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श्रीकृष्ण ब्रह्माण्ड पावन कवच
त्रैलोक्यविजय श्रीकृष्ण कवच
माहेश्वरतन्त्र पटल ४
माहेश्वरतन्त्र के पटल ४ में विष्णु द्वारा स्त्री स्वभाव का वर्णन, विष्णु
का केतुमाल पर्वत पर जाना, लक्ष्मी को तपस्या से उपरत कराना, साध्वी स्त्री की
प्रशंसा, रमा को समझाना, श्री कृष्ण के
प्राकट्य की कथा,रुक्मिणी रूप में लक्ष्मी का अवतीर्ण होना, आनन्द का वर्णन,
रमा का तप छोड़ देना, सभी प्राणिजात का
प्रसन्न होना तथा तत्त्व ज्ञान के अधिकारी का वर्णन है ।
माहेश्वरतन्त्र पटल ४
Maheshvar tantra Patal 4
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल ४
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र चतुर्थ पटल
अथ चतुर्थ पटलम्
शिव उवाच-
अथ तेषां वचः श्रुत्वा
देवानामतिविक्लवम् ।
प्रहसन्वाचमकिरत् देवानां
हृदयङ्गमाम् ॥ १ ॥
भगवान् शिव ने कहा- इसके बाद उन
अत्यन्त क्लान्त देवों के वचन सुनकर हँसते हुए उन देवों के लिए हृदयङ्गम लगने वाली
वाणी से कहा ॥ १ ॥
विष्णुरुवाच -
भो महेश विधे ब्रह्मन् शक्राद्याः
शृणुतामराः ।
मम प्राणप्रिया देवी रमा देवी
तपस्विनी ॥ २ ॥
कलहान्तरिता जाता केतुमाले तपस्यति
।
तेनोग्रतपसा विश्वं परितप्तं
समन्ततः ॥ ३ ॥
भगवान् विष्णु ने कहा- हे महेश,
हे विधि, हे ब्रह्मन्, हे
इन्द्र आदि देवों सुनो-मेरी प्राणप्रिया देवी तपस्विनी रमा देवी कलहान्तरित होकर
केतुमाल पर्वत पर तपस्या कर रही हैं । उनके उस उग्र तप से समस्त विश्व परितप्त
होने लगा है ।। २-३ ।।
न सा सन्तोषमायाति स्वनिश्चितमृते
सुराः ।
स्त्रीणां जातिस्वभावोऽयं
कार्कश्यमविवेकिता ॥ ४ ॥
हे देवो ! उन्हें अपने निश्चय को
छोड़कर संतोष नहीं होता था । वस्तुत: स्त्रीजाति का यह स्वभाव ही है कि वे कर्कश
और विवेकविहीन होती है ॥ ४ ॥
अशौचं निर्दयत्वं च निर्बन्धः साहसं
तथा ।
लोभानृतं च कपटं मूर्खत्वमपदे च
रुत् ॥ ५ ॥
अशौच, निर्दय होना, हठवादिता तथा साहसी होना, लोभी प्रवृत्ति, झूठ बोलना और कपट व्यवहार, मूर्खता एवं बिना कारण रोना आदि स्त्रियों का स्वभाव ही है ।। ५ ॥
नष्टं कुलं कुतनयात् नष्टं राज्यं
कुमन्त्रिणा ।
ब्राह्मणः
शूद्रसेवाभिरनभ्यासात्सरस्वती ॥ ६ ॥
वस्तुतः कुपुत्र से कुल नष्ट हो
जाता है। कुमन्त्री से राज्य नष्ट हो जाता है! ब्राह्मण शुद्र-सेवा से नष्ट हो
जाता है और सरस्वती बिना अभ्यास के नष्ट हो जाती है ।। ६ ।।
निद्रया नष्टमायुष्यं
अनुद्योगात्समृद्धयः ।
गुणा लोर्धनं पापैः सुखं नष्टं
कुभार्यया ॥ ७ ॥
निद्रा से आयुष्य नष्ट होता है,
उद्योग के बिना समृद्धि नहीं होती, लोभ से गुण
नष्ट हो जाते हैं, पापों से धन नष्ट हो जाता है और अन्ततः
कुत्सित भार्या से सुख समाप्त हो जाता है ।। ७ ।।
यत्रानुकूल्यं
दम्पत्योस्त्रिवर्गस्तत्र वर्द्धते ।
प्रातिकूल्येन नश्येत ग्रीष्मे
बीजाङ्कुरा इव ॥ ८ ॥
जहाँ पति पत्नी में आनुकूल्य होता है
वहाँ [धर्म, अर्थ एवं काम] त्रिवर्ग वृद्धि
को प्राप्त करते हैं और यदि उनमें प्रतिकूलता हो तो वे त्रिवर्ग नष्ट हो जाते हैं
जैसे ग्रीष्मकाल में बीज का अङ्कुर ही सूख जाता है ॥ ८ ॥
देवी निर्बंन्धमापन्ना विरमेन्न
कथश्वन ।
जगतामसुख भूरि प्रवृत्तं तन्निवर्तते
॥ ९ ॥
देवी रमा ने किसी भी प्रकार अपने हठ
को नहीं छोड़ा। जगत् का बहुत अकल्याण होवे इसीलिए वह लौटती ही न थीं ॥ ९ ॥
