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अगस्त्य संहिता अध्याय २
अगस्त्य संहिता अध्याय २ में पार्वती
द्वारा मुक्ति का उपाय पूछने पर भगवान् परमेश्वर के वास्तविक रूप की व्याख्या करते
हैं और आश्रम के अनुसार उपासना पर जोर देते हुए उस परमेश्वर का ध्यान करने का
उपदेश करते हैं। यज्ञ, वेदाध्ययन, अतिथि पूजन, गुरुशिष्य परम्परा का पालन, दान आदि गृहस्थों और ब्रह्मचारियों के लिए करणीय है।
अगस्त्यसंहिता अध्याय २
Agastya samhita chapter 2
अगस्त्य संहिता द्वितीय अध्याय
अगस्त्य संहिता
अगस्त्यसंहिता द्वितीयोऽध्यायः
अथ द्वितीयोऽध्यायः
पार्वत्युवाच ।
कमुपास्य लभेन्मुक्तिं क्रियया च
कया प्रभो ।
मुमुक्षोः
पुनरावृत्तिदुर्लताभयभञ्जन ।।१।।
हे शंकर! मोक्षार्थियों के लिए
पुनर्जन्मरूपी दुष्टलता के भय का नाश करनेवाले! हे प्रभो! हे संसार का संहार
करनेवाले! किस देवता की उपासना और कैसा कर्म करने से मुक्ति मिलेगी?
ईश्वर उवाच
शृणु देवि महाभागे रहस्यं
कथयाम्यहम् ।
यज्ज्ञात्वा मुच्यते
जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात् ।।२।।
ईश्वर बोले—
हे देवि, मैं उस रहस्य को बतला रहा हूँ,
जिसे जान लेने पर प्राणी संसार के बन्धन से मुक्त हो जाता है ।
अपाणिपादो जवनो
ग्रहीतापीक्ष्यतेऽप्यदृक् ।
अकर्णः स शृणोत्येतच्छब्दरूपं परं
महः ।।३।।
वेत्ति वेद्यं स सर्वज्ञानवेद्यो
विद्यते प्रभुः ।
स महापुरुषः पुंसां स्त्रीणां
पुंव्यक्तिलक्षण: ।।४।।
वे महापुरुष परमेश्वर विना पैर के
भी गतिशील हैं, विना हाथ के भी ग्रहण करने में
समर्थ हैं, विना आँख देखते हैं और विना कान के सुनते हैं और
शब्द के रूप में महान् हैं। वे सभी ज्ञातव्य विषयों को जानते हैं और वे प्रभु
समग्र ज्ञान के द्वारा ज्ञेय हैं। पुरुषों में महापुरुष और स्त्रियों में पुरुष
स्वरूप हैं।
स्त्रीपुन्नपुंसकाकाररहितः
पुरुषोत्तमः ।
सर्वेश्वरः सर्वरूप सर्वदेवमयो हरि: ।।५।।
स्त्री,
पुरुष और नपुंसक के आकार से रहित निराकार पुरुषोत्तम हरि सबके
स्वामी हैं, सभी रूपों में हैं तथा सभी देवताओं के रूप में
हैं ।
सत्त्वज्ञानमयोऽनन्तोऽनादिरानन्द
उच्यते ।
अजः स्मरणमात्रेण
जन्मादिक्लेशभञ्जनः ।।६।।
तस्यात्मधीश्च सर्वेषां
पुनरावृत्तिकर्त्तनी ।
सत्त्व-स्वरूप,
ज्ञान-स्वरूप, अनन्त, अनादि,
आनन्दमय तथा अजन्मा कहे जाते हैं तथा केवल स्मरण करने से जन्म आदि
के कारण उत्पन्न कष्ट को दूर करते है। उनमें जो ध्यान लगाते हैं उनकी बुद्धि इस
संसार में पुनर्जन्म को काटनेवाली भी बन जाती है।
