अगस्त्य संहिता अध्याय ६
अगस्त्य संहिता के इस अध्याय ६ से अगस्त्य और सुतीक्ष्ण की वार्ता के रूप में
तुलसी माहात्म्य का विस्तृत वर्णन है, जिसमें
तुलसी वृक्ष का दल, मंजरी, काष्ठ आदि
प्रत्येक अंग का आध्यात्मिक महत्त्व बतलाया गया है तथा तुलसी माला धारण करने का
विधान किया गया है। तुलसी वृक्ष लगाने से भी भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति
वर्णित है।
अगस्त्यसंहिता अध्याय ६
Agastya samhita chapter 6
अगस्त्य संहिता षष्ठ अध्याय
अगस्त्य संहिता
अगस्त्यसंहिता छटवाँ अध्याय
अथ षष्ठोऽध्यायः
सुतीक्ष्ण उवाच
किमेतद् भगवन् ब्रूहि तव मध्याङ्गुलिं
रहः ।
तत्किं पिबसि माहात्म्यं
श्रीतुलस्याः क्वचित् सृतम् ।।१।।
सुतीक्ष्ण ने पूछा- हे भगवान्
अगस्त्य मुनि! आपकी अंगुलियों के बीच में क्या छुपा हुआ है,
यह तो बतलाइये ! क्या आप श्रीतुलसी से निःसृत माहात्म्य का पान कर
रहे हैं?
अगस्तिरुवाच
शृणु वक्ष्यामि माहात्म्यं
श्रीतुलस्याः प्रयत्नतः ।
पूर्वमुग्रतपः कृत्वा वरं बव्रे
मनस्विनी ।।२।।
अगस्त्य बोले- सुनो,
मैं श्रीतुलसी का माहात्म्य भली-भाँति कहता हूँ । प्राचीन काल में
मनस्विनी तुलसी ने उग्र तपस्या कर भगवान् से वर माँगा ।
तुलसी सर्वपुष्पेभ्यो पत्रेभ्यो
वल्लभा यतः ।
विष्णोस्त्रैलोक्यनाथस्य रामस्य
जनकात्मजा ।।३।।
प्रिया तथैव तुलसी सर्वलोकैकपावनी ।
जैसे श्रीराम के लिए जनकनन्दिनी
श्रीसीता प्रिय हैं उसी प्रकार सभी फूलों और पत्तियों में तुलसी भगवान् विष्णु को
सबसे प्रिय हो और वह सभी लोकों को पवित्र करती रहे ।
तुलसीपत्रमात्रेण योऽर्चयेद्राममन्वहम्
।।४।।
स याति शाश्वतं ब्रह्म
पुनरावृत्तिदुर्लभम् ।
अतः केवल तुलसी के पत्र से जो
प्रतिदिन श्रीराम की पूजा करते हैं वे ऐसे शाश्वत ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं,
जहाँ से फिर इस संसार में आना सम्भव नहीं है।
नीलोत्पलसहस्रेण त्रिसन्ध्यं
योऽर्चयेद्धरिम् ।।५।।
फलं वर्षसहस्रेण तदीयं नैव लभ्यते ।
नीलकमल के हजार फूलों से तीनों
सन्ध्या जो श्रीहरि की पूजा करते हैं, वे
एक हजार वर्ष में भी वैसा फल प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।
विद्वन् सर्वेषु पुष्पेषु पङ्कजं
श्रेष्ठमुच्यते ।।६।।
तत्पुष्पेष्वपि तन्माल्यं
लक्षकोटिगुणं भवेत् ।
हे विद्वान् सुतीक्ष्ण! सभी फूलों
में कमल श्रेष्ठ है और कमल के फूलों में भी उसकी माला लाखों करोड़ों गुना फलदायिनी
होती है।
विष्णोः शिरसि विन्यस्तमेकं