प्रतिक्रियां करिष्यामि यातं यूयं
मुदान्विताः ।
इति देवा वचः श्रुत्वा परिक्रम्य
जनार्दनम् ॥ १० ॥
प्रणम्य पुनरायाताः स्वं स्वं धाम
प्रहर्षिताः ।
ब्रह्मा विष्णुश्च ईशश्च केतुमालं
गतास्तथा ।। ११ ।।
अतः इसके लिए कुछ कार्य मैं करूँगा।
आप सब प्रसन्न होकर जाइए। इस प्रकार वचन सुनकर देवों ने जनार्दन भगवान् की
परिक्रमा की और उन्हें प्रणाम करके वे पुनः आने के लिए प्रकृष्ट रूप से हर्षित
होकर अपने-अपने स्थान पर चले गये तथा ब्रह्मा, विष्णु
और महेश भी तब केतुमाल पर्वत पर चले गये ।। १०-११ ।।
यत्र सा निश्चलवपुः पदाङ्गुष्ठेन
संस्थिता ।
ऊर्ध्वदृष्टिर्निरुद्धान्तः पवना सा
मनस्विनी ॥ १२ ॥
स्वभाल शिखि
विद्योतज्ज्वालाभिर्ग्रसतीव हि ।
ब्रह्माण्डं कवलाकारं कल्पान्तेग्निशिखा
यथा ॥ १३ ॥
जहाँ वह देवी निश्चल शरीर एवं मात्र
पैर के एक अंगूठे पर ही खड़ी हुई; ऊपर की ओर
दृष्टि की हुई अपने स्वास्-प्रश्वास रूप अन्तःपवन को रोककर वह मनस्विनी मानों अपने
ललाट की ज्वाला की लपटों में ग्रसित होती हुई सी जान पड़ती थीं। वह ब्रह्माण्ड को
कवर (ग्रास) बनाती हुई जैसे कल्पान्त की अग्नि शिखा सी प्रतीत होती थी ।। १२-१३ ।।
दृष्ट्वा तां च तथाभूतां त्रयो
ब्रह्मादिका वयम् ।
परमं विस्मयं
जग्मुर्देव्याश्चरितमद्भुतम् ।। १४ ।।
ततस्तन्निकट गत्वा हरिः प्राह
हसन्निव !
रमे प्राणप्रिये देवि वृथा किं
परितप्यसे ॥ १५ ॥
इस प्रकार उनको हम तीनों ब्रह्मा
आदि देवों ने देखा और तब इस प्रकार देवी का अद्भुत चरित्र देखकर हम अत्यन्त
आश्चर्य में पड़ गए। तब उनके निकट जाकर हँसते हुए भगवान् विष्णु ने इस प्रकार कहा-
हे रमे,
हे प्राणप्रिये, हे देवि, तुम व्यर्थ क्यों तपस्या कर रही हो ? ।। १४-१५ ।।
निवृत्तिमेहि तपसो वृथाया सफलादिह ।
बह्वायासं चाल्पफलं न कर्माचरणं
सताम् ॥ १६ ॥
इस तपस्या से निवृत्त होओ। यहाँ फल
की अपेक्षा तपस्या में अधिक परिश्रम करना व्यर्थ है क्योंकि सत्पुरुष बहुत परिश्रम
करके अल्प फल वाले कर्म के आचरण में प्रवृत्त नहीं होते ।। १६ ।।
ध्यानानन्दरसे लीनं तन्मनोवतरत्
क्षणात् ।
एवमुक्ते तु हरिणा प्रियां
सान्त्वयता भृशम् ॥ १७ ॥
ददर्श प्रियमङ्कस्थं घनश्यामं
चतुर्भुजम् ।
विरञ्चीशानसहितं वनमालाविभूषितम् ।।
१८ ।।
तब ध्यान रूप आनन्द के रस में लीन
उनका मन क्षण भर के लिए ध्यान से विरत हो गया । इस प्रकार भगवान् विष्णु बारम्बार
प्रिया रमा को सान्त्वना दे ही रहे थे, तभी
उन दोनों ने प्रिया को गोद में लिए हुए चतुर्भुज रूप में घनश्याम को देखा । वह
बनमाला से विभूषित थे। उनके साथ ब्रह्मा और भगवान् शङ्कर भी थे ।। १७-१८ ॥
ननाम दण्डवद्भूमौ कृताञ्जलिपुटा रमा
।
नोवाच वचनं किञ्चित् नोत्थितापि
पुना रमा ॥ १९ ॥
रमा ने अञ्जलि बाँधकर दण्ड के समान
भूमि में गिरकर प्रणाम किया उन्होंने (घनश्याम, ब्रह्मा
और शङ्कर ने ) कुछ भी न कहा और पुनः देवी रमा भी नहीं उठी ।। १९ ।।
हरिस्तत्प्रेम परमं स्वस्मिन्
वीक्ष्य सुविस्मितः ।
प्राह देवीं हरिः प्रीत्या शृण्वतो
विधिरुद्रयोः ॥ २० ॥
भगवान् हरि ने अपने में उनका
प्रगाढ़ प्रेम देखकर सुन्दर स्मितयुक्त मुख-मुद्रा में होकर ब्रह्मा और रुद्र को
सुनाते हुए देवी से प्रीतियुक्त इन वचनों को कहा ।। २० ।।
विष्णुरुवाच-
अहो धन्यासि धन्यासि कमले
लोकवन्दिते ।
आत्मनोर्धं स्त्रियः साध्व्यः पुंसो
धर्मपरायणाः ॥ २१ ॥
भगवान् विष्णु ने कहा- अहो देवि !