नियमेनैव वर्णानां स्वाश्रमोक्तेन स
प्रभुः ।।७।।
ध्येयः संसारनाशाय न चैवावर्तते
पुनः ।
सभी वर्णों के अपने अपने आश्रमों के
अनुरूप बने नियमों के अनुरूप ध्यान किये गये वे प्रभु पुनः संसार में जन्मग्रहण के
नाशक हैं। वह भक्त इस गंमार में पुनः उत्पन्न नहीं होता ।
स्वाश्रमोक्तं परित्यज्य य
आत्मानमुपासते ।।८।।
तद्रूपेण ततो देवि मुच्यते
भवबन्धनात् ।
हे देवि! अपने आश्रम के लिए कथित
विधान को छोड़कर अर्थात् संन्यास लेकर जो आत्मा की उपासना करते हैं,
वे उसी रूप में इस संसार के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं।
श्रुतिस्मृतिपुराणेषु यो यो नियम
उच्यते ।।९।।
यस्य यस्याश्रमन्यायो न मोक्तव्यो
मुमुक्षुभिः ।
अतो नियममादृत्य कुर्याद्
ध्यानमनन्यधीः ।।१०।।
वेद, स्मृति एवं पुराणों में जो जो नियम बतलाये गये हैं तथा जिसका जो आश्रम है,
उस आश्रम के अनुरूप जो नियम बनाये हैं, मोक्षार्थियों
को उन नियमों का त्याग नहीं करना चाहिए। नियमों के अनुसार एकचित्त होकर प्रभु का
ध्यान करें ।
एतच्चराचरं विश्वं
स्वप्नप्रत्ययवत्सुधीः ।
मिथ्यादृग्व्यतिरिक्तं यद्
दृश्यतेद्धा तथा प्रिये ।।११।।
दृग्रूपेणात्मना ज्ञानं
सत्यानन्दात्मनः स्वयम् ।
एकाकी जितचित्तात्मा चिन्तयेत्
तदनन्यधीः ।।१२।।
सोऽहमित्यात्मनात्मानं
त्वाज्ञानपरिकल्पितम् ।
एतत् स्वव्यतिरिक्तं यद्यतः स्वेनैव
कल्पते ।।१३।।
न पारमार्थिकं देवि यद्यद् बालो हि
कल्पयेत् ।
बालाज्ञयोर्वा को भेदः कल्पेते न तु
चक्षुषा ।।१४।।
विद्वान् इस चराचर जगत् को स्वप्न
के ज्ञान के समान मानते हैं । यह संसार दिखाई पड़ता है,
अतः मिथ्या है। कुछ लोग इसे मिथ्यादृष्टि से भिन्न अर्थात् वास्तविक
मानते हैं। आत्मदृष्टि से ज्ञान को सत्य रूप और आनन्द स्वरूप समझते हुए स्वयं साधक
एकाकी होकर चित्त और आत्मा को जीतकर उस ज्ञानमय ब्रह्म का चिन्तन करे कि 'वह ब्रह्म मैं हूँ' (सोऽहम्) । किन्तु मनुष्य अपनी
अज्ञानता के कारण इस संसार को स्वप्न से भिन्न वास्तविक मानता है और उसी के अनुसार
चलता है। बच्चे जो जो कल्पना करते हैं, वे परम तत्त्व
(वास्तविक) नहीं हैं, तब बच्चे और अज्ञानियों में भेद भी
कहाँ है? वे दोनों तत्त्वचक्षु से अवधारण नहीं करते हैं।
अयं पन्थाः पुराणः स्यादनुप्राप्तः
पुरातनः ।
अध्यात्मविद्भिरर्चातो ज्ञापितः स
परः स्मृतः ।।१५।।
ब्रह्मज्ञान का यह प्राचीन मार्ग है,
जो परम्परा से परम्परा के द्वारा प्राप्त है। अध्यात्मज्ञानियों ने
