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कर्मकाण्ड

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अगस्त्य संहिता अध्याय १

अगस्त्य संहिता अध्याय १

अगस्त्य संहिता अध्याय २ - अगस्त्य संहिता का प्रारम्भ महामुनि अगस्त्य और सुतीक्ष्ण के वार्तालाप भूमिका से हुआ है। दण्डकारण्य में नर्मदा के तट पर सुतीक्ष्ण का आश्रम था । एक दिन वहाँ अगस्त्य का आगमन हुआ, तो अतिथि सत्कार के बाद सुतीक्ष्ण ने पूछा कि मैंने अपने जीवन में कई यज्ञ किए, प्रभूत दक्षिणा दी, दान दिया, फिर तपस्या भी की, किन्तु अब भी मैं काम, क्रोध आदि से पीड़ित हूँ। अब मुझे ऐसा उपाय बतलाएँ, जिससे मैं इस संसार के सागर को पार कर सकूँ। इस प्रश्न के उत्तर के रूप में महामुनि अगस्त्य ने शिव और पार्वती की एक कथा सुनायी, जिसमें पार्वती द्वारा इसी प्रश्न पर भगवान् शिव ने संसार के सागर को पार करने का उपाय बतलाया था। यहाँ शिव सर्वप्रथम संसार की विभीषिका का वर्णन करते हैं कि माया से ग्रस्त मनुष्य कैसे बार-बार पृथ्वी पर जन्म लेते हैं और फिर अपकर्म कर पुनः रौरव नरक में जा गिरते हैं। अथवा, कुछ लोग वशीकरण, आकर्षण आदि तान्त्रिक क्रियाओं को करते हुए वर्णाश्रम धर्म का विचार न कर मांस, रक्त, मदिरा का अर्पण कर कर्मकाण्ड सम्पन्न करते हैं, वे भूत, प्रेत, पिशाच या ब्रह्मराक्षस की योनि में जन्म लेते हैं । भगवान् शिव की उक्ति पर सहमत होती हुई देवी पार्वती जब कहती हैं कि इस धर्म से किसी का भी उपकार नहीं होनेवाला है, तब शिव पार्वती के साथ परिहास करते हुए पूर्वपक्ष के रूप में कहते हैं कि मैं तीनों लोकों का अन्तक हूँ, इसलिए हिंसा मुझे प्रिय है, मुझे जो मांस अर्पित करते हैं वे मेरे प्रिय हैं। बहुत परिहास हो जाने पर अन्त में भगवान् सिद्धान्त प्रकट करते हैं कि सच यह है कि हिंसकों के लिए इस संसार को पार करना असम्भव है।

अगस्त्य संहिता अध्याय १

अगस्त्यसंहिता अध्याय १

Agastya samhita chapter 1

अगस्त्य संहिता प्रथम अध्याय

श्रीरामो जयति । '

अगस्त्य संहिता प्रथमोऽध्यायः

अगस्त्यो नाम विप्रर्षिः सत्तमो गौतमीतटे ।

कदाचिद्दण्डकारण्ये सुतीक्ष्णस्याश्रमं ययौ ।।१।।

अगस्त्य नाम के श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि किसी समय में दण्डकारण्य में गौतमी नदी के तट पर स्थित सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम पर पहुँचे ।

प्रत्युज्जगाम तं भक्त्या गन्धपुष्पाक्षतोदकैः ।

पाद्यार्ध्याद्यर्हणां चक्रे तस्मै ब्रह्मविदे मुनिः ।। २ ।।

सुतीक्ष्णस्तं प्रणम्याह सुखासीनं तपोनिधिम् ।

श्रीमदागमनेनैव जीवितं सफलं मम ।।३।।

अद्य जन्मसहस्रेषु तपः फलति संचितम् ।

मुनि सुतीक्ष्ण ने उनकी आगवानी की और चन्दन, पुष्प, अक्षत, जल, हाथ-पैर धोने का जल देकर उस ब्रह्मवेत्ता मुनि का पूजन किया। जब वे सुखपूर्वक आसन पर बैठ गये, तब सुतीक्ष्ण मुनि ने कहा कि श्रीमान् के आगमन से ही मेरा जीवन सफल हो गया। आज सैकड़ों जनमों की तपस्या का फल मुझे मिल गया ।