तुम धन्य हो, धन्य हो । हे कमले ! हे लोकों
से स्तुत ! वस्तुतः- साध्वी स्त्री धर्म-परायण पुरुष का अपना आधा अङ्ग है ।। २१ ।।
स्त्री साहाय्येन जेतव्या लोका
धर्मपरायणैः ।
अपत्नीकस्य ते सर्वे भवन्ति विफला
यतः ॥ २२ ॥
अतः धर्मपरायण जन को चाहिए कि वह
स्त्री की सहायता से लोकों को जीतें। क्योंकि बिना पत्नी के उनके वे सभी कार्य
विफल हो जाते हैं ।। २२ ।।
स्त्रीमूलं सर्वधर्माणां
तदभावात्कुतश्च ते ।
तैर्विना न भवन्त्येव लोका
ज्ञानमथापि वा ॥ २३ ॥
वस्तुतः सभी धर्मों का मूल स्त्री
ही है। फिर उसके अभाव में वे कहीं रहेंगे? उनके
बिना लोक भी नहीं होता है और न तो ज्ञान ही होता है ।। २३ ।।
धिक् जीवितं स्त्री रहितस्य लोके
जुगुप्सितं धर्मविदां समाजे ।
देवा मुनीन्द्रातिथयोऽपि यस्य
गृहाण्युपेक्षन्त इवाधनं जनाः ॥ २४ ॥ ।
वस्तुत: संसार में स्त्री रहित
व्यक्ति का जीवन धिक्कार है। धर्मविद का समाज में छिप कर रहना धिक्कार ही है
क्योंकि देव, मुनीन्द्र और अतिथि भी उसके गृह
की उपेक्षा धनविहीन जन के समान करते हैं ।। २४ ।।
किं धनैविभवाकल्पैर्विभवेः किं
सुखच्युतैः ।
किं सुखं यस्य नो वेश्मन्युदारा
धर्मचारिणी ।। २५ ।।
उस धन से क्या लाभ जिसमें आकल्प
वैभव न हो और वह वैभव भी किस काम का जो सुख से रहित हो,
फिर उस सुख से भी क्या लाभ कि जिसके घर में उदार एवं धर्मचारिणी
स्त्री न हो ।। २५ ।।
दुःशीलं दुर्नयं दुष्टं दरिद्रं
जरया प्लुतम ।
पति पुष्णाति कुलजा तस्मात्स्त्री
तु गरीयसी ॥ २६ ॥
वस्तुतः स्त्री इसलिए श्रेष्ठ है
क्योंकि वह शीलरहित भी,, दुर्विनीत दुष्ट,
दरिद्र एवं वृद्धावस्था से परिप्लुत भी पति के कुल को उत्पन्न करके
पुष्ट ही करती है ।। २६ ।।
न मित्रं स्त्रीसमं मन्ये न बन्धुं
न सहोदरम् ।
यतस्ते पृथगालोच्याः स्त्री तु नैव
कदाचन ॥ २७ ॥
स्त्री के समान मित्र कोई नहीं है,
उसके समान कोई बन्धु नहीं है और न कोई सहोदर भाई ही है। अतः वे
पृथक् रूप से आलोच्य हैं किन्तु पति के साथ रहने वाली स्त्री कभी भी आलोच्य नहीं
है ।। २७ ।।
सुखे वा यदि वा दुःखे जीविते
मरणेऽपि वा ।
न मित्रं स्त्रीसमं क्वापि सत्यं
सत्यं प्रियंवदे ।। २८ ।।
सुख हो या दुःख,
जीवन हो या मरण हे प्रियंवदे! मैं सत्य सत्य कहता हूँ कि स्त्री के
समान कोई भी मित्र नहीं है ।। २८ ॥
तस्मात्त्वं तु विशेषेण स्त्रीरत्नं
मम रोचसे ।
मूर्धन्या पतिदेवानां यतस्त्वं
परिगीयसे ॥ २९ ॥
इसलिए तुम स्त्री रूप रत्न हमको
विशेष रूप से रुचिकर हो। क्योंकि तुम पतिदेव के लिए मूर्धन्य हो इसलिए गीयमान हो
।। २९ ।।
स्त्रीणामपि परो धर्मः पतिशुश्रूषणं
च यत् ।
कायेन मनसा वाचा ततोऽन्यन्नास्ति
किञ्चन ॥ ३० ॥
क्योंकि स्त्रियों का भी श्रेष्ठ
धर्म शरीर से, मन से और वाणी से पति की सेवा-सुश्रूषा
करना ही है । अत: उस (पति) से बढ़कर उनके लिए कुछ भी नहीं है ।। ३० ।।
या स्त्रीपतिव्रता लोके
पतिधर्मपरायणा ।
तदुक्तमेव कुर्वाणा सुखमक्षयमश्नुते
।। ३१ ।।
जो स्त्री लोक में पतिव्रता है और
पतिधर्म में परायण है वह इस प्रकार पातिव्रत्य का आचरण करते हुए अक्षय सुख को
प्राप्त करती है ।। ३१ ।
तस्मादहं ते तपसा परितुष्टोऽस्मि
साम्प्रतम् ।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते तपसो
लोकदु:खदात् ॥ ३२ ॥
इस लिए तुम्हारे तप से इस समय
सन्तुष्ट हूँ । तुम्हारा कल्याण हो, उठो
तुम लोक को दुःख देने वाले इस तप से उठो ।। ३२ ।।
व्यतीयुः सप्तकल्पास्ते साधिकाः
कोमलां तनुम् ।
ग्लपयन्त्या ह्यनुदिनं नोचितस्ते
वृथा श्रमः ॥ ३३ ॥
सात कल्प तुमने बिता दिए। कहाँ यह
कोमल गात?