देवता की अर्चना के द्वारा इसे लोगों को समझाया है, अतः वह
परम तत्त्व है।
आब्रह्मशुद्धवंश्यानां मातापित्रोः
कुले च ये ।
स्त्रियो वाऽव्यभिचारिण्यः
पुरुषाश्चैव धार्मिकाः ।।१६।।
जो ब्रह्म से लेकर शुद्ध वंशवाले
कुल में उत्पन्न माता-पिता से उत्पन्न पुरुष हैं तथा पतिव्रता स्त्रियाँ हैं,
वे धार्मिक हैं।
यज्ञाश्च वेदाध्ययनमेधेते
प्रतिपूरुषम् ।
पूज्यन्तेऽतिथयो यत्र
गुरुशिष्यपरम्परा ।।१७।।
स्वप्नेऽपि चलनं नैव स्त्रीष्वपि
ब्रह्मचारिषु ।
नियमोऽप्याश्रमस्थेषु कदाचिदपि
भामिनि ।।१८।।
यज्ञ और वेद का अध्ययन ये दोनों
प्रति व्यक्ति में वृद्धि प्राप्त करते हैं । जहाँ गुरु-शिष्य की परम्परा और
अतिथियों की पूजा होती है। उन आश्रमों में स्थित स्त्रियों और ब्रह्मचारियों के
नियमों में स्वप्न में भी विचलन नहीं होता ।
तत्तत्कालेषु दानं हि तदर्थिभ्यः
प्रदीयते ।
येषु वंशेषु सर्वेषां तेषामेव
प्रकाशते ।।१९।।
ब्रह्म ब्रह्मविदा देवि
गुरुशिष्योक्तिशिक्षया ।
हे देवि! गुरु और शिष्य द्वारा किए
गये उपदेश से जिन वंशों में विहित अवसरों पर प्रार्थियों को दान किए जाते हैं उन
वंशों के ब्रह्मज्ञानी के द्वारा ब्रह्म प्रकाशित होते हैं।
अयमेव परं ब्रह्म नान्यत्किञ्चिन्न
विद्यते ।।२०।।
इदमेव परं ब्रह्म ततोऽन्यं नास्ति
किंचन ।
तदेतदखिलं ब्रह्म सत्यं सत्यं
प्रकाशते ।।२१।।
एक परम ब्रह्म स्वयं है,
इससे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, यह समग्र ब्रह्माण्ड
सत्य स्वरूप है, जो निश्चय ही प्रकाशवान् है।
जन्मकोटिसहस्रेषु प्रक्षीणाशेषदुः
कृतैः ।
कैश्चिदेव नियम्यासूनपरोक्षं
निरीक्ष्यते ।।२२।।
सुखामृतरसास्वादसत्यज्ञानैकरूपता ।
भागाश्रयेण विदुषा स्वयमेवानुभूयते
।।२३।।
अहो पुण्यमहो धर्म्यं नातः परतरं
क्वचित् ।
अकृत्येषु च सर्वेषु
प्रायश्चित्तमिदं परम् ।। २४।।
सैकड़ो करोड़ जन्मों की तपस्या से
जिन्होंने अपने सभी दुष्कर्म के फलों का नाश कर लिया है,
वह कोई कोई प्राणवायु को नियंत्रित कर प्रत्यक्ष रूप में ब्रह्म का
साक्षात्कार करते हैं। सुख, अमृत रस का आस्वादन और वास्तविक
ज्ञान इन तीनों भेदों को एक रूप में अद्वैत की भावना का आश्रय लेकर विद्वान् स्वयं
अनुभव करते हैं। अहो! यह पुण्य है, यह धर्म का फल है,
इससे भिन्न कुछ भी नहीं सभी दुष्कर्मों में यही परम प्रायश्चित्त
है।
इत्यगस्त्यसंहितायां
परमेश्वरस्वरूपाख्यानम् नाम द्वितीयोऽध्यायः ।
आगे जारी- अगस्त्य संहिता अध्याय 3
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