कामक्रोधादिभिर्भूयो भूयोऽहं पीडितो मुने ।।४।।

नाद्राक्षं सम्यगिष्वापि क्रतुभिर्बहुदक्षिणैः ।

सत्पात्रे सर्वदानानि दत्वा तु मुनिसत्तम ।।५।।

भवाब्धेस्तरणोपायं तपस्तत्वा सुदुष्करम् ।

किं करिष्याम्यहं तात क्व यास्यामीति तद्वद ।। ६ ।।

महामुनि! मैं काम क्रोध आदि से अत्यन्त पीड़ित हूँ। मैंने कई यज्ञ किये, जिनमें पर्याप्त दक्षिणा दी, सत्पात्र को दान किया, किन्तु संसार को पार लगाने का उपाय मैंने नहीं देखा । कठिन तपस्या भी की; किन्तु अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? इसका उपदेश करें।

इत्युक्तः सोऽब्रवीत्तेन कुम्भभूर्विगतस्पृहः ।

क्षणं विचार्य्य तत्पौर्वापर्य्येण मुनिपुङ्गवः ।।७।।

ऐसा कहने पर वीतराग महामुनि अगस्त्य ने कुछ देर सोचकर बारी बारी सुतीक्ष्ण को कहने लगे।

अगस्त्य उवाच

अस्ति वक्ष्यामि ते सर्वं रहस्यं वृषभध्वजः ।

यत्प्रत्यपादयत्पूर्वं पार्वत्यै कृपयात्मवित् ।।८ ।।

अगस्त्य बोले- 'इसका भी उपाय है। प्राचीन काल में आत्मज्ञानी भगवान् शिव ने प्रेमपूर्वक पार्वती से जो रहस्य कहा था, वहीं मैं तुमसे कह रहा हूँ ।

कदाचित पार्वती प्राह भर्तारं भक्तवत्सलम् ।

कथं मे देव निस्तारो भवाब्धेस्तरणं भवेत् ।।९ ।।

भवाब्धौ मोहिताः सर्वे सद्गतिं प्राप्नुवन्ति ते ।

किसी समय में पार्वती ने भक्तवत्सल भगवान् शंकर से पूछा - हे देव! मुझे मुक्ति कैसे प्राप्त होगी और संसार से कैसे पार लगेगा? इस संसार रूपी समुद्र में मोह- ग्रस्त होकर कैसे सभी सद्गति को प्राप्त कर सकेंगे?

ईश्वर उवाच

कामक्रोधादिभिर्दोषैर्दुष्टास्तत्र पुनः पुनः ।

उत्पद्यन्ते विलीयन्ते पुनर्व्यामोहितास्त्वया ।।१०।।

ईश्वर बोले- काम, क्रोध आदि दोषों से इस संसार में लोग आपके द्वारा माया से मोहित होकर बार-बार उत्पन्न और विलीन होते देखे जाते हैं।

रौरवादिषु पच्यन्ते पुनः संसारिणो भुवि ।

कर्मशेषात् प्रजायन्ते पंग्बन्धबधिरादयः ।।११।।

वे पृथ्वी पर उत्पन्न होकर रौरव आदि नाम के नरकों में पचते हैं और पुण्य कर्म के क्षीण होने से लँगडे, अन्धे, बहरे आदि हो जाते हैं ।

कृमिकीटादयो भूत्वा पुनः संसारिणो भुवि ।

कुष्ठाद्युपहता: केचिच्चौरव्याघ्रादिभिर्हताः ।।१२।।

फिर पृथ्वी पर कीड़े-मकोड़े के रूप में जन्म लेकर ये संसारी कुष्ठ आदि रोगों से जकड़े हुए तथा कुछ चोर डाकू, बाघ आदि के द्वारा मार डाले जाते हैं।