कहीं इतना कठिन साधन? एक-एक दिन करके इस शरीर
को कृश करना उचित नहीं है। यह तुम्हारा श्रम व्यर्थ है ।। ३३ ।।
पुष्पशय्यासु रुचिरं वपुस्ते
परिखिद्यते ।
सा कथं चण्डतिग्मांशु सहते
तापवर्षिणम् ॥ ३४ ॥
पुष्पमयी शय्या पर सोने वाले मनोरम
शरीर को तुम इस कठोर तप में लगाकर उसे कष्ट पहुँचा रही हो । वह तुम्हारा कोमल गात
इस ताप की लहरी से युक्त प्रचण्ड एवं तीक्ष्ण किरणों को कैसे सह पा रहा है ?
।। ३४ ।
शीतोष्णवातवर्षाभ्यां परिक्लिष्टा
वपुर्लता ।
वेणीभूता मूर्धजास्ते मनो मे
खेदयन्ति च ।। ३५ ।।
तुम्हारी शरीर रूपी लता जाड़े की
शीत लहरी और ग्रीष्म काल की तापलहरी एवं वर्षा में खुले आकाश में रहने से बहुत
क्लान्त हो गई है। तुम्हारी वेणीभूत जटा हमारे मन को बहुत दुःखी कर रही हैं ।। ३५
।
मन्दास्मितप्रभोदारं मुखं बिम्बाधरं
तव ।
हिमक्लिष्टं न चाभाति हेमन्तकमलं
यथा ।। ३६ ।।
मन्द मन्द मुस्कान की कान्ति से
उदार लगने वाला तुम्हार मुख और बिम्ब के फल के समान तुम्हारे अरुण वर्ण के ओष्ठ
उसी प्रकार शोभित नहीं हो रहे हैं जैसे पाला मार देने से हेमन्त ऋतु का कमल
कान्तिविहीन हो जाता है । ३६ ।।
चण्ड तिग्मांशुतापेन कपोलौं श्यामळी
तव ।
मुक्तादामश्रिया हीनौ न शोभा ते
(शोभेते) यथा पुरा ॥ ३७ ॥
तुम्हारे दोनों कपोल तीक्ष्ण एवं
प्रचण्ड धूप की किरणों से श्याम वर्ण के लग रहे हैं। जैसे मोती अपनी श्री से हीन
हो जाय उसी प्रकार तुम भी पहले के समान शोभित नहीं हो रही हो ।।३७ ।।
अनञ्जनं च नयनं भालं
काश्मीरवञ्चितम् ।
मुखं ताम्बूलरहितं वीक्षतः कस्य ते
सुखम् ।। ३८ ।।
बिना काजल लगाए हुए नेत्र और बिना
मङ्गल टीका के ललाट और ताम्बूल से रहित तुम्हारा मुख देखकर कौन सुखी होगा ?
।। ३८ ॥
मा शोषय वपू रम्यं तपसा दुर्द्धरेण
वै ।
मूर्ध्नाप्रणम्य ते पादं
प्रार्थयामि पुनः पुनः ।। ३९ ॥
कठोर तपस्या से अपने मनोरम शरीर को
मत सुखाओ। तुम्हारे चरणों में सिर से प्रणाम कर पुनः पुनः मैं तुमसे प्रार्थना
करता हूँ । ३९ ।।
किं ध्यायसि रह इति यत्प्रष्ट कमले
त्वया ।
अवाच्यं तत्तु जानीहि अपि
कल्पायुतायुतेः ॥ ४० ॥
'तुम एकान्त में क्या सोंच रहे हो'
यह जो तुमने मुझसे पूछा था । उसे कोटि- कोटि कल्पों में भी किसी से
नहीं कहना चाहिए। फिर भी उसे तुम जान लो ।। ४० ।।
तथापि कथयिष्यामि कृतस्ते तपसा
ह्यहम् ।
साक्षान्नजिह्वया वाच्यं तत्तु देवि
कथञ्चन ॥ ४१ ॥
(यह यद्यपि अकथनीय है) फिर भी मैं
तुमसे कहूँगा क्योंकि उसके लिए तुमने कठोर तप किया है। हे देवि साक्षात् वाणीं से
इसे नहीं कहना चाहिए ।। ४१ ।।
तथापि कथयिष्यामि प्रकारं शृणु
सुन्दरि ।
द्वापरान्तेऽष्टाविंशतिमे असुरा
नृपरूपिणः ।
वेदमार्गविनाशाय यतिष्यन्ति
दुराशयाः ॥ ४२ ॥
तथापि,
हे सुन्दरी ! तुम सुनो। मैं उसके प्रकार को कहूँगा- अट्ठाइसवें
द्वापर के अन्त में राजा रूपी असुर वेदमार्ग के विनाश के लिए दुष्ट बुद्धि से
प्रयत्न करेंगे ।। ४२ ।।
स्त्रीगोब्राह्मणसाधूनां
धर्मिष्ठानां तपस्विनाम् ।
वर्णाश्रमाणां सेतुनां
स्वस्वधर्मानुवर्त्तिनाम् ॥ ४३ ॥
करिष्यन्ति यदा पीडां तदाहं
धर्मगुप्तये ।
वेदधर्मादिरक्षार्थं विनाशाय
दुरात्मनाम् ॥ ४४ ॥
ययातिकुलजातस्य यदुराजस्य वेश्मनि ।
वासुदेवो भविष्यामि नाम्ना कृष्णेति
विश्रुतः ।। ४५ ।।
स्त्री,