श्रीतुलसीदलम् ।।७।।
अनन्तफलदं विद्वन्
मन्त्रोच्चारणपूर्वकम् ।
किन्तु भगवान् विष्णु के शिर पर
मन्त्रोच्चारण के साथ चढ़ाया गया एक तुलसी का पत्र अनन्त फल देता है।
पुष्पान्तरैरन्तरितं निर्मितं तुलसीदलैः
।।८।।
माल्यं मलयजालिप्तं दद्यात्
श्रीराममूर्द्धनि ।
दूसरे फूलों के बीच में तुलसीदल
डालकर बनायी गयी तथा मलय चन्दन से पोती गयी माला श्रीराम के मस्तक पर चढ़ानी चाहिए
।
किं तस्य बहुभिर्यज्ञैः
सम्पूर्णवरदक्षिणैः ।।९।।
किं तीर्थसेवया दानैरुग्रेण तपसापि
वा ।
उनके लिए अनेक श्रेष्ठ दक्षिणा वाला
यज्ञ,
तीर्थ में निवास, दान तथा उग्र तपस्या व्यर्थ
है ।
वाचं नियम्य चात्मानं मनो विष्णौ
निधाय च ।।१०।।
योऽर्चयेत् तुलसीमालैर्यज्ञकोटिफलं
भवेत् ।
भवाघकूपमग्नानामेतदुद्धारकाङ्कशम् ।।११।।
अपनी वाणी को संयमित कर तथा मन में
भगवान् विष्णु को धारण कर जो तुलसी की माला से पूजा करते हैं उन्हें करोड़ों यज्ञ
करने का फल मिलता है। यह संसार के पाप रूपी कूप में गिरे लोगों को निकालने के लिए
झग्गर है।
पत्रं पुष्पं फलं चैव श्रीतुलस्या:
समर्पितम् ।
रामाय मुक्तिमार्गस्य द्योतकं
सर्वसिद्धिदम् ।।१२।।
श्रीराम को समर्पित श्रीतुलसी का
पत्र,
फूल तथा फल सभी सिद्धियाँ प्रदान करते हैं और मुक्ति का मार्ग
प्रकाशित करते हैं।
माल्यानि तनुते लक्ष्मीः
कुसुमान्तरितानि ह ।
तुलस्याः स्वयमानीय निर्मितानि
तपोधन ।।१३।।
हे तपोधन सुतीक्ष्ण! अपने से तोड़कर
लाये गये तुलसी के पत्र को फूलों से ढँककर बनायी गयी माला अर्पित से लक्ष्मी की
वृद्धि होती है ।
त्रयो वेदास्त्रयो देवास्तिस्रः
सन्ध्यास्त्रयोऽग्नयः ।
सदा कुर्वन्ति माङ्गल्यं तुलसी यस्य
मस्तके ।।१४।।
जो मस्तक पर तुलसी धारण करते हैं
उनका कल्याण तीनों वेद, तीनों देव, तीनों सन्ध्याएँ और तीनों अग्नियाँ करती हैं।
तुलसीवाटिका यत्र पुष्पान्तरशतैर्युता
।
शोभते राघवस्तत्र सीतया सहितः
स्वयम् ।।१५।।
जहाँ सैकड़ों प्रकार के फूलों से
युक्त तुलसी का बाग है, वहाँ स्वयं श्रीराम
सीता के साथ विराजमान रहते हैं।
कौतुकं शृणु देवेशि विनिर्माल्ये च
वह्निना ।
तापिते नाशमायाति
ब्रह्महत्यादिपातकम् ।।१६।।
हे देवेशि! यह आश्चर्य की बात सुनो
कि निर्माल्य से तुलसीदल चुनकर जो अग्नि में जलाते हैं,
इससे ब्रह्महत्या आदि के पापों का नाश होता है।
आरोपयन्ति ये नित्यं स्वयमेव
मनीषिणः ।
वनत्वेन समावृत्य कण्टकैस्तुलसीतरून्
।।१७।।
अर्चनाय तदेवालं तन्नामाभ्यर्हितं
ततः ।