प्रविशन्ति जलेऽग्नौ वा देशाद् देशं व्रजन्ति हि ।

परस्त्रीधनहन्तारस्तापयन्ति सतः सदा ।।१३।।

जो लोग दूसरे की स्त्री अथवा धन का हरण करते हैं और सज्जनों को सताते हैं; वे पानी मे डूबते हैं, आग में झुलसते हैं अथवा इस स्थान से उस स्थान भटकते रहते हैं।

देवब्राह्मणवित्तैस्तु येषां जीवनमन्वहम् ।

राजसाः तामसाश्चैव हर्तारो धनजीविनः । । 14 । ।

पुत्रदारादिभिर्युक्ता दुःखावर्ते भ्रमन्त्यहो ।

जो देवता, ब्राह्मण और पुरोहितों के धन से जिनका जीवन चलता है, ऐसे राजस और तामस स्वभाव के लोग पुत्र, पत्नी आदि से युक्त होकर इस दुःख के भँवर में घूमते रहते हैं ।

कलौ प्रायेण सर्वेऽपि राजसा तामसास्तथा ।।१५।।

निसिद्धाचारिणः सन्तो मोहयन्त्यपरान्बहून् ।

यथाभूतः प्रभुल्लेोक सेवकाः स्युस्तथाविधाः ।।१६।।

अतो मदीयाः सर्वेऽपि हिंसकाः स्वप्रियाः प्रिये ।

वश्याकर्षणविद्वेषस्तम्भनोच्चाटनादिषु ।।१७।।

शश्वदावां समाराध्य भवन्ति फलभागिनः ।

आवाभ्यां पिशितं रक्तं सुरां चापि सुरेश्वरि ।।१८।।

वर्णाश्रमोचितो धर्ममविचार्य्यार्पयन्ति ये ।

भूतप्रेतपिशाचास्ते भवन्ति ब्रह्मराक्षसाः ।।१९।।

कलियुग में प्रायः सभी राजस या तामस प्रवृत्ति के लोग होते हैं। निषिद्ध कर्म करनेवाले हैं और वे बहुत से दूसरे लोगों को कष्ट देते हैं। संसार में जैसा मालिक होता है, वैसे ही सेवक भी होते हैं। इसलिए हे प्रिये! वे सभी हिंसक मेरे प्रिय हैं। वशीकरण, आकर्षण, विद्वेषण, स्तम्भन, उच्चाटन आदि प्रयोगों में लीन रहनेवाले वे नित्य हम दोनों की आराधना करके फल पाते हैं। हमदोनों को तो मांस, रक्त, सुरा भी समर्पित करते हैं, किन्तु हे सुरेश्वरि! वर्ण और आश्रम के लिए विहित धर्म का विचार किए विना जो हमदोनों को मांस, रक्त, मदिरा अर्पित करते हैं, वे भूत, प्रेत, पिशाच और ब्रह्मराक्षस होते हैं।

पुनस्तदन्ते जायन्ते विप्रदेवाधिकारिणः ।

तत्तद्रूपेण जायन्ते स्वस्वदोषानुरूपतः ।। २०।।

और फिर मृत्यु पाकर पुरोहित और मन्दिर के अधिकारी होते हैं, फिर अपने दोषों के अनुसार भूत, प्रेत, पिशाच आदि के रूप में जन्म लेते हैं।

पार्वत्युवाच

नायं धर्मो हि देवेश परेषामुपकारकृत् ।

अतो मे ब्रूहि देवेश धर्मो यस्त्वं कृपानिधे ।।२१।।

पार्वती बोली- हे देवाधिदेव, हे करुणानिधि ! यह वशीकरण आदि धर्म दूसरे का उपकार करनेवाला नहीं हैं, अतः जो धर्म है, वह मुझे बतलाइए।