गो, ब्राह्मण और साधु जनों एवं तपस्वियों तथा
धर्मिष्ठों अर्थात् अपने धर्म मार्ग पर चलने वाले वर्णाश्रमियों को जब बे असुर
पीडा पहुँचाएंगे, तब मैं धर्म की रक्षा के लिए; वेद एवं धर्म आदि के गोपन के लिए तथा दुरात्मानों के विनाश के लिए ययाति
के कुल में उत्पन्न यदुराज के गृह में वसुदेव पुत्र के नाम से विख्यात होकर जन्म
लूँगा ।। ४३-४५ ।।
तत्रापि त्वं रुक्मिणीति भविष्यसि
वराङ्गना ।
तत्र त्वां केचन नृपा असुरा
ज्ञानदुर्बलाः ॥ ४६ ॥
आयास्यन्ते समुद्वोढुं जित्वा तान्
समरे खलान् ।
उद्वहिष्यामि भवतीं मच्चितां नात्र
संशयः ॥ ४७ ॥
वहाँ भी तुम मेरी स्त्रियों में
श्रेष्ठ 'रुक्मिणी' नाम से मेरी पत्नी होगी । वहाँ पर भी
तुमसे कुछ अज्ञानी असुर राजा विवाह करना चाहेंगे। तब उन सभी दुष्टों को जीतकर मेरे
में अनुरक्त तुम्हें मैं विवाह कर लूँगा- इसमें कोई सन्देह नहीं है ।। ४६-४७ ।।
तदा कुलाङ्गनाः पुत्रपतिवन्त्यः
पतिव्रताः ।
गास्यन्ति मङ्गलार्थं तु
मच्चरित्राणि सुन्दरि ॥ ४८ ॥
उपचारविधानेन तच्छ्रुत्वा हृदय मम ।
भविष्यति सुखापूर्णं यथाम्भोधिर्विधूदये
।। ४९ ।
तब, हे सुन्दरि ! वहाँ की कुलाङ्गनाएँ पुत्र और पति वाली पतिव्रता स्त्रिय
मङ्गल गान के लिए मेरे चरित्रों का गान करेंगी । उस [षोडशोपचार] पूजन अर्चन को
सुनकर मेरा हृदय उसी प्रकार प्रसन्न होगा जैसे चन्द्रमा के उदय से समुद्र प्रसन्न
होता है ।। ४८-४९ ।।
ईदृक्तादृगितिगिरां न वक्तुं भवतीं
क्षमम् ।
स्वयमेवानुभवति शर्कराक्षीरपानवत् ॥
५० ॥
अतः इधर-उधर की वाणी बोलना तुम्हारे
लिए ठीक नहीं है। शर्करा मिश्रित दुग्ध के पीने के समान तुम तो स्वयं ही उसका
अनुभव करोगी ॥ ५० ॥
तत्सुखाम्भोनिधेर्देवि कणिकापि
कथञ्चन ।
न ब्रह्मादिषु देवेषु वर्ततेन्यत्र
का कथा ।। ५१ ।।
हे देवि ! उस आनन्द समुद्र का एक कण
भी ब्रह्मा आदि देवों को भी किसी प्रकार प्राप्त नहीं होता तो दूसरे प्राणियों की
तो बात ही क्या है ।। ५१ ।।
नोपदिष्टं तु तद्वेति न शब्दैरुपदिश्यते
।
केवलानुभवाकारं वेत्ये कोनुभवी सदा ।।
५२ ॥
आनन्द 'वह है' इस प्रकार इसका उपदेश नहीं किया जा सकता ।
वस्तुतः यह शब्द से उपदेश करने योग्य नहीं है। यह तो मात्र अनुभव की वस्तु है,
अर्थात् आनन्द का वर्णन शब्द से नहीं किया जा सकता है । वह तो अनुभव
की वस्तु होने से मेरे कहने योग्य नहीं है ।। ५२ ।।
अनुमानप्रमाणेन ह्यनुमेयं कथञ्चन ।
लक्षणैर्देव देवेशि नान्योपायैः
कथञ्चन ॥ ५३ ॥
यह (दिव्य आनन्द) अनुमान (प्रमाण)
के द्वारा किसी न किसी प्रकार अनुमित ही किया जा सकता है । हे देवि,
हे देवेशि, उसका स्वरूप कुछ लक्षणों के द्वारा
ही बताया जा सकता है, और किसी भी अन्य प्रकार से वह बताने
योग्य नहीं है ।। ५३ ।।
लक्षणानि तु ते वच्मि शृणु सुन्दरि
यत्नतः ।
अन्तः सुखसमुद्वेल्लो बहिः
सन्धानविस्मृतिः ॥ ५४ ॥
अत: हे सुन्दरि,
मैं उस आनन्द के (कुछ) लक्षणों को तुमसे कहूँगा । तुम सावधान होकर
सुनो, -
१. जब अन्तरात्मा [ब्रह्मानन्द रूप]
सुख से समुद्रलित हो उठती है तब बाहरी जगत् की विस्मृति हो जाती है ।। ५४ ॥
नेत्रयोरश्रु संवाहः कम्पः स्वेदोदयस्तथा
।
रोमाञ्चः कण्ठरोधच लक्षणानि च वै
विदुः ।। ५५ ।।
२. नेत्रों से अश्रु की धारा बहने
लगती है,
३. कंपकपी सी होने लगती है और ४. सोना निकलने लगता है । ५. शरीर