जो विद्वान् व्यक्ति नियमित रूप से
स्वयं (रक्षा के लिए) काँटों की बाड़ से घेरकर तुलसी- वन लगाते हैं,
वही पूजा-अर्चना के लिए पर्याप्त है; उससे भी
श्रेष्ठ उनके नाम से युक्त तुलसी की प्रशंसा की गयी है।
शालग्रामशिलातीर्थं तुलसीदलवासितम् ।।१८।।
ये पिबन्ति पुनस्तेषां स्तन्यपानं न
विद्यते ।
शालग्राम शिला का जल जो तुलसीदल से
सुवासित है, उसका पान करनेवालों को पुनः
स्तनपान नहीं करना पड़ता अर्थात् उनका पुनर्जन्म नहीं होता ।
गाङ्गेयमिव तोयेषु पूज्येष्विव
रघूत्तमः ।।१९।।
सरोजमिव पुष्पेषु शस्यते तुलसीदलम् ।
जलों में गंगाजल,
पूजनीय देवों में श्रीराम और फूलों में कमल के समान पत्रों में
तुलसीदल प्रशस्त है।
सम्पूज्य भक्त्या विधिवद्रामं
श्रीतुलसीदलैः ।।२०।।
भवान्तरसहस्रेषु दुःखग्राहाद्
विमुच्यते ।
तुलसीदल से श्रीराम की भक्ति और
विधान से पूजा कर मनुष्य हजार जन्मों तक दुःखरूपी ग्राह से मुक्त हो जाता है।
वर्णाश्रमेतराणां च पूजा यस्यैव
साधनम् ।।२१।।
अपेक्षितार्थदं नान्यञ्जगत्स्वपि
तपोधन ।
वर्णाश्रम धर्म से बहिर्भूत और केवल
पूजा को ही मोक्ष का साधन बनानेवाले अर्थात् (दान आदि के अनधिकारी) यतियों के लिए
संसार में तुलसीदल को छोड़कर कोई दूसरी वस्तु नहीं है,
जिससे उन्हें इच्छित वस्तु की प्राप्ति हो सके।
पूजायोग्यैर्दलैः पत्रैः
पुष्पैर्योऽर्चयेद्धरिम् ।।२२।।
यान्ति न्यूनातिरिक्तानि कर्माणि
सफलान्यहो ।
न तस्य नरकक्लेशो योऽर्चयेत्
तुलसीदलैः ।।२३।।
पापिष्ठो वाप्यपापिष्ठो सत्यं सत्यं
न संशयः ।
पूजा के योग्य दल,
पत्र और पुष्प से जो श्रीहरि की पूजा करते हैं उनके द्वारा पूजा
सामग्री में कमी या फालतू सामग्री के रहने पर भी कर्म सफल होते हैं। जो तुलसीदल से
पूजा करते हैं, उन्हें नरक का क्लेश नहीं होता, चाहे वे पापी हो या निष्पाप हो; यह सत्य है, सत्य है, इसमें सन्देह नहीं ।
गङ्गातोयेन तुलसीदलयुक्तेन
योऽर्चयेत् ।
रामं निक्षिप्य शिरसि राममन्त्रेण
सेचयेत् ।।२४।।
निमील्य चक्षुषी धीरो हृदि रामं
निधाय च ।
असकृद् वा सकृद् वापि य
एवमनुतिष्ठति ।
ध्येयो भवति सर्वेषामयमेव विमुक्तये
।।२५।।
तुलसीदल से युक्त गंगाजल से श्रीराम
की पूजा करते हैं, उसे अपने शिर पर
धारण कर श्रीराम के मन्त्र से अभिषेक करते हैं, आँखों को
धैर्यपूर्वक बंद कर हृदय में श्रीराम को धारण करते हैं; ऐसा
अनेक बार या एक बार भी अनुष्ठान करते हैं, तो उनके ध्येय
श्रीराम इसी से मोक्ष प्रदान करते हैं ।
