभो ।
प्राणान् परित्यजन्त्यत्र
मुक्तिस्तेषां फलं भवेत् ।।२४।।
विष्णु के द्वारा ऐसा कहने पर
भक्तवत्सल भगवान् शिव ने पुनः सबके लिए दुर्लभ और सबके उपकार के लिए कहा- "हे
प्रभो! जो स्वाभाविक रूप से या अस्वाभाविक रूप से जिस किसी स्थान में प्राणत्याग
करते हैं,
उनकी मुक्ति हो।"
गंगायां च तटे वापि यत्र कुत्रापि
वा पुनः ।
म्रियन्ते ये प्रभो देव
मुक्तिर्नातो वरान्तरम् ।।२५।।
गंगा में या इसके तट पर जहाँ कहीं
भी लोगों की मृत्यु हो, वे मुक्ति पायें उसके
अतिरिक्त कोई वर नहीं चाहिए ।
विश्वामित्र्यां च यः स्नात्वा
पश्येत् सिद्धेश्वरं सकृत् ।
ब्रह्महत्यादिभिः पापैर्मुच्यते
नात्र संशयः ।।२६।।
विश्वामित्र्यां च ये नूनं स्नाति
श्रद्धालवः सदा ।
तेऽपि पापविनिर्मुक्ता यान्ति
विष्णोः परं पदम् ।।२७।।
विश्वामित्र की नदी (कोशी ?)
में स्नान कर जो सिद्धेश्वर का एकबार भी दर्शन करते हैं, वे ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्त हो जाते हैं इसमें सन्देह नहीं । कौशिकी
नदी में जो हमेशा केवल श्रद्धापूर्वक स्नान करते हैं, वे भी
पाप से मुक्त होकर विष्णु का परम पद प्राप्त करते हैं ।
श्रीराम उवाच
कुरुते मानवो यस्तु कलौ भक्तिपरायणः
।
कल्पकोटिसहस्राणि रमते सन्निधौ हरेः
।।२८।।
श्रीराम बोले - कलियुग में जो
मनुष्य भक्तिपूर्वक कर्म करते हैं, वे
हजारों करोड़ कल्प तक श्रीहरि के समीप रमण करते हैं।
क्षेत्रे तु तव देवेश यत्र कुत्रापि
वा मृताः ।
कृमिकीटादयोऽप्याशु मुक्ताः सन्तु न
चान्यथा ।।२९।।
हे देवेश! आपके क्षेत्र में जहाँ
कहीं भी मृत्यु पाकर कृमि, कीट आदि भी शीघ्र
ही मुक्त हो जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं ।
त्वत्तो वा ब्रह्मणो वापि लभन्ते ये
षडक्षरम् ।
जीवन्तो मन्त्रसिद्धाः स्युर्मृता
मां प्राप्नुवन्ति ते ।।३०।।
आपसे या ब्रह्मा से जो षडक्षर
मन्त्र पाते हैं, वे जीवित रहते
मन्त्रसिद्ध हो जाते हैं और मृत्यु के बाद मुझे प्राप्त करते हैं ।
क्षेत्रेऽस्मिन् योऽर्चयेद् भक्त्या
मन्त्रेणानेन शंकर ।
अहं सन्निहितस्तत्र
पाषाणप्रतिमादिषु ।।३१।।
हे शंकर! इस क्षेत्र में इस मन्त्र
से भक्तिपूर्वक जो मेरी अर्चना करते हैं, मैं
उनके समीप रहता हूँ; क्योंकि यहाँ पत्थर आदि की प्रतिमाओं
में लीन मैं हूँ ।
मुमूर्षोर्दक्षिणे कर्णे यस्य
कस्यापि वा स्वयम् ।
उपदेक्ष्यति मन्मन्त्रं स मुक्तो
भविता शिव ।।३२।।
हे शिव! जिसकी मृत्यु निकट हो,
वैसे किसी के दाहिने कान में दूसरा कोई मेरा मन्त्र कहे या वह स्वयं
जपे वह मुक्ति पायेगा ।
इत्युक्तवति देवेशे पुनरप्याह शंकरः
।
महान् महाभिमानोऽत्र क्षेत्रे
त्रैलोक्यदुर्लभे ।।३३।।
फलं भवतु देवेश सर्वेषां
मुक्तिलक्षणम् ।
मुमूर्षूणां च सर्वेषां दास्ये मन्त्रवरं
परम् ।।३४।।
श्रीराम के ऐसा कहने पर पुनः शंकर
ने कहा- "यह इस क्षेत्र की बड़ी महिमा होगी, जो तीनों लोको में दुर्लभ है। हे देवेश ! सबको मुक्तिस्वरूप फल मिले।
जिनकी मृत्यु निकट है, ऐसे सब लोगों को मैं यह मन्त्रराज
प्रदान करूँगा ।
इत्येवमीरितो विष्णुस्तस्मै दत्वा
वरान्तरम् ।
यदभीष्टं पुनस्तत्र तत्रैवान्तरधीयत
।।३५।।
इस प्रकार कहने पर विष्णु ने उन्हें
अन्य इच्छित वर देकर फिर वहीं अन्तर्धान हो गये ।
तदादितदभून्मुक्तिक्षेत्रं त्रैलोक्यपावनम्
।
तत्र तिष्ठन्ति ये भक्त्या
यावज्जीवं नियम्यते ।।
मुक्तिभाजो भवन्त्येव सत्यं सत्यं न
चान्यथा ।।३६।।
इसके बाद उस समय से तीनो लोकों में पवित्र
वाराणसी 'मुक्तिक्षेत्र' हो गयी। वहाँ जो भक्तिपूर्वक वास
करते और जीवन पर्यन्त नियम का पालन करते हैं, वे मुक्ति के
भागी होते हैं। यह सत्य है, सत्य है; यह
अविचल है।
इत्यगस्त्यसंहितायां परमरहस्ये
मन्त्रराजमाहात्म्यं नाम सप्तमोध्यायः ।
आगे जारी- अगस्त्य संहिता अध्याय 8
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