पुलकित हो उठता है और ६. कण्ठा- वरोध हो जाता है (जिससे भर्राई सी आवाज निकलता है)
-- इस प्रकार इन आनन्द के लक्षणों को जानो ।। ५५ ।।
इत्येते र्लक्षणैर्देवि मदन्तःकरणस्थितम्
।
सुखं मद्ध्यानयोग्यं
यत्तज्जानिष्यसि केवलम् ।। ५६ ।।
हे देवि ! इन लक्षणों से युक्त वह
ब्रह्मानन्द मेरी अन्तरात्मा में विद्यमान हैं। जब तुम मेरे (भगवान् विष्णु के)
समान ध्यान करोगी, तभी तुम्हें उसकी
अनुभूति होगी ॥ ५६ ॥
तावत्त्वं तं च समयं परिपालय वल्लभे
।
इत्येतत्ते समाख्यातं सर्वस्वं मे न
संशयः ।। ५७ ।।
इसलिए,
हे प्राणवल्लभे ! तुम (ध्यान से जब तक आनन्दानुभूति न हो) तब तक के
समय का परिपालन करो। यह सब हमने तुमसे कह दिया है इसमें कोई सन्देह मत मानो ॥ ५७ ॥
श्रुतीनां चापि सर्वासां रहस्यं
स्विदमेव हि ।
इदमेव परं ज्ञानमिदमेव परा क्रिया ॥
५८ ॥
क्योंकि यह [आनन्दानुभव] तो समस्त
श्रुतियों का भी रहस्य है, अतः यही श्रेष्ठ 'ज्ञान' है और यही श्रेष्ठ 'क्रिया'
है ॥ ५८ ॥
इदमेव परो योग इदमेव परो मखः ।
इदमेव परं ध्येयमिदमेव परा गतिः ।।
५९ ।।
यही श्रेष्ठ 'योग' है । यही श्रेष्ठ 'यश'
है । यही श्रेष्ठ 'ध्येय' है और यही श्रेष्ठ 'गति' है ॥
५९ ॥
इदमेव परं ज्ञेयमिदमेव महाधनम् ।
इदमेवाखिला सम्पत् सत्यं सत्यं
पतिव्रते ॥ ६० ॥
यही श्रेष्ठ 'ज्ञेय' (जानने योग्य) है । यही महान धन है । हे
पतिव्रते ! यह सत्य सत्य समझो कि यही [आनन्दानुभाव] समस्त समृद्धि है ॥ ६० ॥
इत्येवं विष्णुना प्रोक्ता रमा देवी
पतिव्रता ।
जहौ तापं च ग्रीष्मार्त्ता
भूरिवाम्भोदतर्पिता ॥ ६१ ॥
इस प्रकार भगवान् विष्णु के कहने पर
पतिव्रता रमादेवी ने उसी प्रकार संताप को छोड़ दिया। जैसे ग्रीष्मकाल में तप्त
भूमि तीक्ष्ण वर्षा से संतृप्त होकर संताप को छोड़ देती है ॥ ६१ ॥
विकसन्नयनाम्भोजा प्रमोदभरविह्वला ।
पपात पादयोर्भर्तुः दण्डवत्
विमलाशया ॥ ६२ ॥
अत्यन्त प्रमोद से परिपूर्ण होकर
विह्वल से हुए उनके नेत्र कमल खिल उठे और विमल बुद्धि से अपने भर्ता (विष्णु) के
चरणों में उन्होंने दण्डवत् प्रणाम किया ।। ६२ ।।
ब्रह्मणापि मया चापि संस्तुता बहुधा
गिरा ।
तपसः फलमभ्येत्य कृतार्यास्मीत्यमन्यत
।। ६३ ।।
वहाँ हम (शंकर) ने और ब्रह्मा आदि
देवों ने भी बहुत प्रकार से उनकी स्तुति की। हमलोगों ने तपस्या का फल प्राप्त कर
लिया और यह समझा कि 'मैं कृतार्थ हूँ'
॥ ६३ ॥
मुमुचुः पुष्पवर्षाणि
नेदुर्दुन्दुभयो दिवि ।
दुर्गन्धर्वपतयो ननुतुश्चाप्सरोगणाः
॥ ६४ ॥
उस समय देवों ने स्वर्ग से पुष्पों
की वर्षा और दुन्दुभियाँ बजाई । गन्धर्वों ने मधुर गान किया और अप्सराओं का समूह
आनन्द से विभोर उठा ।। ६४ ।।
सप्तर्षयः समभ्येत्य तुष्टुवुस्तामनिदिन्ताम्
।
तापः शशाम जगतां सर्वत्रासीत्
सुमङ्गलम् ।। ६५ ।।
सप्तर्षियों ने भी आकर उन अनिन्दित
रमा को स्तुतियों से सन्तुष्टि किया । इस प्रकार जगत् का ताप शमित हो गया और सभी
ओर सुमङ्गल छा गया ।। ६५ ।।
ववौ वायुः सुखस्पर्शो
दिगासीद्विमलप्रभा ।
जलान्यासन्प्रसन्नानि
जज्वलुर्वह्नयः शुभाः ।। ६६ ।।
मन्द मन्द सुखस्पर्श वायु प्रवाहित
हुई और विमल प्रभा से दिशाएँ युक्त हो गई । उद्वेलित जल शान्त हो गए और शुभ
वह्नियां जल उठी ।। ६६ ।।
मनस्यासन्प्रसन्नानि भूतानां
नष्टचेतसाम् ।