ईश्वर उवाच

सत्यं वदाम्यहं देवि यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।

हन्ताहं सर्वलोकानां यतो हिंसैव मे प्रिया ।। २२।।

महादेव बोले- हे देवि! मैं ठीक ही तो कहता हूँ, जो तुम मुझे पूछ रही हो । मैं तो सभी लोकों का अन्तक हूँ; अतः हिंसा मुझे प्रिय हैं।

ये वा भूतानि निघ्नन्ति विधिनाविधिनापि वा ।

समर्पयन्ति भूतेभ्यो मत्प्रियास्ते सदा प्रिये ।।२३।।

जो प्राणियों का वध विधानपूर्वक या विना विधान के भी करते हैं और भूत-प्रेतों को समर्पित करते हैं वे सदा मेरे प्रिय हैं।

अहं तमोमयो नित्यं हन्मि भूतानि भामिनि ।

मत्कर्म हननं नित्यमतो हिंसैव मे प्रिया ।। २४।।

भामिनि ! मैं नित्य तमोमय हूँ और प्राणियों का संहार करता हूँ। संहार करना मेरा कर्म है, अतः हिंसा ही मेरा प्रिय है ।

मत्कृत्याचारिणः सर्वे वल्लभा मम वल्लभे ।

लोके स्वाम्यनुकल्पेन सेवां कुर्वन्ति सेवकाः ।। २५।।

भक्त्यार्पयन्ति ये मह्यं तवापि पिशितादिकम् ।

उत्पादयन्ति चानन्दं गणेभ्यो वा सुरप्रिये ।। २६।।

हे स्वामिनि ! प्रिये ! जो कार्य मैं करता हूँ, उन कार्यों को करनेवाले सभी मेरे प्रिय हैं। इस संसार में स्वामी के समान ही सेवक भी सेवा करते हैं । हे देवप्रिये पार्वति ! मुझे या तुम्हें जो भी व्यक्ति भक्तिपूर्वक मांस आदि अर्पित करते हैं उससे हमें या हमारे गणों भूत-प्रेत पिशाच आदि को प्रसन्नता होती है।

तवापि च मदीयानामस्माकं पिशितादिकम् ।

तृप्तिमुत्पादयन्त्येव विधिनाविधिनार्पितम् ।। २७।।

तुम्हें और मुझे दोनों को विधिपूर्वक या विना विधि के भी अर्पित किये गये मांस आदि संतुष्टि तो देते ही हैं।

ब्रह्मा सृजति भूतानि विष्णुः तान्परिपालयेत् ।

तान्यहं हन्मि भूतानि कृतिरस्माकमीदृशी ।। २८।।

ब्रह्म प्राणियों की सृष्टि करते हैं, विष्णु उनका पालन करते हैं और मैं उनका संहार करता हूँ। हमलोगों के तो ये ही कार्य हैं।

रजोगुणालयो ब्रह्मा विष्णुः सत्त्वगुणालयः ।

तमोगुणालयोsहं स्यां स्वस्वकार्याणि कुर्महे ।।२९।।

ब्रह्मा में रजोगुण का निवास है, विष्णु सत्त्वगुण के आलय हैं और तमोगुण का आलय मैं हूँ। हमसब अपने अपने कार्य करते हैं ।

तत्तद्गुणानुगुण्येन क्रियतेस्माभिरीदृशम् ।

उन उन गुणों के अनुरूप हमसब इस प्रकार कार्य करते हैं।

भवाब्धेस्तरणं देवि हिंसकानान्तु दुर्लभम् ।।३०।।

कामादिग्रस्तचित्तानां कुतो मुक्तिर्वद प्रिये ।। ३१।।

हे प्रिये! लेकिन इस संसार रूपी सागर को पार करना हिंसकों के लिए दुर्लभ है। काम आदि से ग्रस्त लोगों के लिए मुक्ति कैसे होगी यह कहो ।

इत्यगस्त्यसंहितायां शिवपार्वत्युपाख्यानम् नाम प्रथमोध्यायः ।। १ ।।

आगे जारी- अगस्त्य संहिता अध्याय 2

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