न सन्ति गुरवो यस्य नैव दीक्षाविधिः
क्रमः ।
रामरक्षां वदन्तो यः
तुलसीदलमर्पयेत् ।।२६।।
दीक्षान्तरशतेनापि नैतत्फलमवाप्यते
।
जिनके कोई गुरु नहीं हैं,
अथवा जिन्होंने दीक्षा भी नहीं ली है, न ही
पूजा की विधि एवं क्रम जानते हैं, वे भी यदि रामरक्षास्तोत्र का पाठ करते हुए तुलसीदल अर्पित करते हैं, तो
अन्य प्रकार की हजारों दीक्षा से भी ऐसा फल उन्हें नहीं मिलेगा ।
दीक्षितेष्वपि सर्वेषु रामदीक्षा तु
उत्तम: ।।२७।।
न गुरुर्नैव कालश्च न
देवान्तरपूजनम् ।
तुलसीदलयुक्तं च रामार्चनमपेक्षते
।।२८।।
सभी प्रकार के दीक्षितों में
श्रीराम की दीक्षा उत्तम है। इसके लिए न गुरु, न समय और न अन्य देवताओं की पूजा की
अपेक्षा है केवल तुलसीदल से श्रीराम की पूजा करनी चाहिए।
निर्माल्यतुलसीमालायुक्तो यद्यर्चयेद्धरिम्
।
यद्यत्करोति तत्सर्वमनन्तफलदं भवेत्
।।२९।।
यदि कोई भगवान् को समर्पित
निर्माल्य तुलसीदल को धारण कर श्रीहरि की अर्चना करता है,
तो वह जो जो कार्य कारेगा उसे अनन्त फल मिलेगा।
यदि न्यूनं भवत्येव रामाराधनसाधनम्
।
तुलसीपत्रमात्रेण युक्तं
तत्परिपूर्यते ।।३०।।
यदि श्रीराम की पूजा सामग्री में
किसी वस्तु की कमी रहे, तो केवल तुलसीदल
डाल देने से पूर्ण हो जाता है ।
शालग्रामशिलायाश्च गङ्गायाश्च तपोधन
।
तुलस्याचैव माहात्म्यं नेष्टो वक्तुं
हि विश्वसृक् ।।३१।।
हे तपोधन सुतीक्ष्ण! शालग्राम की
शिला,
गंगा और तुलसी का माहात्म्य कहने में विश्व के निर्माता ब्रह्मा भी
असमर्थ हैं ।
भवभञ्जनमेतत्ते सर्वाभीष्टं
प्रयच्छति ।
नातः परतरं किञ्चित् पावनं विद्यते
भुवि ।।३२।।
तुलसीदल पुनर्जन्म का नाश करनेवाला
है तथा सभी कामनाओं की पूर्ति करता है। संसार में इससे बढ़कर पवित्र दूसरा कुछ भी
नहीं है ।
यः कुर्य्यात्
तुलसीकाष्ठैरक्षमालास्वरूपिणीम् ।
कर्णमालां प्रयत्नेन कृतं
तस्याक्षयं भवेत् ।।३३।।
तुलसी लकड़ी से रुद्राक्ष की तरह
माला बनाकर कानों में धारण करते हैं, उनके
द्वारा किये गये कार्य कभी नष्ट नहीं होते।
संघृष्य तुलसीकाष्ठं यो
दद्याद्राममूर्द्धनि ।
कर्पूरागुरुकस्तूरीचन्दनं च न
तत्समम् ।।३४।।
तुलसी की लकड़ी को घिसकर श्रीराम के
मस्तक पर लगावें । यह कर्पूर, अगुरु,
कस्तूरी और चन्दन भी इसके समान नही है।
तुलसीविपिनस्यापि समन्तात्पावनं
स्थलम् ।
क्रोशमात्रं भवत्येव गाङ्गेयस्येव
पावनम् ।।३५।।
तुलसी-वन के चारों ओर की भूमि भी
पवित्र होती है, जैसे गंगा के तट पर एक कोस तक
की भूमि पवित्र होती है।