इत्येवं मङ्गले जाते प्रसन्ना दिवि
देवताः ।
पृथिव्यां मानवाः सर्वे पाताले
पन्नगेश्वराः ।। ६७ ।।
नष्ट हुए प्राणिजात के मन पुनः
प्रहृष्ट हो गए। इस प्रकार सर्वत्र मङ्गलमय वातावरण हो जाने से स्वर्ग में देवता
भी प्रसन्न हो गये । इतना ही नहीं पृथ्वी में सभी मानव और पाताल में सभी नागों आदि
की जातियाँ भी प्रसन्न हो गई ।। ६७ ।।
ब्रह्मलोकं गतो ब्रह्मा अहं
कैलासमागतः ।
गृहीत्वा च करे लक्ष्मी विष्णुः
स्वनिलयं प्रति ।। ६८ ।।
ब्रह्मा ब्रह्मलोक को चले गये और
मैं (शङ्कर) भी कैलास को चला आया और भगवान् विष्णु ने भी अपनी पत्नी लक्ष्मी के
हाथों को पकड़कर अपने निवास स्थान (बैकुण्ठ) के प्रति प्रस्थान किया ।। ६८ ॥
इत्येव ते मयाख्यातं त्वया
पृष्टमनिन्दिते ।
तत्वज्ञानं न सुलभं तस्माद्
गोप्यतमं प्रिये ॥ ६९ ॥
इस प्रकार हे अनिन्दिते ! जो तुमने
पूछा है वह मैने तुम्हें बता दिया है । हे प्रीये ! यह तत्वज्ञान सरलता से प्राप्त
होने योग्य नहीं है। अतः इसे प्रयत्नपूर्वक गोपित करके ही रखना चाहिए ।। ६९ ।।
तत्वज्ञानाधिकारण्यो विरलाः सन्ति
केचन ।
कालेन बहुना देवि तान् परीक्ष्य
प्रकाशयेत् ॥ ७० ॥
तत्वज्ञान के अधिकारी- हे देवि !
तत्वज्ञान का अधिकारी विरला ही कोई व्यक्ति होता है । अतः बहुत समय तक उसकी
परीक्षा करके ही इस रहस्य का उद्घाटन करना चाहिए ॥ ७० ॥
स्नेहाल्लोभाद्भयाद्वापि योऽन्यस्मै
वक्ति मूढधीः ।
नाऽसो ज्ञानी भवेद्देवि उदरम्भरिरेव
सः ॥ ७१ ॥
स्नेह,
लोभ या भय से जो मूर्ख इसे एक दूसरे को बता देता है तो उससे वह ज्ञानी
नहीं हो जाता । हे देवि ! उससे वह मात्र पेट भरने वाला ही हो सकता है ॥ ७१ ॥
सहसवाससेवाभिस्ताडनैः परुषोक्तिभिः
।
यदा न याति कालुष्यं सोधिकारी मतो
मम ।। ७२ ।।
एक साथ रहने पर उसकी सेवाओं से उसकी
परीक्षा करके तथा उसे अनेक प्रकार से प्रताड़ित करने पर तथा कठोर वचन कहने पर भी
जब उसका मन कलुषित न हो तो वही, मेरे विचार से,
इस तत्त्वज्ञान का अधिकारी है ।। ७२ ।।
श्रुत्वा तत्वकथावाद वपू रोमाञ्चसङ्कुलम्
।
हर्षाश्रुव्याकुले नेत्रे सोऽधिकारी
मतो मम ।। ७३ ।।
मेरे विचार से वही इस तत्त्वज्ञान
का अधिकारी है जिसका शरीर इस तत्त्वज्ञान एवं कथा को सुनकर रोमाश्चित प्राय हो जाय
और अत्यन्त हर्षातिरेक से अश्रुपूरित होकर व्याकुल हो जाय ॥ ७३ ॥
परापवादविमुखो परस्त्रीधन निस्पृहः
।
अक्रोधी लोभनिर्मुक्तः शान्तः
शास्त्रविचक्षणः ॥ ७४ ॥
वही अधिकारी है जो पर निन्दा से
विमुख हो,
पराई स्त्री और पराये धन से निस्पृह हो । जो क्रोध न करने वाला हो,
जो लोभ से निःशेषेण मुक्तप्राय हो, जो
शान्तचित्त एवं शास्त्रों का पारदृश्वा विद्वान् हो ।। ७४ ।।
वेदशास्त्रार्थं तत्वज्ञः
श्रद्धालुर्गत साध्वसः ।
गुणरागी सदात्यागी विरागी
बाह्यवस्तुषु ।। ७५ ।।
जो वेद एवं शास्त्रों के अर्थ के
तत्त्व को समझने वाला हो, जो श्रद्धालु और
लज्जा रहित हो, वह गुणों का अनुरागी, सदैव
सांसारिकता का त्याग करने वाला एवं बाह्यजगत् से विराग रखने वाला हो, वही इस तत्त्वज्ञान का अधिकारी है।।७५।।
पापभीतो भवेद्वेषी विषयादिष्वलोलुपः
।
अन्यश्वापि शुभैर्देवि लक्षणेश्चापि
लक्षितः ।। ७६ ।।
पाप से भयाक्रान्त एवं द्वेषी
व्यक्ति को यह ज्ञान नहीं देना चाहिए । विषयों में आसक्त न रहने वाले और हे देवि !