तुलस्या रोपिता सिक्ता दृष्टा
स्पृष्टा तु पावयेत् ।
आराधिता प्रयत्नेन सर्वकामफलप्रदा
।।३६।।
तुलसी का वृक्ष रोपने से,
सींचने से, दर्शन करने से स्पर्श करने से
पवित्र कर देता है और यत्नपूर्वक उसकी आराधना करने से सभी कामनाओं की पूर्ति होती
है ।
चतुर्णामपि वर्णानामाश्रमाणां
विशेषतः ।
स्त्रीणां च पुरुषाणां च पूजितेष्टं
ददाति हि ।।३७।।
चारो वर्णों एवं आश्रमों के
स्त्रियों एवं पुरुषों के द्वारा पूजित तुलसी इच्छाओं की पूर्ति करती है।
प्रदक्षिणं भ्रमित्वा तु
नमस्कुर्वन्ति नित्यशः ।
न तेषां दुरितं किञ्चित् प्रक्षीणमवशिष्यते
।।३८।।
जो तुलसी वृक्ष के दाहिने से घूमकर
प्रतिदिन प्रणाम करते हैं उनके द्वारा किये गये पाप कम होकर भी नहीं रहता अर्थात्
समूल समाप्त हो जाता है।
अनन्यदर्शनाः प्रातर्ये पश्यन्ति
तपोधन ।
अहोरात्रकृतं पापं तत्क्षणात्
प्रदहन्ति ते ।।३९।।
प्रातःकाल किसी दूसरी वस्तु को देखे
विना जो तुलसी का दर्शन करते हैं, उनके द्वारा
उस दिन और रात में किये गये पाप भस्मीभूत हो जाते हैं।
तुलसी सन्निधौ प्राणान् ये त्यजन्ति
मुनीश्वर ।
न तेषां नरकक्लेशः प्रयान्ति परमां
गतिम् ।।४०।।
मुनिश्रेष्ठ! तुलसी के समीप जो
प्राण छोड़ते हैं, उन्हें नरक का
क्लेश नहीं होता और वे परम गति को प्राप्त करते हैं।
विधेयमविधेयं वा न्यूनमप्यथवाधिकम्
।
तुलसीदलमादाय रामं ध्यात्वा
समर्पयेत् ।।४१।।
पूजन में जहाँ विधान हो या न हो,
अन्य सामग्रियों में न्यूनता या अतिरिक्तता हो, श्रीराम का ध्यान कर तुलसीदल समर्पित करें।
'रामाय नम:' इत्येतदच्युताय नमस्ततः ।
अनन्ताय नमस्तस्मात् प्रणवादि
वदेदिदम् ।।४२।।
कृतं सफलतामेति तुलसीसन्निधौ मुने ।
पहले 'रामाय नमः' ऐसा कहें; फिर 'अच्युताय नमः' ऐसा कहें, फिर 'अनन्ताय नमः' कहें। इसके बाद प्रणव ॐकार आदि का
उच्चारण करें। तुलसी वृक्ष के निकट पूजा आदि कर्म करने से सफलता मिलती है।
तदेव पुण्यकालेषु सहस्त्रगुणितं
भवेत् ।।४३।।
शालग्रामशिलायाश्च तुलसीसन्निधौ
मुने ।
तेषां पुण्यवतां मृत्युस्ते मुक्ता
नात्र संशयः ।।४४।।
यही कर्म शुभ समय में किया जाये,
तो हजार गुणा फल मिलता है । तुलसी तथा शालग्राम की शिला के निकट जिस
पुण्यवान् व्यक्ति की मृत्यु होती है, वे मुक्त हो जाते हैं,
इसमें सन्देह नहीं ।
इत्यगस्त्यसंहितायाम् परमरहस्ये
श्रीतुलसीमाहात्म्यकथनं नाम षष्ठोऽध्यायः ।।6।।
आगे जारी- अगस्त्य संहिता अध्याय 7
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