और भी अन्य शुभ लक्षणों से युक्त पुरुष को ही यह तत्त्वज्ञान देना चाहिए ।। ७६ ।।
अधिकारीति विज्ञेयस्तस्मै देयमिदं
रहः ।
वेदगुह्यमिदं देवि ! नान्यथा तु
प्रकाशयेत् ॥ ७७ ॥
'यह अधिकारी है' -- ऐसा ठीक से समझकर ही उसे (एकान्त में) यह रहस्यमय ज्ञान देना चाहिए। हे
देवि ! इसे वेद के समान छिपाकर रखना चाहिए। जब सभी प्रकार से ठीक समझ ले तभी इसका
उद्घाटन करना चाहिए अन्यथा प्रकाशित न करे ॥ ७७ ॥
प्रकाशयन्विमूढात्मा स भवेदापदां
पदम् ।
न तस्य तत्वसंसिद्धिर्गुरोः
शिष्यस्य चाप्यहो ॥ ७८ ॥
यदि कोई मूर्ख ! बिना अधिकारी के ही
इसे कहने लग जायेगा तो वह शायद आपद्ग्रस्त हो जायगा। इतना ही नहीं उसे उससे कोई
लाभ नहीं होगा । उसे तत्वज्ञान भी प्राप्त नहीं होगा । वह चाहे गुरु हो या शिष्य
दोनों को ही काई सिद्धि नहीं होगी । ॥७८॥
तत्वज्ञेनोपदिष्टा ये तत्वज्ञा एव
सुन्दरि ।
अनर्हैरुपदिष्टा ये तेप्यनर्हा
भवन्ति हि ।। ७९ ।।
अनर्हैरुपदिष्टा ये येनहश्चि स्वयं
शिवे ।
उभयभ्रंशदोषेण ते यान्ति नरकं
प्रिये ! ॥ ८० ॥
हे सुन्दरि ! जो तत्त्वज्ञान के
ज्ञाता से उपदिष्ट होगा वह 'तत्त्वज्ञ'
ही होगा । अयोग्य से उपदिष्ट अयोग्य ही होते हैं। अतः जो अयोग्य से
उपदिष्ट होगा, हे शिवे ! वह स्वयं अयोग्य ही होगा । हे प्रिये
! दोनों ही (गुरु-शिष्य) इस पातक से नरक में चले जाते हैं ।। ७९-८० ।।
लोकभ्रंशः कर्मलोपात् अयोग्यत्वात्
फलाग्रहः ।
तेषां तमः स्यादतुलं
यावच्चन्द्रार्कतारकम् । ८१ ।।
कर्म के लुप्त हो जाने से संसार से
पतित होने वाले और अयोग्यता के कारण फल न प्राप्त होने से उन्हें अत्यन्त
अन्धकारमय [अविद्याजन्य] पथ में तब तक रहना पड़ता है जबतक ये चन्द्र,
सूर्य और तारे विद्यमान रहते हैं ।। ८१ ।
सुप्तं प्रबोधयेद् बुद्धो
ह्यबुद्धस्तु च तं कथम् ।
पाषाणं तारयेत्तुम्बी न पाषाणः
परस्परम् ।। ८२ ।।
वस्तुतः हे देवि ! सोए हुए को जगाया
जा सकता है किन्तु जगे हुए को कैसे जगाया जा सकता है?
एक तुम्बी (सूखी लोकी) पाषाण को तार सकती है, किन्तु
पाषाण पाषाण को कैसे तार सकता है ? ॥ ८२ ॥
तस्मादेवं विनिश्चित्य सद्गुरोः
शरणं गतः ।
आत्मानं मोहविभ्रान्तं तारयेत्स च
बुद्धिमान् ॥ ८३ ॥
इसलिए इस प्रकार से निश्चय करके
अच्छे गुरु की शरण में जाना चाहिए। वह सद्गुरु बुद्धि है जो स्वयं मोह में भ्रान्त
न होकर दूसरे को तार दे ।। ८३ ।।
इत्येतन्मे समाख्यातं यत्पृष्टोऽहं त्वया
प्रिये !
समासेन महादेवि ! किमन्यत्प्रष्टुमिच्छसि
॥ ८४ ॥
हे प्रिये ! इस प्रकार जो तुमने
मुझसे पूछा था संक्षेपतः यह सब हमने तुमसे अच्छी प्रकार से कहा है । हे महादेवी!
अब तुम और क्या पूछना चाहती हो ? ॥ ८४ ॥
॥ इति श्रीनारदपाञ्चरात्रे
माहेश्वरतन्त्र' उत्तरखण्डे
(ज्ञानखण्डे) शिवोमासवादे चतुर्थ पटलम् ॥ ४ ॥
इस प्रकार श्रीनारद पाश्चरात्र
आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड (ज्ञान खण्ड ) में माँ
जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के चतुर्थ पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत
'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ४
॥
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 5
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